Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की २५०० वीं निर्वाण-तिथि के अवसर पर हिन्दी के सुप्रसिद्ध नाटककार डा० रामकुमार वर्मा ने 'जय वधमान' नाटक का प्रणयन कर अपनी श्रद्धांजलि अपित की है। महावीर स्वामी आज देश, काल, जाति और सम्प्रदाय की संकीर्ण सीमाओं में आबद्ध न रहकर विश्व-विभूति बन गये हैं। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, इन्द्रिय-निग्रह, समता, ममता आदि का उपदेश आज जैन समाज की सम्पत्ति न होकर मानव मात्र के कल्याण का पथ प्रशस्त करने वाला प्रकाश-स्तम्भ बन गया है। ___ 'जय वर्धमान नाटक के पांच अंकों में इन्हीं शाश्वत मूल्यों को नाट्य-संवाद द्वारा मुखरित करने का सफल प्रयास है । लेखक ने भगवान महावीर के जिन जीवनप्रसंगों का चयन किया है उनकी आधार-भूमि जैन ग्रन्थ तथा जैन शास्त्र हैं जिनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है । सिद्ध नाटककार होने के नाते डा० वर्मा ने मंचीय तत्त्वों को दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है । हमारा विश्वास है कि यह नाटक भगवान महावीर की विपुल गुण-राणि में से सत्य, शिव और सुन्दर के दो-चार कण पाठक और प्रेक्षक को भेंट करने में अवश्य सफल होगा । अनन्त पागवार को समेटने की स्पहा की अपेक्षा श्रद्धापूर्वक अंजलि में संजोये नैवेद्य के छोटे क्या कम महत्त्वपूर्ण हैं ? विनयावनत वन्दना का एक स्वर समस्त व्योम को गंचित करने की शक्ति रखता है।। __ वीतराग वर्धमान को प्रशस्ति न तो इस नाटक का लक्ष्य है और न लेखक को काम्य ही। भगवान् वर्धमान की जय-जयकार के समय केवल विनीत प्रणाम निवेदित करना ही नाटककार की आस्था का परिचायक है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: 2255 .: 2 - . Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বুলি (नाटक) डा० रामकुमार वर्मा भारतीय मातिय प्रकाशन, मेरठ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकः भारतीय साहित्य प्रकाशन २०४-ए, वैस्ट एण्ड रोड, मरठ-१ © डा० गमकुमार वर्मा प्रथम संस्करण, दीपावली, १९७४ मूल्य : दस रुपये मुद्रक : प्रमात प्रेस, मेरट-२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते न लाभमत्ते न सुएणमते । मयाणि सव्वाणि विवज्जयंती धम्मज्माणरए जे स भिक्खू ॥ (दशवकालिक १०-१६) (जिसे जाति का अभिमान नहीं है, रूप का अभिमान नहीं है, लाभ का अभिमान नहीं है, ज्ञान का अभिमान नहीं है, जिसने सब प्रकार के मद छोड़ दिये हैं, और जो धर्म के ध्यान में निरत है, वही भिक्षु है।) Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी ओर से महावीर वर्धमान की पुण्य तिथि पर मेरा यह नाटक प्रकाशित होने जा रहा है। महावीर वास्तव में इतने कष्ट-सहिष्णु और लोककल्याण के क्रियाशील क्रान्तिकारी थे कि उनसे किसी भी महापुरुष की तुलना नहीं की जा सकती। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे महान् व्रतों से उन्होंने मानव-जीवन को वास्तविक संबोधि प्रदान की । एक ओर तो संसार के चरम आकर्षणों से विरक्ति और दूसरी ओर सत्य और अहिंसा के लिए कठोरतम कष्ट सहन करने की क्षमता अन्य किस साधक में संभव हो सकी है ? मानवतावादी दृष्टिकोण उनके समक्ष इतना प्रखर था कि उसमें वर्गवाद और जातिवाद के लिए कोई स्थान ही नहीं था। विचार-समन्वय से सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ करने का दृष्टिकोण उनके सामने था : मनुष्य जातिरेकव जाति नामोदयोभवा। वृत्ति मेदात् हितत् भेदाः चातुर्विष्यमिहारनुते ॥ (अर्थात् मनुष्य-जाति एक ही है और यह जाति-नाम कर्म के कारण ही उद्भव होता है । वृत्ति-भेद से ही जाति के चार भेद (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) माने जाते हैं ।) उत्तराध्ययन में उल्लेख है : कम्मणा बंमणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। बइसो कम्मणा होइ, मुद्दो हवइ कम्मणा ॥ (अर्थात् कर्मों से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है, कर्मों से ही क्षत्रिय, कर्मों से ही वैश्य और कर्मों मे ही वह शूद्र होता है ।) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ भगवान् महावीर के चरित्र में मानवता के समस्त गुण एकत्र हैं। उनके जीवन की घटनाएं इतनी विविधिता और विषमता लिये हुए हैं कि उन सभी का परिगणन नाटक जैसी सीमित और संक्षिप्त विधा में संभव नहीं है। फिर भी उन घटनाओं को जिनसे भगवान् महावीर की वैचारिक शृंखला संयोजित होती है, इस नाटक में सुसज्जित करने का प्रयास किया गया है । इस भाँति घटनाओं की अपेक्षा मनोविज्ञान की भंगिमाओं को उभारने का अवसर अधिक मिल गया है। भगवान् महावीर का चरित्र तो अपने अखंड व्रत में स्थिर (Static ) है किन्तु उनके व्यक्तित्व से संघर्ष करने के लिए जो विषम और विपरीत घटनाएँ (Dynamic) सामने आती हैं उनसे विरोधी पात्रों और घटनाओं के अन्तर्पट उद्घाटित होते हैं। शृंगार के आक्रमण से वैराग्य कितना स्थिर और अटल है, इसके रूप और प्रतिरूप भी सामने आ गये हैं । इस नाटक के लिखने में मुझ से जितना शोध कार्य संभव हो सकता था, वह मैंने करने का प्रयत्न किया है । यदि मेरे नाटक 'जय वर्धमान' से हमारे देश के राष्ट्रीय और मानवतावादी दृष्टिकोण को प्रश्रय मिलेगा, तो मैं अपना श्रम सार्थक ममभूंगा । साकेत इलाहाबाद - २ दीपावली, १९७४ e रामछुमार कम Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृति-बिन्दु प्रिय भाई भागचन्द जैन, तुम्हें याद होगा जब हम लोग नरसिंहपुर (म०प्र०) के मिशन हाई स्कूल में नाइन्थ क्लास में पढ़ते थे, तब कंदेली में बने हुए दिगम्बर जैन मन्दिर जाया करते थे। तुम वर्धमान महावीर जी के चरणों में फूल चढ़ाते हुए कुछ कहते जाते थे और मैं महावीर स्वामी के सौम्य मुख-मंडल की ओर टकटकी लगा कर देखता रहता था। कुछ समझता तो था नहीं, बस महावीर स्वामी के प्रति अपनी श्रद्धा अवश्य समर्पित करता था। जब कालेज में पहुंचा तो कुछ समझने योग्य हुआ। तव नरसिंहपुर में श्री जमुना प्रसाद जैन सब-जज होकर आये थे । गर्मी की छुट्टियों में मैं नरसिंहपुर जाता और सब-जज साहब के साथ टेनिस खेलता । थक जाने के बाद उन्हीं के साथ दिगम्बर जैन मन्दिर जाता। हम लोग महावीर स्वामी को प्रणाम करते । वहाँ से निकलने के बाद वे मुझे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के तत्त्व समझाते और वर्धमान महावीर को विश्व का महामानव निरूपित करते । सुबह जब तुम पूजा कर लेते थे तब मैं तुम्हारे मामने श्री जमुना प्रमाद जैन जी से सुनी हुई बातें दुहराता था। ___ इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में आया और साथ ही स्वर्गीय राजर्षि पुरुषोत्तम दाम टंडन के सम्पर्क में । उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के परीक्षा-मंत्री का कार्य-भार मुझे सौंपा। उस समय श्री रामचन्द्र शुक्ल के 'हिन्दी साहित्य का इतिहाम' को छोड़ कर हिन्दी में विद्यार्थियों के लिए कोई आलोचनात्मक इतिहास नहीं था। उन्होंने मुझे आदेश दिया कि मैं 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' लिखू । मैंने उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर हिन्दी साहित्य के इतिहास का गहराई से अध्ययन करना आरंभ किया । अध्ययन करते हा मझे कुतूहल और आश्चर्य हुआ कि हिन्दी साहित्य के आदि काल का ७५ प्रतिशत साहित्य जैन आचार्यों, मुनियों और कवियों द्वारा परवर्ती अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी में लिखा गया है । फलतः, मेरी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा जैन धर्म और जैन दर्शन की ओर स्वाभाविक रूप से अग्रसर हुई। मैंने अपने इतिहास में जैन धर्म और जैन दर्शन की विस्तार पूर्वक व्याख्या की। कुछ वर्षों बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संग्रहालय में हस्तलिखित ग्रन्थों के मंग्रह, मंरक्षण, सम्पादन और प्रकाशन का कार्य भी आरम्भ किया गया। सम्मेलन ने देश के विविध अंचलों में बिखरे ग्रन्थ-रत्नों को संग्रह करने और उन्हें शोधार्थी विद्वानों एवं अध्येताओं को सुलभ करने के उद्देश्य से इस महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय कार्य को हाथ में लिया। विविध राज्यों से पांडुलिपियाँ प्राप्त होने लगीं। सब से अधिक पांडुलिपियाँ ग्वालियर (म०प्र०) में प्राप्त हुई । वहाँ के सम्भ्रान्त नागरिक श्री मूरजगज धारीवाल ने परिश्रम पूर्वक विपुल धन व्यय करके जो बृहत् और दुर्लभ पांडुलिपियों का संग्रह किया था, वह हिन्दी साहित्य सम्मेलन को भेंट-स्वरूप प्रदान कर दिया। यह मंग्रह धारीवाल दंपति के नाम से 'मूरज-सुभद्रा कक्ष' में व्यवस्थित किया गया। इस बृहत् ग्रन्थ-संग्रह का विवरण प्रस्तुत करने के लिए शिक्षा-मंत्रालय (भाग्न सरकार) तथा साहित्य सम्मेलन ने मुझे आदेश दिया और एक वर्ष तक निरंतर कार्य करते हुए मैंने 'हस्तलिखित हिन्दी ग्रंथों की विवरणात्मक सूची तैयार की। यह सूची शिक्षा-मंत्रालय की वित्तीय सहायता से 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' की ओर से प्रकाशित की गई। इम विवरणान्मक सूची में हस्तलिखित ग्रन्थों का सम्पूर्ण योग २८०२ है। इनमें जन अध्यात्म के ७७, तंत्र-मंत्र के हैं, जैन तीर्थों के २८, नीति-उपदेश के १६. प्रश्नोत्तरी के १२. पूजा के ५०, आरती के ६, नमस्कार के ४, वंदना के ६, विनती के ६, व्रत माहात्म्य के २४, श्रावकाचार एवं मनोरथ के ७३, सिझाय के ६. नीर्थ-स्तवन के २२, तीर्थंकर-स्तवन के २३८, स्तुति के ४४, निमाणी के ७, और स्तोत्र के १७ ग्रन्थ मिले। इनके अतिरिक्त जैन दर्शन के ७२, जैन साहित्य के १११, गीतों के १२, बारामासा और फाग के ८, तथा स्फुट काव्य के ६८ ग्रन्थ प्राप्त हुए। इस भाँति २८०२ ग्रन्थों में १००६ ग्रन्थ तो जैन अध्यात्म और दर्शन पर ही हैं। इस बृहत् माहित्य का विवरण लिखने में सचमुच ही मैं जैन धर्म के मानवतावादी दृष्टिकोण में अत्यधिक प्रभावित हुआ। १० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अध्यात्म' और 'सिझाय' में बड़ी सुन्दर-सुन्दर उपदेशात्मक कथाएँ हैं । तुम ऊपर के आँकड़ों को पढ़ कर थक गये होगे, इसलिए अध्यात्म के अन्तर्गत कुछ कहानियाँ सुनो। नीचे लिखी कहानी 'नवकार जाप महिमा' के सम्बन्ध में है । सुनो : एक भावक की एक पत्नी थी पर उसने अन्य एक स्त्री को भी पत्नी बना लिया। दूसरी पत्नी पहली से ईर्ष्या करती थी । एक दिन उसने घड़े में सर्प देखा । उसने पहली पत्नी अर्थात् अपनी सौत से कहा कि उस घड़े से सामान निकाल लाओ। दूसरी स्त्री ने देखा कि उस घड़े में सर्प है। उसने 'नवकार मंत्र' का जप किया और घड़े में हाथ डाला। वह सर्प फूल की माला में परिवर्तित हो गया । 'रत्नकुमार सिझाय' में एक कथा है : रत्नकुमार का विवाह एक सुन्दरी से हुआ किन्तु १६ वर्ष की आयु में ही उसने राग्य लेकर जैन धावक धर्म को अपना लिया। उसकी पत्नी अत्यन्त संयम के साथ अपने सास-ससुर के संरक्षण में अपना जीवन व्यतीत करती रही। युवावस्था में ही इस प्रकार विरक्ति और संयम धारण करना वास्तव में सराहनीय है। महावीर वर्धमान का विवाह हुआ था या नहीं, इस पर मतभेद है । दिगम्बर साहित्य में उन्हें बाल ब्रह्मचारी कहा गया है पर श्वेताम्बर साहित्य में उनका विवाह राजपुत्री यशोदा के साथ हुआ। किन्तु महावीर वर्धमान का यथार्थ जीवन गृह-त्याग के बाद ही आरम्भ होता है, अतः विवाह की बात का कोई विशेष महत्त्व 1 नहीं है । यदि श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार उनका विवाह हुआ भी हो और उन्होंने १० वर्ष वाद वैराग्य ले लिया तो उनकी पत्नी यशोदा का जीवन भी विरक्ति और संयम से परिपूर्ण समझा जाना चाहिए । १८ वें तीर्थकर स्वामी नेमिनाथ और रमा स्वरूपा राजमती के विवाह के उल्लेख ने यदि विवाह की संभावनाओं को प्रखर कर दिया तो आश्चर्य ही क्या ! संयम और नियम की बात तो जैन साहित्य में सर्वोपरि है। इस सन्दर्भ में विजय श्रेष्ठ मिझाय में जिणदास श्रावक की कथा उल्लेखनीय है : ११ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्छ देश में विजय नाम का एक सेठ रहता था। वह न पावक पा। उसने प्रतिमा को यो किकृष्ण पक्ष में वह किसी प्रकार का भोग नहीं करेगा। उसका विवाह विजया नाम की सुन्दरी से हुमा। स्वयं विजया ने दूसरा संकल्प लिया था कि वह शुक्ल पक्ष में मोगों से दूर रहेगी। इस प्रकार उनके सम्पत्य जीवन में विचित्र समस्या उत्पन्न हुई। किन्तु दोनों ने अपना व्रत माजीवन निमाया और उन्हें श्रेष्ठ भावक को पदवी प्राप्त हुई। महावीर वर्धमान को स्तुति और महिमा के मुझे अनेक ग्रन्थ प्राप्त हुए । उनके अतवरण मे पृथ्वी पाप के बोझ से हलको हुई और मानव जाति के कप्टों का निवारण हुआ । उनके जीवनगत आदर्शों से मोक्ष का पथ प्रशस्त हुआ। 'महावीर गग माला' में वर्धमान महावीर का जीवन-वृत स्तुति सहित ३६ रागों में वर्णित है। जैन कवि मुनिपान और समय सुन्दर ने वर्धमान महावीर के पारण के मम्बन्ध में एक सुन्दर कथा कही है : चातुर्मासिक समाप्ति पर श्री महावीर स्वामी का पारण कराने के लिए सेठ जोरण प्रातः से संध्या तक प्रतीक्षा करता रहा । स्वामी महावीर किसी दूसरे सेठ पूरण के यहां पारण कर लेते हैं, फिर भी जोरण के चित्त में किसी प्रकार का कलुष उत्पन्न नहीं होता। अन्त में स्वामी महावीर उसे ही सर्वश्रेष्ठ श्रावक घोषित करते हैं। वर्धमान महावीर के सम्बन्ध में मेरे पास इतनी प्रचुर सामग्री है कि उसके आधार पर वर्धमान महावीर के चरित्र और जीवन-वृत्त पर एक बृहत् ग्रन्थ लिखा जा सकता है किन्तु नाटकीय विधा रुचिकर होने से मैने वर्धमान महावीर के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंगों पर एक नाटक ही लिख दिया है । तुमने वाल्यकाल में ही स्वामी महावीर के प्रति मेरे मन में क्षद्धा का बीज वपन कर दिया था, इसलिए इस नाटक को तुम्हें ही समर्पित कर रहा हूँ। आशा है, तुम अपने बाल्यकाल के इस मित्र की यह पवित्र भेंट स्वीकार करोगे। तुम्हारा हीरामकुमार वर्मा १२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने बाल्य-बन्धु श्री भागचन्द जैन को सस्नेह समर्पित कुमार मैया Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमती रमा जैन श्री लक्ष्मीचंद जैन श्री जयकुमार 'जलज' को सप्रेम भेंट Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-सत्र विदेह देश की राजधानी वैशाली में ईसा पूर्व ५६६ में भगवान महावीर का अवतरण हुआ। मध्य देश में वैशाली बड़ी प्रसिद्ध नगरी थी। वह लिच्छवियों के बल-पराक्रम से तो प्रसिद्ध थी ही, उसकी गण-व्यवस्था, राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक नीति सर्वमान्य थी। नगरी का सौन्दर्य अनेक उपवनों, वापिकाओं और उद्यानों से आकर्षक था। वैशाली में गंडक नदी प्रवाहित होती थी। उसके तट पर दो उपनगर बसे हुए थे-क्षत्रिय कुंडग्राम और ब्राह्मण कुंडग्राम । क्षत्रिय कुंडग्राम के अधिपति महाराज सिद्धार्थ थे और उनकी रानी थी-त्रिशला। इन्हीं के यहाँ चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को भगवान् महावीर का जन्म हुआ। महावीर के जन्म के पूर्व महारानी त्रिशला को स्वप्न में १६ दृश्य दिखलायी दिये-गजराज, वषभ, सिंह, स्नान करती लक्ष्मी, फूलों की माला, चन्द्रमा, सूर्य, मीन-युग्म, कलश, सरोवर, सिंधु, सिंहासन, विमान, इन्द्र-भवन, रत्न-राशि और अग्नि । राज-ज्योतिषी ने इन स्वप्नों के आधार पर घोषणा की कि महाराज सिद्धार्थ के यहां ऐसा पुत्र होगा जो अपने प्रताप से संसार का कल्याण करते हुए अमर रहेगा। नौ महीने सात दिन के उपरान्त महारानी विशला ने एक सु-दर्शन पुत्र को जन्म दिया। महाराज सिद्धार्थ ने आनन्द-विभोर होकर बड़ा उत्सव मनाया। सारा नगर भांति-भांति के तोरणों से सजाया गया, दस दिनों तक जनता कर-मुक्त रही, बन्दी छोड़ दिये गये और नृत्य और गान से नगर का प्रत्येक कोना गूंज उठा । जिस समय से पुत्र गर्भ में आया, उसी समय से राज्य में धन-धान्य १७ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान और कोप-भंडार की आशातीत वृद्धि हुई, इसीलिए पिता सिद्धार्थ ने पुत्र का नाम 'वर्धमान' रखा। जैसे-जैसे वर्धमान बड़े होते गये, उनमें रूप, गुण और शक्ति का उदय होता गया। वे अल्प काल में ही शस्त्र और शास्त्र के विविध अंगों में पारंगत हो गये। एक दिन जब वे क्रीड़ा-भूमि में लक्ष्य-बंध का अभ्यास कर रहे थे, एक हाथी गजशाला मे मुक्त हो गया। वह क्रोध से नगर के मार्ग पर निरीह जनता को कुचलता हुआ दौड़ रहा था। तभी कुमार वर्धमान उसके सम्मुख पहुँच गये और क्षिप्र गति से उसकी मुंड पर पर रखकर उसके मस्तक पर बैठ गये। फिर उन्होंने उसके कानों को कुछ इस प्रकार सहलाया कि वह हाथी कुछ ही क्षणों में शान्त होकर ठहर गया और उसने प्रणाम की मुद्रा में अपनी मुंड ऊपर उठा दी। इसी प्रकार जव वर्धमान अपने साथियों के साथ एक वट वृक्ष के नीचे खेल रहे थे, तभी एक भयंकर नाग फुफकारते हुए बालकों की ओर झपटा। वर्धमान निडर होकर आगे बढ़े और उन्होंने साहस से उसकी पंछ पकड़ कर दूर फेंक दिया। वर्धमान के इन्हीं वीरतापूर्ण कार्यों से उन्हें 'महावीर' कहा जाने लगा। किन्तु वे बचपन से ही धीर और गंभीर थे। जब वे बीम वर्ष के हुए तो पिता मिद्धार्थ और माता त्रिशला को उनके विवाह की चिन्ता हुई। उनके पास महावीर वर्धमान के विवाह के लिए अनेक गज्यों की मुन्दर-मुन्दर कन्याओं के चित्र और प्रस्ताव प्रस्तुत होने लगे । जव महावीर वर्धमान के मामने विवाह का प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। परिवार श्री पार्श्वनाथ का अनुयायी तो था ही, उनके संस्कार विवाह के स्थान पर मंन्यास की ओर ही अधिक उन्मुख हो गये थे। __ महावीर वर्धमान का विवाह हुआ या नहीं, इस पर मत-भेद है। दिगम्बर सम्प्रदाय का मत है कि उनका विवाह नहीं हुआ किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है कि उनका विवाह कौडिन्य गोत्रीय राजकुमारी यशोदा में हुआ था। 'कल्प मूत्र' में विवाह का उल्लेख मिलता है। 'हरिवंश पुगण' में भी इसका निदेश है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-सूब यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया वीर विवाह मंगलं। अनेक कन्या परिवारया सहत्समीक्षतुं तुंग मनोरयं तदा। (हरिवंश पुराण, ६६-८) अतः वैराग्य की समस्त भावनाओं के कोड़ में भी मैंने महावीर वर्धमान के विवाह का उल्लेख कर दिया है। महावीर वर्धमान अपने माता-पिता का बहुत सम्मान करते थे। उनकी आज्ञा टालना वे पाप समझते थे, इसलिए जब उन्होंने विवाह करने का आदेश दिया तो उसे महावीर अस्वीकार नहीं कर सके। उन्होंने विवाह किया अन्यथा वे संन्यास लेने के पक्ष में ही थे। श्री रिषभदास राँका लिखते हैं कि 'उनका वास्तविक जीवन तो गृह-त्याग के बाद ही शुरू होता है, इसलिए विवाह करने या न करने की बात का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।' (भगवान महावीर और उनका साधना-मागं, पृष्ठ ७) वे विवाह के उपरान्त भी संन्यास लेना चाहते थे किन्तु माता-पिता को कष्ट देना वे हिंसा का एक रूप मानते थे, इसलिए वे दस वर्षों तक गृहस्थाश्रम में रहे। महावीर की २८ वर्ष की अवस्था में उनके माता-पिता का देहान्त हो गया, इमलिए वे अव संन्यास लेने में स्वतंत्र थे। उन्होंने अपने भाई नन्दिवर्धन के समक्ष संन्याम ले लेने का प्रस्ताव रखा किन्तु उन्होंने अनमति नहीं दी। दो वर्षों तक वे किसी प्रकार रुके रहे। जब उनकी पत्नी यशोदा कुछ समय के लिए अपने पिता के घर चली गई थीं, तभी महावीर के मन में वैगग्य की भावना प्रवल हो उठी और उन्होंने गृह त्याग कर मंन्याम ले लिया । यह दिन मागंगीर्ष कृष्ण १० का था। ___ मंन्यास में महावीर को घोर उपमर्ग महन करने पड़े। किन्तु उनके मन में मंयम और अहिमा के भाव इननी दृढ़ना मे जमे थे कि वे लेशमात्र भी विचलित नहीं हुए । बारह वर्षों तक मन्याम-जीवन में उन्होंने भयंकर कष्ट गहे । किमी ग्राम में पहुंचने पर उनके त्याग और तप को न समझने वाले लोग उन पर प्रहार करते किन्तु वे इमका कोई प्रतिकार न करते । मर्प और विप-जन्तुओं का उपद्रव, भयानक शीत, और प्रवल ऊप्मा उन्हें कठोर साधना में नहीं डिगा मकी। वे स्वयं कष्ट सहन करते, दूसरों को किसी प्रकार का कंग पहुँचाना उन्हें स्वीकार नहीं था। वे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान मौन रहते, उन्हें भोजन में कोई रुचि नहीं थी, वस्त्रों की कोई चाह नहीं थी। वे स्तुति-निन्दा से परे थे । संन्यासी होकर वे दूर-दूर तक भ्रमण करते रहे। उन्होंने राजगृह, चम्पा, वैशाली, मिथिला, वाराणसी, कौशाम्बी, अयोध्या, श्रावस्ती आदि अनेक स्थानों की यात्राएं की । और इन यात्राओं में उन्होंने क्या-क्या कष्ट नहीं सहन किये ! अस्थिक ग्राम के एक चैत्य में शूलपाणि नामक एक यक्ष रहता था। उस चैत्य में वह किसी को नहीं ठहरने देता था। एक बार एक मुनि वहाँ ठहरने के लिए पहुंचे । शूलपाणि ने उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । घूमते-घूमते भगवान् महावीर भी उसी चैत्य में पहुंचे । ग्रामवासियों ने उन्हें वहाँ ठहरने से रोका किन्तु भगवान महावीर तो भय और आशंका से परे थे । वे वहीं पद्मासन लगाकर ध्यान करते रहे । शूलपाणि आया, उसने उन्हें डराया, धमकाया पर उसका महावीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । अन्त में उसने चंड कौशिक नाग से उन्हें कटवाना चाहा किन्तु नाग भी निश्चेष्ट हो गया । कहीं-कहीं चंड कौशिक का स्वतंत्र उल्लेख हुआ है जहाँ उसने श्वेतांगी के मार्ग के अरण्य में रहते हुए भगवान् महावीर को काटने का प्रयत्न किया। महावीर ने उससे कहा : 'चंड कौशिक ! सोच तो, तू क्या करने जा रहा है ?' भगवान् की अमृत वाणी से वह शान्त हो गया। मैंने शूलपाणि के साथ ही चंड कौशिक का उल्लेख किया है। यह नाटकीय शिल्प के लिए आवश्यक पा। जब शूलपाणि महावीर का सिर काटने के लिए शूल लेने को चैत्य में जाने लगा तो उसी के नाग चंड कौशिक ने उसे डस लिया। जब वह अपनी प्राण-रक्षा के लिए चिल्लाया तो महावीर वर्धमान ने एक जड़ी से उसके विष को दूर किया। ___भगवान् महावीर को साधना-पथ से हटाने के लिए इन्द्र द्वारा अप्सराओं को भेजने का उल्लेख हुआ है । स्वाभाविकता लाने के लिए मैंने वर्धमान के भाई नन्दिवर्धन द्वारा उनको प्रेरित करने का नाट्य-प्रयोग किया है। बारह वर्ष की घोर साधना के उपरान्त भिय ग्राम के बाहर ऋजु बालुका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नीचे गोदोहन आसन में महावीर को वैशाख शुक्ल १० के दिन संबोधि प्राप्त हुआ। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-सूत्र संबोधि प्राप्त होने के पश्चात् तीस वर्ष तक उन्होंने अपने ज्ञान का प्रचार और प्रसार किया । भगवान् पार्श्वनाथ ने अपने चातुर्याम धर्म में अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार व्रतों का आख्यान किया था। महावीर वर्धमान ने इन चार आख्यानों में ब्रह्मचर्य जोड़ कर पाँच व्रतों का आख्यान किया और कामदेव के पाँच बाणों को कुंठित कर दिया । २१ Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष ( प्रवेश :) विजय सुमित्र } महावीर वर्धमान : वैशाली नरेश महाराज सिद्धार्थ के कुमार महाराज सिद्धार्थ : वैशाली नरेश गिरिसेन : वैशाली के बलाध्यक्ष दंडाधिकारी वैशाली का नगर रक्षक नन्दिवर्धन महावीर वर्धमान के बड़े भाई इन्द्रगोप चुल्लक } शूलपाणि नारी ( प्रवेशानुसार ) सुप्रिया रंभा तिलोत्तमा पात्र - परिचय : : महावीर वर्धमान के सखा : अस्थिक ग्राम के निवासी यक्ष श्री नागरिक विशला : वैशाली की राजमहिषी सुनीता : त्रिशला की अंतरंग सेविका यशोदा : महावीर वर्धमान की पत्नी विशाखा : एक दरिद्र विधवा स्त्री : रूप-गविना सुन्दरियाँ परिचारिका Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाटक के स्थल पहला मह : गंडक नदी के तट पर क्षत्रिय कुंडग्राम दूसरा अङ्ग : महाराज सिद्धार्थ के सभा-कक्ष का बाहरी भाग तीसरा अङ्क : महारानी त्रिशला का शृंगार-कक्ष चौथा अङ्क : राजमहल के बाहरी भाग में कुमार वर्धमान का क्रीड़ा-कक्ष काका पांचवां अङ्क : मोराक ग्राम..... अस्थिक ग्राम Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अंक (परदा उठने के पूर्व नेपथ्य से चर्या-पाठ) अप्पा चेव वमेयव्यो अप्पा हु खलु दुइमो। अप्पा दन्तो सुही होइ अस्सि लोए परत्थ व॥ (उत्तराध्ययन १-१५) [अर्थात् पहले अपना ही दमन करना चाहिए, यही सबसे कठिन कार्य है। ऐसा व्यक्ति जो स्वयं का दमन करता है, वह लोक और परलोक में सुखी होता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अंक में पान (प्रवेशानुसार) १-विजय २-सृमित्र -महावीर वर्धमान ४-दो नागरिक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स्थान :वैशाली नगरी में गंडक नदी के तट पर भत्रिय कुंडग्राम। उसके समीप एक उपवन । नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं की शोभा। वसन्त के फूल और फल। समय : प्रातःकाल का प्रथम प्रहर । पक्षियों का कूजन । स्थिति : परदा उठने पर नेपथ्य की दाहिनी ओर से एक बाण आता है। साथ ही नेपथ्य में 'साधु' शब्द गूंजता है । फिर बायीं ओर से बाण आता है और फिर 'साधु' शब्द गूंजता है। कुछ ही क्षणों बाद दोनों दिशाओं से दो क्षत्रिय कुमार आते हैं। एक का नाम विजय है, दूसरे का सुमित्र । दोनों के हाथों में धनुष-बाण हैं । केश खुले हुए, अंगों पर पीत वस्त्र, परों में उपानह । वे दोनों आखेटक-वेश में हैं।] विजय : भाई मुमित्र ! तुमने मेरे बाणों की गति देखी ? लक्ष्य-बंध करने में कितना आनन्द आता है ! ऐमा लगता है जैसे मेरा प्रत्येक बाण मूर्य की किरण है जिसके छूटने ही क्षितिज के वादलों का रूप बिगड़ जाता है और पक्षियों का कलरव जय-गान करने लगता है। ममित्र : और मर वाण की गति तो जैसे विद्युत की गति को भी लज्जित करती है। मैं जब लक्ष्य-वेध करता है तो अनुभव करता हूँ कि शत्रुओं के Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान राज्यों की जो सीमाएँ सीधी थीं वे टेढ़ी होकर संकुचित हो गई हैं और मेरे बाण शत्रुओं के हृदय में आतंक की आंधी उठा रहे हैं । विजय : यह तो ठीक है किन्तु अब कुमार वर्धमान ने लक्ष्य - बेध पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। सुमित्र : क्षत्रिय कुमार होकर लक्ष्य - बेध पर प्रतिबन्ध ? विजय : हाँ, क्षत्रिय कुमार होकर लक्ष्य-बेध पर प्रतिबन्ध । वे कहते हैं कि लक्ष्य - बेध में कुशलता अवश्य प्राप्त करो किन्तु इस लक्ष्य - बेध से किसी प्रकार की हिंसा न हो । मुमिन : यदि लक्ष्य - बेध में हिंसा-अहिंसा का ध्यान रखा जाय तो लक्ष्य - बेध का कौशल ही क्या रहा ! यह तो वैसा ही हुआ कि शत्रु को ललकारो किन्तु कण्ठ से ध्वनि न निकले । विजय : यदि इस कुंडग्राम के गणराज्य में रहना है तो ऐसा ही करना पड़ेगा । अब यही देखो, उस पेड़ में कितने मधुर फल लगे हुए हैं। इच्छा होती है कि अपने बाण से लक्ष्य लेकर सारे मीठे फल गिरा लें, सुगन्धित फूलों को झकझोर कर भूमि पर गिरा लें और माला बना कर अपनी प्रियतमा के कंठ में डाल दें किन्तु - किन्तु कुमार वर्धमान ऐसा नहीं चाहते । मुमित्र : क्यों ? क्यों नहीं चाहते ? फूलों और फलों के गिराने में क्या हानि है ? विजय : वे तो इसे हानि ही मानते हैं। कहते हैं कि वृक्षों में चेतना है, जीवन है । वे फूलते हैं, फलते हैं । उन पर प्रहार करोगे तो हिंसा होगी। यदि लक्ष्य - बेध करना है तो जड़ पदार्थों पर करो जिनमें चेतना नहीं है । सुमित्र : जड़ पदार्थों में तो पत्थर है जिसमें चेतना नहीं है । वे वर्षों से एक ही दशा में पड़े रहते हैं किन्तु पत्थरों पर बाण चलाओगे तो उनकी २८ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अंक धार कुंठित नहीं होगी ? फिर लक्ष्य - बेध का क्या कौशल रहा ? सोचो समझो ! उड़ते हुए पक्षी को बाण से न गिराओ, किसी हिंस्र पशु का भी लक्ष्य न लो । फिर तो धनुष-बाण हमारे शस्त्र नहीं रहे, हाथ के आभूषण हो गये । • विजय : एक बार तो वे बड़े कौतुक की बात कह रहे थे । सुमित्र : कैसे कौतुक की बात ? विजय : कहते थे कि तुम्हारे सामने पाँच-पाँच लक्ष्य हैं, तुम इनमें से एक का भी बेध नहीं कर सकते ? उनका लक्ष्य लो । सुमित्र : अच्छा, पाँच-पाँच लक्ष्य हैं ? सुनूं तो, वे पाँच लक्ष्य कौन-से हैं ? विजय : वे पाँच लक्ष्य सुनोगे ? वे हैं - अहिंसा एक, सत्य दो, अस्तेय तीन, अपरिग्रह चार और ब्रह्मचर्य पाँच । सुमित्र : ( अट्टहास कर) ये पाँच लक्ष्य हैं ? किन्तु इनका लक्ष्य लिया कैसे जाता है ? ये स्थूल रूप से तो कहीं दिखलायी नहीं देते। फिर उनका लक्ष्य कैसे लिया जाय ? विजय : भाई, तुम समझे नहीं । स्थूल वस्तुओं का लक्ष्य - बेध तो कोई भी कर सकता है। इस सूक्ष्म लक्ष्य-बंध के लिए दूसरे बाणों की आवश्यकता है । सुमित्र : अच्छा सुनूं, वे दूसरे बाण कौन-से हैं ? विजय : वे हैं - संयम, त्याग, क्षमा, प्रायश्चित्त और तप । सुमित्र : ये बाण कहाँ मिलेंगे ? और ऐसा लक्ष्य-बेध किस धनुर्वेद में है ? बन्धु ! यह धनुर्वेद नहीं है, ज्ञान का रूपक है। और यह किसी क्षत्रिय का गौरव नहीं है, किसी ब्राह्मण का भले ही हो । विजय : यहाँ क्षत्रिय और ब्राह्मण की बात नहीं है, मित्र ! बात है पुरुषार्थ की । २९ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान मुमित्र : तो पुरुषार्थ असंभव वातों में नहीं होता, विजय ! यदि कुमार वर्धमान कहें कि इन्द्रधनुष के रंगों का लक्ष्य वेध करो तो तुम इन पाँच बाणों से उन रंगों का लक्ष्य-वेध कर सकोगे ? विजय : मुझ से तो संभव नहीं है और यदि संभव हुआ भी तो पाँच रंगों के लक्ष्य-बंध के बाद दो रंग तो शेष वच ही जायेंगे । मुमित्र : ( हंस कर ) उनका लक्ष्य-बेध कुमार वर्धमान कर लेंगे। (नेपथ्य की ओर देख कर ) अरे, कुमार वर्धमान इसी ओर आ रहे हैं । विजय : अच्छा ? आ रहे हैं ? अब उनमे लक्ष्य - वेध का रहस्य पूछो । (सुमित्र और विजय व्यवस्थित होकर सावधान हो जाते हैं। कुमार वर्धमान का प्रवेश । वे अत्यन्त सुन्दर हैं। आकर्षक वेश-भूषा | मुक्त केश, गंरिक उत्तरीय । अधोवस्त्र जैसे ब्रह्मचर्य की भाँति कसा हुआ । रत्न-जटित उपानह । हाथों में धनुष-बाण । ) 1 विजय सुमित्र } : कुमार की जय ! वर्धमान : जय पार्श्वनाथ ! ( क्रम से देख कर ) विजय ! गुमित्र ! तुम दोनों ने लक्ष्य - बेध का अभ्यास किया ? कहां-कहां लक्ष्य वेध किया ? (दोनों नीचे देखते हुए मौन रहते हैं ।) वर्धमान : तुम दोनों मौन हो । मीन से भी लक्ष्य-बंध होता है । ( टहलते हुए ) जो अपशब्द कहता है यदि उसके समक्ष तुम मान रहे तो तुम्हारे शान्त हृदय का तीर अपशब्दों का चिह्न भी नहीं रहने देगा । सुमित्र : जिम तीर का नाम आप ले रहे हैं, वह क्षत्रियों के धनुर्वेद में नहीं है, कुमार ! वर्धमान : क्षत्रियों के धनुर्वेद में ? सुमित्र ! वह क्षत्रियों के धनुर्वेद में ही है । 'क्षत्रिय' का अर्थ जानते हो. क्या है ? जो क्षन में हिंसा से बचा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अंक सके । और जो हिंसा से-क्षत से बचा सके, रक्षा कर सके, वही क्षत्रिय सुमित्र : तो आपने हिंसा के भय से इन स्थूल बाणों से लक्ष्य-बेध तो किया न होगा। वर्धमान : अवश्य किया है । मैं स्थूल वाणों में भी विश्वाम रखता हूँ और उनसे लक्ष्य-बेध करता हूँ। मिट्टी के शिखर बना कर उन्हें बाणों से बेधता हूँ। सूखे पेड़ों पर चिह्न बनाकर उन्हें धराशायी करता हूँ। यहाँ के पेड़ तो हरे-भरे हैं। कितने सजीव हैं ! बढ़ते हैं, फलते हैं, सुगन्धि देते हैं, फल देते हैं। कितनी सुरम्य चेतना है उनमें ! इन्हें वाणों का लक्ष्य बनाना हिंसा है—घोर हिमा है। इमीलिए मैं गुख्खे पेड़ों की खोज में दूर चला गया था। विजय : आप संसार की प्रत्येक वस्तु को बहुत गहरी दृष्टि में देखते हैं, कुमार! (सहसा नेपथ्य में भारी तुमुल होता है। घबराहट के स्वरों में कण्ठों से गहरी चोख सुनायो देती है : भागो ! भागो ! रक्षा करो! गजशाला से हाथी छूट गया है ! हाय ! वह वृद्ध कुचल गया! बचो! बचो ! भागो! भागो! मार्ग से हटो! हाय ! रक्षा करो! रक्षा करो !) वर्धमान : (चौंक कर) क्षिा की वह पुकार ? .....यहीं पाम से आ रही है : में अभी देखता हूँ । (चलने को उग्रत) विजय : (विह्वलता से ) आप न जायं. कुमार ! हम लोग जाने है । ज्ञान होता Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान है कि गजशाला से हाथी छूट गया है । वह लोगों को कुचलता हुआ आ रहा है । कहीं आप पर भी आक्रमण न कर दे! वर्धमान : मुझ पर आक्रमण कर दे तो अच्छा है ! अन्य व्यक्ति बच जायेंगे । सुमिन : नहीं, ऐसा नहीं होगा, कुमार! हमारे हाथों में धनुष-बाण हैं । आज हमारे हाथों उस हाथी के कुंभ का ही लक्ष्य-बेध होगा। विजय : इसके पहले कि वह हाथी लोगों को अपने पैरों से कुचले मैं अपने बाणों से उसके पैरों की हड्डियां ही टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। सुमित्र : विजय ! मैं दाहिनी ओर हूँ, तुम बायीं ओर हो जाओ। हाथी के सामने आते ही हम दोनों एक साथ ही उस पर प्रहार करेंगे। (दोनों ही मंच के दाहिने-बायें होकर धनुष पर बाण साधते हैं।) वर्धमान : (हाथ से वजित कर) नहीं, किसी जीव पर धनुष संधान करना ठीक नहीं होगा। सुमित्र : किन्तु वह जीव पागल है, मतवाला है । उससे अन्य जीवों की हानि विजय : और जब एक जीव से अनेक जीवों की हानि हो रही हो तो उस एक जीव को मारने में कोई हानि नहीं है, कोई हिंसा नहीं है, कुमार ! वर्धमान : जीव अन्ततः जीव ही है। तुम लोग रुको। मैं स्वयं अभी जाकर उस हाथी को देखता हूँ। सुमित्र : हम लोग भी आपके साथ चलें ? आपका कोई अनिष्ट न हो! वर्धमान : नहीं, तुम लोग यहीं रहो। तुम लोग क्रोध में आकर कुछ अनिष्ट कर बैठोगे। मैं अकेला जाऊंगा। विजय : कुमार! आप रुकें । आप अकेले न जाय । वर्धमान : नहीं, मैं अकेला ही जाऊँगा। ३२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अंक विजय : हाथी पागल हो गया है । वह आप पर भी आक्रमण कर देगा। वर्धमान : आक्रमण करे तो कर दे। मैं अकेला ही जाऊँगा। तुम लोग यहीं रुको। मेरा आदेश मान्य हो। (कुमार वर्धमान का शीघ्रता से प्रस्थान) विजय : (कुमार के जाने की दिशा में देखते हुए) कुमार अकेले ही चले गये। हम लोगों को आदेश दे दिया कि हम लोग यहीं रुकें । डर है, कहीं कोई अनिष्ट न हो। मुमित्र : कुमार का यह साम अनुचित है। पागल हाथी सामान्य व्यक्ति और राजकुमार में कोई अन्तर नहीं रखेगा । और कुमार उस हाथी को क्या देखेंगे, जब उनके सामने जीवों पर लक्ष्य लेने की बात ही. नहीं है। विजय : कुमार ने व्यर्थ ही हमें रोक दिया, नहीं तो आज बाण चलाने में मेरा कौशल देखते ! मुमित्र : मेरा लक्ष्य-बेध तो अचूक होता। आज तक मेरे बाणों ने लक्ष्य का केन्द्र ही देखा है, उसकी परिधि नहीं । विजय : यह तो मैं जानता हूँ किन्तु आश्चर्य है कि गजशाला में यह हाथी कसे छूट गया । क्या महावत उसे नहीं रोक सका? मुमित्र : महावत असावधान होगा, या प्रयत्न करने पर भी वह उसे नहीं रोक सका होगा । अब कुमार वर्धमान उसे जाकर रोकेंगे। विजय : वे कैसे रोकेंगे? धनुप-बाण का प्रयोग तो वे करेंगे नहीं । मुमित्र : (हंस कर) धनुष-बाण का प्रयोग क्यों करेंगे ? वे तो कोई मूक्ष्म वाण चलाएँग । स्थल बाण में जीव की हत्या होगी और जीव की हत्या मंमार की सबसे बड़ी हिमा है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान विजय : (सोचते हुए) हिंसा हो या न हो, किन्तु उस हाथी ने क्रोध में आकर यदि कुमार पर आक्रमण कर दिया तो बड़ा अनर्थ होगा। सुमित्र : (लापरवाही से)कुछ नहीं । क्या अनर्थ होगा ? महाराज सिद्धार्थ हम दोनों को बन्दीगृह में डाल देंगे। हम लोग कुमार के साथ क्यों नहीं गये । हम दोनों ने उनकी रक्षा क्यों नहीं की। इसी अपराध पर वे हम लोगों को बन्दीगृह में अवश्य डाल देंगे। विजय : क्यों डाल देंगे? हम लोग तो कुमार के साथ जाने के लिए तैयार थे, कुमार ने ही हमें रोक दिया । इसमें हमारा क्या अपराध ? सुमित्र : अपराध यही कि हम लोगों ने कुमार वर्धमान को हाथी का सामना करने के लिए जाने ही क्यों दिया? उन्हें रोका क्यों नहीं। विजय : मैंने तो उन्हें रोका था। वे रुके ? कहने लगे-हाथी यदि मुझ पर आक्रमण करे तो कर दे। सुमित्र : जो भी हो, यह अच्छा नहीं हुआ। कुमार अकेले ही चले गये । वे हम लोगों के साथ जाने पर अनिष्ट की बात कह रहे थे पर हम लोग समझते हैं कि उनके अकेले जाने से ही अनिष्ट हो सकता है। विजय : क्या कहा जाय ! प्रभु पार्श्वनाथ रक्षा करें ! कितना अच्छा होता यदि वे हम लोगों को अपने साथ ले जाते ! यदि वह हाथी कुमार पर आक्रमण करता तो हमें उनकी रक्षा का अवसर मिल जाता। (मुस्करा कर) कुछ पुरस्कार मिल जाता ! सुमित्र : रक्षा तो हम लोग करते ही। फिर हमारे धनुष-बाण का कौशल भी जनता पर स्पष्ट हो जाता। ऐसे ही अवसर पर तो धनुष-बाण की उपयोगिता है। विजय : (ठंडी सांस लेकर) यह अवसर की बात है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अंक (नेपथ्य में उल्लास को ध्वनि--धन्य है ! धन्य है ! धन्य है ! कुमार वर्षमान की जय! कुमार वर्षमान की जय! कुमार वर्धमान को जय !) विजय : यह जय-ध्वनि कैसी ? सुमित्र : कुमार वर्धमान की जय ? वहाँ हाथी निरीह जनता को कुचल रहा होगा, यहां कुमार वर्धमान पहुंचे और उनकी जय बोली जा रही है ! विजय : (विवश होते हुए) कुछ समझ में नहीं आ रहा है । सुमित्र : चलो, हम लोग चलकर देखें कि बात क्या है। विजय : कुछ अच्छी ही बात होगी । चलो, हम लोग भी जय-ध्वनि में सम्मिलित हों। (चलने को उद्यत होते हैं, तमोरो नागरिक शीघ्रता से आते हैं।) एक भत्रिय कुमारों को प्रणाम ! आप लोग कुमार वर्धमान के साथी हैं ? सुमिन्न : हाँ, नागरिक ! किन्तु कुमार वर्धमान कहां हैं ? दूसरा : धन्य हैं, कुमार वर्धमान ! साधु ! साधु ! वे जनता के बीच में हैं। चारों ओर से उन पर पुष्प वर्षा हो रही है। विजय : (कुबहल से) पुष्प-वर्षा ? कैसे ? किसलिए? और वह हाथी ? सुमित्र : वह पागल हाथी जो गज-शाला से छूट कर लोगों को कुचलता हुआ आ रहा था? पहला : उसी पागल हाथी को तो कुमार ने एक क्षण में अपने वश में कर लिया । मुमित्र : वश में कर लिया ? कैसे? क्या उन्होंने धनुष-बाण का प्रयोग किया ? दूमरा : नहीं, श्रीमन् ! वे धनुष-बाण अवश्य लिये हुए थे किन्तु उन्होंने धनुष-बाण तो मुझे दे दिया और हाथी के सामने निर्भयता से पहुंच गये। ३५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान विजय : निर्भयता मे पहुँच गये ? तब हाथी ने क्या किया ? मुमित्र : वह तो दौड़ता हुआ आ रहा होगा? पहला : भयानक आंधी की तरह। जैसे एक गरजता हुआ काला वादल भूमि पर उतर आया है। उसके पैरों की धमक मे पृथ्वी कांप रही थी। वह पेड़ों को इस तरह उखाड़ देता था जमे चुम्बक पन्थर लोहे को अपनी ओर खींच लेता है और आंखें तो इस तरह लाल थीं जैसे दो दहकते हुए अंगारे रखे हों। विजय : मे भयानक हाथी के मामने पहुंचना कितने साह्म का काम था ! दूसग : ओह ! कुमार में कितना साहम था ! और उनकी आँखों में कितना आकर्षण था! पहला : श्रीमन् ! कुमार दोनों हाथ फैला कर उस हाथी के मार्ग में खड़े हो गये । जैसे ही हाथी ने क्रोध से अपनी मुंड आगे बढ़ायी वैसे ही कुमार ने उसे पकड़ कर अपने सामने कर लिया और उस पर पैर रखकर वे विद्युत गति से उसके मस्तक पर बैट गये। उन्होंने न जाने किम नगह हाथी के कानों को सहलाया कि जो गजराज दो क्षण पहले क्रोध से पागल हो रहा था, वह कुमार को अपने मस्तक पर पाकर तुरन्त ही शान्त हो गया। मुमित्र : (आश्चर्य से) शान्त हो गया ? आश्चर्य ! महान् आश्चर्य ! दूमरा : शान्त ही नहीं हो गया, वह अपनी सूंड उठा कर प्रणाम की मुद्रा में खड़ा हो गया। विजय : सचमुच ! कुमार वर्धमान में अपार साहम और शक्ति है । पहला : माहम और शक्ति ही नहीं, श्रीमन् ! लगता है, उनमें कोई दिव्य विभूति जगमगा रही है । उनको सामने देखकर बड़े से बड़ा क्रोधी शान्त हो जाता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अंक दुसरा : मुझे तो ऐसा लगता है कि कुमार वर्धमान को अपने मस्तक पर विटलाने के लिए ही वह हाथी मतवाला हो गया था । कुमार जैसे ही उसके मस्तक पर वैटे कि वह शान्त हो गया। मुमित्र : हम लोग तो बड़े चिन्तित हो रहे थे कि वह मतवाला हाथी कुमार पर भी कहीं आक्रणण न कर दे । विजय : हम लोग भी कुमार की रक्षा के लिए उनके साथ जाना चाहते थे किन्तु उन्होंने हमें रोक दिया और अकेले ही दौड़ पड़े। पहला : उन्हें किसी से रक्षा की आवश्यकता नहीं है। वे अकेले ही सैकड़ों हाथियों का सामना कर सकते हैं। सुमित्र : वह हाथी अब कहाँ है ? दूसग : कुमार ने उसे फिर गज-शाला में भेज दिया। जैसे ही हाथी शान्त हुआ महावत पीछे से दौड़ता हुआ आया। कुमार वर्धमान ने उसे हाथी सौंप दिया और वे हाथी से उतर पड़े। नगर की जनता जय-ध्वनि करते हुए उन पर पुष्प-वर्षा करने लगी। पहला : और हाथी मे उतरते ही उन्होंने गणपाल को आजादी कि जो अभागे व्यक्ति हाथी के पैरों से कुचल गये हैं उनका शीघ्र ही उपचार किया जाय। विजय : वास्तव में कुमार वर्धमान नर-रत्न हैं । दूमरा : उन्होंने पुष्प-वर्षा रोककर जनता से कहा कि वे जाकर घायल व्यक्तियों की देख-भाल करें। पुप्प-वर्षा करने की अपेक्षा क्षत-विक्षत व्यक्तियों की सेवा करना जनता का प्रथम कर्तव्य होना चाहिए। सुमित्र : तो इस समय कुमार कहाँ है ? दुमग : वे सब को विदा कर यहाँ आते ही होंगे। उन्होंने कहा था कि उनके माथी मुमित्र और विजय हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। आप ही उनके माथी ज्ञात होते हैं । 43 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान विजय : हाँ, हम लोगों का यह सौभाग्य है । (संकेत कर) ये मुमिन्न हैं और ___ में विजय हूँ। इस शुभ मूचना के लिए अनेक धन्यवाद । पहला : नो हम लोग चल रहे हैं । हमें घायलों की सेवा करनी है। दूमग : घायलों में एक तो मेरा विरोधी रहा है। किन्तु जब वह हाथी के पैरों के नीचे आ गया तो कुमार वर्धमान ने मुझसे कहा कि मुझे ही उसकी सेवा करनी चाहिए। पहला : तो फिर चलो! दूसग : हाँ, चलो। (विजय और सुमित से) अब हमें आज्ञा दीजिए ! दोनों : जय वर्धमान ! (प्रस्थान) सुमित्र : इन लोगों ने अच्छी सूचना दी पर यह विचित्र बात अवश्य है कि कुमार वर्धमान ने बिना किमी शस्त्र के उस मतवाले हाथी को वश में कर लिया। विजय : विचित्र अवश्य है। सामान्य व्यक्ति तो ऐसी स्थिति में अपना धर्य भी खो बैठता है। उन्होंने एक क्षण में हाथी का पागलपन दूर कर दिया । वे किमी अलौकिक शक्ति से विभूषित वीर पुरुष ज्ञात होते सुमित्र : मचमुच वे वीर हैं । कुमार को इस वीरता की सूचना में महागज मिद्धार्थ बड़े प्रसन्न होंगे। विजय : तो चलो, उन्हें सूचना दी जाय। समित्र : इस समय तक तो उन्हें सूचना मिल गई होगी। फिर भी चलो। हम लोग भी महाराज की प्रसन्नता के भागी बनें। (नेपथ्य की ओर देख कर) अरे, कुमार वर्धमान तो इसी ओर आ रहे हैं। विजय : हम लोगों के पास पुष्प-वर्षा के लिए पुष्प तो हैं नहीं, केवल जयध्वनि ही कर सकते हैं। (कुमार वर्धमान का गंभीर गति से प्रवेश) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अंक मुमित्र : कुमार वर्धमान की जय ! विजय : कुमार वर्धमान की वीरता की जय ! वर्धमान : (गंभीर स्वर में) जय किस बात की ? यह तो सामान्य बात है, विजय ! पहले अपने आपको जीतना आवश्यक है। जो अपने को जीत लेता है, वह संसार की प्रत्येक वस्तु जीत लेता है। मुमिन्त्र : निस्सन्देह आपने यह प्रत्यक्ष कर दिखाया । अभी दो नागरिक आये थे। उन्होंने अभी हमें यह सचना दी कि आपने बिना अस्त्र-शस्त्र के उस पागल हाथी को अपने वश में कर लिया। उन्होंने कहा कि आपने उन्हें अपना धनुष-बाण देकर निश्शस्त्र होकर हाथी का सामना किया। आपको किसी प्रकार का भय नहीं हुआ ? वर्धमान : जिसे आत्म-विश्वाम होता है, उसे किमी प्रकार का भय नहीं होता, सुमित्र ! जिसे भय होता है, वह अपनी शक्ति मे अपरिचित रहता विजय : तो आपने बिना आक्रमण किये ही हाथी को वश में कर लिया ? वर्धमान : विजय ! मनुष्य यदि हिमा-रहित है तो वह किसी को भी अपने वश में कर मकता है। वात यह है कि संमार में प्रत्येक को अपना जीवन प्रिय है। इमलिए जीवन को सुखी करने के लिए मभी कष्ट से दूर रहना चाहते हैं। जो व्यक्ति अपने कप्ट को समझना है, वह दूसरे के कष्ट का भी अन मव कर मकता है। और जो दूसरों के कष्ट का अनुभव करना है. वही अपने कष्ट को ममझ मकना है। इसलिए उमे ही जीवित रहने का अधिकार है जो दुमगं को कष्ट न पहुंचाये, दूसरों की हिमा न करे । जो दूसरों के कष्ट हरने की योग्यता रखता है, वही वास्तव में वीर है। विजय : आप दुमरों के कप्ट ममझते हैं। इसलिए आप मच्चे वीर है, कुमार ! ३६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्षमान मुमिव : तो आज मे कुमार वर्धमान का नाम 'वीर वर्धमान' होना चाहिए। विजय : मैं तुमसे पूर्ण सहमत हूँ, मुमिन ! हमारे कुमार वीर वर्धमान हैं। मुमित्र : नो अब हम लोग चलें । महाराज मिद्धार्थ वीर वर्धमान की प्रतीक्षा कर रहे होंग । नागरिकों ने उन्हें सूचना दे दी होगी कि किस तरह उन्होंने एक मतवाले हाथी को बिना किसी शस्त्र के अपने वश में कर लिया। वे वास्तव में वीर हैं। विजय : अवश्य । चलिए कुमार वीर वर्धमान ! (सब चलने को उचत होते हैं किन्तु विजय एक वृक्ष की ओर देखकर रुक जाता है।) विजय : (चौंक कर) अरे, यह देखो ! सुमित्र : क्यों ? क्या है ? विजय : अरे, उम पेड़ की जड़ की ओर देखो ! सुमित्र : ओह ! भयानक सर्प ! कितना बड़ा सर्प है ! हटो-हटो-पीछे हटो, विजय ! वर्धमान : (विजय से) पीछे क्यों हट रहे हो ! देखो, वह सर्प कहाँ जाता है । विजय : (पर कर) जायगा कहाँ ? वह हम लोगों को डमने के लिए आ रहा है। समित्र : ओह ! उमने कितना भयानक फन फैला रखा है ! कुमार वर्धमान क्षमा करें, इच्छा होती है कि इसके फन को अपने एक ही बाण से बेध हूँ। विजय : और यदि लक्ष्य चूक गया तो वह इस तरह झपट पड़ेगा कि भागने का मार्ग भी नहीं मिलेगा। सुमित्र : तुम जानते हो, विजय ! मेरे बाणों का लक्ष्य अचूक होता है । जो दूमरों के प्राण लेता है. उसे माग्ने में हिमा नहीं होगी । कुमार वर्धमान मुझे क्षमा करें ! मैं लक्ष्य लेता हूँ। (धनुष पर बाण संधान करता है।) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अंक वर्धमान : मुमित्र ! उसे वाण मत मारो। बिना वाण चलाये ही इससे तुम्हारी रक्षा हो जायगी । तुम व्यर्थ ही भय खाते हो। मैं ही उसे मार्ग से हटा देता हूं। (वर्धमान आगे बढ़ कर सर्प को पूंछ पकड़ कर उसे नेपथ्य में दूर फेंक देते हैं।) मुमिन्त्र : (आगे बढ़कर) अरे. अरे. कुमार ! वह काट लेगा । इसने आपको काटा तो नहीं ? विजय : हाय ! कहीं काट न लिया हो । देखें । (पास जाता है।) वर्धमान : नहीं । वह मुझे क्यों काटेगा ? मेरे मन में मर्प के लिए कोई बुरा भाव नहीं है । न क्रोध है, न भय है। मुमित्र : वास्तव में कुमार ! आपके हृदय में अदम्य साहम है । विजय : यह तो महावीरता है। ममित्र ! पहले तुमने कुमार के लिए वीर वर्धमान नाम कहा। अब मैं इन्हें 'महावीर वर्धमान' कहता हूँ, महावीर वर्धमान । सुमित्र : मचमुच-महावीर वर्धमान । विजय : नो हमें महावीर वर्धमान की जय बोलनी चाहिए। दोनों : महावीर वधं नान की जय ! जय ! जय ! (दोनों महावीर वर्धमान को प्रणाम करते हैं। महावीर वर्धमान शान्त मुद्रा में खड़े रहते हैं।) [परदा गिरता है।] Page #46 --------------------------------------------------------------------------  Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अंक (परदा उठने के पूर्व नेपथ्य से चर्या - पाठ ) उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायामज्जव भावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ (दशर्वकालिक = ३६ ) [ अर्थात् शमन से क्रोध को जीते, मृदुता से अभिमान को जीते, सरलता से माया को जीते, और संतोष से लोभ को जीते । ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अंक में पान (प्रवेशानुसार) Hip १–सम्राट् सिद्धार्थ २-गिग्मिन ३-विजय 6-मुमित्र ५–त्रिशला ६-महावीर वर्धमान Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स्थान : सम्राट् सिद्धार्थ के सभा-कक्ष का बाहरी माग समय : दिन का तीसरा प्रहर स्थिति : समा-कक्ष में सम्पूर्ण सजावट है। द्वारों और प्ररोखों पर कौशेय पट । सामने की दीवाल पर स्वामी पार्श्वनाथ का बड़ा-सा चित्र । फर्श पर मखमल के बिछावन । बीच में स्वर्ण सिंहासन जिसमें मोतियों की झालरें लगी हुई हैं। उसके दोनों ओर रेशम और जरी से मढ़ी हुई भद्र पोठिकाएं । कोनों में कलापूर्ण प्रतिमाएं । कक्ष अगर और चन्दन के धूम से सुवासित है। सम्राट् सिद्धार्थ क्रोध को मुद्रा में टहल रहे हैं। बय पचास के लगभग है। विस्तीर्ण ललाट, उठी हुई नासिका । कोप से ओंठ फड़क रहे हैं। सिर पर किरीट और अंग पर राजसी वस्त्र । परों में रत्न-जटित उपानह । उनके सामने बलाध्यक्ष गिरिसेन सैनिक वेश में है। वह अपराधी को मुद्रा में सम्राट के सामने खड़ा हुआ है। सम्राट अशान्त होकर क्रोध मरे स्वरों में बोल रहे हैं।] सिद्धार्थ : तो गज-शाला में इन्द्रगज कैसे निकल गया ? गजाध्यक्ष कहां थे? मोटी-मोटी शृंखलाओं में कमा हुआ गज मुक्त होकर राजपथ पर चला गया और द्वार-रक्षक और नगर-रक्षक नगर-निवासियों के कुचले जाने का कौतुक देखते रहे ? बोलो, गिरिसेन ! यह सब कैसे हुआ ? Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान गिरिसेन : मम्राट् ! सावधान तो गजाध्यक्ष भी या किन्तु सिद्धार्थ : (बीच ही में ) सावधान ? सावधान होने का यह अर्थ है कि दुर्घटनाएँ घटित होती रहें और नगर-रक्षक उन पर नियन्त्रण न रख सकें ? बादल चारों ओर में घिरे हों और बिजली टूट कर पृथ्वी को ध्वस्त कर दे ? सावधान रहने का क्या यह अर्थ है ? गिरिमेन : सम्राट् ! अपराध क्षमा हो । गजाध्यक्ष हाथी को स्नान करा रहा था। सिद्धार्थ : इस तरह स्नान करा रहा था कि इन्द्रगज निरीह जनता को रक्त से स्नान करा दे ? गिरिमंन: मम्राट् ! ऐसी संभावना नहीं थी किन्तु उसी समय किसी अज्ञात दिशा में आया हुआ बाण इन्द्रगज को लगा और वह विचलित होकर एक दिशा की ओर भागा। गजाध्यक्ष ने बहुत प्रयत्न किया किन्तु वह उमे वश में करने में असफल रहा। वह गज उत्तर की ओर वेग से दौड़ पड़ा सिद्धार्थ : ओर नगर - रक्षक कहाँ थे ? गिरिसंन : वे कुमार वर्धमान के क्रीड़ा क्षेत्र की सुरक्षा में व्यस्त थे । सिद्धार्थ : और यहाँ इन्द्रगज के वेग से नागरिक क्षत-विक्षत होते रहे ! गिरिसेन : अधिक नहीं, सम्राट् ! गज के मुक्त होने की सूचना पाकर कुछ नगररक्षकों ने इन्द्रगज के जाने की दिशा मोड़ दी जिससे वह नगर के निर्जन प्रान्तर की ओर जाय और इस कारण ( नेपष्य में जय घोष - 'कुमार वर्धमान की जय ! जय ! जय !' सिद्धार्थ : यह कैसा जय घोष ? गिरिसेन : मैं अभी जाकर देखता हूँ। (शीघ्रता से प्रस्थान ) सिद्धार्थ : ( और भी अशान्त होकर टहलते हुए) इन्द्रगज मुक्त होकर नागरिकों ४६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अंक को कुचलता हुआ चला जाय और कुमार वर्धमान की जय का घोष हो ? वर्धमान के जन्म से राज्य की सम्पदाओं की वृद्धि हुई और अब निरीह जनता की मृत्यु की वृद्धि हो ! (गिरिसेन का शीघ्रता से प्रवेश) गिरिसेन : महाराज की जय हो ! धन्य हैं कुमार वर्धमान ! उन्होंने इन्द्रगज को वश में कर लिया। सिद्धार्थ : (कुतूहल से) वश में कर लिया ? कैसे ? किस तरह ? कुमार वर्धमान ने उस शक्तिशाली इन्द्रगज को ? गिरिसेन : अब सम्राट् ! यह तो मैं नहीं कह सकता। मैंने इतना ही सुना कि हमारे कुमार वर्धमान ने इन्द्रगज को वश में कर लिया और उसे गजाध्यक्ष को सौंप कर गज-शाला में भेज दिया। सिद्धार्थ : (प्रसन्न होकर) गज-शाला में भेज दिया ! साधु ! साधु !! (सोचते हुए) किन्तु वे वहां कैसे पहुंचे ? वे तो लक्ष्य-बेध का अभ्यास कर रहे थे । कुमार वर्धमान ! इन्द्रगज को वश में कर लिया !... किस भांति · · · उन्हें कोई चोट तो नहीं आई. . . ? (गिरिसेन से) शीघ्र पूरी सूचना प्राप्त करो। गिरिसेन : जो आज्ञा। (प्रस्थान) सिद्धार्थ : (टहलते हुए सोचते हैं) इन्द्रगज तो भयानक होगा और मुक्त हुआ गज किसी के भी प्राण ले सकता है। उसे कुमार वर्धमान ने .. वर्धमान ने वश में कर लिया ? किम भांति ? कैमे . . . ? (उसी क्षण प्रतिहारी का प्रवेश) प्रतिहारी : सम्राट् की जय ! क्षत्रिय कुमार विजय और मुमिव द्वार पर हैं। सिद्धार्थ : वे भी तो कुमार वर्धमान के साथ लक्ष्य-बंध के लिए अभ्यास करते थे। · ·उनसे पूरी सूचना मिलेगी। (प्रतिहारी से) उन्हें शीघ्र ही भेजो। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान विजय प्रतिहारी : (सिर मुका कर) जो आजा । (प्रस्थान) मिला : (सोचते हुए) कुमार विजय और कुमार सुमित्र तो प्रातःकाल में ही कुमार वर्धमान के साथ क्रीड़ा-वन में चले गये होंगे । वे तो निरन्तर कुमार के माथ रहते हैं । इन्द्रगज को वश में करने में मंभवतः उन्होंने कुमार की महायता की हो । एक व्यक्ति मे मतवाला गज कैसे वश में किया जा सकता है ! फिर कुमार वर्धमान की अभी आय ही क्या है ! (कुमार विजय और कुमार सुमित्र का प्रवेश) : (एक साथ) मम्राट् की जय ! सिद्धार्थ : विजय और मुमित्र ! कुमार कहाँ हैं ? विजय : (उल्लास से) महावीर वर्धमान अभी नहीं आये, मम्राट् ? मिद्धार्थ : कहाँ हैं वे ? अभी तो यहाँ नहीं आये । मुनता हूँ कि उन्होंने इन्द्रगज को-उम मतवाले इन्द्रगज को वश में कर लिया ? मुमित्र : न केवल इन्द्रगज को वग्न् सर्प को भी। सिद्धार्थ : (आश्चर्य से) सर्प को भी? यह सर्प कहाँ था? और सर्प की वात कमी ? बड़ी विचित्र बाने मुना रहे हो । इन्द्रगज को और सर्प को वश में कर लिया ! विजय : हाँ, सम्राट् ! सर्प को भी। मुमित्र : हाँ, सम्राट् ! वे कुमार वर्धमान नहीं, महावीर वर्धमान हैं । विजय : सम्राट् ! जिस समय इन्द्रगज क्रोध से निरीह जनों को कुचलता हुआ आ रहा था महावीर वर्धमान दोनों हाथ फैला कर उसके मामने खड़े हो गये। सिद्धार्थ : (कुतूहल से) सामने - ‘सामने खड़े हो गये ! विजय : हाँ, सम्राट् ! सामने खड़े हो गये । हाथी ने चिंघाड़ते हुए जब अपनी ४८ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अंक सूंड़ उनके सामने बढ़ायी तो कुमार को उसके क्रोध पर हँसी आ गई । उन्होंने विद्युत गति से उस सूंड़ पर पैर रख कर उसके मस्तक पर आसन जमा लिया। फिर पैरों से उसका गला दबा कर उसके कानों को न जाने किस तरह सहलाया कि जो हाथी भूकम्प की तरह धरती को हिला रहा था, वह पहाड़ की तरह अचल हो गया । सुमित्र : और सम्राट् ! उसी अवस्था में उसने अपनी सूंड़ उठा कर महावीर कुमार को झूमते हुए प्रणाम किया । सिद्धार्थ : धन्य है, मेरा कुमार वर्धमान ! (हर्ष से गद्गद् हो जाते हैं। ) विजय : तभी गजाध्यक्ष पीछे से दौड़ता हुआ आया । कुमार ने उसे हाथी सौंप दिया और वे हम लोगों के पास चले आये । मुमित्र : फिर हम लोग जैसे ही आपकी सेवा में आ रहे थे, एक वट-वृक्ष के तने से निकल कर एक भयंकर सर्प हम लोगों की ओर झपटा। हम लोग डर गये किन्तु कुमार निर्भीक होकर खड़े रहे। उन्होंने आगे बढ़ कर उसकी पूँछ पकड़ी और उसे घुमा कर दूर फेंक दिया । कुमार इतने तेजस्वी ज्ञात होते हैं, मम्राट् ! कि उनके सामने भयानक से भयानक जीव भी निर्जीव-सा हो जाता है । सिद्धार्थ : साधु ! यह सब भगवान् पार्श्वनाथ की कृपा है। उन्हीं की कृपा ने उन्हें इतना तेजस्वी बना दिया होगा । किन्तु इस समय कुमार वर्धमान कहाँ हैं ? विजय : हम तो समझते थे कि वे आपकी सेवा में आये होंगे । सिद्धार्थ : नहीं, वे अभी तक तो यहाँ नहीं आये । फिर वे इतने शालीन हैं कि अपने द्वारा किये गये कार्यों की न वे प्रशंसा करते हैं और न सुनना चाहते हैं। मैं तो स्वयं उनके सम्बन्ध में चिन्तित हूँ | ૪૨ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान सुमित: तो वे फिर अपने कक्ष में होंगे। यह सत्य है, सम्राट् ! कि वे वीरतापूर्ण कार्य करके भी निस्पृह और निर्विकार बने रहते हैं । जय घोष सुनकर भी उनके ओंठों पर मुस्कान तक नहीं आई। तो हम लोग उन्हें आपकी सेवा में भेजें ? सिद्धार्थ : हो, मैं उन्हें देखना चाहता हूँ । किन्तु इसके पूर्व इतनी शुभ सूचना देने पर अपना पुरस्कार तो लेते जाओ । ( गले से मोतियों की माला उतारते हैं।) विजय : इसकी आवश्यकता नहीं है, सम्राट् ! ५० सुमिन : हम लोग तो इतने से ही कृतार्थ हैं कि महावीर वर्धमान के साहचर्य का सौभाग्य हम लोगों को प्राप्त है । सिद्धार्थ : फिर भी मेरी प्रसन्नता का उपहार तो तुम्हें लेना ही पड़ेगा । (सम्राट् सिद्धार्थ प्रत्येक को एक-एक माला देते हैं।) दोनों : ( माला लेकर एक साथ) सम्राट् की जय ! वीर वर्धमान की जय ! ( प्रस्थान ) सिद्धार्थ : कितनी शुभ सूचना है ! मेरे कुमार की वीरता की ।...... ...तो कुमार वर्धमान अब महावीर वर्धमान हैं, महावीर वर्धमान ! महारानी यह जानती हैं या नहीं ? भले ही वर्धमान महावीर हैं पर उनके तो कुमार हैं। उन्हें कुमार की वीरता की सूचना दूं । ( पुकार कर ) प्रतिहारी ! ( प्रतिहारी का प्रवेश ) प्रतिहारी : ( सिर झुका कर) सम्राट् की जय ! सिद्धार्थ : प्रतिहारी ! महारानी त्रिशला को यहाँ आने की सूचना दो । प्रतिहारी : जो आज्ञा । (प्रस्थान ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अंक सिद्धार्थ : (स्वगत) धन्य ! धन्य कुमार वर्धमान ! नहीं (जोर देकर) महावीर वर्धमान ! मैं तुम्हारा पिता होकर अपना महान् भाग्य समझता हूँ। (प्रम पावनाप के चित्र के समीप जाकर) प्रभु पार्श्वनाथ ! तुम्हारी इतनी कृपा मुझ पर है कि मैं महावीर वर्धमान का पिता बनूं । कहाँ ऐरावत की भांति शक्तिशाली इन्द्रगज और कहाँ कुमार वर्धमान ! किन्तु कुमार ने इन्द्रगज को वश में कर लिया । और वह भयानक सर्प ! उसे फूल की माला की भांति उठा कर दूर फेंक दिया। (सिर मुकाकर) प्रभु पार्श्वनाथ ! यह सब तुम्हारी कृपा है। (हाय बोड़ते हैं।) (महारानी विराला का मागमन ।) विशला : महाराज की जय ! सिद्धार्थ : (उल्लास से) ओ, त्रिशला ! सुनो, सुनो तुम्हारे वर्धमान ने... तुम्हारे कुमार ने किस साहस के साथ इन्द्रगज को वश में किया ... हाँ, इन्द्रगज को और सर्प को "भयंकर सर्प को इस वेग से ऊपर फेंका कि वह आकाश "हाँ, आकाश में ही रह गया ।'"तुम्हारे वर्धमान तुम्हारे कुमार...." विशला : हाँ, महाराज ! मैंने अभी-अभी यह समाचार सुना। परन्तु कुमार हैं कहाँ ? सोचती थी कहीं आपके पास न हों। मैं आपके पास आने ही वाली थी कि आपका सन्देश मिला। सिद्धार्थ : नहीं, अभी तो यहां नहीं आये। मैं स्वयं उन्हें देखने के लिए उत्सुक विशला : जाने कहाँ होंगे । सारे नागरिक उनके चारों ओर एकत्रित होंगे। मुझे तो भय है उनकी वीरता पर किमी की कुदृष्टि न लग जाय । ५१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान सिद्धार्थ : माँ के हृदय में यह आशंका स्वाभाविक है किन्तु हमारे वैशाली राज्य में किसी की दृष्टि ऐसी नहीं है कि कुमार का कुछ अनिष्ट हो । बात तो इसके विपरीत है कि कुमार की दृष्टि से अपशकुन भी शकुन बन जाते हैं, क्रोधी भी शान्त हो जाते हैं और विष भी अमृत बन जाता है। विशला : महाराज ! यह तो मैंने तभी जान लिया था जब कुमार का जन्म हुआ था। इसके पूर्व मैंने जो गजराज, वृषभ, सिंह, स्नान करती हुई लक्ष्मी आदि के सोलह स्वप्न देखे थे तो आपके ज्योतिषी ने स्वप्न विचार कर स्वयं कहा था कि मेरा पुत्र धर्म-धुरंधर और अपार शक्ति धारण करने वाला होगा। सिद्धार्थ : हाँ, मुझे स्मरण है । ज्योतिषी ने यह भी कहा था कि तुम्हारा कुमार सभी का स्नेह पाकर संसार भर में प्रसिद्ध होगा। उसके उत्पन्न होते ही जो राज्य-वैभव की वृद्धि हुई थी, इसी कारण मैंने उसका नाम 'वर्धमान' रखा था। विमला : तो क्या उसके नाम के अनुरूप उसके परिवार की वृद्धि भी होगी? सिद्धार्थ : अवश्य होगी, इसमें भी क्या सन्देह है ? विशला : मुझे बहुत बड़ा सन्देह है। सिदार्थ : सन्देह का कारण? क्या तुम्हारा संकेत कुमार के विवाह की ओर विशला : हाँ, न जाने कितने दिनों से यह अभिलाषा मैं अपने मन में संजोये हुए है। किन्तु सिद्धार्थ : (प्रश्न-सूचक मा में) किन्तु... ? विशला : कुमार की रुचि इस ओर नहीं है। वे एकान्त में बैठे हुए न जाने क्या-क्या सोचा करते हैं । मैंने जब कभी उनसे इस सम्बन्ध में चर्चा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरा अंक की है, उनकी मुख-मुद्रा गंभीर हो उठी है और वे मेरे पास से उठ कर चले गये हैं। सिद्धार्थ : हाँ, उनके साथियों से भी मुझे ऐसी सूचना मिली है। वे तो किसी स्त्री की ओर देखते भी नहीं। त्रिशला : मेरी ममता न जाने कहाँ-कहाँ पंख लगा कर उड़ती है। मैं अपनी पलकें बन्द करती हूँ तो न जाने कितनी सुकुमारियों के रूप उभरते हैं जो मेरी पुत्र-वधू बनने के लिए उत्सुक दीख पड़ती हैं किन्तु कुमार वर्धमान को वीतरागी दृष्टि के समक्ष सब कपूर की भांति उड़ जाती हैं। सिद्धार्थ : मेरे पास भी न जाने कितने नरेश अपनी पुत्रियों के चित्र भेजते हैं। मैं उन चित्रों को कुमार वर्धमान के समीप पहुंचा देता हूँ किन्तु मुझे किसी प्रकार का उत्तर नहीं मिलता। लगता है जैसे मधुर से मधुर संगीत के स्वर दिशाओं की गहराई में डूब गये हैं और कोई प्रतिध्वनि लौट कर उस संगीत का संकेत भी नहीं देती। त्रिशला : मेरा वात्सल्य भी जैसे इन्द्रधनुष की भांति निराधार है । (गहरी सांस) (गंभीर मुद्रा में कुमार पधमान का प्रवेश) वर्धमान : माता पिता के श्री-चरणों में प्रणाम ! (मस्तक झुकाते हैं।) सिद्धार्थ : (हाप उठाकर) स्वस्ति ! विजयी बनो ! त्रिशला : मेरे कुमार ! आओ मेरे पास ! (आगे बढ़ती हैं।) तुम सदैव सुखी रहो ! अभी-अभी सुना कि तुमने इन्द्रगज जैसे मतवाले हाथी को वश में कर लिया और सर्प को उठा कर दूर उछाल दिया। सिद्धार्थ : आज तुम्हारी वीरता की प्रशंसा सारा कुंडग्राम एक कंठ से कर रहा है। हमारे वंश में तुम जैसा वीर कुमार आज तक नहीं हुआ। ५३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान विशला : अभी तो मेरा कुमार संसार को चकित कर देने वाला कार्य करेगा। वर्धमान : यह आपका अमोघ वात्सल्य है, माँ ! सिद्धार्थ : तुम्हारे साथी तुम्हारी निर्भीकता की प्रशंसा कर रहे थे और कह रहे थे कि तुम कुमार वर्धमान नहीं, महावीर वर्धमान हो । वर्धमान : यह आपका आशीर्वाद है, पिताजी ! विशला : कुमार ! इन सब वीरतापूर्ण कार्यों के करने में तुम्हें कोई चोट तो नहीं लगी? वर्धमान : आपके आशीर्वाद का कवच भी तो मेरे शरीर पर है, माँ ! उससे मैं सभी तरह से सुरक्षित हूँ। सिद्धार्थ : मुझे तुम पर अभिमान है, कुमार ! चलो, तुम्हारी कुशलता और भावी उन्नति के लिए आज हम प्रभु पार्श्वनाथ जी का पूजन करेंगे। वर्धमान : जैसी आपकी आज्ञा। (सिर झुका कर प्रणाम करते हैं । सबका प्रस्थान) [परदा गिरता है। ५४ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक (परदा उठने के पूर्व नेपथ्य से चर्या-पाठ) अप्पणछा परट्ठा वा कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए ॥ (दशवकालिक ६-१२) [अर्थात् स्वयं के लिए अथवा दूसरों के लिए, क्रोध अथवा भय से दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला असत्य वचन, न तो स्वयं बोलना चाहिए और न दूसरों से बुलवाना चाहिए।] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अंक में पान (प्रवेशानुसार) १-त्रिशला २-सुनीता ३.-वर्धमान ४-सिदार्थ ५-परिचारिका Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स्थान : महारानी विशला का शृंगार-कक्ष समय : संध्या काल स्थिति : यह श्रृंगारर-कक्ष राजसी वस्त्रों से सजा हुआ है। कक्ष में अनेक कलाकृतियां, पाट वस्त्रों से सुसज्जित आसंविकाएं। बीच में एक मखमली कालीन और जरी से कढ़ा हुआ तकिया। इस समय महारानी विशला कालीन पर बैठी हुई अनेक छाया चित्रों का अवलोकन कर रही हैं। कुछ चित्र उनके दाएं-बाएं रखे हुए हैं। एक चित्र का गहराई से अवलोकन करते हुए कहती हैं :] त्रिशला : तो ये कौशल कुमारी हैं ! सुन्दर तो बहुत हैं किन्तु लगता है प्रभातकालीन उषा को हिम- राशि ने धूमिल कर दिया है। ( पुकार कर ) सुनीता ! (नेपथ्य से – आई, महारानी ! ) - त्रिशला : अरे, मैं अपने कुमार वर्धमान के लिए एक सुन्दर पत्नी का चयन करने में लगी हूँ और तू न जाने कहाँ है । मुनीता : ( मंच पर आकर ) महारानी की जय ! सेवा में उपस्थित हूँ । त्रिशला : देख, ये कितने बहुत-से चित्र हैं । न जाने कहाँ-कहाँ की राजकुमारियाँ हैं । कोई छोटी हैं, कोई बड़ी है, कोई भोली दीखती है और कोई ५७ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान मान करने की मुद्रा में है। चित्रकार ने तो सभी को गौर वर्ण का बना दिया है । तू मेरी कुछ भी सहायता नहीं करती। सुनीता : (मस्करा कर) महारानी ! पुत्र-वधू तो आपको चाहिए। आपकी रुचि ही प्रधान है। विशला : यह तो ठीक है किन्तु तेरी सम्मति भी तो चाहिए। कभी तुझे भी अपनी पुत्र-वधू का चयन करना होगा। मुनीता : (संकुचित स्वरों में) अभी तो, महारानी ! पुत्र भी नहीं है। विशला : तो हो जायगा, जल्दी क्या है ! पुत्र भी होगा और पुत्र-वधू के आने का भी अवसर मिलेगा। (एक चित्र उठा कर) अच्छा, बतला यह चित्र कसा है ? ये मारकच्छ की सुन्दरी हैं । सुनीता : महारानी ! ये तो कच्छप की तरह अपना सिर पीछे खींचे हुए हैं और आँखें तो ऐसी हैं जैसे किसी तट की ओर देख रही हैं। विशला : इन्हें तट की ओर नहीं, राजमहल की ओर देखना चाहिए। (दूसरा चित्र उठा कर) अच्छा, इसे देख ! ये हैं-मल्ल राजवंग की कन्या । कैसी हैं ? सुनीता : महारानी ! ज्ञात होता है जैसे ये मल्ल-युद्ध करने के लिए अपना दाँव देख रही हैं । इनके आने पर तो अन्तःपुर में मल्ल-क्रीड़ा आरम्भ हो जायगी। विशला : मेरा कुमार तो सदैव संन्यास की बातें करता है। वह मल्ल-युद्ध में क्या रुचि लेगा ! भले ही वह मस्त हाथियों को अपने वश में कर ले । अच्छा, देख ! यह तीसरा चित्र है-अवन्ति कुमारी का। सुनीता : अवन्ति कुमारी का ? अच्छा तो है किन्तु ऐमा न हो कि यह अपने राज्य की तो उन्नति करे और हमारे राज्य की अवनति कराना ५८ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक आरम्भ कर दे । अवन्ति कुमारी है न ? सुन्दर अवश्य है किन्तु ऐसी सुन्दरता भी क्या जो मन के भाव प्रकट न कर सके । विशला : इन तीनों में तो यही अच्छी है । अच्छा, इस चौथे चित्र को देख ! ये कुक्कुट नरेश की राजपुत्री हैं। सुनीता : (देख कर) कुक्कुट नरेश की ? इनको कहीं दाना नहीं मिल रहा है। ये किसी नगर-वधू को अपदस्थ कर सकती हैं। विशला : नगर-वधू ? इस राजकुल में कोई नगर-वधू ? सुनीता! सावधान ! ऐसे शब्द मुख से निकालती है ? अच्छा, इन चम्पा कुमारी जी को देखो ! सुनीता : महारानी ! यह चित्र सब से सुन्दर है। नासिका उठी हुई, नेत्रों में शील, ओंठ जैसे मधु-वर्षण के लिए खुलने ही वाले हैं। त्रिशला : इसे अलग रख लेती हूँ। (वह चित्र अलग रखती है।) अच्छा, ये मंडलेश्वर की पुत्री हैं। इन्हें देखो ! सुनीता : ये भी अच्छी हैं, महारानी ! इनके मुख के चारों ओर जो ज्योति-मण्डल है उससे ज्ञात होता है कि ये शची की पुत्री जयंती हैं। मानवी में देवी। इन्हें भी अलग रख लीजिए, स्वामिनी ! त्रिशला : अच्छी बात है। (उस चित्र को भी अलग रखती हैं।) आहा, इन्हें देख ! (एक चित्र उठाते हुए) ये कलिंग-कन्या हैं, शत्रुजिन् की पुत्री। मुनीता : साधु ! ये तो सभी राजकुमारियों में श्रेष्ठ हैं, महारानी ! आहा ! ऐसा लगता है कि यदि प्रतिपदा का चन्द्र इनके सौन्दर्य की कलाओं को धारण कर ले तो वह पूर्णिमा का चन्द्र बन जायगा। नेत्र इतने सौम्य हैं कि लगता है इनके चारों ओर श्वेत कमल की वर्षा हो Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान रही है। इनकी किंचित् मुस्कान ऐसी लगती है जैसे हँसी मुख के भीतर जाकर लौट रही है । महारानी ! राजकुमारी पूर्ण रूप से हमारे कुमार के अनुरूप हैं। त्रिशला : (उठ कर) में भी ऐसा सोचती हूँ । प्रातःकाल में इस चित्र को बहुत देर तक देखती रही। लगता था जैसे प्रभात का प्रकाश इसी चित्र से निकल रहा है । ज्ञात होता है, कलिंग के तटवर्ती सागर की तरंगों ने इसके केशों को संवारा है। इसके मस्तक की शोभा में चन्द्र भी आधा हो गया है। इसकी नासिका की रेखा क्षितिज-रेखा की भांति सुन्दरता के साथ झुकी हुई है और नेत्र ? नेत्र तो बड़े ही सुन्दर हैं, जैसे सुख और सन्तोष ही तरुण कमल की अधखुली पंखुड़ियां बन गये हैं । यह वास्तव में मेरी पुत्र-वधू बनने के योग्य है । नीचे नाम भी लिखा हुआ है । पढू ? य...शो...दा, यशोदा। कलिंग-पुत्री होकर भी समस्त शूरसेन राज्य की सुषमा समेटे हुए है। (धीरे-धीरे कुमार वर्धमान का प्रवेश) मुनीता : कुमार की जय ! विशला : (चौंक कर देखते हुए) कुमार? आओ, आओ, तुम्हारे ही सम्बन्ध में सोच रही थी। वर्धमान : शूरसेन राज्य की सुषमा कौन समेटे हुए है, मां ? विशला : (मुस्करा कर) तो तुमने सुन लिया? मुषमा समेटने वाली है-मेरे वर्तमान की लता में भविष्य की कलिका, जिसमें रूप हंसता है, रंग हँसता है और सुगन्ध बार-बार मुस्करा जाती है। वर्धमान : तुम तो कविता में बात करती हो, माँ ! स्पष्ट कहो। त्रिशला : तुमने इतनी विद्या पढ़ी है। तुम पशु-पक्षियों की भाषा भी समझ सकते हो। कविता की मेरी भाषा नहीं समझते? देखो, मैं अपने इम Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक शृंगार-कक्ष को इन चित्रों में जो सबसे सुन्दर है, उससे सुसज्जित करना चाहती हूँ। वर्धमान : इस शृंगार-कक्ष में तो पहले से ही एक से एक सुन्दर चित्र सजे हैं। एक चित्र से और क्या शोभा बढ़ जायगी? निशला : (सुनीता से) सुनीता! तू जा। मैं अपने बेटे से अपनी बातें कहना चाहती हूँ। सुनीता : जैसी आज्ञा । महारानी की जय ! कुमार की जय ! (प्रस्थान) वर्धमान : सुनीता को बाहर क्यों भेज दिया ? विशला : मेरे और मेरे बेटे के बीच बातें सुनने की अधिकारिणी कोई सेविका नहीं हो सकती। वर्धमान : तो ऐसी कौन-सी बात है, मां ! विशला : वही जो मैं अभी तुमसे कहने जा रही थी। वर्धमान : तुम तो चित्रों को बात कर रही थी, माँ ! त्रिशला : हाँ, जिस चिन की बात कर रही थी वह चित्र कक्ष में लगे हुए सभी चित्रों से सुन्दर और आकर्षक होगा और सबसे बड़ी बात यह होगी कि वह चित्र सजीव होगा जिसके स्वरों से यह कम मुखरित होगा। वर्धमान : (हंस कर) ओह ! अब समझा, मां ! किन्तु मां, ने सारे चित्र नश्वर है। एक दिन सब नष्ट हो जाने वाले हैं और सजीव चित्र तो निर्जीव चित्रों से भी पहले रूप-रंग में नष्ट हो जाते हैं। विशला : इस शृंगार-कक्ष में वैराग्य की ये बातें शोभा नहीं देतीं। यह तो कुछ ऐसा ही है जैसे किसी शृंगार-मंजूषा में सर्प निवास करने लगे। वर्धमान : इस शरीर को भी संसार के लोग रत्न-मंजूषा ही कहते हैं किन्तु इसमें पांच इन्द्रियों के पांच सर्प निवास करते हैं । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान त्रिशला : तेरा ज्ञान तो अभी से संन्यासियों का उदान बन गया है। उस ज्ञान के आचरण का समय भी आयेगा किन्तु प्रभात प्रभात ही होगा, सूर्योदय में मध्याह्न की कल्पना करना समय का अपमान करना है। वर्धमान : असीम धर्म में समय की स्थितियां नहीं होती, मां ! विशला : देख, बेटे ! मैं तुझ से शास्त्रार्थ नहीं करना चाहती। अपनी ममता और लालसा के छन्दों से अपना कंठ मुखरित करना चाहती हूँ। चाहती हूँ कि इस कक्ष के ये मूक और निरुपाय क्षण किन्हीं नूपुरों का संगीत अपने हृदय में भर कर समस्त संसार को गुंजित कर दें। वर्धमान : मां ! तुम्हारी स्नेह-धारा स्निग्ध और तरल है किन्तु मुझे भय है कि इससे अभिलाषाओं को आग बुझती नहीं है, और भी उग्र हो जाती है। त्रिशला : इन्हीं अभिलाषाओं से संसार गतिशील होता है, मेरे बेटे ! अच्छा, इधर देख, (यशोदा का चित्र उठाते हुए) यह चित्र मुझे सबसे अधिक अच्छा लग रहा है । देख, कितनी सुन्दर आँखें हैं, जैसे कामदेव की अंजुलि में रखे हुए दो पुष्प हैं, नासिका देख जैसे किसी ने मर्यादा की पतली रेखा खींच कर उसे उठा दी है। ओंठ तो ऐसे हैं जैसे माधुर्य के दो किनारे हों जिनके बीच वाणी की भागीरथी बहती है । स्वभाव में, शील में, व्यवहार में शची है, कलिंग कुमारी के रूप में अवतरित हुई है। नाम है यशोदा-यशोदा । तूने पूछा था न? शरसेन राज्य की सुषमा कोन समेटे हुए है ? वह यही कलिंग कुमारी यशोदा है । इसके साथ मैं तेरा विवाह करना चाहती हूँ। (वर्धमान चुप रहते हैं।) विशला : बहुत दिनों की लालसा तेरे सामने रख रही हूँ। (वर्धमान फिर चुप रहते हैं।) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक विशला : चुप क्यों हो, बेटे ? क्या मां का वात्सल्य तुम्हारे मोन से लांछित नहीं होता? वर्धमान : मां ! क्या तुम्हारा वात्सल्य केवल विवाह की वेदी का एक फूल मात्र है ? तुम्हारे वात्सल्य की माला में तो अनेक फूल हैं, फिर इसी फूल को इतना महत्त्व क्यों देती हो? विशला : मेरे वात्सल्य का प्रत्येक फूल समान है किन्तु माला में फूलों की स्थिति भी तो महत्त्व रखती है । विवाह वही फूल है जिसकी स्थिति में माला की शोभा और उसका शृंगार है। वर्धमान : मां ! वात्सल्य के फूलों को बिखरा हुआ ही रहने दो, उसकी माला मत बनाओ। त्रिशला : (प्रश्न-सूचक मुद्रा में) तात्पर्य ? वर्धमान : यदि मैं विवाह न करूं तो संसार को क्या हानि होगी? त्रिशला : संसार की कुछ हानि नहीं होगी, मेरी होगी। और मेरा बेटा मेरी हानि कभी नहीं करेगा। वर्धमान : आपका बेटा आपकी हानि तो कभी कर ही नहीं सकता। किन्तु हानि हो ही कहाँ रही है ? त्रिशला : तू मां नहीं है, इसलिए पत्र-वधु की लालसा समझ ही नहीं सकता। तेरे साथ के जितने क्षत्रिय कुमार थे, सब के विवाह हो गये। सब की माताओं ने अपनी मनचाही पुत्र-वधुएँ प्राप्त कर ली। आज उनके भवन उल्लास और आनन्द से गूंज रहे हैं। एक हमारा भवन है जिसमें शिशिर का सन्नाटा छाया हुआ है । तेरा विवाह तो अभी तक हो जाना चाहिए था। वह तो मुझे मेरे योग्य कोई कुल-वधू नहीं मिल रही थी। इसीलिए तेरा विवाह अभी तक रुका रहा । अब तेरे योग्य एक मुन्दर, सुशील और तेरे यश के अनुरूप कुल-वधू मैंने पा ली है, तो तू कहता है कि मैं विवाह नहीं करूंगा। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान वर्धमान : हाँ, माँ ! मैं विवाह नहीं करना चाहता । त्रिशला : फिर इस राजवंश की मर्यादा कैसे रहेगी ? वर्धमान : अच्छी रहेगी । मेरे बड़े भाई नन्दिवर्धन हैं, बहिन सुदर्शना है, चाचा सुपार्श्व हैं। इनसे राजवंश का विकास होगा। मेरे पिता स्वयं एक चम्पक वृक्ष के समान हरे-भरे हैं और यश-सौरभ से सम्पन्न हैं । त्रिशला : यह सब तो ठीक है किन्तु पाटल-लता के एक या दो पुष्पों से उसकी शोभा नहीं होती । उसके सभी वृन्त पुष्पों से परिपूर्ण रहें, तभी उसकी शोभा होती है । 1 वर्धमान : क्या संसार में शोभा भी स्थायी रहती है, माँ ? यह शोभा उसी प्रकार अवनति को प्राप्त होती है जैसे कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा क्षीण होता जाता है । मैं ऐसी शोभा से प्रभावित नहीं हूँ । विशला : तेरा ज्ञान मेरी ममता से उतनी ही दूर है जितना आकाश पृथ्वी से है । तू माँ के संस्कारों से अपरिचित है, बेटे ! वर्धमान : संस्कार चंचल है, परिवर्तनशील है, माँ ! महासमुद्र की तरंगों की भाँति मृत्यु हमें वश में कर लेती है और संसार देखता रहता है । संस्कारों से अधिक स्मृतिमान धारणा कहीं श्रेष्ठ है । त्रिशला : तो तू विवाह नहीं करेगा ? वर्धमान : नहीं माँ ! विवाह नहीं करना चाहता । सारथी द्वारा दमन किये अश्व की भाँति मेरी प्रवृत्तियाँ मेरे वश में हैं। अभिमान रहित, आश्रवरहित, अविचलित मेरी स्पृहा है । भाँति-भाँति के आकर्षण नक्षत्रों की भाँति जगमगाते हैं किन्तु यह रात्रि का ही विस्तार है । यह सोने के लिए नहीं है । मैं इसमें जागते रहना चाहता हूँ । त्रिशला : (व्यंग्य से) बोर में शयन कर रही हूँ । इन आकर्षण के नक्षत्रों को मैंने अपने स्वप्नों में उतार लिया है और उन स्वप्नों में अपनी रात ૪ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक बिता रही हूँ, क्यों न ? यही तो तू कहता है किन्तु यह नहीं जानता कि इन वाक्यों से मां का अपमान होता है। वर्धमान : अपमान कंसा, मां ! मान और अपमान तो शीत और उष्ण की भांति हैं। ये तो इन्द्रियों के विकार हैं, तृण से भी तुच्छ हैं । योग-क्षेम के लिए हमें कुशलता से जीवन व्यतीत करना चाहिए। त्रिशला : हम लोगों का जीवन कुशलता से व्यतीत नहीं हो रहा है, यह कौन कहेगा? तुझ से अधिक जानने वाला तो कोई है नहीं । राज्य में पूरी शान्ति, प्रजा का संतोष, राजमहल में सुख-सुविधा की सम्पूर्ण सामग्री और इस सब के साथ स्वामी पार्श्वनाथ की पूजा । कुशलता से जीवन व्यतीत करना और किसे कहते हैं ? पर तेरा ज्ञान ही दूसरा है । और वैसा ज्ञान तो मुझ में है नहीं । पर तेरी जननी होने का मौभाग्य मुझे अवश्य प्राप्त है। न जाने कब से मैं तेरे विवाह की आम लगाये हुए हैं। ऐसी न जाने कितनी कन्याएं हैं जो नख से शिख तक सुन्दर हैं,सभी गुणों से सम्पन्न हैं, और तेरी सेवा के लिए लालायित हैं। फिर यह यशोदा तो अपने शील, लज्जा और लावण्य से तो रति को भी लज्जित करती है । इसकी वरमाला स्वीकार कर इसे अवश्य कृतकृत्य होना चाहिए। वर्धमान : मां ! स्वयं रति भी मुझ से विवाह का प्रस्ताव करे तो मैं उसे स्वीकार नहीं करूंगा। ऐसा मेरा निश्चय है। मैं विवश हूँ, मां ! मेरे निश्चय से तुम्हारी आज्ञा टल रही है। तुम्हारी अभिलाषा निर्गन्ध पुष्प की भौति मेरे विचारों की ऊष्मा से मुरमा रही है। क्या इसके लिए तुम मुझे क्षमा नहीं करोगी? क्षमा कर दो न, मां! विमला : ममा ? पुत्र के बड़े से बड़े अपराध पर जननी जमा नहीं करेगी तो और क्या करेगी? और अब मेरी आयु ही कितनी शेष रह गई है ! चाहती थी कि इन आँखों से अपने बेटे के कंठ में वरमाला पड़ते देखती Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान मेरा आँगन मंगल घटों से सजाया जाता। दीप - माला से नगर की वीथियाँ जगमगा उठतीं, सारे कुंडग्राम में बन्दनवार इन्द्रधनुषों की भाँति सुशोभित होते । नगर-नारियाँ अपने झरोखों और वातायनों से मेरे सुन्दर बेटे की वर यात्रा देखतीं पर ( भरे हुए कंठ से ) अब... अब यह कुछ नहीं होगा कुछ नहीं होगा। अच्छा है, बेटे ! ...अब मैं अपनी अधूरी साध लिये हुए ही मर जाऊँगी मर जाऊँगी... ( आँखों में आंसू और हल्की-सी सिसकियाँ । त्रिशला अपना मुख वस्त्रों में छिपा लेती है।) (नेपथ्य में : सम्राट् की जय ! सम्राट् की जय ! सम्राट् की जय ! ) वर्धमान : माँ ! पिता जी आ रहे हैं। तुम रो रही हो ? माँ ! पिता जी इस कक्ष में आ रहे हैं । ( त्रिशला अपना शिरो-वस्त्र सम्हाल लेती है, वर्धमान सजग हो जाते हैं। महाराज सिद्धार्थ प्रवेश करते हैं, वर्धमान प्रणाम करते हैं ।) सिद्धार्थ : महारानी त्रिशला और कुमार वर्धमान यहीं हैं। ( विशला को देख कर) अरे, महारानी ? तुम्हारी आँखों में आँसू ! वर्धमान : पिता जी ! मैंने माँ का अपमान कर दिया । सिद्धार्थ : तुम कभी स्वप्न में भी अपनी मां का अपमान नहीं कर सकते। कोई दूसरी बात होगी । कहो त्रिशला ! क्या बात है ? ६६ वर्धमान : पिता जी ! ये मेरे विवाह की चर्चा कर रही थीं और मैंने इसे स्वीकार नहीं किया । मुझे क्षमा कर दें ! मेरी इन्हीं बातों से माँ का अपमान हो गया। माँ तुम भी मुझे क्षमा कर दो ! Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक सिद्धार्थ : त्रिशला ! शान्त हो जाओ। (विशलाके कन्धे पर हाथ रखते हैं, विराला और जोर से सिसकने लगती है और सिखाप के कन्धे पर सिर रख लेती हैं।) शान्त ! शान्त ! त्रिशला ! तुम जाकर विश्राम करो। वर्धमान से मैं बातें करूंगा। (विशला सिसकते हुए भीतर चली जाती हैं।) मिद्धार्थ : (वर्धमान को देख कर) तो तुमने विवाह का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया । क्या तुम मां की ममता नहीं जानते, वर्धमान ? मां का हृदय एक सरोवर है जिसमें वात्सल्य के कमल खिला करते हैं। यदि उत्तप्त वायु में वे कमल मुरझा जाये तो क्या सरोवर की शोभा नष्ट नहीं हो जायगी ? नुम बहुत ज्ञानी हो, क्या तुम अपने ज्ञान से मां के वात्सल का रूप नहीं देख सकते ? (वर्धमान चुप रहते हैं।) मिद्धार्थ : तुम चुप क्यों हो? गजवंश में विवाह की एक स्वस्थ परम्परा है। वर के लिए अच्छी से अच्छी वधू देखी जाती है । रूप, शील, मर्यादा और वंश की पवित्रता के आधार पर दो वंश वायु की लहरों की भांति मिलते हैं और यश की सुरभि का संचार होता है। पति और पत्नी ऐम मंमार का निर्माण करते हैं जिसके मामने स्वर्ग भी फीका पड़ जाता है और तुम यह जानने हो कि गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों में श्रेष्ठ है। वर्धमान : पिता जी ! क्षमा करें । आपको मारी बात नीमत हैं किन्तु मन की प्रवृत्ति सभी आश्रमों में श्रेष्ठ है। मिद्धार्थ : किन्तु प्रवृत्ति की अधिकारिणी तो बुद्धि है और उसके भी अधिकारी तम हो। इस अधिकार को संगठित करने की आवश्यकता है किन्तु ज्ञात होता है कि तुम्हें यह संगठन स्वीकार नहीं है । कुछ दिनों से मैं ऐम ही लक्षण देख रहा हूँ। तुम्हारी अवस्था मात्र बीस वर्षों की है Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान पर लगता है कि तुम एक सौ बीस वर्षों के हो ! मुझ से भी बड़े ! एं? - मुझ से भी बड़े ! (मुस्कान) वर्धमान : मेरी दृष्टि से तो इन्द्र भी आपसे बड़ा नहीं है। सिद्धार्थ : किन्तु तुम तो हो । मेरे पास तुम्हारे विवाह के लिए न जाने कितने राजवंशों से आग्रह किये जा रहे हैं किन्तु तुम्हारे लक्षणों को देख कर मैं उन्हें अभी तक कोई उत्तर नहीं दे सका। वर्धमान : पिता जी ! यदि आप मेरी प्रार्थना मानें तो उन्हें कोई उत्तर न दें। सिद्धार्थ : क्यों न दूं? तुम राजपुत्र हो, वीर हो, बुद्धिमान हो, सुन्दर हो तुम्हें - इस गज्य का उत्तराधिकारी भी होना है। वर्धमान : पिता जी ! मैं राज्य का उत्तराधिकारी नहीं होना चाहता, मैं मुक्ति का अधिकारी होना चाहता हूँ। सिद्धार्थ : मैं यह सुनकर प्रसन्न हुआ किन्तु मुक्ति के अधिकारी होने के लिए अभी बहुत समय है । जीवन के कर्तव्यों के पालन करने के उपरान्त तो तुम संन्यास ले ही सकते हो। हमारे पूज्य आदिनाथ ने भी यही किया। उन्होंने सुनन्दा और सुमंगला से विवाह किये। वे पुत्र और पुत्रियों से सम्पन्न हुए। उन्होंने अनेक वर्षों तक राज्य किया, फिर कहीं जाकर अन्त में उन्होंने वैराग्य लिया। इसी प्रकार कालान्तर में तुम भी वैराग्य धारण करना किन्तु पहले अपने जीवन के धर्म को तो पूरा करो। वर्धमान : पिता जी ! आपके तर्क के विरोध में मैं कुछ नहीं कहना चाहता किन्तु निवेदन यही है कि अब प्रभु आदिनाथ का समय कहाँ रहा? उन जैसा शरीर, उन जैसी आयु और उन जैसा पौरुष अब कहाँ है ? सिद्धार्थ : क्यों ? तुम्हारा पौरुष भी अद्वितीय है, कुमार! उस दिन तुमने उस मतवाले इन्द्रगज को किस प्रकार अपने अधिकार में ले लिया था। ६८ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक वह मत्त होकर निरीह जनता को कुचलता हुआ जा रहा था, और तुमने उसके सामने बढ़ कर जैसे दृष्टि-मात्र में उसका सारा दर्प और बल एक क्षण में समाप्त कर दिया। यह तुम्हारे पौरुष की विजय नहीं है तो क्या है ? वर्धमान : पिता जी! इसे मैं अपनी विजय नहीं मानता। यदि इन्द्रगज के स्थान पर आस्रव-रहित गज पर विजय हो तो मैं उसे अपनी विजय मानूंगा । शील, अहिंसा, त्याग और जागरूकता उस गज के पैर हों, श्रद्धा उसकी संड हो, उपेक्षा उसके दांत हां, स्मृति उसकी ग्रीवा हो, प्रज्ञा सिर हो और विवेक उसकी पूंछ हो-ऐसे गज पर विजय प्राप्त कर सकू तो मेरी वास्तविक विजय हो! मिद्धार्थ : तथास्तु ! ऐसा ही हो ! किन्तु अनित्य का, अनात्म का भोर अना सक्ति का अभ्यास करने पर ही ऐसा होगा। इसके लिए समय की आवश्यकता है और तब तक मेरी इच्छा है कि तुम राज-परिवार के कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए विवाह करो और प्रजा-पालन करते हुए उसकी रक्षा करो। वर्धमान : पिता जी ! आपके आदेशों के विपरीत जाने का तो मुझे अधिकार नहीं है किन्तु मेरी दृष्टि में प्रजा की रक्षा करने के बदले यदि मानवमाव की रक्षा की जाय तो अधिक उचित होगा। आप देखते हैं कि आज के युग में जातिवाद की विडंबना मानवता को पीस रही है, शूद्रों के साथ पशुवत् व्यवहार होता है और धर्म के नाम पर हिंसा और यज्ञों में पशु-बलि की इतनी अधिकता हो गई है कि रक्त की धाराओं में नदियों का पानी भी लाल हो गया है । निरीह पशुओं को काट कर उनके चर्म एक नदी में इतने डाले गये कि उसका नाम ही चर्मवती हो गया। पशुओं का मांस होम करने से जो धुआं उठ रहा है उससे यह आकाश भी अपवित्र हो रहा है । EN Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान सिद्धार्थ : तुम्हारा कथन सत्य है, कुमार ! वर्धमान : नो पिता जी ! मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं इस राजमहल में ही मीमिन न रहूँ, उसके बाहर जाकर मानव-धर्म का पालन करूँ । हमारे प्रभु पार्श्वनाथ ने जिस अहिंसा का आख्यान किया है आज वह कहाँ है ? वैदिक धर्म तो प्रत्यक्ष हिंसा का धर्म वन गया है। ये अश्वमेध - गोमंध यज्ञ क्या हैं ? हिंसा के - मांस भक्षण के साधन बन गये हैं । वेद-मंत्र यज्ञकर्मियों की क्रीड़ा के कन्दुक बन गये हैं । दूर-दूर तक आकाश में उछालते हैं और झेलते हैं। उन कन्दुकों में अहंकार की वायु भरी गई है। पशु बलि करने वाले कहते हैं—वैदिकी हिंसा हिंसा नहीं है किन्तु उम हिंसा से न जाने कितने निरपराध और निरीह पशुओं के प्राणों की हानि हो रही है । यज्ञ-स्तंभ के नीचे छटपटाते हुए पशुओं का चीत्कार कितना करुण है ! मुझे लगता है कि अपनी प्राण-रक्षा के लिए वे मुझे पुकार रहे हैं । सिद्धार्थ : वास्तव में स्थिति यही है । मुझे भी लगता है कि इन यज्ञों में आमंत्रित देवता भी मांस भक्षी हो गये हैं और रक्त से ही उनकी प्यास बुझती है । जिसे ये यज्ञ कर्मी जगत्-पिता कहते हैं, वह् क्या अपने बच्चों का रक्त पीकर ही सन्तुष्ट होता है ? वर्धमान : पिता जी ! आप तो सत्य को समझते हैं । दूसरी ओर मानव समाज के बड़े अंश को अपने से अलग कर दिया है और उसे शूद्र नाम मे लांछित करते हैं । वह व्यक्ति जिसके अंग हमारे ही अंगों की भांति हैं, जिसे हमारे समान सुख-दुख, प्रेम-घृणा, उत्साह और भय का अनुभव होता है, वह हमसे किस प्रकार भिन्न है ? उसे सामान्य मामाजिक अधिकारों से भी वंचित किया गया है । वह हमारे साथ बैट नहीं सकता, उठ नहीं सकता, हम नहीं सकता, बोल नहीं सकता । यदि वह व्यक्ति जिसे वे शूद्र कहते हैं, वेद-मंत्र का उच्चारण करना है तो उसकी जीभ काट ली जाती है। उसकी छाया यदि किसी ब्राह्मण ७० Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक पर पड़ जाती है तो उस बेचारे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाते हैं । सिद्धार्थ : यह वास्तव में बड़ी निर्मम दृष्टि है किन्तु हमारी प्रजा पर तो ऐसा अत्याचार नहीं होता । वर्धमान : हमारी प्रजा पर न हो किन्तु समस्त मानवता तो हमारी प्रजा नहीं है । आज मानवता में नैतिकता का कितना ह्रास हुआ है ! सत्य जैसा रत्न उपेक्षित है और असत्य के काँच के टुकड़े मंचित किये जा रहे हैं | स्वार्थ ने परोपकार का गला दबा रखा है। दास-दासी स्वामी सम्पत्ति हैं । यदि वे अपने स्वामी के लिए धन कमा कर नहीं लाते तो उन्हें शारीरिक यातनाएँ सहन करनी पड़ती हैं। और नारियों की दशा कितनी दयनीय है ! वे क्रीत दासियों की भाँति पतियों से लांछित हो रही हैं । विवाह के द्वारा में केवल एक नारी की रक्षा करूँगा, अविवाहित रह कर मैं समस्त नारियों की रक्षा करने में समर्थ हो सकूंगा । इसलिए केवल एक नारी का होकर क्या मेरी दृष्टि मोमिन नहीं हो जायगी ? सिद्धार्थ : ( सोचते हुए) मैं समझता हूँ, नहीं होगी। क्या एक लहर के तट में लीन होने पर मागर में लहरों का अन्त हो जाता है ? मेरी दृष्टि में तुम्हारा व्यवहार सागर की भाँति होगा। तुम एक लहर को अपने में लीन कर असंख्य लहरों को तट तक ला सकोगे । वर्धमान : किन्तु पिता जी ! इसमें मेरे कर्मों का अन्न तो न होगा। मैं तपस्या द्वारा कर्म-बन्धन में मुक्त होना चाहता हूँ और यह राज भवन छोड़ने पर ही संभव हो सकेगा । प्रकृति मे मुझे बल मिलेगा। वायु की लहर जो मब स्थलों पर मंचरित होती है, मुझे विश्व-प्रेम का सन्देश देगी और उसी से मानव मात्र का कल्याण संभव होगा । मिद्धार्थ : तो तुम विवाह भी नहीं करोगे और राज भवन भी छोड़ दोगे ? ७१ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान वर्धमान : आपसे ऐसी ही आज्ञा चाहता हूँ। सिद्धार्थ : फिर मैं बार-बार सोचता हूँ कि उन राजाओं से क्या कहूँ जो प्रतिदिन तुम्हारे विवाह के प्रस्ताव करते हुए प्रार्थनाएँ करते हैं, उस प्रजा से क्या कहूँ जो तुम्हारे संरक्षण में अपना योग-क्षेम समझती है' उस राजलक्ष्मी के संकेतों पर क्या कहूँ जो राज-मुकुट से तुम्हारा अभिपेक करना चाहती है। और मैं अव वृद्धावस्था के क्षितिज पर डूबता जा रहा हूँ, शक्तिहीन होता जा रहा हूँ। क्या पुत्र का यह कर्तव्य नहीं है कि वह वृद्ध पिता को सहारा दे? वर्धमान : (चुप रहते हैं।) सिद्धार्थ : बोलो, चुप क्यों हो? तुम्हारे जैसा सात्विक नरेश पाकर क्या प्रजा सत्पथ पर नहीं चलेगी? क्या तुम्हारी राजनीति से राज्य के सब अनर्थ समाप्त नहीं हो जायंगे ? तुम्हारे शासन में किसको पीड़ा होगी? तुम अहिंसा को अपना राज-धर्म बना सकते हो। अपनी शक्ति से तुम शत्रुओं का दमन कर प्रजा क्या-मानव-मात्र की रक्षा कर सकते हो । संसार को सुखी बना कर तुम स्वयं सुखी हो सकते हो। वर्धमान : किन्तु तपस्या में जो सुख है, पिता जी! वह राज्य-शासन में नहीं। राज्य-शासन में वैमनस्य हो सकता है, तपस्या में सबसे मित्रता, सिंह और गाय, नकल और सर्प, विडाल और मूषक सब से समान सखाभाव, न राग से विचलित, न द्वेष से कुपित । सदैव ही चित्त में प्रमुदित । सिद्धार्थ : तपस्या तो सब साधनाओं से महान् है । और मैं कहता हूँ कि तुम अवश्य तपस्या करने जाओ और उस सुख को प्राप्त करी । भगवान् पार्श्वनाथ ने तीस वर्षों तक गृहस्थाश्रम व्यतीत किया, सत्तर वर्षों तक साध जीवन में मानव-कल्याण का सन्देश दिया और सौ वर्ष की अवस्था में सम्मेद शिखर पर तप करने के पश्चात निर्वाण-पद प्राप्त किया। ७ . Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अंक इसी प्रकार तुम अवश्य तपस्या करने जाओ और निर्वाण-सुख को प्राप्त करो, किन्तु कुछ वर्ष शासन करने के उपरान्त । राज्य-शासन से तुम्हें मनुष्य के स्वभाव, व्यवहार, आचरण आदि समझने का अवसर मिलेगा जिससे तुम मानव-कल्याण का मार्ग सरलता से खोज सकते हो। फिर मेरी यह आन्तरिक अभिलाषा है कि मैंने जिस प्रकार स्वामी पार्श्वनाथ के आदर्शों का पालन करते हुए नगर-लक्ष्मी की सेवा की है, उसी भांति तुम भी इस वंश-गौरव के यशस्वी प्रतीक बनो। तुम पिता नहीं हो, इसलिए पिता की आकांक्षाओं को नहीं समझते । तुम्हारी माता ने तुम्हारे अनुरूप एक राज-पुत्री का चयन किया है। उमका नाम यशोदा है, जो सब प्रकार से हमारी कुल-वधू बनने के योग्य है । तुम तो ज्ञानी हो। यह अवश्य जानते हो कि माता के हृदय को पीड़ा पहुंचाना भी दारुण हिंमा है । और तुम अहिंसा का प्रचार करना चाहते हो । माता की ममता तो हमारे राज्य में बहने वाली गंडकी की वह धारा है जो अपने अमृतमय नीर से सबको तृप्त करती है। (नेपम्य में हलचल) मिद्धार्थ : यह कैसा शब्द है ? (एक परिचारिका का शोप्रता से प्रवेश) परिचारिका : महाराज की जय ! महागनी अश्रु बहाने-बहाने संज्ञा-शून्य हो गई। मिद्धार्थ : यह वाणी की हिमा है । गीत्र उपचार किया जाय । हम अभी आत हैं। वर्धमान : पिता जी ! मेरी वाणी मे किमी प्रकार की हिंमा न हो, इसलिए में मां के आग्रह और आपके आदेश में विवाह करूंगा। मैं भी मां की मेवा में अभी चलता हूँ। ७३ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान मिद्धार्थ : माधु ! माधु ! वर्धमान ! तुम यशस्वी वनो ! अपनी मां को चतन्य बनाकर यह शुभ सूचना दो। तुम जैसे आज्ञाकारी पुत्र से यही आशा थी। चलो, तुम्हारी मां के पास चले। (शीघ्रता से प्रधान । वर्धमान भी गंभीर मुद्रा में पिता जी के पीछेपीछे जाते हैं।) [परदा गिरता है। ७४ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अंक (परदा उठने के पूर्व नेपथ्य से चर्या-पाठ) जे य कंते पिए भोगे लद्धे वि पिठ्ठिकुवई। साहोणे चयइ भोए से हु चाइ त्ति वुच्चई॥ (दशवकालिक २-१) [अर्थात् जो व्यक्ति सुन्दर और प्रिय भोगों को पाकर भी उनसे पीठ फेर लेता है, सम्मुख आये हुए भोगों का त्याग कर देता है, वही त्यागी कहलाता है।] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अंक में पान (प्रवेशानुसार) १-वर्धमान २-यशोदा ३-दंडाधिकारी ४-विशाखा ५-परिचारिका Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स्थान : राजमहल के बाहरी भाग में कुमार बर्धमान का क्रीड़ा-कक्ष समय : प्रातः काल की सुहावनी बेला स्थिति : कुमार वर्धमान का यह क्रीड़ा-कक्ष एक सरोवर के किनारे बना हुआ है। इसकी सजावट में शिल्पी ने समस्त सौन्दर्य का आवाहन किया है। स्थान-स्थान पर नृत्य करते हुए मयूरों की आकृतियाँ हैं जो सजीव -सी लगती हैं। प्रकृति के अनेक चित्र दीवालों पर बचे हुए हैं। सजे हुए बैठने के स्थान । वातायनों पर पाट-वस्त्र | नीचे मखमली बिछावन । सूर्य को कोमल सुनहली किरणें बातायन से जा रही हैं से वे कुमार वर्धमान और कुल-वधू यशोदा के दाम्पत्य जीवन को सुनहले रंग से रंगना चाहती हैं। इस समय कुमार बर्धमान कक्ष में निविकार भाव से बड़े हुए और यशोदा उनकी आरती उतार रही है। आरती करने के बाद वह घुटनों के बल बैठकर हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम करती है ।] वर्धमान : (हाथ बढ़ा कर ) उठो, यशोदा ! उठो । हमारे वैबाहिक जीवन की यह गतिशील धारा कब तक प्रवाहित होती रहेगी ? यशोदा : प्रभु ! जब तक हमारे उपवनों में बसन्त की परिक्रमा है, उसमें कोकिल का कूजन है और उस कूजन में माधुर्य की क्षण-क्षण में बहती हुई ७७ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान मन्दाकिनी है तब तक हमारे सुख की आकाश-गंगा को ज्योति कभी मन्द नहीं होगी। वर्धमान : किन्तु सुख की ज्योति तो कुछ दिनों बाद मन्द हो जाती है । यशोदा : यह सुख अनेक रूप धारण करता है, प्रियतम ! जिस प्रकार आकाश गंगा में अनेकानेक नीहारिकाएँ होती हैं और नीहारिकाओं की संख्या गिनी नहीं जा सकती, उमी प्रकार सुख के रूपों की संख्या गिनना संभव नहीं है। वर्धमान : और हमारे विवाह में इतने उत्मवों की क्या आवश्यकता थी ? यशोदा : प्रभु ! जब मूर्योदय होता है तो पूर्व दिशा में भांति-भांति के रंगों के वितान क्यों मुशोभित हो जाते हैं ? उषा नव वधू की भाँति क्यों सजमवर जाती है ? शीतल, मंद, मुगंध ममीर क्यों परिचारिका की भांति प्रत्येक पुष्प से आजा मांगनी है ? विहगों का ममूह एक दिशा से दूमरी दिशा में उड़ कर क्यों मंगल संदेश वितरित करता है ? मुख की लहर में हमी के बुद्बुद् विखग्ने हैं, प्रियतम ! वर्धमान : किन्तु ये बुद्बुद् जल्दी ही फूट जाते हैं, यशोदा ! यशोदा : उनके फूटते ही नये बुद्बुद् जन्म लेते हैं, प्रभु ! और उनका यह क्रम अनन्त काल से चलता है और चलता रहेगा। वर्धमान : किन्तु यह मुख, यह हमी क्या हमें किमी भ्रम में नहीं डाल देनी ? यशोदा : सुख तो सुख है, और हंसी भी हंसी है। ओह प्रियतम ! जब हमारे विवाह के सम्बन्ध में पूज्य वैशाली-सम्राट् की स्वीकृति पहुँची तो सारे नगर में सुख और आनन्द की धारा महस्रमुखी होकर फूट निकली। अहा! कितना सुख, कितना आनन्द, कितनी शोभा ! घर-घर में मंगल त्यौहार ! गली-गली में कुंकुम बिखर गया ! आपकी ओर से विलम्ब देख कर हम सब तो निराश हो रहे थे। हम लोग सोचते थे ७६ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अंक कि जम्बू द्वीप में एक-से-एक गुणशीला सुन्दरियाँ हैं, उनके बीच में मेरी क्या गिनती किन्तु सुख और आनन्द का प्रवाह तो मेरे नगर में बहना था — मेरे हृदय में बहना था। और उस सुख के प्रवाह ने मुझे आपके चरणों तक पहुँचा दिया । वर्धमान : तुम्हारे सुख से मैं भी सुखी हूँ, यशोदा ! किन्तु मैं समझता हूँ कि तुमसे विवाह कर मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है । यशोदा : अन्याय कैसा, देव ! यह कहिए कि आपने मुझे कितना सौभाग्यशालिनी बनाया है? आपने मेरे साथ विवाह करने की स्वीकृति देकर मेरे जन्म-जन्मान्तर के मनोरथ पूरे किये हैं। मैंने स्वामी आदिनाथ के चरणों में न जाने कितनी पुष्पांजलियाँ अर्पित कर प्रार्थना की कि मुझे आपकी सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हो और स्वामी आदिनाथ ने मेरी प्रार्थना स्वीकार की। अब मैं आपकी हूँ, आप मेरे हैं। जब मैं यह सोचती हूँ तो मेरा मन उसी प्रकार नृत्य करने लगता है जिस तरह इस कक्ष में यह ( मयूर को संकेत करते हुए) मयूर नृत्य कर रहा है । स्वामी आदिनाथ की बड़ी कृपा है कि मेरी प्रार्थना स्वीकार हो गई। वर्धमान : तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार हुई, यह अच्छा हुआ या बुरा, यह तो स्वामी आदिनाथ ही जानें। मैं कुछ नहीं समझ सका । किंशुक वृक्ष के फूल लाल होते हैं । यह कौन जानता है कि फूलों की लालिमा उसका शृंगार है या उसके हृदय की लगी हुई आग है । यशोदा : लालिमा तो अनुराग का रंग है, स्वामी ! पूर्व में उपा आती है तो जैसे वह सिन्दूर से शृंगार कर आकाश पर अवतरित होती है। मेरी आरती के थाल में अभि तक लाल रंग धारण कर आरको परिक्रमा करती है | वर्धमान : किन्तु वह जन्नती भी तो है । ७६ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान यशोदा : देवता के अभिनन्दन में जलना भी सौभाग्य की बात है। वर्धमान : अभिनन्दन चाहे जैसा हो किन्तु उस जलने में धीरे-धीरे स्नेह भी कम हो जाता है और जब स्नेह समाप्त हो जाता है यह अभिनन्दन की आरती भी बुझ जाती है। यशोदा : मुझे विश्वास है, स्वामी ! यह स्नेह कभी कम न होगा और जिस स्नेह की स्वीकृति मेरी उपासना से हुई है वह तो अटल ध्रुव नक्षत्र की भांति जगमगाता रहेगा और सुख के सप्त ऋषि उसकी परिक्रमा करते रहेंगे। वर्धमान : किन्तु ध्रुव नक्षत्र तो बिना किसी इच्छा के आकाश में स्थिर है, यशोदा! यशोदा : यह कौन जानता है कि किसके मन में क्या इच्छा है ! मैं तो अपनी इच्छा जानती हूँ-जीवन भर आपकी सेवा करना। वर्धमान : और यदि मैं तुमसे सेवा न लेना चाहूं तो? यशोदा : आराध्य कब सेवा लेना चाहता है, यह तो उपामक ही है जो सेवा में सुख मानता है। इधर देखिए, (वातायन की ओर ले जाती है ।) यह कितना सुन्दर सरोवर है ! प्रभात-किरणों में ये कमल कितने सुहावने लगते हैं ! भौंरे गंज-गंज कर जैसे उनकी विरुदावलियां गा रहे हैं। कमल को क्या चिन्ता कि भौंरे उसके पास आते हैं या नहीं। ये भ्रमर ही हैं जो कमल की उपासना करने के लिए न जाने कहाँ कहाँ से आ जाते हैं। वर्धमान : ये रस के लोभी हैं, यशोदा ! कमल-कोश में प्रवेश कर रस-पान करते हैं और संध्या होने पर कभी कभी कमल में बन्दी भी हो जाते हैं। यसोदा : किन्तु वे मुक्त होने के लिए कमल का कोश काटते नहीं हैं, प्रभु ! Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अंक वर्धमान : वे न काटें, वे भ्रमर-मात्र ही तो हैं किन्तु यदि मनुष्य चाहे तो अपने बन्धन काट सकता है। यशोदा : हाँ, मनुष्य अपने को बुद्धि का विधाता समानता है। वर्धमान : विधाता हो या अनुचर किन्नु मनुष्य के पास विवेक और सन्तुलन है। वह अपना बन्धन इच्छानुसार काट सकता है और मुक्त हो सकता है। यशोदा : हाँ, मुक्त होना तो बरी बात नहीं है । वर्धमान : तो यशोदा ! यदि मैं मुक्त होना चाहूँ तो ? (प्रश्न-मना) यशोदा : (कुतूहल से) आप ? आप ? मुक्त होना चाहेंगे ? वर्धमान : हाँ, यशोदा ! पिछले अनेक वर्षों से मैं ऐमा ही मोचता रहा है। यशोदा ! तुम बुग मत मानना । मैं विवाह के बन्धन में आना ही नहीं चाहता था । यह नो मां का आग्रह और पिता का आदेश था कि मैं विवाह करें। और माता-पिता की आज्ञा मानना आवश्यक था। जब मैंने विवाह की बात नहीं मानी तो माना जी गना-शून्य हो गई। पिता जी ने कहा कि तुम्हारी अस्वीकृति की यह वाणी ही एक हिमा है, जबकि तम मब को अहिमा का उपदेश देते हो । म निस्तर हो गया। मेरे द्वाग किमी प्रकार की कोई हिमा न हो, इसलिए मुझं विवाह करना पड़ा। यशोदा : और विवाह करने के बाद यदि आप बन्धनों में मक्न होकर मझे कष्ट भोगने के लिए छोड़ गये तो क्या यह हिंसा नहीं होगी ? बोलिए ! वर्धमान : तुम्हें कप्ट भोगने की मनोवृनि से दूर होना होगा। यशोदा : और यदि न होऊ नी ? इम विवाह के लिए मैंने कितने व्रत-उपवाम किये । प्रभु पाश्वनाथ की प्रतिमा के पावं में बंट कर कितनी प्रार्थना की कि मुझे अपने जैसा ही पनि देना और उन्होंने अपने जमा ही पति आपके रूप में मुझे दे दिया। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान वर्धमान : और मैंने भी तो उनमे प्रार्थना की थी कि अपने समान मुझे भी मुक्त बना देना। मैं कल्याणकारी धर्म का अभ्यास करूं, जिससे मेरा पुनर्जन्म न हो। यशोदा : तो समय आने पर आपकी भी प्रार्थना सुनी जायगी। वर्धमान : मैं तो अभी से मुक्त होना चाहता हूँ, यशोदा ! संसार में जितनी वस्तुएँ बन्धन में डालने वाली हैं, उनसे मुक्ति चाहता हूँ। यशोदा : मैं आपको बन्धन में नहीं डालूंगी, देव ! वर्धमान : यह तो मेरा मन ही जानता है कि बन्धन क्या है और उसमे किम प्रकार मुक्ति मिलेगी। इस संसार में सम्पत्ति और सौन्दर्य सब से बड़े बन्धन हैं। यशोदा : और मैं ममझती हूँ कि बन्धन ही मुक्ति के साधन हैं । जिस प्रकार एक शक्तिशाली पुरुष कील से पीट कर कील को निकालता है, उसी प्रकार एक कुशल पुरुष इन्द्रियों के द्वारा ही इन्द्रियों का दमन करता है । वर्धमान : यह तो तुम तन्व की बात कहती हो, यशोदा ! किन्तु मैंने अभी से बन्धन से मुक्त होना आरम्भ कर दिया है। यशोदा : किस प्रकार, स्वामी ? वर्धमान : तुम बुरा तो नहीं मानोगी, यशोदा ? यशोदा : नहीं, प्रियतम ! आप जिस कार्य को करेंगे. उससे तो मुझे प्रसन्नता ही होगी। बुरा मानने की बात ही क्या है ? वर्धमान : तो सुनो ! विवाह के अवसर पर तुम्हारे पिता जी ने जो आकर्षक और बहुत बड़े मूल्य का रत्नहार भेंट किया था, उसका मैने विमजन कर दिया। ८२ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोषा अंक यशोदा : विसर्जन कर दिया ? क्यों ? कहाँ ? कैसे ? वर्धमान : (सरोवर की ओर संकेत करते हुए) इसी सरोवर में । कल रात में उसे बड़ी देर तक देखता रहा। उसके रत्न अनुराधा नक्षत्र को तारिकाओं की भांति ज्योतिपूर्ण किरणों से जगमगा रहे थे। लगता था कि ये किरणें ऐसी रश्मि-रज्जुएँ हैं जो मेरे कंठ में अपना पाश डाल देंगी। मैने इस वातायन से उस रत्नहार को सरोवर में विसजित कर दिया। यशोदा : ओह ! वह कितना सुन्दर रत्नहार था ! वह तो मेरे पिता जी रत्न द्वीप के मागर-तट से आपके लिए ही लाये थे। एक-एक रत्न बड़े मुल्य का था। वर्धमान : मूल्य होता भी है और नही भी होता, यगोदा ! यह तो दृष्टि का लक्ष्य है और मंमार में प्रत्येक वस्तु का लक्ष्य होता है। जो वस्तु जहाँ से आती है, उसे वहीं लोट जाना चाहिए । जल में जो रत्न उत्पन्न हुए. उन्हें जल में ही लौट जाना चाहिए। यशोदा : तब तो मुझे भी अपने माता-पिता के पास लोट जाना चाहिए । ओह ! में बहत अशान्त हो गई है, प्रियतम ! यदि दष्टि की मी ही गति रही तो किमी दिन में भी विजित हो सकती हैं। वर्धमान : विजित कीन नहीं होता, यशोदा ? धन-वैभव. रूप-मोन्दयं अपना ममय ममाप्त कर मभी विजित हो जाने । अन्त में मन्य ही रहता है। मंमार को देखकर जिज्ञामा उत्पन्न होती है, जिज्ञामा में ज्ञान बढ़ता है, ज्ञान में प्रज्ञा जाग्रत होती है और प्रज्ञा में मन्य-बोध होता है। यही मत्य-बोध वास्तव में अन्न तक रहता है । जिम प्रकार एक कुशल धनुर्धारी अपन वाण मे बाल के अग्र भाग को बेध देता है, उसी प्रकार साधक वस्तु-स्थिति को बंध कर मन्य को जान लेता है। ८३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान यशोदा : (विह्वल होकर) स्वामी ! वर्धमान : और संमार की आयु उसी प्रकार क्षीण होती जाती है जिस प्रकार अंजुलि से बूंद-बूंद जल टपक जाता है । ये वैभव उसी प्रकार बिखर जाते हैं, जिस प्रकार वायु का प्रबल झोंका सूखे पत्तों को बिखरा देता है। यशोदा : प्रभु पार्श्वनाथ जी ने भी संभवतः ऐसा ही उपदेश दिया था। वर्धमान : इस सन्दर्भ में उन्होंने यह भी कहा था कि जिस प्रकार महा जल की धारा सरकंडों से बने पुल को बहा ले जाती है उसी प्रकार मृत्यु भी एक ही आपात में जीवन को वहा ले जाती है । यशोदा : तो इसका उपाय क्या है, स्वामी ? वर्धमान : जिम प्रकार यंत्री नहर के पानी को ले जाता है, वाण बनाने वाला वाणों को ठीक करता है, विश्वकर्मा लकड़ी को ठीक करता है, उसी प्रकार सुधी जन अपनी इन्द्रियों का दमन करते हैं । यशोदा : क्या गृहस्थाश्रम में रह कर इन्द्रियों का दमन नहीं हो सकता ? वर्धमान : नहीं, यशोदा ! कांटेदार करील वृक्ष की डालियों से जिस प्रकार वस्त्र निकालना कठिन होता है, उसी प्रकार गहस्थाश्रम में इन्द्रियों से मुक्ति नहीं मिल पाती । जिस प्रकार आकाश में पक्षियों के उड़ने की दिशा नहीं जानी जाती, उसी प्रकार इन्द्रियों की गति भी समझ के बाहर है। यशोदा : वास्तव में आपकी वाणी विश्वास उत्पन्न करती है किन्तु अभी तो आपने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया है, इससे मुक्त होने का समय तो अभी नहीं है। वर्धमान : पहले करने योग्य काम पीछे नहीं करना चाहिए, यशोदा ! मन्द गति के योग्य ममय शीघ्रगामी होता है और शीघ्र गति के योग्य ८४ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अंक ममय मन्दगामी होता है। यह विवेक से ही संतुलित होता है और उसी में सुख है। यशोदा : आपको किस मुख की कमी है ? आप चारों दिशाओं के विजेता, जम्बू द्वीप के ईश्वर और रथ-पति चक्रवर्ती हैं । वर्धमान : किन्तु मै पृथ्वी और अग्नि की भांति न तो किसी से प्रेम करता हूँ और न किमी से द्वेप। यशोदा : (मुस्करा कर) मुझ से भी नहीं ? वर्धमान : यशोदा ! इस समय में वर्षा ऋतु में नीड़ में बैठे हुए पक्षी के समान है। यशोदा : नो वर्षा ऋतु बीत जाने के अनन्तर आप नीड़ का परित्याग भी कर सकते है। वर्धमान : यही मोच रहा हूँ। जमे वायु आकाश में फैले हुए बादलों को हटा देती है, उमी प्रकार आने वाला ममय मेरे ममस्त बन्धनों को हटा दंगा। मंग मन मुक्त होकर आनन्द में मिल जायगा, जैसे गंगा की धारा सागर में जाकर मिल जाती है । यशोदा : नब मेरा अलंकार धारण करना, मुन्दर वस्त्र पहनना, माला धारण करना, अपने चरणों को लाक्षा से रंजित करना व्यर्थ है। वर्धमान : यह तुम्हारी इच्छा, मेरे सन्यास-ग्रहण में इनका कोई स्थान नहीं है। यशोदा : नव आप यह भी मुन लीजिए कि जब आप संन्याम ग्रहण करेंगे तो में भी आपके साथ मंन्यामिनी हो जाऊँगी। वर्धमान : तुम्हें बहुत कष्ट होगा, यशोदा ! यह मुकुमार शरीर तपस्या के कप्टों को कमे महन करेगा? ८५ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान यशोदा : यदि आपको कष्ट नहीं होगा तो मुझे क्या कष्ट होगा? मेरी धारणा आपके विचारों की अनुगामिनी होगी। वर्धमान : साधु ! माधु ! यशोदा ! जव तुम्हें किमी प्रकार का कप्ट नहीं होगा तो फिर पिता जी के कथनानुसार हिंसा की बात ही नहीं उठेगी। यशोदा : आपके प्रत्येक कार्य में मेरी ममति है। कहो तो अग्नि के समक्ष माक्षी हूँ ! वर्धमान : नहीं, मुझे तुम्हारे वचनों पर विश्वास है। (इसो समय नेपथ्य में हलचल होती है।) यशोदा : (चौंक कर) यह कैसी अशान्ति ? (नेपथ्य में परिचारिका का स्वर-क्या में प्रवेश कर सकती है, स्वामिनी ?) यशोदा : प्रवेश हो । (एक परिचारिका का प्रवेश) परिचारिका : स्वामी की जय ! स्वामिनी की जय ! निवेदन है कि गज्य के दंडाधिकारी ने एक स्त्री को बन्दी किया है । उसने मरीवर में स्नान करते हा एक रत्नहार उठा लिया है। यह रत्नहार म्वामी का है, ऐमा दंडाधिकारी कहते हैं । वर्धमान : यह वही रत्नहार तो नहीं है जो मैंने मरोवर में विसर्जित किया था। यशोदा : वही होगा. स्वामी! वर्धमान : (परिचारिका से) दंडाधिकारी और उस स्त्री को भीतर भेजो। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अंक परिचारिका : जो आज्ञा । (प्रस्थान) वर्धमान : सम्पत्ति का यह स्वभाव है कि जितना ही उसका तिरस्कार करो, वह उतनी ही पास आती है। यशोदा : और मेरे पूज्य पिता जी ही नहीं, उनही दी हुई वस्तु भी आपसे इतना प्रेम करती है कि वे आपका माथ नहीं छोड़ना चाहती। वधमान : किन्नु माथ छूटना नो मंमार का नियम है। (सैनिक वेश में दंडाधिकारी और एक सामान्य स्त्री का प्रवेश) दंडाधिकारी : (सिर मुका कर) स्वामी की जय ! स्वामिनी की जय ! निवेदन है कि में प्रातः सरोज मरोवर की मुरक्षा के लिए वहां पहुंचा। देखा कि यह स्त्री स्नान कर छिपने हा भागने का प्रयत्न कर रही है। जब मैंने इसे रोक कर उसके वस्त्रों की जांच की तो उसके पाम में यह रत्नहार प्राप्त हुआ । एक बार मैंने इम गन्नहार को स्वामी के कंठ में देखा था। मैंने अनमान किया कि स्वामी म्नान करने के लिए मगंज मगेवर गये हो और वहां यह रत्नहार उठाना भल गये हों । यह स्त्री इमे चरा कर भाग रही थी। मैंने मे बन्दी बना लिया । यह आपकी मेवा में उपस्थित है। यह रत्नहार है। (सामने को पोठिका पर रत्नहार रखता है। अब आपकी जमी आजा हो ! यशोदा : स्वामी का ही यह गन्नहार है। वर्षमान : हो. यह वहीं गन्नहार है। दंडाधिकारी : नब नो इम स्त्री ने निश्चय ही चोरी की है। वर्धमान : (बंकिम मोह करते हुए) चार्ग? तुमने चोरी की है, भद्रे ? स्त्री : (सिसकते हुए) में निग्पगध हूँ, म्वामी ! Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान यशोदा : दंडाधिकारी ने यह रत्नहार तुम्हारे पास पाया और तुम निरपराध हो ? और तुम रो रही हो ! अपने आँसुओं से तुम अपने अपराध का प्रक्षालन नहीं कर सकती । तुम कौन हो ? अपना परिचय दो! स्त्री : (सिसकते हुए) मेरा नाम विशाखा है, स्वामिनी ! मैं क्षत्रिय कुंडग्राम में ही निवास करती हूँ। मेरे पति "एक सामान्य श्रमिक .."थे । गत वर्ष उनका देहावसान हो गया.. (अधिक सिसकियाँ लेती है।) यशोदा : शान्त ! शान्त ! मुझे इस बात से हार्दिक दुःख है । पति-विहीन नारी जल-विहीन सरिता होती है, किन्तु इमका अपराध से क्या सम्बन्ध है ? स्वी : महारानी ! मेरे तीन बच्चे हैं। तीनों भूख से तड़पते रहते हैं। (सिसकियां लेती है) मेरे पति ने कुछ भी धन नहीं छोड़ा जिससे मैं अपने बच्चों का पोषण कर सकू । मैं उन्हें भूख से तड़पते हुए नहीं देख सकनी। (सिसकियाँ) वर्धमान : तुमने राज्य को इसकी सूचना क्यों नहीं दी? स्त्री : महाराज ! मेरा साहस नहीं हुआ। मुझ अकिंचन स्त्री को राज-द्वार तक कौन पहुँचने देता ? वर्धमान : नहीं, राज-द्वार के समक्ष प्रजा का प्रत्येक व्यक्ति पहुँच मकता है। स्त्री : मेरे पड़ोमियों ने मुझे रोक दिया। कहा-तेरे पहुँचने से राज-द्वार अपमानित होगा और तुझे कड़ा दंड मिलेगा । वे लोग मेरे पति मे ईर्ष्या करते थे. कदाचित इसीलिए हम लोगों का तड़पना उन्हें अच्छा लगता था। वर्धमान : (दंडाधिकारी से ) दंडाधिकारी ! ऐसे व्यक्तियों को पहचान कर मेरे समक्ष उपस्थित किया जाय। ८८ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अंक दंडाधिकारी : जो आज्ञा, स्वामी ! यशोदा : इस समय तुम्हारे बच्चे कहाँ हैं ? स्वी : (फिर सिसकियाँ लेती है) मैं अपने बच्चों को भूख से तड़पता हुआ नहीं देख सकती थी, महारानी! इसलिए आज प्रातः उन्हें एक धनी परिवार के द्वार पर छोड़ कर मैं आत्म-हत्या करने के विचार से सरोज सरोवर पर गई। यशोदा : आत्म-हत्या करने के विचार से ? म्वी : महारानी! क्षमा करें। माता का हृदय निरीह बच्चों का कप्ट सहन नहीं कर सकता। मैं आत्म-हत्या का पाप करने के लिए ही मरोवर पर गई थी, स्नान करने के लिए नहीं । वहीं मुझे यह रत्नहार मिला। मैं समझ गई कि यह राज-परिवार का ही हार है। मरने से पहले मुझ मे कोई पाप न हो, इसलिए इसे में राज-भवन में पहुंचाने के लिए ही आ रही थी कि दंडाधिकारी ने मले बन्दी बना लिया। मझे तो राज-भवन में आने का माहम ही नहीं हो रहा था तो मैंने दंडाधिकारी मे ही कहा कि यह रत्नहार राज-भवन में पहुंचा दीजिए किन्तु मेरी प्रार्थना न मुन कर उन्होंने मुझे बन्दी बना लिया । दंडाधिकारी : मभी अपराधी मन्य नहीं बोलते, श्रीमन् ! मैंने सोचा कि पकड़ लिये जाने पर ही यह अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना कर रही है। मान : मुक्ति के लिए प्रार्थना कर रही है ! वह जानती भी है कि मक्ति का क्या अर्थ है ? ग्बी : मं कुछ नही जानती, महागज ! (सिसकियाँ) जो चाहे मुझे दंड दं । किन्तु यह मंगभाग्य है कि मझे टम रन्नहार के कारण महागज और महारानी के दर्शन एक माथ हो रहे हैं जो मेरे जीवन में कभी मंभव नहीं था। ८६ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वधमान वर्धमान : तुम बुद्धिमनी ज्ञात होती हो । (दंडाधिकारी से) ठीक है, दंडाधिकारी ! इस स्त्री के स्थान पर जाकर तुम इमके कथन की जांच करो और यदि इसका कथन मत्य हो-जो होना चाहिए-तो इमके पूत्रों के पोपण की व्यवस्था की जाय । उनका पोषण राज्य की ओर मे होगा। उन्हें मंग्क्षण-शाला में रखो। दंडाधिकारी : जी महाराज की आजा। म्बी : (चरणों पर गिर कर) महागज ! महाराज ! आप कितने धर्मात्मा हैं ! न्यायी, प्रजा-पालक, और दीनों का दुःख ममझने वाले! आप जन्म-जन्मान्तरों तक हमारे गजा रहे और हम आपकी प्रजा ! यशोदा : और दंडाधिकारी ! मुनो । यह रत्नहार महाराज के द्वारा परित्यक्त है, इसलिए इस रत्नहार के रत्नों को ऐसे परिवारों में वितरित कर दो जो अर्थाभाव में पीड़ित हैं । इस नारी को भी इस रत्नहार के रत्न प्राप्त हो। दंडाधिकारी : जो आजा, महागनी ! वर्धमान : (यशोदा से) माधु ! यगोदा ! तुमने यह निर्णय करके मुझे अपार मुख और मन्तोष दिया है। (वंडाधिकारी से) दंडाधिकारी ! इम आज्ञा का शीघ्र पालन हो। और जिन रंक परिवारों को नुम इम रत्नहार के रत्न वितरित करोगे. उनकी सूची तुम भाण्डागारक कोदोग। दंडाधिकारी : जैमी महाराज की आज्ञा । यदि आदेश हो तो भाण्डागारक ही इन रत्नों का वितरण करें । मैं आपके आदेश की पूर्ति के लिा वहां उपस्थित रहूँगा। (पीठिका से रत्नहार उटा लेता है।) स्त्री : महारानी धर्म की देवी हैं और महागज धर्म के देवता ! (मुक कर प्रणाम करती है।) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अंक दंडाधिकारी : (स्त्री से) चलो, बाहर चलो। स्त्री : (जाते हुए) महाराज और महारानी की जय ! दंडाधिकारी : (सैनिक ढंग से) महाराज की जय ! महारानी की जय ! (महावीर वर्धमान और महारानी यशोदा अभय मुद्रा में हाथ उठाते हैं।) वर्धमान : यह मेरी मुक्ति का मंगलाचरण है ! [परदा गिरता है। 49 Page #96 --------------------------------------------------------------------------  Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अंक (परदा उटने के पूर्व नेपथ्य से चर्या-पाठ) ण हि निरवेक्खो चाओ ण हवदि भिक्खुस्स आसव विसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिओ॥ (प्रवचन मार :-२०) [अर्थात् जब तक भिक्ष द्वारा निरपेक्ष त्याग नहीं होता, तब तक उसको चित्त-शद्धि नहीं होती और जब तक उसका चित्त शुद्ध नहीं होता तब तक उसके द्वारा कर्मों का क्षय किस प्रकार हो सकता है ? ] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अंक में पान (प्रवेशानुसार) १-नन्दिवर्धन २-वर्धमान ३-सुप्रिया ४-रंभा ५-तिलोत्तमा ६-इन्द्रगोप ७-चुल्लक ८-शूलपाणि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ स्थान : मोराक ग्राम समय : संध्या काल स्थिति : एक वट वृक्ष की छाया । स्थान सुनसान है। चारों ओर शान्ति का वातावरण। आस-पास लता-गुल्म हैं। एक समभूमि पर महावीर वर्धमान संन्यासी के वेश में पद्मासन लगाये बैठे हैं। पास ही उनके भाई नन्दिवर्धन खड़े हैं।] I नन्दिवर्धन : तो तुमने संन्यास ले लिया ! तुम्हें खोजते खोजने यहां पहुंचा हूँ । जहाँ-जहाँ पता लगता था, वही जाता था किन्तु ज्ञात होना था कि तुम वहाँ से भी अन्यत्र चले गये । कमरि ग्राम गया, वहाँ तुम नही थे । एक ग्वाले ने तुम्हें बहुत कष्ट दिया। वह तुम्हें अपने बैल सोप गया, जब लौटा तो उसके चैन तुम्हारे पास नहीं थे । वे चरते हुए अन्यत्र चले गये और तुम अपने ध्यान में ही लीन थे। उसने जब पूछा तो तुमने कुछ उत्तर ही नहीं दिया। दूसरे दिन प्रातःकाल वे बैल लौट कर तुम्हारे पास आकर बैठ गये। जब उस ग्वाले ने अपने बैलों को तुम्हारे पास देखा तो उसे क्रोध आया कि बैलों का पता जानते हुए भी तुमने उसे व्यर्थ भटकाया। उसने तुम पर प्रहार किया और तुम बैठे रहे । उसके बाद तुम कोल्लाग ग्राम चले आये। जब में चुपचाप Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान वहां पहुंचा तो ज्ञात हुआ तुम वहाँ से भी चले आये । अव यहाँ आकर मोराक ग्राम में तुम्हें पाया। तुमने ममता-मोह का इतना त्याग किया और संन्यास ले लिया ?, वर्धमान : भाई ! यही मेरा निश्चय था। यह तो कहें, संन्यास लेने में मुझे देर हो गई । मैंने माता-पिता को वचन दिया था कि जब तक आप दोनों जीवित हैं, तव तक संन्यास ग्रहण नहीं करूँगा। उनके जाने के बाद अब मैं स्वतंत्र हूँ। मैंने गृहस्थाश्रम छोड़ दिया। नन्दिवर्धन : और यशोदा को भी छोड़ दिया? वर्धमान : वे तो मेरी इच्छा की अनुगामिनी रही हैं । वे कहती थीं कि मैं आपके माथ ही संन्याम ग्रहण करूँगी । वे अपने पिता के पास कुछ दिनों के लिए कलिंग चली गई। इमी बीच मैने अनुभव किया कि मैं मुक्त हूँ और मैंने संन्यास ले लिया। नन्दिवर्धन : यह अच्छा नहीं हुआ, वर्धमान ! जब वे कलिंग मे लौटेंगी और तुम्हें राज-भवन में न पायेंगी तो क्या दशा होगी उनकी ? यह नहीं सोचा? बड़े अहिमा के प्रचारक हो ! उनको मर्मान्तक कष्ट देकर तुम किस अहिंसा की बात करोगे? वर्धमान : मैंने कहा न, भाई ! कि वे स्वयं संन्यास ग्रहण करेंगी। संन्यास ग्रहण करने पर हर्ष-विषाद, लाभ-हानि, जीवन-मरण के सम्बन्ध में विचार करने की मनोवृत्ति ही नहीं होगी। नन्दिवर्धन : तो तुमने अपने राजकीय कर्तव्यों से मुख मोड़ लिया । स्वयं संन्यासी बन कर अपनी पत्नी को भी संन्यासिनी बना दिया । क्यों ? महावीर वर्धमान ! क्या इमे तुम अपनी महावीरता समझते हो? किस समय कौन-सा कार्य करना उचित है, यह भी नहीं समझते ? Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अंक वर्धमान : भाई ! उचित और अनुचित नो परिस्थितियों और दष्टि पर निर्भर है। कोई सौ संकेतों और सौ लक्षणों से युक्त किसी अर्थ का एक ही अंग देखता है और यदि मैं एक मंकेत और एक लक्षण में सौ अंग देख लेता हूँ तो क्या अनुचित करता हूँ ? मैं धर्म-रस से मुखी हूँ भाई ! श्रेष्ठ और उत्तम रस को पीकर में विप का सेवन नहीं करना चाहता। नन्दिवर्धन : मणि-कुंडल, राज्य-वैभव और सम्मान, कन्या-दाग जो मुख देते है, क्या वे विप की भांति है ? यह जो तुम्हाग अभिषेक किया गया. यह विप के समान है ? वर्धमान : रत्नहारों, चाँदी और मोने के पात्रों को त्याग कर जो मैंने मिट्टी का पात्र लिया है, वह मेरा वास्तविक अभिपंक है। नन्दिवर्धन : (परिहास से) हँ ! गजमहल के बादिष्ट व्यंजनों को छोड़कर जो तुम भिक्षान्न पर निर्वाह करोगे, चीवर पहन कर जो तुम भिक्षा मांगोगे, उसमें कौन-मा मुम्न है ? वर्धमान : मैं चीवर भी धारण नहीं करूंगा, भाई ! और जो तम भिक्षान की वान कहते हो नो मझे भिक्षा की भी आवश्यकता नही है क्योंकि जिम अमन का ग्म आज मैंने पाया है, वह मा प्रकार के व्यंजनों में भी नहीं पा सका। नन्दिवर्धन : न पाया होगा किन्तु इसे मैं क्या कहूँ कि मिहामन का स्वामी आज धूल-धमग्ति भमि पर बैठा है। मरांवर्ग में विहार करने वाला गजकुमार आज बूंद-बूंद पानी के लिए तग्मता है। पमान : भाई ! जब मैंने अमृत पा लिया फिर पानी की क्या आवण्यकता ? मंमार के सरोवर मे उठा कर मैंने अपने-आप को निर्वाण की पुण्य भूमि पर मार लिया है। जो अपने चिन के विषय में आश्वस्त है, वह अनासक्ति के महत्व को जानता है। ६७ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान नन्दिवर्धन : और यदि चित्त ने विद्रोह किया तो? वर्धमान : जिसका चित्त पर्वत की भांति अचल है, रंजनीय वस्तुओं से विरक्त है, उमका चिन्न विद्रोह नहीं कर सकता और यदि विद्रोह करेगा तो मैं इसे उमी प्रकार वश में लाऊंगा जिस प्रकार अंकुश ग्रहण करने वाला महावत हाथी को वश में लाता है। और आप जानते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व मैंने एक मतवाले हाथी को वश में किया था। नन्दिवन : हाथी को तो कोई भी महावत वश में कर सकता है किन्तु वासनाओं को वश में लाने में बड़े-बड़े योगी भी असमर्थ हो जाते हैं। वर्धमान : भाई ! मैंने वासनाएँ जला दी हैं । तृप्णा रूपी तीर अपने हृदय में निकाल दिया है । सभी प्रकार के भय का उन्मूलन कर दिया है । मैंने जन्म-रूपी संसार में आग लगा दी है और कर्म-यंत्र को विघटित कर दिया है । अब मैं समझता हूँ कि मेरे लिए पुनर्जन्म की स्थिति नहीं होगी। नन्दिवर्धन : पुनर्जन्म की स्थिति न हो किन्तु इम जीवन की क्या स्थिति होगी ? इम जीवन में तुम जंगल में फेंकी गई लकड़ी की भाँति वनों में वाम करोगे। वर्धमान : नहीं भाई ! मैंने इस संमार में न जाने कितने शरीर रूपी अनित्य गृह बनाये हैं । अब मैंने ऐसे गृहों की सभी कड़ियां तोड़ दी हैं। उनके शिखर ट गये हैं। अव मेरे सामने राजगृह कहाँ हैं ! नन्दिवर्धन : तो तुम वन-वन घूम कर क्या करोगे? वर्धमान : भाई ! वनों में सुन्दर शिखा वाले, सुरंग ग्रीवा वाले मयूर नृत्य करते हैं, कोकिल कूजन करती है, मृग विहार करते हैं, मखमली पृथ्वी पर हरी घास बिछी रहती है. जल में तरंगें उठती हैं। प्रकृति में कितन शान्ति है, कितनी मुषमा है ! नवीन वर्षा से सिक्त हो वृक्षों के समूह Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अंक पर्वतों पर लहराते हैं, जल ऐसे बरसता है जैसे कोई गीत गा रहा है। शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु पीकर नाना प्रकार के पक्षी योगियों को जगाते हैं, अपने कलरव से वे प्रकृति का अमृत-रम मानम में भरने रहते हैं । ऐसा रस ईर्ष्या. द्वेष भरे नागरिको में और स्वार्थ में भरे हा संसार में कहाँ मिलेगा? नन्दिवर्धन : ऐसे संसार में भी तुम तीस वर्षों तक रहे ! वर्धमान : अवश्य रह किन्न जब मामे मंमार में निवास करता था नब मेग शरीर भले ही गज-भवन में रहता हो. पर मंग मन इमी वन में विहार करता था। भाई ! अब मैंने लोक-पग्लोक की तृष्णा को न्याग दिया है। अब संमार में मेरे किमी गृह का निर्माण नहीं होगा । नन्दिवर्धन : फिर भी इम मंमार में तृप्णा मे मुनि नहीं है. वर्धमान ! वर्धमान : मुझे क्षमा करें ! मैं अपने अनुभव में कहता हूँ. काल के प्रहार में आयु गिरती जाती है । मंमार मृत्यु से पीड़ित है, जग ग पिग हा है । वह वैमा ही पीड़ित है जैसे कोई चोर गजवद मे भय-ग्रग्न रहता है । इसलिए मैंने दुःख-निरोध के लक्ष्य-बंध में नाणा को ममाप्त कर दिया है। यान तो क्षण-क्षण में परिवर्तित होता रहता है । मुझे ही देखिए, मैं पहले की भांति नहीं हैं । भाई ! अन्त में मैं यही कहना चाहता हूँ कि मैं न ना मृन्य का अभिनन्दन करना हूँ, न जीवन का । अहिमा म स्थिर रहते हा मैं अपने ममय की प्रतीक्षा करता हूँ। नन्दिवर्धन :ना यह तुम्हाग अन्तिम निर्णय है कि तुम कडग्राम नहीं चलोगे । वर्धमान : भाई. मुझे क्षमा करें ! टम ममय तो नहीं चल मकंगा। मैं कभी कुड. ग्राम अवश्य आऊंगा । गज्य-शामन करने के लिए नही, भिक्षा मांगने के लिए । मेरे लिए किमी म्थान में आने के लिए किमी प्रकार की गंक नहीं है। EE Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धम नन्दिवर्धन : अच्छी बात है। तो अब मैं लौट जाता हूँ। देलूंगा कि तुम अपने भविष्य-जीवन में माया-मोह से कहाँ तक दूर रहते हो। (नन्दिवर्धन महावीर वर्धमान को घूरते हुए जाते हैं। उनके जाते ही दूसरी ओर से नेपथ्य में वीणा और मवंग की ध्वनि आती है। दूसरे हो क्षण तीन सुन्दरियां क्रमशः नृत्य करते हुए आती हैं। ये तीनों भिन्न-भिन्न वेश-भूषा की हैं। मानो सतो गुण, रजो गुण और तमो गण स्त्री-वेश धारण कर महावीर वर्धमान को उनकी साधना से विरत करने के लिए एक साथ आ गये हैं । पहली सुन्दरी का नाम है-सुप्रिया । यह सतोगुणी है। श्वेत रंग की साड़ी, कंठ में मुक्ता-हार, कटि में किकिणी और पैरों में नपुर । माथे पर श्वेत चन्दन को पत्रावलि और श्वेत अंगराग। हाथों में होरक-जटित कंकण और माथे पर बेदी। दूसरी सुन्दरी का नाम है-रंमा, जो रजोगणी है। लाल रंग की साड़ी और समस्त परिधान अरुण वर्ण के ही हैं। कंठ में माणिक के आभूषण, हाथों में विद्युम जटित कंकण, किंकिणी और नूपुर, माथे पर केसर को पत्रावलि, बीच में अरुण बिन्दु, माथे पर माणिक को बिन्दी। तीसरी सुन्दरी का नाम तिलोत्तमा है, जो तमोगणी है । नीले रंग की साड़ी और अन्य परिधान भी श्याम और नील वर्ण का है। कंठ और हाथों में नील मणि के आभूषण, माये पर कस्तूरी बिन्दु, नेत्रों में काजल, कपोलों पर तिल, नीलम को बेसर और कुंग्ल। सभी को कुंतल-राशि में फूल-मालाएं हैं। सुप्रिया के केशों में हरसिंगार, रंभा के केशों में पाटल और तिलोत्तमा के केशों में नील कमल। सुन्दरियां नाना प्रकार के हाव-भाव करती हैं किन्तु महावीर वर्धमान ध्यानस्थ होकर आंखें बन्न किये बैठे हैं । सुनरियां नृत्य करते हुए परिहास और व्यंग्य की मुद्राएं बनाती है और ध्यानस्थ वर्धमान की आकृति को नकल करती हैं। अन्त में यक कर महावीर बर्धमान के दाएं-बाएं और सामने बैठ जाती है।) १०० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अंक सुप्रिया : रंभा ! हम लोग नृत्य करते-करते थक गई किन्तु इन महात्मा के ध्यान की मुद्रा ही नहीं टूटी । देवेन्द्र भी हम लोगों के नृत्य से भावविभोर हो जाते किन्तु इन्होंने हमें देखा भी नहीं । रंभा : हाँ, सुप्रिया ! बड़े-बड़े मुनियों के नेत्र हमारे नृत्य की गति के साथ घूमते हैं किन्तु इनके नेत्र तो जैसे सीपी सम्पुट की तरह खुलते ही नहीं । बड़े तपस्वी हैं। क्यों तिलोत्तमा ! तुम तो बहुत अच्छा नृत्य करती हो । हो न गई तुम्हारे नृत्य की परीक्षा ? तिलोत्तमा : हमारे नूपुरों में स्वर्गीय संगीत है किन्तु जिसके कानों में सुनने की शक्ति भी नहीं है, वे नूपुर - नाद को क्या समझेंगे ? सुप्रिया : हमारा चन्द्र-वदन यदि उनके हृदय में मदन की सृष्टि नहीं कर सका तो मैं कहूँगी कि मदन मदन नहीं है, संसार का एक भिक्षुक है। रंभा : स्त्री के समक्ष तो प्रणय- भिक्षा में प्रत्येक पुरुष भिक्षुक बन जाता है, ये महात्मा भिक्षुक लग कर भी भिक्षुक नहीं है । तिलोत्तमा : हमारे इन आभूषणों मे तो अंधकार में भी प्रकाश हो जाता है किन्तु यहाँ तो अंधकार ही अधकार है । ( हाथ जोड़कर ऊपर देखते हुए) हे पार्श्वनाथ ! भिक्षुकों को भिक्षा न देकर उन्हें नेत्रों का प्रकाश दीजिए । सुप्रिया : मैं तो कहती हूँ ये पुरुष, पुरुष नहीं हैं, गुखे वृक्ष के टूटे हुए काष्ट-खंड हैं । तिलोत्तमा: यदि हमारे नृत्य ने इन्हें नहीं जगाया तो मै आत्महत्या करूंगी । वह रूप रूप ही क्या है जो पुरुष की दृष्टि को अपनी ओर खीच नहीं सकता ! : रंभा और ये आभूषण तो मेरे शरीर पर भारस्वरूप ज्ञात होते हैं और यह दुकुल शन की भाँति चभ रहा है । १०१ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान सुप्रिया : ( वर्धमान की ओर संकेत करते हुए) ये तो कुछ बोलते ही नहीं । इतनी बातें सुनकर भी ये वाणी के इतने कृपण हैं तो अपने शिष्यों को क्या उपदेश देंगे ? रंभा : इस तरह ये नहीं मानेंगे। इनमे अपनी व्यथा की बात कही जाय । तिलोत्तमा : अच्छी बात है। (हाथ जोड़कर महावीर वर्धमान से) हे प्रभो ! इम ग्राम में एक अत्यन्त विलासी श्रेष्ठि रहता है, वह हमें वश में करने के लिए भाँति-भाँति के उपाय करता है। उससे हमारी रक्षा कीजिए ! ( वर्धमान ध्यानावस्थित हैं ।) रंभा : महात्मा ! आपकी तपस्या पर मैं मोहित हूँ । अपने अंक -पाश में लेकर मेरी विरह व्यथा दूर कर दीजिए ! ( समीप पहुंच कर शुक जाती है ।) ( वर्धमान ध्यानावस्थित हैं ।) सुप्रिया सुना है, आप किसी समय राजकुमार थे । क्या राजमहल की सुन्दरियों से हम कम सुन्दर है ? एक बार दृष्टि उठा कर हमें देख तो लीजिए ! (वर्धमान ध्यानावस्थित हैं ।) रंभा : (दाँत पीसते हुए) वायु में उड़ने वाली रुई की भाँति इनका सारा वैराग्य में अभी उड़ाये देती है । सुप्रिया ! तू तो स्वयं वायु में लता की भाँति बु जाती है। मैं अब इन्हें अपने बन्धन में बाँधती हूँ । ( अपना उत्तरीय वर्धमान के चारों तरफ लपेटती है ।) देखूंगी ये इससे कैसे मुक्त होते है ! तिलोत्तमा : अरी रंभा ! तरा उत्तरीय तो बाहरी है । मैं अपने अन्तर से इन्हें बाँधती हूँ | तू जानती है, मंत्र शक्ति महान् होती है । ( वर्धमान की १०२ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच अंक परिक्रमा करती है। ओंटों में मंत्र पढ़ती है । ओंठों से हथेलो लगा कर उनके ऊपर 'छु' करके सांस छोड़ती है । ) देखता हूँ. अब ये कैगे छुटते हैं। मैंने कामदेव का मंत्र जो पढ़ दिया है। प्रिया : तिलोत्तमा ! तू तो कामदेव की उपामिका है। तेरा मत्र कभी झट नहीं हो सकता । अब महात्मा जी नहीं मकने । रभा : अरे, छूटने की बात क्या: : तपम्बी तो बड़े कृपालु होते है । वे कम हैं कि हमें आलिगन के नि: उन्मूक दम कर भी इनके हृदय में प्रम की भावना उदय नहीं होती। (वर्धमान ध्यानावस्थित हैं। मुप्रिया : सुनते हैं, म ता का हृदय ना नवनीन के समान होता है । उग ना हमारी दशा देख कर पिघलना चाहिए । तिलोनमा : अरे. इनका हृदय नवनीत के ममान नहीं है । इनका हदय ना एक पापाण-नुड है जो किमी वन्य की मीढ़ी पर पड़ा रहता। (वर्धमान ध्यानावस्थित है।) (सुप्रिया, रंभा और तिलोत्तमा निराश हो जाती हैं।) मृप्रिया : चलो. वहिनी ! य वास्तव में मन:। रभा : कहाँ हम महागज नन्दिनना प्रेरणा सेट माहित करत आई थी, और कहाँ हम ग्वयं नर बंगग्य माहित हो रही है। तिलोतमा : ये मन्च नाम्बी ज्ञात हात है। जब माननी य गांदा का आकगंगा पन्द्र, गजमहल में बाहर आन ग नहीं गा मानो हम बचाग्य की बात ही क्या है। मुप्रिया : अपनी तपस्या में ये मवमत्र ममार का कल्याण करेंगे। १०३ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान रंभा : हम नो पहले ही जानते थे कि बड़े से बड़ा सामारिक आकर्षण इन्हें तपस्या के मार्ग मे नहीं हटा सकेगा । खोलती हूं अपना वन्धन । (अपना उत्तरीय महावीर वर्धमान पर से हटा लेती है।) तिलोनमा : मैं भी अपना मंत्र लौटानी हूँ। (ओंठों का स्पन्दन होता है।) मुप्रिया : आओ, हम मव ऐसे महान् मन्त का अभिनन्दन करें ! (सब सुन्दरियाँ अपनी-अपनी केश-राशि में गथे फल निकल कर महावीर वर्धमान के चरणों में समपित करती हैं। फिर क्रम-क्रम से प्रणाम करके जाती हैं । उनके जाने के कुछ क्षणों बाद महावीर वर्धमान अपने नेत्र खोलते हैं और उठ कर टहलते हैं । टहलते हुए इस चर्या का पाठ करते हैं :) छंदं निरोहेण उवेई मोवखं आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी। पुवाई वासाई चरेऽप्पमते तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ।। [जसे अभ्यास सिद्ध कवच धारण करने वाला अश्व युद्ध में विजय प्राप्त करता है उसी भांति पूर्वकाल से अप्रमत्त संयमशाली मुनि शीघ्र हो मोक्ष लाम करता है। (कुछ क्षणों के लिए मंच पर अंधेरा हो जाता है जो समय के अन्तराल का सूचक है। फिर प्रकाश होने पर महावीर वर्धमान टहलते हुए दिखलाई देते हैं । वे यह चर्या पढ़ते हैं :) पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं कि वहिया मित्तमिच्छसि । पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ एवं दुक्खा पमोक्खसि ।। १०४ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच अंक [है पुरुष ! तू स्वयं ही अपना मित्र है, फिर बाहर किसी अन्य मित्र की खोज क्यों करता है ? तू अपने आपका निग्रह रख, इससे तू समस्त दुःखों से मुक्त हो जायगा ।] (कुछ क्षण बाद दो ग्रामीण आते हैं ।) पहला : मुनिराज को प्रणाम ! दूसरा : महामुनि को प्रणाम ! पहला : महाराज ! यह अस्थिक ग्राम है। यहाँ से आप चले जायें तो कुशल है । यहाँ एक बड़ी विपत्ति है । दूसरा : विपत्ति तो है, महाराज ! परन्तु उसके लिए अभी समय है । यहाँ एक यक्ष रहता है । वह संध्या समय लौटता है। अभी संध्या में कुछ देर है । किन्तु वह यक्ष इतना क्रूर और भयंकर हे कि जो उसके सामने पड़ता है, उसे ही मार डालता है । आप यहाँ से चले जायें । वर्धमान : नहीं, साधक ! मुझे किसी में भय नहीं है। जिसे अपनी आत्मा में विश्वास नहीं है, वही भय का भाजन है । जिसने सत्य को नहीं पहचाना, वही अशान्त है । पहला : मुनिराज ! हम लोग तो बहुत अशान्त हैं । हम लोग टी अस्थिक ग्राम के निवासी हैं। मेरा नाम इन्द्रगोप और मेरे साथी का नाम चुल्लक है । हम सब लोग उस यक्ष से आतंकित हैं। वह उसी पास के चैत्य में रहता है। यहाँ कोई आया नहीं कि उसने उसका वध किया | चुल्लक: हाँ, महाराज ! कुछ दिन हुए एक महामुनि यहाँ आये थे, इसी चैन्य में निवास करने | हम लोगों ने उन्हें यहां की स्थिति बतलायी । उनसे प्रार्थना की कि आप यहाँ न ठहरे। उन्होंने हमारी बात सुनी नहीं । वे रात में यहीं रुके । प्रातःकाल यहां के ग्राम वासियों ने देखा कि चैत्य के बाहर उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े पड़े हुए है । १०५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान वर्धमान : चिन्ता की क्या बात है, साधक ! शरीर तो एक दिन नप्ट होगा ही । कीन जानता है कि जीवन की अवधि कितनी है । इसलिए मन को सदैव शान्त रखना चाहिए । चुल्लक: महाराज ! मेरा मन ही तो शान्त नहीं रहता और सब कुछ शान्त रहता है । और महाराज ! दामता से भी कष्ट होता है और स्त्री की दासता तो संसार की सबसे बड़ी दासता है । 1 वर्धमान : स्त्री में राग का केन्द्र है, साधक ! जो घर अच्छी तरह न छाया गया हो उसमें वर्षा का जल प्रवेश कर जाता है । उसी तरह जो व्यक्ति संयमशील नहीं है, उसमें राग प्रवेश कर जाता है और राग की अधिकता में ही दासता की भावना जन्म लेती है। इन्द्रगोप : महाराज ! संसार में रहते हुए राग की अधिकता को कैसे रोका जा सकता है ? वर्धमान : अभ्यास मे सब मम्भव है । जो समुद्र की तरह स्थित है, निम्नरंग है, वह अशान्त नहीं होता । कमल जल में ही रहता है किन्तु अपने पत्रों पर वह जल की एक बूंद मे भी लिप्त नहीं होता। इसके लिए एकान्त सेवन सुविधाजनक होता है । चुल्लक : महाराज ! मैं एकान्त सेवन कर ही नहीं पाता । जहाँ जाता हूँ, मेरी स्त्री मुझे घेर लेती है । वर्धमान : अलंकार धारण किये हुए, सुन्दर वस्त्र पहने, चन्दन चचिन नारी कामदेव का फेंका हुआ जाल है । और उम जाल में शब्द, स्पर्श, रूप, रम, गन्ध — ये पांच फन्दे हैं । उनमें कभी मत उलझो। उनमें उलझना ही नारी पर आसक्त होना है । चुल्लक : महाराज ! मैं नारी पर आसक्त नहीं हैं, नारी मुझ पर आसक्त है । महाराज ! मैं नहीं जानता कि मैं किस तरह व्यवहार करूँ । १०६ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अंक वर्धमान : साधक ! न तुम अपनी प्रशंसा करो, न दुसरों की निन्दा । जो कुछ कहो, उस पर आचरण करो। पूर्वजों के जीवन पर किसी प्रकार का आक्षेप न हो। बाहरी दिखावे मे कोई श्रेष्ठ नहीं होता. भीतर की शुद्धि से ही श्रेष्ठता प्राप्त होती है। छोटे मन से महान कार्य नहीं होते, जिम तरह छोटे द्वार मे हाथी नहीं निकल सकता। सुबती बनो. निर्गंध पुष्प की भाँति लता का बोझ मत बनो ! चल्लक : मुनिगज ! आपके उपदेश मुनकर मेरे मन में वैमी ही शान्ति हो गई जैसे स्त्री के प्रमन्न होने पर घर में शान्ति हो जाती है । इन्द्रगोप : (चुल्लक से) तुम हर बात में अपनी स्त्री क्यों ले आने हो ? चल्लक : क्योंकि वह कहती है कि मेरे बिना तुम अधूरे हो। वर्धमान : प्रकृति ने प्रत्येक वस्तु पूर्ण बनायी है। मूर्य, चन्द्र, भूमि, मरिता, पर्वत, अग्नि, आकाश-इनमें कौन अपूर्ण है ? तुम भी अपूर्ण नहीं हो, माधक ! विकारों में मन भ्रमित होता है. जिसमे अपर्णता का आभाम होता है। जिम प्रकार वाय मे उठी धुल मंघ मे पध्वी पर लौट आती है, उमी प्रकार विवेक में भ्रमित मन शान्त हो जाता है । चुल्लक : अब मंग मन पूर्ण शान हो गया. मुनिगज ! इ-दगोप : मेरी माधना का क्या रूप होना चाहिए, मुनिगज ! वर्धमान : तुम श्रावक बनो, माधक ! ममम्न मंस्कारों में मक्त हो जाओ। किमी मे किमी प्रकार की अपेक्षा न हो, इसलिए किमी मे किमी प्रकार का भय न हो । मंमार को यथार्थ रूप में देखने पर किसी प्रकार की तृष्णा न हो। आयु के समाप्त होने पर उसी प्रकार मन्तुष्ट रहा जिस प्रकार गंग के अन्न होने पर मुख और शान्ति का अनुभव होता है । धर्म रूपी दर्पण में अपना मन देखो । इमम मन रज-रहित हो जायगा, दुःख का निगंध होगा और मन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति विकमित होगा। १०७ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान चुल्लक : मैं अपनी स्त्री को क्या करूं, मुनिराज ? वर्धमान : यदि तुम स्त्री के साथ रहना चाहते हो तो जैसा मैंने पहले कहा, उसी प्रकार रहो जिस प्रकार कमल पानी में रहता है । पानी भिगोना चाहता है परन्तु कमल-पत्र भीगता नहीं। वह पानी की बूंद को मोती की भाँति बना देता है। इसी प्रकार तुम स्त्री पर आसक्त न होते हुए उमे मोती की बूंद की भाँति बना दो। यदि तुम उस पर आसक्त होगे तो स्रोत में उगे हुए नरकुल की भाँति कामदेव तुम्हें बार-बार तोड़ेगा। चुल्लक : महाराज ! मैं कृतार्थ हुआ। आपने मुझ से यथार्थ बात कह दी । अब मेरा विवेक जाग गया। वर्धमान : अधेरी रात में विवेक प्रज्वलित अग्नि के समान है। (इसी समय बाहर अट्टहास होता है। इन्द्रगोप और चुल्लक काप उठते हैं।) चुल्लक : (उरते हुए) प्रभु ! अब कुशल नहीं है, शूलपाणि यक्ष आ गया। वर्धमान : शुलपाणि यक्ष ? इन्दगोप : हां, महाराज ! इमी चैत्य में उसका निवास है । वह यहां किमी को ठहरने नहीं देता। जो हठपूर्वक यहाँ ठहरता है, वह अपने प्राणों से हाथ धोता है । आप यहाँ से कहीं अन्य स्थान पर चले जाइए। चुल्लक : प्रभु ! आज रात आप मेरे घर निवास कीजिए । आपको कोई कप्ट नहीं होगा। मेरी स्त्री को भी आपके उपदेश मुनने का लाभ होगा। मै तो उसे उपदेश दे नहीं सकता, वह उलटे मुझे ही उपदेश देने लगती है। इन्द्रगोप : महाराज ! आप मेरे घर विश्राम कीजिए, आपको वहाँ कोई कप्ट नहीं होगा। १०८ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अंक वर्धमान : मुझे कहीं किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं है। जितने उपसर्ग होंगे, उन्हें सहन करने की क्षमता मुझ में है। इन्दगोप : किन्तु महाराज ! वह यक्ष आपके प्राण ले लेगा। वर्धमान : तो क्या हानि है ? यदि मृत्यु आयेगी तो मैं समझंगा कि मैंने अपने सिर से भार उतार दिया। (फिर अट्टहास की ध्वनि) चुल्लक महाराज ! शीघ्र ही इस चैत्य से निकल चलिए। वर्धमान नहीं, साधक ! नवीन चैत्य चित में नवीन चिनाएँ उत्पन्न करता है। मैं आज की रात यहीं निवास करूंगा। इन्द्रगोप : महात्मन् ! गत में यहाँ निवास करना मृत्यु को निमन्त्रण देना है। एक मुनि यहाँ प्राण समर्पित कर चके हैं। वर्धमान उन संत को अहंकार और अभिमान होगा। वे तीर पर खड़े होकर धर्म की गहराई को जानने का दंभ भरने होंगे। इन्दगोर महाराज ! वह यक्ष नना निष्ठुर है कि किमी दंभी और मन में भेद नहीं मानता। उममें अपार शक्ति है। वह वज्र की तरह व्यक्ति पर गिरता है। वधमान तो गिरे । जिम तरह वृक्षों में फल गिरते है, उमी भांनि गरीर टने पर मैं भी गिर जाऊँगा। (पुनः अट्टहास होता है।) इन्द्रगोप : वह आ गया ! मुझं भी मार टालेगा, महागज ! में जाता है । चल्लर. : महागज ! मुझे भी आज्ञा दें । मैं भी यहां नहीं रह सकता। वह मझे मार बिना नहीं रहेगा । फिर मेरी पत्नी क्या करेगी ! मैं अपनी पत्नी का एकमात्र पनि हैं। १०६ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान (शीघ्रता से दोनों ही चले जाते हैं । वर्धमान आसन लगा कर ध्यानस्थ होकर बैठ जाते हैं। कुछ ही क्षणों में विकराल वेश बनाये शूलपाणि यक्ष आता है । सिर के बाल बिखरे हुए। उसका मुख लाल और श्वेत रंग से रंगा हुआ है। रक्त वर्ण वस्त्र पहने हुए है। कमर में पोली रस्सी बंधी हुई है। नंगे पर। वह एक बार फिर जोर से अट्टहास करता है।) शलपाणि : अह. ह ह हह. फिर कोई मेरे चैन्य में प्राण देने आया है। (अट्टहास करता है।) अग्नि की लौ में जलने के लिए जैसे पनिगे आप से आप उड़ कर चले आते हैं, उसी प्रकार मेरे प्रताप की अग्नि में जलने के लिए भोले-भाले व्यक्ति स्वयं ही इधर आ जाते हैं। आओ और अपने प्राण अपित करो ! जानते नहीं ? इस चैत्य पर केवल मेरा अधिकार है, मेरा। (पुनः अट्टहास । फिर रुक कर ध्यान से देखता हुआ) अरे. यह डर कर भागा नहीं ? इसने अपनी प्राण-रक्षा के लिए कोई याचना नहीं की? (महावीर वर्धमान के चारों ओर घूमता है।) अब यह मेरे घेरे में है। छूट कर नहीं जा सकता। (जोर से) कौन है तू ? भोले मानव ! अपना मुंह खोल । बनला कि तुझे अपने जीवन में इतना विगग कैसे हो गया ? (वर्धमान कुछ नहीं बोलते।) नु मौन रह कर ही मत्य के मुख में जाना चाहता है ? तू जीवित तो है ? (मुक कर ध्यान से देखता है ।) हूँ ! तू जीवित है ! (हंसता है।) जीवित होकर भी मृतक की भाँति है । फिर आंखें क्यों नहीं खालता ? देख 'मानव ! दम्य नर मामन नग काल खड़ा हुआ है। (जोर-जोर से पृथ्वी पर पदाघात करता है । महावीर वर्धमान फिर भी ध्यान में मग्न हैं।) शलपाणि : यह विचित्र मानव है ! इमकी मारी इन्द्रियां निश्चेष्ट हैं । न इसके मुख पर किसी प्रकार का आतंक है और न भय ! (विस्मय से घूमता हुआ) ऐसा व्यक्ति तो मैंने जीवन भर में नहीं देखा । "इतना साहमी ११० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अंक कि मेरे चैत्य में आकर निर्भीक होकर इस प्रकार बैठा है जैसे मेरे चैत्य की भूमि ही इसका सिंहासन हो। (सोचता है।) तो इसे उठा कर मैं इसी पथ्वी पर पटक दं। किन्तु इसे पटकने में मेरी शक्ति का अपमान है । कहाँ यह और कहाँ मैं ? इसके अंग तो वृक्ष की टूटी हुई टहनियों के समान हैं । मैं दूसरे ही साधन से इसे मारूंगा। मैं अपने मंत्र-बल से इसके ब्रह्मांड के आकाश को खींचता हूँ। (महावीर वर्धमान के सामने खड़े होकर वाय खोंचने का अभिनय करता है।) इसकी साँसों की वायु खींचता हूँ। (फिर खींचने का अभिनय करता है।) इसकी जठराग्नि खींचता हूँ. . इसकी आँखों से जल खीचता हूँ. . . इसके आसन की भूमि खींचता हूँ। (यक्ष के प्रयत्नों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।) अरे, इस मानव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा ? न तो इसकी माँस ही रुकी और न इसके आमन की भूमि ही हटी। यह तं। विचित्र व्यक्ति ज्ञात होता है । इसके समक्ष मेरी शक्ति कुछ काम ही नहीं कर रही है। यह मेरी शक्ति का अपमान है। कोई बात नहीं • • 'मेरे पास और भी तो भयंकर माधन हैं। कालकुट का कुवर भयानक सर्प, चंड कौशिक । आ मेरे चंद्र कौशिक ! तू एक ही पत्कार से इम मानव को मृत्यु-कप में ढकेल दे । (भीतर जाकर एक भयानक सर्प लाता है ।) यह रहा चंड कौशिक । मरे चंड कौशिक ! अपने विप की ज्वाला से इम मानव को तू म तरह मे झुलमा दे जैसे दावाग्नि मागे वन को जला डालती है । आज तरी वड़ी से बड़ी परीक्षा है। तो यह ले । इमके गल में लिपट कर दम तरह कम ले कि इसकी मांस ही रूक जाय और फिर अपने कठोर दंशन म इमे ममाप्त कर दे । जा, गले में लिपट जा ! (सर्प को गले में डाल देता है। किन्तु वह सर्प महावीर यर्धमान के गले में फूलों को माला की भांति मल जाता है। भिन्न-भिन्न कोणों से यक्ष जाकर वर्धमान के गले में पड़ा सांप देखता है।) ती तू भी इमे माग्ने मे अमफल हो गया? महान् आश्चर्य ! नू ना अपने एक ही दंगन में हरे-भरे वृक्ष १११ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान को मूखा काष्ठ बना देता है। यहाँ तू फूलों की माला की तरह झल गया ! धिक्कार है, चंड कौशिक ! तुझे धिक्कार है ! (हताश हो कर इधर-उधर टहलता है। सोचते हुए) यह मानव कोई मंत्र जानता है, अवश्य ही कोई मंत्र जानता है, नहीं तो चंड कौशिक इतना शिथिल नहीं हो मकता था । इसका मारा विष ही समाप्त हो गया। विश्वामघातक ! चंड कौशिक ! तू हट जा ! तू परीक्षा में असफल हो गया । तूने मेरा सारा विश्वास खो दिया। तू गले से निकल आ ! चल, निकल ...! (महावीर वर्धमान के गले से सांप निकाल कर भूमि पर फेंक देता है।) यह विचित्र मानव मेरी शक्ति की परीक्षा ले रहा है । किन्तु मैं हार नहीं मानूंगा। मैं शूलपाणि हूँ । शूल से ही इसका मस्तक छेद दूंगा । जाता हूँ, लाता हूँ अपना शूल । (शीघ्रता से जैसे ही भीतर जाने के लिए बढ़ता है वैसे ही भूमि पर पड़ा हुआ सर्प उसे काट लेता है। वह गहरी दृष्टि से सर्प को देखता है । फिर कराहता हुआ) ओह ! तूने मुझे ही काट लिया ! अरे चंड कौशिक ! तुझे पालने का क्या तू मुझे ऐसा ही बदला देगा ? मैं पहले तेरा ही सिर इस शूल से छेद दूंगा। (शूल लेने के लिए चंत्य में प्रवेश करना चाहता है किन्तु लड़खड़ा कर गिरता है ।) ओह ! भयानक विष! रोम-रोम में यह ज्वाला जल उठी! मेरा ही मॉप और मुझे ही काट ले ! आह ! भयानक विष· · · भीषण ज्वाला . . ! ! तेरा यह भयानक विष कहाँ गया था जब तु इस मानव के गले में पड़ा था ! (घुटने टेक कर बैठना चाहता है लेकिन फिर गिर पड़ता है।) ओह् ! मारा शरीर जल रहा है । मैं मरा' · · (जोर से चोख कर) वचाओ.. 'मझे व..'चा · · ·ओ। हाय ! हाय ! मैं नहीं जानता था कि इस पापी चंड कौशिक का विप इतना भयानक है ! ओह... ओह · · 'मैं - ‘मरा · · · (महावीर वर्धमान से) महामानव ! तुम्हीं मुझे बचा लो । हाय ! तुम्हें अपमानित कर मैंने बड़ा अपराध किया है। मुझे क्षमा करो ! मुझे वचा लो, महा संत ! मुझे बचा लो . . ११२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांवचा अंक मैं मरा' - 'मैं मरा ! महा संत ! इस भयानक विप की ज्वाला दूर कर दो ! तुम कर सकते हो। संमार की सभी वस्तु तुम्हारे वश में हैं । मैं मरने जा रहा हूँ, महा संत ! मुझे बचालो ! (वर्धमान आँखें खोल कर शूलपाणि को देखते हैं । वे उठकर उसके समीप जाते हैं।) वर्धमान : शूलपाणि ! सर्प ने तुम्हें काट लिया? चिन्ता मत करो । मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा। मैंने यहाँ आते ही देखा कि तुम्हारे चैन्य के पास ही सर्प-विप दूर करने की जड़ी है। आयुर्वेद जानने के कारण मैं वह जड़ी पहचानता हूँ। मैं उस जड़ी को अभी विप-दंत पर लगा देता है। शूलपाणि : महात्मन् ! वह जड़ी शीघ्र ही लगा दीजिए । म जन्म भर आपकी सेवा करूंगा। वर्धमान : मुझे किमी की सेवा की आवश्यकता नहीं है । मै जडी अभी लगा देता हूँ। (महावीर वर्धमान शीघ्रता से एक कोने से जड़ी उखाड़ कर लाते हैं, विष-दंत पर लगाते हैं और शूलपाणि को देते हैं ।) शूलपाणि ! इस जड़ी को तुम मुंघ भी लो। गहराई में मंघी ! (शूलपाणि जड़ी को लेकर गहराई से बार-बार सूंघता है।) वर्धमान : अव विष का प्रभाव कम हो रहा होगा। शूलपाणि : हां, महान्मन् ! मैं शान्ति का अनुभव करने लगा है। विप का प्रकोप कम होता जा रहा है । कम · · होता- 'जा' - ‘रहा - है। (इन्द्रगोप और चुल्लक का शीघ्रता से प्रवेश) इन्द्रगोप : जय हो ! जय हो महा मन्त की ! हम लोगों ने शूलपाणि के कगहने की ध्वनि मुनी तो ममझ गये कि महा मन्त ने उसे अच्छा दंड दिया। ११३ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान चुल्लक : मैं भी महा सन्त की जय बोलता हूँ और अपनी पत्नी की तरफ से भी जय बोलता हूँ। शलपाणि : मैं भी : ‘महा · · ‘सन्त · · ·की जय · · बोलता है। मैं तो मर गया था। मेरे ही माँप चंड कौशिक ने मझे डम लिया। यदि ये महात्मा यहाँ न होते तो मैं तो अभी तक मर गया होता । मेरे ही चैत्य में सर्पविप को दूर करने की जड़ी ! मैं उसे नहीं पहचान पाया। और इन महात्मा ने उम जड़ी को उखाड़ कर काटे हुए स्थान पर लगा दिया और मेरे शरीर से सर्प-विप दूर हो गया। हाय ! वह चंड कौशिक काट कर न जाने कहाँ चला गया। त्रुल्लक : हम लोग तो ममझे थे कि तुम मर गये । मेरी पत्नी ने कहा था कि जाकर शूलपाणि का अंतिम संस्कार कर आओ। शूलपाणि : मचमुच ही वह शलपाणि मर गया जिमने इतने बड़े मन्त का अपमान किया। यह नो उसका पुनर्जन्म है। इन्द्रगोप : धन्य हैं ये महात्मा जो मान-अपमान मे इतने पर हैं कि तुमने इनका घोर अपमान किया और इन्होंने तुम्हें जीवन-दान दिया ! शूलपाणि : धन्य धन्य हो ! महात्मा ! चुल्लक : अव धन्य धन्य कहने मे क्या होता है ! पहले नो तुमने इतने सन्न महात्माओं को मारा जिनकी गिनती नहीं है । अब धन्य धन्य कहते हो! अरे, तुम्हारा चंड कौशिक भी तुम्हारी उदंडता से ऋद्ध हो गया। वह ऐसे सन्त का अपमान नहीं सहन कर सका और उसने तुम्हें डस लिया। शूलपाणि : (खड़े होकर) अरे, अब तो मैं बिलकुल अच्छा हो गया। लगता भी नहीं है कि सांप ने मुझे काटा था। (महावीर वर्धमान के चरणों पर गिरता है।) ११४ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ अंक इन्द्रगोप : मैं तो पहले ही जानता था कि ये सामान्य सन्त नही हैं । चुल्लक : अरे, सामान्य सन्त होते तो क्या शूलपाणि के क्रोध से बचते ? मेरी पत्नी का क्रोध तुमसे कम नहीं है. शूलपाणि ! किन्तु में भी बालबाल बचता ही आया हूँ । शूलपाणि: मैंने महा सन्त का प्रभाव नहीं जाना । इनमें वाक्य कहे जा अपमान किया किन्तु ये मौन बैठे रहे। उन्होंने किसी प्रकार का उत्तर नहीं दिया । किन्तु जब सर्प ने मुझे काटा तो ये मेरी रक्षा के लिए आ गये । महा मन्त ! तुम्हारे दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया 1 जय हो ! जय हो महा मन्त की ! अब सर्प का विष न जाने कहाँ चला गया ! वर्धमान : संसार कापि सर्प विष से अधिक भयानक है, शूलपाणि ! उसमे बचने का प्रयत्न करो। शूलपाणि: अवश्य करूंगा, महात्मन् ! मुझे अपना शिष्य बना लीजिए । अथवा बनाने में क्या ! मैं स्वयं शिष्य हो गया ! मैंने अब तक जो दुष्कर्म किये हैं उनका प्रायश्चित्त करूंगा । 1 वर्धमान : प्रायश्चित्त यही हो कि आज से तुम समस्त कुकर्म छोड़ दो किमी की हत्या न करो। क्रोध न करो, मानापमान से ऊपर उठो । जनता की सेवा करो | कभी किसी प्रकार की हिमा न करो। अहिसा ही तप है, उसका अनुसरण करते हुए लोक-कल्याण करो ! निर्भय होकर सत्य का उसी प्रकार नाद करो जिस भाँति सिंह अपनी गिरि-गुहा में नाद करता है । शूलपाणि: आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करूंगा, महात्मन् ! चुल्लक: पालन न करोगे तो क्या करोगे शिष्य जी ! अब महात्माओं मे सम्हल कर बात करना । इस बार तो महात्मा जी की कृपा से बच ११५ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वर्धमान गये । आगे उलटी-सीधी बातें की तो एक चोंटी के काटने पर भी नहीं बचोगे। इन्द्र गोप : इन जैसे महात्माओं की बात ही अलग है। (महावीर वर्धमान से) महात्मन् ! मुझे भी अपना शिप्य बना लीजिए। हम सब जान गये हैं कि आप महावीर वर्धमान हैं। चुल्लक : मुझे भी...और...मेरी उसको...अर्थात् मेरी पत्नी को भी। वर्धमान : श्रद्धा, स्मृति और अहिंमा का अभ्यास कर इन्द्रियों का दमन करो और पाप-मुक्त हो जाओ ! शूलपाणि : ऐसा ही होगा, महात्मन् ! वर्धमान : अनित्य का, अनासक्ति का, अभ्याम करना प्रत्येक श्रमण के लिए आवश्यक है। उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायामज्जव भावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ [शान्ति से क्रोध को जोते, विनम्रता से अभिमान को जीते, सरलता से माया को जीते और सन्तोष से लोभ को जोते।] सब : (सम्मिलित स्वर से) तीर्थकर महावीर वर्धमान की जय ! जय ! जय ! [धोरे-धीरे परदा गिरता है।] Page #121 --------------------------------------------------------------------------  Page #122 --------------------------------------------------------------------------  Page #123 -------------------------------------------------------------------------- _