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सरा अंक
की है, उनकी मुख-मुद्रा गंभीर हो उठी है और वे मेरे पास से उठ
कर चले गये हैं। सिद्धार्थ : हाँ, उनके साथियों से भी मुझे ऐसी सूचना मिली है। वे तो किसी
स्त्री की ओर देखते भी नहीं। त्रिशला : मेरी ममता न जाने कहाँ-कहाँ पंख लगा कर उड़ती है। मैं अपनी
पलकें बन्द करती हूँ तो न जाने कितनी सुकुमारियों के रूप उभरते हैं जो मेरी पुत्र-वधू बनने के लिए उत्सुक दीख पड़ती हैं किन्तु कुमार वर्धमान को वीतरागी दृष्टि के समक्ष सब कपूर की भांति उड़
जाती हैं। सिद्धार्थ : मेरे पास भी न जाने कितने नरेश अपनी पुत्रियों के चित्र भेजते हैं।
मैं उन चित्रों को कुमार वर्धमान के समीप पहुंचा देता हूँ किन्तु मुझे किसी प्रकार का उत्तर नहीं मिलता। लगता है जैसे मधुर से मधुर संगीत के स्वर दिशाओं की गहराई में डूब गये हैं और कोई
प्रतिध्वनि लौट कर उस संगीत का संकेत भी नहीं देती। त्रिशला : मेरा वात्सल्य भी जैसे इन्द्रधनुष की भांति निराधार है । (गहरी
सांस)
(गंभीर मुद्रा में कुमार पधमान का प्रवेश) वर्धमान : माता पिता के श्री-चरणों में प्रणाम ! (मस्तक झुकाते हैं।) सिद्धार्थ : (हाप उठाकर) स्वस्ति ! विजयी बनो ! त्रिशला : मेरे कुमार ! आओ मेरे पास ! (आगे बढ़ती हैं।) तुम सदैव सुखी
रहो ! अभी-अभी सुना कि तुमने इन्द्रगज जैसे मतवाले हाथी को वश
में कर लिया और सर्प को उठा कर दूर उछाल दिया। सिद्धार्थ : आज तुम्हारी वीरता की प्रशंसा सारा कुंडग्राम एक कंठ से कर रहा
है। हमारे वंश में तुम जैसा वीर कुमार आज तक नहीं हुआ।
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