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चौथा अंक ममय मन्दगामी होता है। यह विवेक से ही संतुलित होता है और उसी
में सुख है। यशोदा : आपको किस मुख की कमी है ? आप चारों दिशाओं के विजेता,
जम्बू द्वीप के ईश्वर और रथ-पति चक्रवर्ती हैं । वर्धमान : किन्तु मै पृथ्वी और अग्नि की भांति न तो किसी से प्रेम करता हूँ
और न किमी से द्वेप। यशोदा : (मुस्करा कर) मुझ से भी नहीं ? वर्धमान : यशोदा ! इस समय में वर्षा ऋतु में नीड़ में बैठे हुए पक्षी के
समान है। यशोदा : नो वर्षा ऋतु बीत जाने के अनन्तर आप नीड़ का परित्याग भी कर
सकते है। वर्धमान : यही मोच रहा हूँ। जमे वायु आकाश में फैले हुए बादलों को हटा
देती है, उमी प्रकार आने वाला ममय मेरे ममस्त बन्धनों को हटा दंगा। मंग मन मुक्त होकर आनन्द में मिल जायगा, जैसे गंगा की धारा सागर में जाकर मिल जाती है ।
यशोदा : नब मेरा अलंकार धारण करना, मुन्दर वस्त्र पहनना, माला धारण
करना, अपने चरणों को लाक्षा से रंजित करना व्यर्थ है। वर्धमान : यह तुम्हारी इच्छा, मेरे सन्यास-ग्रहण में इनका कोई स्थान नहीं है। यशोदा : नव आप यह भी मुन लीजिए कि जब आप संन्याम ग्रहण करेंगे तो
में भी आपके साथ मंन्यामिनी हो जाऊँगी।
वर्धमान : तुम्हें बहुत कष्ट होगा, यशोदा ! यह मुकुमार शरीर तपस्या के
कप्टों को कमे महन करेगा?
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