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जय वर्धमान
यशोदा : यदि आपको कष्ट नहीं होगा तो मुझे क्या कष्ट होगा? मेरी धारणा
आपके विचारों की अनुगामिनी होगी। वर्धमान : साधु ! माधु ! यशोदा ! जव तुम्हें किमी प्रकार का कप्ट नहीं
होगा तो फिर पिता जी के कथनानुसार हिंसा की बात ही नहीं
उठेगी। यशोदा : आपके प्रत्येक कार्य में मेरी ममति है। कहो तो अग्नि के समक्ष
माक्षी हूँ ! वर्धमान : नहीं, मुझे तुम्हारे वचनों पर विश्वास है।
(इसो समय नेपथ्य में हलचल होती है।) यशोदा : (चौंक कर) यह कैसी अशान्ति ?
(नेपथ्य में परिचारिका का स्वर-क्या में प्रवेश कर सकती है,
स्वामिनी ?) यशोदा : प्रवेश हो ।
(एक परिचारिका का प्रवेश) परिचारिका : स्वामी की जय ! स्वामिनी की जय ! निवेदन है कि गज्य के
दंडाधिकारी ने एक स्त्री को बन्दी किया है । उसने मरीवर में स्नान करते हा एक रत्नहार उठा लिया है। यह रत्नहार म्वामी
का है, ऐमा दंडाधिकारी कहते हैं । वर्धमान : यह वही रत्नहार तो नहीं है जो मैंने मरोवर में विसर्जित किया
था। यशोदा : वही होगा. स्वामी! वर्धमान : (परिचारिका से) दंडाधिकारी और उस स्त्री को भीतर भेजो।