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________________ तीसरा अंक बिता रही हूँ, क्यों न ? यही तो तू कहता है किन्तु यह नहीं जानता कि इन वाक्यों से मां का अपमान होता है। वर्धमान : अपमान कंसा, मां ! मान और अपमान तो शीत और उष्ण की भांति हैं। ये तो इन्द्रियों के विकार हैं, तृण से भी तुच्छ हैं । योग-क्षेम के लिए हमें कुशलता से जीवन व्यतीत करना चाहिए। त्रिशला : हम लोगों का जीवन कुशलता से व्यतीत नहीं हो रहा है, यह कौन कहेगा? तुझ से अधिक जानने वाला तो कोई है नहीं । राज्य में पूरी शान्ति, प्रजा का संतोष, राजमहल में सुख-सुविधा की सम्पूर्ण सामग्री और इस सब के साथ स्वामी पार्श्वनाथ की पूजा । कुशलता से जीवन व्यतीत करना और किसे कहते हैं ? पर तेरा ज्ञान ही दूसरा है । और वैसा ज्ञान तो मुझ में है नहीं । पर तेरी जननी होने का मौभाग्य मुझे अवश्य प्राप्त है। न जाने कब से मैं तेरे विवाह की आम लगाये हुए हैं। ऐसी न जाने कितनी कन्याएं हैं जो नख से शिख तक सुन्दर हैं,सभी गुणों से सम्पन्न हैं, और तेरी सेवा के लिए लालायित हैं। फिर यह यशोदा तो अपने शील, लज्जा और लावण्य से तो रति को भी लज्जित करती है । इसकी वरमाला स्वीकार कर इसे अवश्य कृतकृत्य होना चाहिए। वर्धमान : मां ! स्वयं रति भी मुझ से विवाह का प्रस्ताव करे तो मैं उसे स्वीकार नहीं करूंगा। ऐसा मेरा निश्चय है। मैं विवश हूँ, मां ! मेरे निश्चय से तुम्हारी आज्ञा टल रही है। तुम्हारी अभिलाषा निर्गन्ध पुष्प की भौति मेरे विचारों की ऊष्मा से मुरमा रही है। क्या इसके लिए तुम मुझे क्षमा नहीं करोगी? क्षमा कर दो न, मां! विमला : ममा ? पुत्र के बड़े से बड़े अपराध पर जननी जमा नहीं करेगी तो और क्या करेगी? और अब मेरी आयु ही कितनी शेष रह गई है ! चाहती थी कि इन आँखों से अपने बेटे के कंठ में वरमाला पड़ते देखती
SR No.010256
Book TitleJay Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamkumar Varma
PublisherBharatiya Sahitya Prakashan
Publication Year1974
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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