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जय वर्धमान
मेरा आँगन मंगल घटों से सजाया जाता। दीप - माला से नगर की वीथियाँ जगमगा उठतीं, सारे कुंडग्राम में बन्दनवार इन्द्रधनुषों की भाँति सुशोभित होते । नगर-नारियाँ अपने झरोखों और वातायनों से मेरे सुन्दर बेटे की वर यात्रा देखतीं पर ( भरे हुए कंठ से ) अब... अब यह कुछ नहीं होगा कुछ नहीं होगा। अच्छा है, बेटे ! ...अब मैं अपनी अधूरी साध लिये हुए ही मर जाऊँगी मर जाऊँगी... ( आँखों में आंसू और हल्की-सी सिसकियाँ । त्रिशला अपना मुख वस्त्रों में छिपा लेती है।)
(नेपथ्य में : सम्राट् की जय !
सम्राट् की जय !
सम्राट् की जय ! )
वर्धमान : माँ ! पिता जी आ रहे हैं। तुम रो रही हो ? माँ ! पिता जी इस कक्ष में आ रहे हैं ।
( त्रिशला अपना शिरो-वस्त्र सम्हाल लेती है, वर्धमान सजग हो जाते हैं। महाराज सिद्धार्थ प्रवेश करते हैं, वर्धमान प्रणाम करते हैं ।)
सिद्धार्थ : महारानी त्रिशला और कुमार वर्धमान यहीं हैं। ( विशला को देख कर) अरे, महारानी ? तुम्हारी आँखों में आँसू !
वर्धमान : पिता जी ! मैंने माँ का अपमान कर दिया ।
सिद्धार्थ : तुम कभी स्वप्न में भी अपनी मां का अपमान नहीं कर सकते। कोई दूसरी बात होगी । कहो त्रिशला ! क्या बात है ?
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वर्धमान : पिता जी ! ये मेरे विवाह की चर्चा कर रही थीं और मैंने इसे स्वीकार नहीं किया । मुझे क्षमा कर दें ! मेरी इन्हीं बातों से माँ का अपमान हो गया। माँ तुम भी मुझे क्षमा कर दो !