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जय वर्धमान
वर्धमान : हाँ, माँ ! मैं विवाह नहीं करना चाहता । त्रिशला : फिर इस राजवंश की मर्यादा कैसे रहेगी ?
वर्धमान : अच्छी रहेगी । मेरे बड़े भाई नन्दिवर्धन हैं, बहिन सुदर्शना है, चाचा सुपार्श्व हैं। इनसे राजवंश का विकास होगा। मेरे पिता स्वयं एक चम्पक वृक्ष के समान हरे-भरे हैं और यश-सौरभ से सम्पन्न हैं ।
त्रिशला : यह सब तो ठीक है किन्तु पाटल-लता के एक या दो पुष्पों से उसकी शोभा नहीं होती । उसके सभी वृन्त पुष्पों से परिपूर्ण रहें, तभी उसकी शोभा होती है ।
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वर्धमान : क्या संसार में शोभा भी स्थायी रहती है, माँ ? यह शोभा उसी प्रकार अवनति को प्राप्त होती है जैसे कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा क्षीण होता जाता है । मैं ऐसी शोभा से प्रभावित नहीं हूँ ।
विशला : तेरा ज्ञान मेरी ममता से उतनी ही दूर है जितना आकाश पृथ्वी से है । तू माँ के संस्कारों से अपरिचित है, बेटे !
वर्धमान : संस्कार चंचल है, परिवर्तनशील है, माँ ! महासमुद्र की तरंगों की भाँति मृत्यु हमें वश में कर लेती है और संसार देखता रहता है । संस्कारों से अधिक स्मृतिमान धारणा कहीं श्रेष्ठ है ।
त्रिशला : तो तू विवाह नहीं करेगा ?
वर्धमान : नहीं माँ ! विवाह नहीं करना चाहता । सारथी द्वारा दमन किये अश्व की भाँति मेरी प्रवृत्तियाँ मेरे वश में हैं। अभिमान रहित, आश्रवरहित, अविचलित मेरी स्पृहा है । भाँति-भाँति के आकर्षण नक्षत्रों की भाँति जगमगाते हैं किन्तु यह रात्रि का ही विस्तार है । यह सोने के लिए नहीं है । मैं इसमें जागते रहना चाहता हूँ ।
त्रिशला : (व्यंग्य से) बोर में शयन कर रही हूँ । इन आकर्षण के नक्षत्रों को मैंने अपने स्वप्नों में उतार लिया है और उन स्वप्नों में अपनी रात
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