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तीसरा अंक विशला : चुप क्यों हो, बेटे ? क्या मां का वात्सल्य तुम्हारे मोन से लांछित नहीं
होता? वर्धमान : मां ! क्या तुम्हारा वात्सल्य केवल विवाह की वेदी का एक फूल मात्र
है ? तुम्हारे वात्सल्य की माला में तो अनेक फूल हैं, फिर इसी फूल
को इतना महत्त्व क्यों देती हो? विशला : मेरे वात्सल्य का प्रत्येक फूल समान है किन्तु माला में फूलों की स्थिति
भी तो महत्त्व रखती है । विवाह वही फूल है जिसकी स्थिति में माला
की शोभा और उसका शृंगार है। वर्धमान : मां ! वात्सल्य के फूलों को बिखरा हुआ ही रहने दो, उसकी माला
मत बनाओ। त्रिशला : (प्रश्न-सूचक मुद्रा में) तात्पर्य ? वर्धमान : यदि मैं विवाह न करूं तो संसार को क्या हानि होगी? त्रिशला : संसार की कुछ हानि नहीं होगी, मेरी होगी। और मेरा बेटा मेरी
हानि कभी नहीं करेगा। वर्धमान : आपका बेटा आपकी हानि तो कभी कर ही नहीं सकता। किन्तु हानि
हो ही कहाँ रही है ? त्रिशला : तू मां नहीं है, इसलिए पत्र-वधु की लालसा समझ ही नहीं सकता।
तेरे साथ के जितने क्षत्रिय कुमार थे, सब के विवाह हो गये। सब की माताओं ने अपनी मनचाही पुत्र-वधुएँ प्राप्त कर ली। आज उनके भवन उल्लास और आनन्द से गूंज रहे हैं। एक हमारा भवन है जिसमें शिशिर का सन्नाटा छाया हुआ है । तेरा विवाह तो अभी तक हो जाना चाहिए था। वह तो मुझे मेरे योग्य कोई कुल-वधू नहीं मिल रही थी। इसीलिए तेरा विवाह अभी तक रुका रहा । अब तेरे योग्य एक मुन्दर, सुशील और तेरे यश के अनुरूप कुल-वधू मैंने पा ली है, तो तू कहता है कि मैं विवाह नहीं करूंगा।