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जय वर्धमान
त्रिशला : तेरा ज्ञान तो अभी से संन्यासियों का उदान बन गया है। उस ज्ञान
के आचरण का समय भी आयेगा किन्तु प्रभात प्रभात ही होगा,
सूर्योदय में मध्याह्न की कल्पना करना समय का अपमान करना है। वर्धमान : असीम धर्म में समय की स्थितियां नहीं होती, मां ! विशला : देख, बेटे ! मैं तुझ से शास्त्रार्थ नहीं करना चाहती। अपनी ममता
और लालसा के छन्दों से अपना कंठ मुखरित करना चाहती हूँ। चाहती हूँ कि इस कक्ष के ये मूक और निरुपाय क्षण किन्हीं नूपुरों का संगीत
अपने हृदय में भर कर समस्त संसार को गुंजित कर दें। वर्धमान : मां ! तुम्हारी स्नेह-धारा स्निग्ध और तरल है किन्तु मुझे भय है कि
इससे अभिलाषाओं को आग बुझती नहीं है, और भी उग्र हो
जाती है। त्रिशला : इन्हीं अभिलाषाओं से संसार गतिशील होता है, मेरे बेटे ! अच्छा, इधर
देख, (यशोदा का चित्र उठाते हुए) यह चित्र मुझे सबसे अधिक अच्छा लग रहा है । देख, कितनी सुन्दर आँखें हैं, जैसे कामदेव की अंजुलि में रखे हुए दो पुष्प हैं, नासिका देख जैसे किसी ने मर्यादा की पतली रेखा खींच कर उसे उठा दी है। ओंठ तो ऐसे हैं जैसे माधुर्य के दो किनारे हों जिनके बीच वाणी की भागीरथी बहती है । स्वभाव में, शील में, व्यवहार में शची है, कलिंग कुमारी के रूप में अवतरित हुई है। नाम है यशोदा-यशोदा । तूने पूछा था न? शरसेन राज्य की सुषमा कोन समेटे हुए है ? वह यही कलिंग कुमारी यशोदा है । इसके साथ मैं तेरा विवाह करना चाहती हूँ।
(वर्धमान चुप रहते हैं।) विशला : बहुत दिनों की लालसा तेरे सामने रख रही हूँ।
(वर्धमान फिर चुप रहते हैं।)