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तीसरा अंक शृंगार-कक्ष को इन चित्रों में जो सबसे सुन्दर है, उससे सुसज्जित
करना चाहती हूँ। वर्धमान : इस शृंगार-कक्ष में तो पहले से ही एक से एक सुन्दर चित्र सजे हैं।
एक चित्र से और क्या शोभा बढ़ जायगी? निशला : (सुनीता से) सुनीता! तू जा। मैं अपने बेटे से अपनी बातें कहना
चाहती हूँ। सुनीता : जैसी आज्ञा । महारानी की जय ! कुमार की जय ! (प्रस्थान) वर्धमान : सुनीता को बाहर क्यों भेज दिया ? विशला : मेरे और मेरे बेटे के बीच बातें सुनने की अधिकारिणी कोई सेविका
नहीं हो सकती। वर्धमान : तो ऐसी कौन-सी बात है, मां ! विशला : वही जो मैं अभी तुमसे कहने जा रही थी। वर्धमान : तुम तो चित्रों को बात कर रही थी, माँ ! त्रिशला : हाँ, जिस चिन की बात कर रही थी वह चित्र कक्ष में लगे हुए सभी
चित्रों से सुन्दर और आकर्षक होगा और सबसे बड़ी बात यह होगी कि
वह चित्र सजीव होगा जिसके स्वरों से यह कम मुखरित होगा। वर्धमान : (हंस कर) ओह ! अब समझा, मां ! किन्तु मां, ने सारे चित्र नश्वर
है। एक दिन सब नष्ट हो जाने वाले हैं और सजीव चित्र तो निर्जीव
चित्रों से भी पहले रूप-रंग में नष्ट हो जाते हैं। विशला : इस शृंगार-कक्ष में वैराग्य की ये बातें शोभा नहीं देतीं। यह तो कुछ
ऐसा ही है जैसे किसी शृंगार-मंजूषा में सर्प निवास करने लगे। वर्धमान : इस शरीर को भी संसार के लोग रत्न-मंजूषा ही कहते हैं किन्तु इसमें
पांच इन्द्रियों के पांच सर्प निवास करते हैं ।