________________
पांचवां अंक
वर्धमान : भाई ! उचित और अनुचित नो परिस्थितियों और दष्टि पर निर्भर
है। कोई सौ संकेतों और सौ लक्षणों से युक्त किसी अर्थ का एक ही अंग देखता है और यदि मैं एक मंकेत और एक लक्षण में सौ अंग देख लेता हूँ तो क्या अनुचित करता हूँ ? मैं धर्म-रस से मुखी हूँ भाई ! श्रेष्ठ और उत्तम रस को पीकर में विप का सेवन नहीं करना
चाहता। नन्दिवर्धन : मणि-कुंडल, राज्य-वैभव और सम्मान, कन्या-दाग जो मुख देते है,
क्या वे विप की भांति है ? यह जो तुम्हाग अभिषेक किया गया.
यह विप के समान है ? वर्धमान : रत्नहारों, चाँदी और मोने के पात्रों को त्याग कर जो मैंने मिट्टी का
पात्र लिया है, वह मेरा वास्तविक अभिपंक है। नन्दिवर्धन : (परिहास से) हँ ! गजमहल के बादिष्ट व्यंजनों को छोड़कर जो
तुम भिक्षान्न पर निर्वाह करोगे, चीवर पहन कर जो तुम भिक्षा
मांगोगे, उसमें कौन-मा मुम्न है ? वर्धमान : मैं चीवर भी धारण नहीं करूंगा, भाई ! और जो तम भिक्षान की
वान कहते हो नो मझे भिक्षा की भी आवश्यकता नही है क्योंकि जिम अमन का ग्म आज मैंने पाया है, वह मा प्रकार के व्यंजनों में
भी नहीं पा सका। नन्दिवर्धन : न पाया होगा किन्तु इसे मैं क्या कहूँ कि मिहामन का स्वामी आज
धूल-धमग्ति भमि पर बैठा है। मरांवर्ग में विहार करने वाला
गजकुमार आज बूंद-बूंद पानी के लिए तग्मता है। पमान : भाई ! जब मैंने अमृत पा लिया फिर पानी की क्या आवण्यकता ?
मंमार के सरोवर मे उठा कर मैंने अपने-आप को निर्वाण की पुण्य भूमि पर मार लिया है। जो अपने चिन के विषय में आश्वस्त है, वह अनासक्ति के महत्व को जानता है।
६७