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जय वर्धमान
नन्दिवर्धन : और यदि चित्त ने विद्रोह किया तो? वर्धमान : जिसका चित्त पर्वत की भांति अचल है, रंजनीय वस्तुओं से विरक्त है,
उमका चिन्न विद्रोह नहीं कर सकता और यदि विद्रोह करेगा तो मैं इसे उमी प्रकार वश में लाऊंगा जिस प्रकार अंकुश ग्रहण करने वाला महावत हाथी को वश में लाता है। और आप जानते हैं कि
कुछ वर्ष पूर्व मैंने एक मतवाले हाथी को वश में किया था। नन्दिवन : हाथी को तो कोई भी महावत वश में कर सकता है किन्तु वासनाओं
को वश में लाने में बड़े-बड़े योगी भी असमर्थ हो जाते हैं। वर्धमान : भाई ! मैंने वासनाएँ जला दी हैं । तृप्णा रूपी तीर अपने हृदय में
निकाल दिया है । सभी प्रकार के भय का उन्मूलन कर दिया है । मैंने जन्म-रूपी संसार में आग लगा दी है और कर्म-यंत्र को विघटित कर दिया है । अब मैं समझता हूँ कि मेरे लिए पुनर्जन्म की स्थिति
नहीं होगी। नन्दिवर्धन : पुनर्जन्म की स्थिति न हो किन्तु इम जीवन की क्या स्थिति होगी ?
इम जीवन में तुम जंगल में फेंकी गई लकड़ी की भाँति वनों में वाम
करोगे। वर्धमान : नहीं भाई ! मैंने इस संमार में न जाने कितने शरीर रूपी अनित्य
गृह बनाये हैं । अब मैंने ऐसे गृहों की सभी कड़ियां तोड़ दी हैं। उनके
शिखर ट गये हैं। अव मेरे सामने राजगृह कहाँ हैं ! नन्दिवर्धन : तो तुम वन-वन घूम कर क्या करोगे? वर्धमान : भाई ! वनों में सुन्दर शिखा वाले, सुरंग ग्रीवा वाले मयूर नृत्य करते
हैं, कोकिल कूजन करती है, मृग विहार करते हैं, मखमली पृथ्वी पर हरी घास बिछी रहती है. जल में तरंगें उठती हैं। प्रकृति में कितन शान्ति है, कितनी मुषमा है ! नवीन वर्षा से सिक्त हो वृक्षों के समूह