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पांचवां अंक
पर्वतों पर लहराते हैं, जल ऐसे बरसता है जैसे कोई गीत गा रहा है। शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु पीकर नाना प्रकार के पक्षी योगियों को जगाते हैं, अपने कलरव से वे प्रकृति का अमृत-रम मानम में भरने रहते हैं । ऐसा रस ईर्ष्या. द्वेष भरे नागरिको में और स्वार्थ में भरे हा
संसार में कहाँ मिलेगा? नन्दिवर्धन : ऐसे संसार में भी तुम तीस वर्षों तक रहे ! वर्धमान : अवश्य रह किन्न जब मामे मंमार में निवास करता था नब मेग
शरीर भले ही गज-भवन में रहता हो. पर मंग मन इमी वन में विहार करता था। भाई ! अब मैंने लोक-पग्लोक की तृष्णा को
न्याग दिया है। अब संमार में मेरे किमी गृह का निर्माण नहीं होगा । नन्दिवर्धन : फिर भी इम मंमार में तृप्णा मे मुनि नहीं है. वर्धमान ! वर्धमान : मुझे क्षमा करें ! मैं अपने अनुभव में कहता हूँ. काल के प्रहार में
आयु गिरती जाती है । मंमार मृत्यु से पीड़ित है, जग ग पिग हा है । वह वैमा ही पीड़ित है जैसे कोई चोर गजवद मे भय-ग्रग्न रहता है । इसलिए मैंने दुःख-निरोध के लक्ष्य-बंध में नाणा को ममाप्त कर दिया है। यान तो क्षण-क्षण में परिवर्तित होता रहता है । मुझे ही देखिए, मैं पहले की भांति नहीं हैं । भाई ! अन्त में मैं यही कहना चाहता हूँ कि मैं न ना मृन्य का अभिनन्दन करना हूँ, न जीवन का । अहिमा म स्थिर रहते हा मैं अपने ममय की
प्रतीक्षा करता हूँ। नन्दिवर्धन :ना यह तुम्हाग अन्तिम निर्णय है कि तुम कडग्राम नहीं चलोगे । वर्धमान : भाई. मुझे क्षमा करें ! टम ममय तो नहीं चल मकंगा। मैं कभी कुड.
ग्राम अवश्य आऊंगा । गज्य-शामन करने के लिए नही, भिक्षा मांगने के लिए । मेरे लिए किमी म्थान में आने के लिए किमी प्रकार की गंक नहीं है।
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