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जय वर्धमान
को मूखा काष्ठ बना देता है। यहाँ तू फूलों की माला की तरह झल गया ! धिक्कार है, चंड कौशिक ! तुझे धिक्कार है ! (हताश हो कर इधर-उधर टहलता है। सोचते हुए) यह मानव कोई मंत्र जानता है, अवश्य ही कोई मंत्र जानता है, नहीं तो चंड कौशिक इतना शिथिल नहीं हो मकता था । इसका मारा विष ही समाप्त हो गया। विश्वामघातक ! चंड कौशिक ! तू हट जा ! तू परीक्षा में असफल हो गया । तूने मेरा सारा विश्वास खो दिया। तू गले से निकल आ ! चल, निकल ...! (महावीर वर्धमान के गले से सांप निकाल कर भूमि पर फेंक देता है।) यह विचित्र मानव मेरी शक्ति की परीक्षा ले रहा है । किन्तु मैं हार नहीं मानूंगा। मैं शूलपाणि हूँ । शूल से ही इसका मस्तक छेद दूंगा । जाता हूँ, लाता हूँ अपना शूल । (शीघ्रता से जैसे ही भीतर जाने के लिए बढ़ता है वैसे ही भूमि पर पड़ा हुआ सर्प उसे काट लेता है। वह गहरी दृष्टि से सर्प को देखता है । फिर कराहता हुआ) ओह ! तूने मुझे ही काट लिया ! अरे चंड कौशिक ! तुझे पालने का क्या तू मुझे ऐसा ही बदला देगा ? मैं पहले तेरा ही सिर इस शूल से छेद दूंगा। (शूल लेने के लिए चंत्य में प्रवेश करना चाहता है किन्तु लड़खड़ा कर गिरता है ।) ओह ! भयानक विष! रोम-रोम में यह ज्वाला जल उठी! मेरा ही मॉप और मुझे ही काट ले ! आह ! भयानक विष· · · भीषण ज्वाला . . ! ! तेरा यह भयानक विष कहाँ गया था जब तु इस मानव के गले में पड़ा था ! (घुटने टेक कर बैठना चाहता है लेकिन फिर गिर पड़ता है।) ओह् ! मारा शरीर जल रहा है । मैं मरा' · · (जोर से चोख कर) वचाओ.. 'मझे व..'चा · · ·ओ। हाय ! हाय ! मैं नहीं जानता था कि इस पापी चंड कौशिक का विप इतना भयानक है ! ओह... ओह · · 'मैं - ‘मरा · · · (महावीर वर्धमान से) महामानव ! तुम्हीं मुझे बचा लो । हाय ! तुम्हें अपमानित कर मैंने बड़ा अपराध किया है। मुझे क्षमा करो ! मुझे वचा लो, महा संत ! मुझे बचा लो . .
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