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पांचवां अंक
कि मेरे चैत्य में आकर निर्भीक होकर इस प्रकार बैठा है जैसे मेरे चैत्य की भूमि ही इसका सिंहासन हो। (सोचता है।) तो इसे उठा कर मैं इसी पथ्वी पर पटक दं। किन्तु इसे पटकने में मेरी शक्ति का अपमान है । कहाँ यह और कहाँ मैं ? इसके अंग तो वृक्ष की टूटी हुई टहनियों के समान हैं । मैं दूसरे ही साधन से इसे मारूंगा। मैं अपने मंत्र-बल से इसके ब्रह्मांड के आकाश को खींचता हूँ। (महावीर वर्धमान के सामने खड़े होकर वाय खोंचने का अभिनय करता है।) इसकी साँसों की वायु खींचता हूँ। (फिर खींचने का अभिनय करता है।) इसकी जठराग्नि खींचता हूँ. . इसकी आँखों से जल खीचता हूँ. . . इसके आसन की भूमि खींचता हूँ। (यक्ष के प्रयत्नों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।) अरे, इस मानव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा ? न तो इसकी माँस ही रुकी और न इसके आमन की भूमि ही हटी। यह तं। विचित्र व्यक्ति ज्ञात होता है । इसके समक्ष मेरी शक्ति कुछ काम ही नहीं कर रही है। यह मेरी शक्ति का अपमान है। कोई बात नहीं • • 'मेरे पास और भी तो भयंकर माधन हैं। कालकुट का कुवर भयानक सर्प, चंड कौशिक । आ मेरे चंद्र कौशिक ! तू एक ही पत्कार से इम मानव को मृत्यु-कप में ढकेल दे । (भीतर जाकर एक भयानक सर्प लाता है ।) यह रहा चंड कौशिक । मरे चंड कौशिक ! अपने विप की ज्वाला से इम मानव को तू म तरह मे झुलमा दे जैसे दावाग्नि मागे वन को जला डालती है । आज तरी वड़ी से बड़ी परीक्षा है। तो यह ले । इमके गल में लिपट कर दम तरह कम ले कि इसकी मांस ही रूक जाय और फिर अपने कठोर दंशन म इमे ममाप्त कर दे । जा, गले में लिपट जा ! (सर्प को गले में डाल देता है। किन्तु वह सर्प महावीर यर्धमान के गले में फूलों को माला की भांति मल जाता है। भिन्न-भिन्न कोणों से यक्ष जाकर वर्धमान के गले में पड़ा सांप देखता है।) ती तू भी इमे माग्ने मे अमफल हो गया? महान् आश्चर्य ! नू ना अपने एक ही दंगन में हरे-भरे वृक्ष
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