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जय वर्धमान
(शीघ्रता से दोनों ही चले जाते हैं । वर्धमान आसन लगा कर ध्यानस्थ होकर बैठ जाते हैं। कुछ ही क्षणों में विकराल वेश बनाये शूलपाणि यक्ष आता है । सिर के बाल बिखरे हुए। उसका मुख लाल और श्वेत रंग से रंगा हुआ है। रक्त वर्ण वस्त्र पहने हुए है। कमर में पोली रस्सी बंधी हुई है। नंगे पर। वह एक बार फिर जोर से अट्टहास
करता है।) शलपाणि : अह. ह ह हह. फिर कोई मेरे चैन्य में प्राण देने आया है। (अट्टहास
करता है।) अग्नि की लौ में जलने के लिए जैसे पनिगे आप से आप उड़ कर चले आते हैं, उसी प्रकार मेरे प्रताप की अग्नि में जलने के लिए भोले-भाले व्यक्ति स्वयं ही इधर आ जाते हैं। आओ और अपने प्राण अपित करो ! जानते नहीं ? इस चैत्य पर केवल मेरा अधिकार है, मेरा। (पुनः अट्टहास । फिर रुक कर ध्यान से देखता हुआ) अरे. यह डर कर भागा नहीं ? इसने अपनी प्राण-रक्षा के लिए कोई याचना नहीं की? (महावीर वर्धमान के चारों ओर घूमता है।) अब यह मेरे घेरे में है। छूट कर नहीं जा सकता। (जोर से) कौन है तू ? भोले मानव ! अपना मुंह खोल । बनला कि तुझे अपने जीवन में इतना विगग कैसे हो गया ? (वर्धमान कुछ नहीं बोलते।) नु मौन रह कर ही मत्य के मुख में जाना चाहता है ? तू जीवित तो है ? (मुक कर ध्यान से देखता है ।) हूँ ! तू जीवित है ! (हंसता है।) जीवित होकर भी मृतक की भाँति है । फिर आंखें क्यों नहीं खालता ? देख 'मानव ! दम्य नर मामन नग काल खड़ा हुआ है। (जोर-जोर से पृथ्वी पर पदाघात करता है । महावीर वर्धमान फिर
भी ध्यान में मग्न हैं।) शलपाणि : यह विचित्र मानव है ! इमकी मारी इन्द्रियां निश्चेष्ट हैं । न इसके
मुख पर किसी प्रकार का आतंक है और न भय ! (विस्मय से घूमता हुआ) ऐसा व्यक्ति तो मैंने जीवन भर में नहीं देखा । "इतना साहमी
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