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[स्थान : सम्राट् सिद्धार्थ के सभा-कक्ष का बाहरी माग समय : दिन का तीसरा प्रहर स्थिति : समा-कक्ष में सम्पूर्ण सजावट है। द्वारों और प्ररोखों पर कौशेय
पट । सामने की दीवाल पर स्वामी पार्श्वनाथ का बड़ा-सा चित्र । फर्श पर मखमल के बिछावन । बीच में स्वर्ण सिंहासन जिसमें मोतियों की झालरें लगी हुई हैं। उसके दोनों ओर रेशम और जरी से मढ़ी हुई भद्र पोठिकाएं । कोनों में कलापूर्ण प्रतिमाएं । कक्ष अगर और चन्दन के धूम से सुवासित है।
सम्राट् सिद्धार्थ क्रोध को मुद्रा में टहल रहे हैं। बय पचास के लगभग है। विस्तीर्ण ललाट, उठी हुई नासिका । कोप से ओंठ फड़क रहे हैं। सिर पर किरीट और अंग पर राजसी वस्त्र । परों में रत्न-जटित उपानह । उनके सामने बलाध्यक्ष गिरिसेन सैनिक वेश में है। वह अपराधी को मुद्रा में सम्राट के सामने खड़ा हुआ है।
सम्राट अशान्त होकर क्रोध मरे स्वरों में बोल रहे हैं।] सिद्धार्थ : तो गज-शाला में इन्द्रगज कैसे निकल गया ? गजाध्यक्ष कहां थे?
मोटी-मोटी शृंखलाओं में कमा हुआ गज मुक्त होकर राजपथ पर चला गया और द्वार-रक्षक और नगर-रक्षक नगर-निवासियों के कुचले जाने का कौतुक देखते रहे ? बोलो, गिरिसेन ! यह सब कैसे हुआ ?