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जय वर्धमान
यशोदा : दंडाधिकारी ने यह रत्नहार तुम्हारे पास पाया और तुम निरपराध
हो ? और तुम रो रही हो ! अपने आँसुओं से तुम अपने अपराध
का प्रक्षालन नहीं कर सकती । तुम कौन हो ? अपना परिचय दो! स्त्री : (सिसकते हुए) मेरा नाम विशाखा है, स्वामिनी ! मैं क्षत्रिय
कुंडग्राम में ही निवास करती हूँ। मेरे पति "एक सामान्य श्रमिक .."थे । गत वर्ष उनका देहावसान हो गया.. (अधिक सिसकियाँ
लेती है।) यशोदा : शान्त ! शान्त ! मुझे इस बात से हार्दिक दुःख है । पति-विहीन
नारी जल-विहीन सरिता होती है, किन्तु इमका अपराध से क्या
सम्बन्ध है ? स्वी : महारानी ! मेरे तीन बच्चे हैं। तीनों भूख से तड़पते रहते हैं।
(सिसकियां लेती है) मेरे पति ने कुछ भी धन नहीं छोड़ा जिससे मैं अपने बच्चों का पोषण कर सकू । मैं उन्हें भूख से तड़पते हुए नहीं
देख सकनी। (सिसकियाँ) वर्धमान : तुमने राज्य को इसकी सूचना क्यों नहीं दी? स्त्री : महाराज ! मेरा साहस नहीं हुआ। मुझ अकिंचन स्त्री को राज-द्वार
तक कौन पहुँचने देता ? वर्धमान : नहीं, राज-द्वार के समक्ष प्रजा का प्रत्येक व्यक्ति पहुँच मकता है। स्त्री : मेरे पड़ोमियों ने मुझे रोक दिया। कहा-तेरे पहुँचने से राज-द्वार
अपमानित होगा और तुझे कड़ा दंड मिलेगा । वे लोग मेरे पति मे ईर्ष्या करते थे. कदाचित इसीलिए हम लोगों का तड़पना उन्हें अच्छा
लगता था। वर्धमान : (दंडाधिकारी से ) दंडाधिकारी ! ऐसे व्यक्तियों को पहचान कर मेरे
समक्ष उपस्थित किया जाय।
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