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जय वर्धमान
राज्यों की जो सीमाएँ सीधी थीं वे टेढ़ी होकर संकुचित हो गई हैं और मेरे बाण शत्रुओं के हृदय में आतंक की आंधी उठा रहे हैं ।
विजय : यह तो ठीक है किन्तु अब कुमार वर्धमान ने लक्ष्य - बेध पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
सुमित्र : क्षत्रिय कुमार होकर लक्ष्य - बेध पर प्रतिबन्ध ?
विजय : हाँ, क्षत्रिय कुमार होकर लक्ष्य-बेध पर प्रतिबन्ध । वे कहते हैं कि लक्ष्य - बेध में कुशलता अवश्य प्राप्त करो किन्तु इस लक्ष्य - बेध से किसी प्रकार की हिंसा न हो ।
मुमिन : यदि लक्ष्य - बेध में हिंसा-अहिंसा का ध्यान रखा जाय तो लक्ष्य - बेध का कौशल ही क्या रहा ! यह तो वैसा ही हुआ कि शत्रु को ललकारो किन्तु कण्ठ से ध्वनि न निकले ।
विजय : यदि इस कुंडग्राम के गणराज्य में रहना है तो ऐसा ही करना पड़ेगा । अब यही देखो, उस पेड़ में कितने मधुर फल लगे हुए हैं। इच्छा होती है कि अपने बाण से लक्ष्य लेकर सारे मीठे फल गिरा लें, सुगन्धित फूलों को झकझोर कर भूमि पर गिरा लें और माला बना कर अपनी प्रियतमा के कंठ में डाल दें किन्तु - किन्तु कुमार वर्धमान ऐसा नहीं चाहते ।
मुमित्र : क्यों ? क्यों नहीं चाहते ? फूलों और फलों के गिराने में क्या हानि है ?
विजय : वे तो इसे हानि ही मानते हैं। कहते हैं कि वृक्षों में चेतना है, जीवन है । वे फूलते हैं, फलते हैं । उन पर प्रहार करोगे तो हिंसा होगी। यदि लक्ष्य - बेध करना है तो जड़ पदार्थों पर करो जिनमें चेतना नहीं है ।
सुमित्र : जड़ पदार्थों में तो पत्थर है जिसमें चेतना नहीं है । वे वर्षों से एक ही दशा में पड़े रहते हैं किन्तु पत्थरों पर बाण चलाओगे तो उनकी
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