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पहला अंक धार कुंठित नहीं होगी ? फिर लक्ष्य - बेध का क्या कौशल रहा ? सोचो समझो ! उड़ते हुए पक्षी को बाण से न गिराओ, किसी हिंस्र
पशु का भी लक्ष्य न लो । फिर तो धनुष-बाण हमारे शस्त्र नहीं रहे, हाथ के आभूषण हो गये ।
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विजय : एक बार तो वे बड़े कौतुक की बात कह रहे थे ।
सुमित्र : कैसे कौतुक की बात ?
विजय : कहते थे कि तुम्हारे सामने पाँच-पाँच लक्ष्य हैं, तुम इनमें से एक का भी बेध नहीं कर सकते ? उनका लक्ष्य लो ।
सुमित्र : अच्छा, पाँच-पाँच लक्ष्य हैं ? सुनूं तो, वे पाँच लक्ष्य कौन-से हैं ?
विजय : वे पाँच लक्ष्य सुनोगे ? वे हैं - अहिंसा एक, सत्य दो, अस्तेय तीन, अपरिग्रह चार और ब्रह्मचर्य पाँच ।
सुमित्र : ( अट्टहास कर) ये पाँच लक्ष्य हैं ? किन्तु इनका लक्ष्य लिया कैसे जाता है ? ये स्थूल रूप से तो कहीं दिखलायी नहीं देते। फिर उनका लक्ष्य कैसे लिया जाय ?
विजय : भाई, तुम समझे नहीं । स्थूल वस्तुओं का लक्ष्य - बेध तो कोई भी कर सकता है। इस सूक्ष्म लक्ष्य-बंध के लिए दूसरे बाणों की आवश्यकता है ।
सुमित्र : अच्छा सुनूं, वे दूसरे बाण कौन-से हैं ?
विजय : वे हैं - संयम, त्याग, क्षमा, प्रायश्चित्त और तप ।
सुमित्र : ये बाण कहाँ मिलेंगे ? और ऐसा लक्ष्य-बेध किस धनुर्वेद में है ? बन्धु ! यह धनुर्वेद नहीं है, ज्ञान का रूपक है। और यह किसी क्षत्रिय का गौरव नहीं है, किसी ब्राह्मण का भले ही हो ।
विजय : यहाँ क्षत्रिय और ब्राह्मण की बात नहीं है, मित्र ! बात है पुरुषार्थ
की ।
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