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[स्थान :वैशाली नगरी में गंडक नदी के तट पर भत्रिय कुंडग्राम। उसके
समीप एक उपवन । नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं की शोभा।
वसन्त के फूल और फल। समय : प्रातःकाल का प्रथम प्रहर । पक्षियों का कूजन । स्थिति : परदा उठने पर नेपथ्य की दाहिनी ओर से एक बाण आता है।
साथ ही नेपथ्य में 'साधु' शब्द गूंजता है । फिर बायीं ओर से बाण आता है और फिर 'साधु' शब्द गूंजता है। कुछ ही क्षणों बाद दोनों दिशाओं से दो क्षत्रिय कुमार आते हैं। एक का नाम विजय है, दूसरे का सुमित्र । दोनों के हाथों में धनुष-बाण हैं । केश खुले हुए, अंगों पर पीत वस्त्र, परों में उपानह । वे दोनों आखेटक-वेश
में हैं।]
विजय : भाई मुमित्र ! तुमने मेरे बाणों की गति देखी ? लक्ष्य-बंध करने में
कितना आनन्द आता है ! ऐमा लगता है जैसे मेरा प्रत्येक बाण मूर्य की किरण है जिसके छूटने ही क्षितिज के वादलों का रूप बिगड़ जाता
है और पक्षियों का कलरव जय-गान करने लगता है। ममित्र : और मर वाण की गति तो जैसे विद्युत की गति को भी लज्जित करती
है। मैं जब लक्ष्य-वेध करता है तो अनुभव करता हूँ कि शत्रुओं के