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जय वर्धमान
पर लगता है कि तुम एक सौ बीस वर्षों के हो ! मुझ से भी बड़े ! एं? - मुझ से भी बड़े ! (मुस्कान) वर्धमान : मेरी दृष्टि से तो इन्द्र भी आपसे बड़ा नहीं है। सिद्धार्थ : किन्तु तुम तो हो । मेरे पास तुम्हारे विवाह के लिए न जाने कितने
राजवंशों से आग्रह किये जा रहे हैं किन्तु तुम्हारे लक्षणों को देख कर
मैं उन्हें अभी तक कोई उत्तर नहीं दे सका। वर्धमान : पिता जी ! यदि आप मेरी प्रार्थना मानें तो उन्हें कोई उत्तर न दें। सिद्धार्थ : क्यों न दूं? तुम राजपुत्र हो, वीर हो, बुद्धिमान हो, सुन्दर हो तुम्हें
- इस गज्य का उत्तराधिकारी भी होना है। वर्धमान : पिता जी ! मैं राज्य का उत्तराधिकारी नहीं होना चाहता, मैं मुक्ति
का अधिकारी होना चाहता हूँ। सिद्धार्थ : मैं यह सुनकर प्रसन्न हुआ किन्तु मुक्ति के अधिकारी होने के लिए
अभी बहुत समय है । जीवन के कर्तव्यों के पालन करने के उपरान्त तो तुम संन्यास ले ही सकते हो। हमारे पूज्य आदिनाथ ने भी यही किया। उन्होंने सुनन्दा और सुमंगला से विवाह किये। वे पुत्र
और पुत्रियों से सम्पन्न हुए। उन्होंने अनेक वर्षों तक राज्य किया, फिर कहीं जाकर अन्त में उन्होंने वैराग्य लिया। इसी प्रकार कालान्तर में तुम भी वैराग्य धारण करना किन्तु पहले अपने जीवन के धर्म
को तो पूरा करो। वर्धमान : पिता जी ! आपके तर्क के विरोध में मैं कुछ नहीं कहना चाहता
किन्तु निवेदन यही है कि अब प्रभु आदिनाथ का समय कहाँ रहा?
उन जैसा शरीर, उन जैसी आयु और उन जैसा पौरुष अब कहाँ है ? सिद्धार्थ : क्यों ? तुम्हारा पौरुष भी अद्वितीय है, कुमार! उस दिन तुमने उस
मतवाले इन्द्रगज को किस प्रकार अपने अधिकार में ले लिया था।
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