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तीसरा अंक
वह मत्त होकर निरीह जनता को कुचलता हुआ जा रहा था, और तुमने उसके सामने बढ़ कर जैसे दृष्टि-मात्र में उसका सारा दर्प और बल एक क्षण में समाप्त कर दिया। यह तुम्हारे पौरुष की विजय नहीं है तो क्या है ?
वर्धमान : पिता जी! इसे मैं अपनी विजय नहीं मानता। यदि इन्द्रगज के
स्थान पर आस्रव-रहित गज पर विजय हो तो मैं उसे अपनी विजय मानूंगा । शील, अहिंसा, त्याग और जागरूकता उस गज के पैर हों, श्रद्धा उसकी संड हो, उपेक्षा उसके दांत हां, स्मृति उसकी ग्रीवा हो, प्रज्ञा सिर हो और विवेक उसकी पूंछ हो-ऐसे गज पर विजय प्राप्त कर सकू तो मेरी वास्तविक विजय हो!
मिद्धार्थ : तथास्तु ! ऐसा ही हो ! किन्तु अनित्य का, अनात्म का भोर अना
सक्ति का अभ्यास करने पर ही ऐसा होगा। इसके लिए समय की आवश्यकता है और तब तक मेरी इच्छा है कि तुम राज-परिवार के कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए विवाह करो और प्रजा-पालन करते हुए उसकी रक्षा करो।
वर्धमान : पिता जी ! आपके आदेशों के विपरीत जाने का तो मुझे अधिकार
नहीं है किन्तु मेरी दृष्टि में प्रजा की रक्षा करने के बदले यदि मानवमाव की रक्षा की जाय तो अधिक उचित होगा। आप देखते हैं कि आज के युग में जातिवाद की विडंबना मानवता को पीस रही है, शूद्रों के साथ पशुवत् व्यवहार होता है और धर्म के नाम पर हिंसा और यज्ञों में पशु-बलि की इतनी अधिकता हो गई है कि रक्त की धाराओं में नदियों का पानी भी लाल हो गया है । निरीह पशुओं को काट कर उनके चर्म एक नदी में इतने डाले गये कि उसका नाम ही चर्मवती हो गया। पशुओं का मांस होम करने से जो धुआं उठ रहा है उससे यह आकाश भी अपवित्र हो रहा है ।
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