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चौथा अंक वर्धमान : वे न काटें, वे भ्रमर-मात्र ही तो हैं किन्तु यदि मनुष्य चाहे तो अपने
बन्धन काट सकता है। यशोदा : हाँ, मनुष्य अपने को बुद्धि का विधाता समानता है। वर्धमान : विधाता हो या अनुचर किन्नु मनुष्य के पास विवेक और सन्तुलन है।
वह अपना बन्धन इच्छानुसार काट सकता है और मुक्त हो सकता है। यशोदा : हाँ, मुक्त होना तो बरी बात नहीं है । वर्धमान : तो यशोदा ! यदि मैं मुक्त होना चाहूँ तो ? (प्रश्न-मना) यशोदा : (कुतूहल से) आप ? आप ? मुक्त होना चाहेंगे ? वर्धमान : हाँ, यशोदा ! पिछले अनेक वर्षों से मैं ऐमा ही मोचता रहा है।
यशोदा ! तुम बुग मत मानना । मैं विवाह के बन्धन में आना ही नहीं चाहता था । यह नो मां का आग्रह और पिता का आदेश था कि मैं विवाह करें। और माता-पिता की आज्ञा मानना आवश्यक था। जब मैंने विवाह की बात नहीं मानी तो माना जी गना-शून्य हो गई। पिता जी ने कहा कि तुम्हारी अस्वीकृति की यह वाणी ही एक हिमा है, जबकि तम मब को अहिमा का उपदेश देते हो । म निस्तर हो गया। मेरे द्वाग किमी प्रकार की कोई हिमा न हो, इसलिए मुझं विवाह
करना पड़ा। यशोदा : और विवाह करने के बाद यदि आप बन्धनों में मक्न होकर मझे कष्ट
भोगने के लिए छोड़ गये तो क्या यह हिंसा नहीं होगी ? बोलिए ! वर्धमान : तुम्हें कप्ट भोगने की मनोवृनि से दूर होना होगा। यशोदा : और यदि न होऊ नी ? इम विवाह के लिए मैंने कितने व्रत-उपवाम
किये । प्रभु पाश्वनाथ की प्रतिमा के पावं में बंट कर कितनी प्रार्थना की कि मुझे अपने जैसा ही पनि देना और उन्होंने अपने जमा ही पति आपके रूप में मुझे दे दिया।