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पहला अंक
वर्धमान : मुमित्र ! उसे वाण मत मारो। बिना वाण चलाये ही इससे तुम्हारी
रक्षा हो जायगी । तुम व्यर्थ ही भय खाते हो। मैं ही उसे मार्ग से हटा देता हूं। (वर्धमान आगे बढ़ कर सर्प को पूंछ पकड़ कर उसे
नेपथ्य में दूर फेंक देते हैं।) मुमिन्त्र : (आगे बढ़कर) अरे. अरे. कुमार ! वह काट लेगा । इसने आपको
काटा तो नहीं ? विजय : हाय ! कहीं काट न लिया हो । देखें । (पास जाता है।) वर्धमान : नहीं । वह मुझे क्यों काटेगा ? मेरे मन में मर्प के लिए कोई बुरा
भाव नहीं है । न क्रोध है, न भय है। मुमित्र : वास्तव में कुमार ! आपके हृदय में अदम्य साहम है । विजय : यह तो महावीरता है। ममित्र ! पहले तुमने कुमार के लिए वीर
वर्धमान नाम कहा। अब मैं इन्हें 'महावीर वर्धमान' कहता हूँ,
महावीर वर्धमान । सुमित्र : मचमुच-महावीर वर्धमान । विजय : नो हमें महावीर वर्धमान की जय बोलनी चाहिए। दोनों : महावीर वधं नान की जय ! जय ! जय !
(दोनों महावीर वर्धमान को प्रणाम करते हैं। महावीर वर्धमान शान्त मुद्रा में खड़े रहते हैं।)
[परदा गिरता है।]