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जय वर्धमान
और कोप-भंडार की आशातीत वृद्धि हुई, इसीलिए पिता सिद्धार्थ ने पुत्र का नाम 'वर्धमान' रखा।
जैसे-जैसे वर्धमान बड़े होते गये, उनमें रूप, गुण और शक्ति का उदय होता गया। वे अल्प काल में ही शस्त्र और शास्त्र के विविध अंगों में पारंगत हो गये। एक दिन जब वे क्रीड़ा-भूमि में लक्ष्य-बंध का अभ्यास कर रहे थे, एक हाथी गजशाला मे मुक्त हो गया। वह क्रोध से नगर के मार्ग पर निरीह जनता को कुचलता हुआ दौड़ रहा था। तभी कुमार वर्धमान उसके सम्मुख पहुँच गये और क्षिप्र गति से उसकी मुंड पर पर रखकर उसके मस्तक पर बैठ गये। फिर उन्होंने उसके कानों को कुछ इस प्रकार सहलाया कि वह हाथी कुछ ही क्षणों में शान्त होकर ठहर गया और उसने प्रणाम की मुद्रा में अपनी मुंड ऊपर उठा दी। इसी प्रकार जव वर्धमान अपने साथियों के साथ एक वट वृक्ष के नीचे खेल रहे थे, तभी एक भयंकर नाग फुफकारते हुए बालकों की ओर झपटा। वर्धमान निडर होकर आगे बढ़े और उन्होंने साहस से उसकी पंछ पकड़ कर दूर फेंक दिया। वर्धमान के इन्हीं वीरतापूर्ण कार्यों से उन्हें 'महावीर' कहा जाने लगा।
किन्तु वे बचपन से ही धीर और गंभीर थे। जब वे बीम वर्ष के हुए तो पिता मिद्धार्थ और माता त्रिशला को उनके विवाह की चिन्ता हुई। उनके पास महावीर वर्धमान के विवाह के लिए अनेक गज्यों की मुन्दर-मुन्दर कन्याओं के चित्र और प्रस्ताव प्रस्तुत होने लगे । जव महावीर वर्धमान के मामने विवाह का प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। परिवार श्री पार्श्वनाथ का अनुयायी तो था ही, उनके संस्कार विवाह के स्थान पर मंन्यास की ओर ही अधिक उन्मुख हो गये थे।
__ महावीर वर्धमान का विवाह हुआ या नहीं, इस पर मत-भेद है। दिगम्बर सम्प्रदाय का मत है कि उनका विवाह नहीं हुआ किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है कि उनका विवाह कौडिन्य गोत्रीय राजकुमारी यशोदा में हुआ था। 'कल्प मूत्र' में विवाह का उल्लेख मिलता है। 'हरिवंश पुगण' में भी इसका निदेश है।