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जय वर्धमान
गये । आगे उलटी-सीधी बातें की तो एक चोंटी के काटने पर भी
नहीं बचोगे। इन्द्र गोप : इन जैसे महात्माओं की बात ही अलग है। (महावीर वर्धमान से)
महात्मन् ! मुझे भी अपना शिप्य बना लीजिए। हम सब जान गये
हैं कि आप महावीर वर्धमान हैं। चुल्लक : मुझे भी...और...मेरी उसको...अर्थात् मेरी पत्नी को भी। वर्धमान : श्रद्धा, स्मृति और अहिंमा का अभ्यास कर इन्द्रियों का दमन करो
और पाप-मुक्त हो जाओ ! शूलपाणि : ऐसा ही होगा, महात्मन् ! वर्धमान : अनित्य का, अनासक्ति का, अभ्याम करना प्रत्येक श्रमण के लिए
आवश्यक है।
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे।
मायामज्जव भावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥ [शान्ति से क्रोध को जोते, विनम्रता से अभिमान को जीते,
सरलता से माया को जीते और सन्तोष से लोभ को जोते।] सब : (सम्मिलित स्वर से) तीर्थकर महावीर वर्धमान की जय ! जय ! जय !
[धोरे-धीरे परदा गिरता है।]