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पाँचवाँ अंक
इन्द्रगोप : मैं तो पहले ही जानता था कि ये सामान्य सन्त नही हैं ।
चुल्लक : अरे, सामान्य सन्त होते तो क्या शूलपाणि के क्रोध से बचते ? मेरी पत्नी का क्रोध तुमसे कम नहीं है. शूलपाणि ! किन्तु में भी बालबाल बचता ही आया हूँ ।
शूलपाणि: मैंने महा सन्त का प्रभाव नहीं जाना । इनमें वाक्य कहे जा अपमान किया किन्तु ये मौन बैठे रहे। उन्होंने किसी प्रकार का उत्तर नहीं दिया । किन्तु जब सर्प ने मुझे काटा तो ये मेरी रक्षा के लिए आ गये । महा मन्त ! तुम्हारे दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया 1 जय हो ! जय हो महा मन्त की ! अब सर्प का विष न जाने कहाँ चला गया !
वर्धमान : संसार कापि सर्प विष से अधिक भयानक है, शूलपाणि ! उसमे बचने का प्रयत्न करो।
शूलपाणि: अवश्य करूंगा, महात्मन् ! मुझे अपना शिष्य बना लीजिए । अथवा बनाने में क्या ! मैं स्वयं शिष्य हो गया ! मैंने अब तक जो दुष्कर्म किये हैं उनका प्रायश्चित्त करूंगा ।
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वर्धमान : प्रायश्चित्त यही हो कि आज से तुम समस्त कुकर्म छोड़ दो किमी की हत्या न करो। क्रोध न करो, मानापमान से ऊपर उठो । जनता की सेवा करो | कभी किसी प्रकार की हिमा न करो। अहिसा ही तप है, उसका अनुसरण करते हुए लोक-कल्याण करो ! निर्भय होकर सत्य का उसी प्रकार नाद करो जिस भाँति सिंह अपनी गिरि-गुहा में नाद करता है ।
शूलपाणि: आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करूंगा, महात्मन् !
चुल्लक: पालन न करोगे तो क्या करोगे शिष्य जी ! अब महात्माओं मे सम्हल कर बात करना । इस बार तो महात्मा जी की कृपा से बच
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