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पाँचवाँ अंक
सुप्रिया : रंभा ! हम लोग नृत्य करते-करते थक गई किन्तु इन महात्मा के ध्यान की मुद्रा ही नहीं टूटी । देवेन्द्र भी हम लोगों के नृत्य से भावविभोर हो जाते किन्तु इन्होंने हमें देखा भी नहीं ।
रंभा : हाँ, सुप्रिया ! बड़े-बड़े मुनियों के नेत्र हमारे नृत्य की गति के साथ घूमते हैं किन्तु इनके नेत्र तो जैसे सीपी सम्पुट की तरह खुलते ही नहीं । बड़े तपस्वी हैं। क्यों तिलोत्तमा ! तुम तो बहुत अच्छा नृत्य करती हो । हो न गई तुम्हारे नृत्य की परीक्षा ?
तिलोत्तमा : हमारे नूपुरों में स्वर्गीय संगीत है किन्तु जिसके कानों में सुनने की शक्ति भी नहीं है, वे नूपुर - नाद को क्या समझेंगे ?
सुप्रिया : हमारा चन्द्र-वदन यदि उनके हृदय में मदन की सृष्टि नहीं कर सका तो मैं कहूँगी कि मदन मदन नहीं है, संसार का एक भिक्षुक है।
रंभा : स्त्री के समक्ष तो प्रणय- भिक्षा में प्रत्येक पुरुष भिक्षुक बन जाता है, ये महात्मा भिक्षुक लग कर भी भिक्षुक नहीं है ।
तिलोत्तमा : हमारे इन आभूषणों मे तो अंधकार में भी प्रकाश हो जाता है किन्तु यहाँ तो अंधकार ही अधकार है । ( हाथ जोड़कर ऊपर देखते हुए) हे पार्श्वनाथ ! भिक्षुकों को भिक्षा न देकर उन्हें नेत्रों का प्रकाश दीजिए ।
सुप्रिया : मैं तो कहती हूँ ये पुरुष, पुरुष नहीं हैं, गुखे वृक्ष के टूटे हुए काष्ट-खंड हैं ।
तिलोत्तमा: यदि हमारे नृत्य ने इन्हें नहीं जगाया तो मै आत्महत्या करूंगी । वह रूप रूप ही क्या है जो पुरुष की दृष्टि को अपनी ओर खीच नहीं सकता !
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रंभा और ये आभूषण तो मेरे शरीर पर भारस्वरूप ज्ञात होते हैं और यह दुकुल शन की भाँति चभ रहा है ।
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