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जय वर्धमान
सुप्रिया : ( वर्धमान की ओर संकेत करते हुए) ये तो कुछ बोलते ही नहीं । इतनी बातें सुनकर भी ये वाणी के इतने कृपण हैं तो अपने शिष्यों को क्या उपदेश देंगे ?
रंभा : इस तरह ये नहीं मानेंगे। इनमे अपनी व्यथा की बात कही जाय । तिलोत्तमा : अच्छी बात है। (हाथ जोड़कर महावीर वर्धमान से) हे प्रभो ! इम ग्राम में एक अत्यन्त विलासी श्रेष्ठि रहता है, वह हमें वश में करने के लिए भाँति-भाँति के उपाय करता है। उससे हमारी रक्षा कीजिए ! ( वर्धमान ध्यानावस्थित हैं ।)
रंभा : महात्मा ! आपकी तपस्या पर मैं मोहित हूँ । अपने अंक -पाश में लेकर मेरी विरह व्यथा दूर कर दीजिए ! ( समीप पहुंच कर शुक जाती है ।)
( वर्धमान ध्यानावस्थित हैं ।)
सुप्रिया सुना है, आप किसी समय राजकुमार थे । क्या राजमहल की सुन्दरियों से हम कम सुन्दर है ? एक बार दृष्टि उठा कर हमें देख तो लीजिए !
(वर्धमान ध्यानावस्थित हैं ।)
रंभा : (दाँत पीसते हुए) वायु में उड़ने वाली रुई की भाँति इनका सारा वैराग्य में अभी उड़ाये देती है । सुप्रिया ! तू तो स्वयं वायु में लता की भाँति बु जाती है। मैं अब इन्हें अपने बन्धन में बाँधती हूँ । ( अपना उत्तरीय वर्धमान के चारों तरफ लपेटती है ।) देखूंगी ये इससे कैसे मुक्त होते है !
तिलोत्तमा : अरी रंभा ! तरा उत्तरीय तो बाहरी है । मैं अपने अन्तर से इन्हें बाँधती हूँ | तू जानती है, मंत्र शक्ति महान् होती है । ( वर्धमान की
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