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जय वर्धमान
मान करने की मुद्रा में है। चित्रकार ने तो सभी को गौर वर्ण का
बना दिया है । तू मेरी कुछ भी सहायता नहीं करती। सुनीता : (मस्करा कर) महारानी ! पुत्र-वधू तो आपको चाहिए। आपकी
रुचि ही प्रधान है। विशला : यह तो ठीक है किन्तु तेरी सम्मति भी तो चाहिए। कभी तुझे भी
अपनी पुत्र-वधू का चयन करना होगा। मुनीता : (संकुचित स्वरों में) अभी तो, महारानी ! पुत्र भी नहीं है। विशला : तो हो जायगा, जल्दी क्या है ! पुत्र भी होगा और पुत्र-वधू के आने का
भी अवसर मिलेगा। (एक चित्र उठा कर) अच्छा, बतला यह चित्र
कसा है ? ये मारकच्छ की सुन्दरी हैं । सुनीता : महारानी ! ये तो कच्छप की तरह अपना सिर पीछे खींचे हुए हैं
और आँखें तो ऐसी हैं जैसे किसी तट की ओर देख रही हैं। विशला : इन्हें तट की ओर नहीं, राजमहल की ओर देखना चाहिए। (दूसरा
चित्र उठा कर) अच्छा, इसे देख ! ये हैं-मल्ल राजवंग की कन्या ।
कैसी हैं ? सुनीता : महारानी ! ज्ञात होता है जैसे ये मल्ल-युद्ध करने के लिए अपना
दाँव देख रही हैं । इनके आने पर तो अन्तःपुर में मल्ल-क्रीड़ा आरम्भ
हो जायगी। विशला : मेरा कुमार तो सदैव संन्यास की बातें करता है। वह मल्ल-युद्ध में
क्या रुचि लेगा ! भले ही वह मस्त हाथियों को अपने वश में कर
ले । अच्छा, देख ! यह तीसरा चित्र है-अवन्ति कुमारी का। सुनीता : अवन्ति कुमारी का ? अच्छा तो है किन्तु ऐमा न हो कि यह अपने
राज्य की तो उन्नति करे और हमारे राज्य की अवनति कराना
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