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बोषा अंक
यशोदा : विसर्जन कर दिया ? क्यों ? कहाँ ? कैसे ? वर्धमान : (सरोवर की ओर संकेत करते हुए) इसी सरोवर में । कल रात में
उसे बड़ी देर तक देखता रहा। उसके रत्न अनुराधा नक्षत्र को तारिकाओं की भांति ज्योतिपूर्ण किरणों से जगमगा रहे थे। लगता था कि ये किरणें ऐसी रश्मि-रज्जुएँ हैं जो मेरे कंठ में अपना पाश डाल देंगी। मैने इस वातायन से उस रत्नहार को सरोवर में विसजित कर
दिया। यशोदा : ओह ! वह कितना सुन्दर रत्नहार था ! वह तो मेरे पिता जी
रत्न द्वीप के मागर-तट से आपके लिए ही लाये थे। एक-एक रत्न
बड़े मुल्य का था। वर्धमान : मूल्य होता भी है और नही भी होता, यगोदा ! यह तो दृष्टि का
लक्ष्य है और मंमार में प्रत्येक वस्तु का लक्ष्य होता है। जो वस्तु जहाँ से आती है, उसे वहीं लोट जाना चाहिए । जल में जो रत्न उत्पन्न
हुए. उन्हें जल में ही लौट जाना चाहिए। यशोदा : तब तो मुझे भी अपने माता-पिता के पास लोट जाना चाहिए । ओह !
में बहत अशान्त हो गई है, प्रियतम ! यदि दष्टि की मी ही गति
रही तो किमी दिन में भी विजित हो सकती हैं। वर्धमान : विजित कीन नहीं होता, यशोदा ? धन-वैभव. रूप-मोन्दयं अपना
ममय ममाप्त कर मभी विजित हो जाने । अन्त में मन्य ही रहता है। मंमार को देखकर जिज्ञामा उत्पन्न होती है, जिज्ञामा में ज्ञान बढ़ता है, ज्ञान में प्रज्ञा जाग्रत होती है और प्रज्ञा में मन्य-बोध होता है। यही मत्य-बोध वास्तव में अन्न तक रहता है । जिम प्रकार एक कुशल धनुर्धारी अपन वाण मे बाल के अग्र भाग को बेध देता है, उसी प्रकार साधक वस्तु-स्थिति को बंध कर मन्य को जान लेता है।
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