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पहला अंक
सके । और जो हिंसा से-क्षत से बचा सके, रक्षा कर सके, वही क्षत्रिय
सुमित्र : तो आपने हिंसा के भय से इन स्थूल बाणों से लक्ष्य-बेध तो किया न
होगा। वर्धमान : अवश्य किया है । मैं स्थूल वाणों में भी विश्वाम रखता हूँ और उनसे
लक्ष्य-बेध करता हूँ। मिट्टी के शिखर बना कर उन्हें बाणों से बेधता हूँ। सूखे पेड़ों पर चिह्न बनाकर उन्हें धराशायी करता हूँ। यहाँ के पेड़ तो हरे-भरे हैं। कितने सजीव हैं ! बढ़ते हैं, फलते हैं, सुगन्धि देते हैं, फल देते हैं। कितनी सुरम्य चेतना है उनमें ! इन्हें वाणों का लक्ष्य बनाना हिंसा है—घोर हिमा है। इमीलिए मैं गुख्खे पेड़ों की
खोज में दूर चला गया था। विजय : आप संसार की प्रत्येक वस्तु को बहुत गहरी दृष्टि में देखते हैं,
कुमार! (सहसा नेपथ्य में भारी तुमुल होता है। घबराहट के स्वरों में कण्ठों से गहरी चोख सुनायो देती है :
भागो ! भागो ! रक्षा करो! गजशाला से हाथी छूट गया है ! हाय ! वह वृद्ध कुचल गया! बचो! बचो ! भागो! भागो! मार्ग से हटो!
हाय ! रक्षा करो! रक्षा करो !) वर्धमान : (चौंक कर) क्षिा की वह पुकार ? .....यहीं पाम से आ रही है :
में अभी देखता हूँ । (चलने को उग्रत) विजय : (विह्वलता से ) आप न जायं. कुमार ! हम लोग जाने है । ज्ञान होता