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जय वर्धमान
है कि गजशाला से हाथी छूट गया है । वह लोगों को कुचलता हुआ
आ रहा है । कहीं आप पर भी आक्रमण न कर दे! वर्धमान : मुझ पर आक्रमण कर दे तो अच्छा है ! अन्य व्यक्ति बच जायेंगे । सुमिन : नहीं, ऐसा नहीं होगा, कुमार! हमारे हाथों में धनुष-बाण हैं । आज
हमारे हाथों उस हाथी के कुंभ का ही लक्ष्य-बेध होगा। विजय : इसके पहले कि वह हाथी लोगों को अपने पैरों से कुचले मैं अपने
बाणों से उसके पैरों की हड्डियां ही टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। सुमित्र : विजय ! मैं दाहिनी ओर हूँ, तुम बायीं ओर हो जाओ। हाथी के
सामने आते ही हम दोनों एक साथ ही उस पर प्रहार करेंगे।
(दोनों ही मंच के दाहिने-बायें होकर धनुष पर बाण साधते हैं।) वर्धमान : (हाथ से वजित कर) नहीं, किसी जीव पर धनुष संधान करना ठीक
नहीं होगा। सुमित्र : किन्तु वह जीव पागल है, मतवाला है । उससे अन्य जीवों की हानि
विजय : और जब एक जीव से अनेक जीवों की हानि हो रही हो तो उस
एक जीव को मारने में कोई हानि नहीं है, कोई हिंसा नहीं है,
कुमार ! वर्धमान : जीव अन्ततः जीव ही है। तुम लोग रुको। मैं स्वयं अभी जाकर
उस हाथी को देखता हूँ। सुमित्र : हम लोग भी आपके साथ चलें ? आपका कोई अनिष्ट न हो! वर्धमान : नहीं, तुम लोग यहीं रहो। तुम लोग क्रोध में आकर कुछ अनिष्ट कर
बैठोगे। मैं अकेला जाऊंगा। विजय : कुमार! आप रुकें । आप अकेले न जाय । वर्धमान : नहीं, मैं अकेला ही जाऊँगा।
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