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[स्थान : राजमहल के बाहरी भाग में कुमार बर्धमान का क्रीड़ा-कक्ष
समय : प्रातः काल की सुहावनी बेला
स्थिति : कुमार वर्धमान का यह क्रीड़ा-कक्ष एक सरोवर के किनारे बना हुआ है। इसकी सजावट में शिल्पी ने समस्त सौन्दर्य का आवाहन किया है। स्थान-स्थान पर नृत्य करते हुए मयूरों की आकृतियाँ हैं जो सजीव -सी लगती हैं। प्रकृति के अनेक चित्र दीवालों पर बचे हुए हैं। सजे हुए बैठने के स्थान । वातायनों पर पाट-वस्त्र | नीचे मखमली बिछावन । सूर्य को कोमल सुनहली किरणें बातायन से जा रही हैं से वे कुमार वर्धमान और कुल-वधू यशोदा के दाम्पत्य जीवन को सुनहले रंग से रंगना चाहती हैं।
इस समय कुमार बर्धमान कक्ष में निविकार भाव से बड़े हुए और यशोदा उनकी आरती उतार रही है। आरती करने के बाद वह घुटनों के बल बैठकर हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम करती है ।]
वर्धमान : (हाथ बढ़ा कर ) उठो, यशोदा ! उठो । हमारे वैबाहिक जीवन की यह गतिशील धारा कब तक प्रवाहित होती रहेगी ?
यशोदा : प्रभु ! जब तक हमारे उपवनों में बसन्त की परिक्रमा है, उसमें कोकिल का कूजन है और उस कूजन में माधुर्य की क्षण-क्षण में बहती हुई
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