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जय वर्धमान मौन रहते, उन्हें भोजन में कोई रुचि नहीं थी, वस्त्रों की कोई चाह नहीं थी। वे स्तुति-निन्दा से परे थे । संन्यासी होकर वे दूर-दूर तक भ्रमण करते रहे। उन्होंने राजगृह, चम्पा, वैशाली, मिथिला, वाराणसी, कौशाम्बी, अयोध्या, श्रावस्ती आदि अनेक स्थानों की यात्राएं की । और इन यात्राओं में उन्होंने क्या-क्या कष्ट नहीं सहन किये !
अस्थिक ग्राम के एक चैत्य में शूलपाणि नामक एक यक्ष रहता था। उस चैत्य में वह किसी को नहीं ठहरने देता था। एक बार एक मुनि वहाँ ठहरने के लिए पहुंचे । शूलपाणि ने उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । घूमते-घूमते भगवान् महावीर भी उसी चैत्य में पहुंचे । ग्रामवासियों ने उन्हें वहाँ ठहरने से रोका किन्तु भगवान महावीर तो भय और आशंका से परे थे । वे वहीं पद्मासन लगाकर ध्यान करते रहे । शूलपाणि आया, उसने उन्हें डराया, धमकाया पर उसका महावीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । अन्त में उसने चंड कौशिक नाग से उन्हें कटवाना चाहा किन्तु नाग भी निश्चेष्ट हो गया । कहीं-कहीं चंड कौशिक का स्वतंत्र उल्लेख हुआ है जहाँ उसने श्वेतांगी के मार्ग के अरण्य में रहते हुए भगवान् महावीर को काटने का प्रयत्न किया। महावीर ने उससे कहा : 'चंड कौशिक ! सोच तो, तू क्या करने जा रहा है ?' भगवान् की अमृत वाणी से वह शान्त हो गया। मैंने शूलपाणि के साथ ही चंड कौशिक का उल्लेख किया है। यह नाटकीय शिल्प के लिए आवश्यक पा। जब शूलपाणि महावीर का सिर काटने के लिए शूल लेने को चैत्य में जाने लगा तो उसी के नाग चंड कौशिक ने उसे डस लिया। जब वह अपनी प्राण-रक्षा के लिए चिल्लाया तो महावीर वर्धमान ने एक जड़ी से उसके विष को दूर किया। ___भगवान् महावीर को साधना-पथ से हटाने के लिए इन्द्र द्वारा अप्सराओं को भेजने का उल्लेख हुआ है । स्वाभाविकता लाने के लिए मैंने वर्धमान के भाई नन्दिवर्धन द्वारा उनको प्रेरित करने का नाट्य-प्रयोग किया है।
बारह वर्ष की घोर साधना के उपरान्त भिय ग्राम के बाहर ऋजु बालुका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नीचे गोदोहन आसन में महावीर को वैशाख शुक्ल १० के दिन संबोधि प्राप्त हुआ।