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जय वर्धमान
रंभा : हम नो पहले ही जानते थे कि बड़े से बड़ा सामारिक आकर्षण इन्हें
तपस्या के मार्ग मे नहीं हटा सकेगा । खोलती हूं अपना वन्धन ।
(अपना उत्तरीय महावीर वर्धमान पर से हटा लेती है।) तिलोनमा : मैं भी अपना मंत्र लौटानी हूँ। (ओंठों का स्पन्दन होता है।) मुप्रिया : आओ, हम मव ऐसे महान् मन्त का अभिनन्दन करें !
(सब सुन्दरियाँ अपनी-अपनी केश-राशि में गथे फल निकल कर महावीर वर्धमान के चरणों में समपित करती हैं। फिर क्रम-क्रम से प्रणाम करके जाती हैं । उनके जाने के कुछ क्षणों बाद महावीर वर्धमान अपने नेत्र खोलते हैं और उठ कर टहलते हैं । टहलते हुए इस चर्या का पाठ करते हैं :)
छंदं निरोहेण उवेई मोवखं आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी। पुवाई वासाई चरेऽप्पमते
तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ।। [जसे अभ्यास सिद्ध कवच धारण करने वाला अश्व युद्ध में विजय प्राप्त करता है उसी भांति पूर्वकाल से अप्रमत्त संयमशाली मुनि शीघ्र हो मोक्ष लाम करता है।
(कुछ क्षणों के लिए मंच पर अंधेरा हो जाता है जो समय के अन्तराल का सूचक है। फिर प्रकाश होने पर महावीर वर्धमान टहलते हुए दिखलाई देते हैं । वे यह चर्या पढ़ते हैं :) पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं
कि वहिया मित्तमिच्छसि । पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ
एवं दुक्खा पमोक्खसि ।।
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