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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम मख्या
काल न
ग्वाह
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Vi sewa mandlɣ 21 Jaryagaay, Desi
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माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैनग्रन्थमाला, पुष्प ४५
womran vandanam
जैन शिलालेख संग्रह
(द्वितीयो भागः)
संग्रहकर्ता . पं० विजयमूर्ति एम० ए० शास्त्राचार्य:
प्रकाशिका . माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैनग्रन्थमालासमितिः
विक्रम संवत् २००९ मूल्यं रूप्यकम्
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- प्रकाशक
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नाथूराम प्रेमी,
मंत्री, माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला हीराबाग, बम्बई ४
सितम्बर १९५२
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- मुड़क - लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी
निर्णयसागर प्रेस, २६-२८ कोलभाव स्ट्रीट, बम्बई २
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स्वागत
जैनशिलालेखसंग्रहका प्रथम भाग आजसे चौबीस वर्ष पूर्व सन् १९२८ ईस्वी में प्रकाशित हुआ था। उसके प्राथमिक वक्तव्यमें मैंने यह आशा प्रकट की थी कि यदि पाठकोंने चाहा, और भविष्य अनुकूल रहा तो अन्य शिलालेखोंका दूसरा संग्रह शीघ्र ही पाठकोंको भेंट किया जायगा । पाठकोंने चाहा तो खूब, और माणिकचन्द्र-दिगम्बर-जैनग्रंथमालाके परम उत्साही मंत्री पं० नाथूरामजी प्रेमीकी प्रेरणा भी रही, किन्तु मैं अपनी अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों के कारण इस कार्यको हाथमें न ले सका । तथापि चित्तमें इस कार्यकी आवश्यकता निरन्तर खटकती रही। अपने साहित्यिक सहयोगी डॉ. मादिनाथजी उपाध्येसे भी इस सम्बन्धमें अनेक बार परामर्श किया किन्तु शिलालेखोंका संग्रह करने करानेकी कोई सुविधा न निकल सकी। अतएव, जब कोई दो वर्ष पूर्ण श्रद्धेय प्रेमीजीने मुझसे पूछा कि क्या पं० विजयमूर्तिजी एम० ए० (दर्शन, मंस्कृत) शास्त्राचार्यद्वारा शिलालेखसंग्रहका कार्य प्रारम्भ कराया जावे, तब मैंने सहर्ष अपनी सम्मति दे दी । आनन्दकी बात है कि उक्त योजनानुमार जैनशिलालेखसंग्रहका यह द्वितीय भाग छपकर तैयार हो गया और अब पाठकोंके हाथों में पहुँच रहा है।
यह बतलानेकी तो अब आवश्यकता नहीं है कि प्राचीन शिलालेखोंका इतिहास-निर्माणक कार्य में कितना महत्वपूर्ण स्थान है। जबसे जैन शिलालाखोंका प्रथम भाग प्रकाशित हुआ, तबसे गत चौबीस वर्षोंमें जैनधर्म और माहित्य के इतिहाससम्बन्धी लेखों में एक विशेष प्रौढता और प्रामाणिकता दृष्टिगोचर होने लगी। यद्यपि वे शिलालेख उससे पूर्व ही प्रकाशित हो चुके थे, किन्तु वह सामग्री अंग्रेजीमें, पुरातत्व विभागके बहुमूल्य और बहुधा भप्राप्य प्रकाशनोंमें निहित होने के कारण साधारण लेखकों तथा पाठकोंको सुलभ नहीं थी । इसीलिये समस्त प्रकाशित शिलालेखोंका सुलभ संग्रह नितान्त आवश्यक है।
जैनशिलालेखसंग्रह प्रथम भागमें पांच सौ शिलालेख प्रकाशित किये गये थे। वे सब लेख श्रवणबेल्गुल और उसके आसपासके कुछ स्थानों के ही थे।
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जैन-शिलालेख-संग्रह
द्वितीय भाग
दिल्ली (टोपरा)-प्राकृत । अशोकके सातवें धर्मशासन-लेखका मन्तिम भागे
[लगभग २४२ ईसवी पूर्व] [१] धमवढिया च बाढं वढिसति [1] एनाये मे अठाये धमसावनानि सावापितानि धमानुसाथिनि विविधानि आनपितानि [ यथा मे पुलि ]सापि बहुने जनसि आयता एते पलियोबदिसंति पि पविलिसंतिपि [1] लजूका पि बहुकेमु पानसतसहसेसु आयता ते पि मे आनपिता[:] हेवं च हेयं च पलियोवदाय
[२] जन धंमयुतं । देवानं पिये पियदसि हेवं आहा[:] एतमेव मे अनुवेखमाने धमथंभानि कटानिा,] धममहामाता कटा[] धम[सावने] कटे [1] देवानं पिये पियदसि लाजा हेवं आहा[:] मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि[:] छायोपगानि होसंति पसुमुनिसान[;] अंबावडिक्या लोपापिता[;] अढकोसिक्यानि पि मे उदुपानानि
[३] खानापितानि निसिधिया च कालापिता] आपानानि मे बहुकानि तत तत कालापितानि पटीभोगाये पसुमुनिसानं [1] ल[हुके चु] एस पटीभोगे नाम [1] विविधायाहि सुखायनाया पुलिमेहिपि लाजी
१. ए कनिंघम, Corpus inscriptionum indicarum, Vol. I, Inscriptions of Asoka, p. 115, t.
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जैन - शिलालेख - संग्रह
द्वितीय भाग
१
दिल्ली (टोपरा ) - प्राकृत । अशोकके सातवें धर्मशासन-लेखका अन्तिम भागे
[ लगभग २४२ ईसवी पूर्व ]
[१] मढ़िया च वादं वढिसति [1] एताये मे अठाये धमसावनानि सावापितानि धमानुसार्थिनि विविधानि आनपितानि [ यथा मं पुलि सापि हुने जनसि आयता एते पलियोत्रदिसंति पि पविथलिनतिपि [|| उजूका पि बहुकेतु पानमतसहसेसु आयता ते पि मे आनपिता[] हेच हे च पलियोवदाय
[ २ ] जनं श्रमयुतं [1] देवानं पिये पियदसि हवं आहा [:] एतमेव मे अनुवेश्यमान गभानि कटानि [] धममहामाना कटा [] धम - [सावने] कटे [1] देवानं पिये पियदसि लाजा हे आहा [ : ] मगेसुपि मे निगोहानि लोपापितानि [:] छायोपगानि होसंति पसुमुनिमानं [;] अंबाबडिक्या लोपापिता [] अटकोसिक्यानि पि मे उदुपानानि
[३] खानापितानि []] निसिधियाच कालापिता [] आपानानि में बहुकानि तत तन कालापितानि पटीभोगाये पसुमुनिसानं [1] [ के चु] एस पटीभोगे नाम [1] विविधायाहि सुखायनाया पुलिमेहिपि लाजी
१. ए कनिंघम, Corpus inscriptiomum indicarum, Vol. 1, Inscriptions of Asoka, p. 115, t.
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जैन- शिलालेख संग्रह
हि ममया च सुखयिते' लोके [1] इमं चु धंमानुपटीपतीअनुपटीपर्जतुति[] एतदया मे
[ ४ ] एस कटे [1] देवानं पिये पियदसि हेवं आहा [:] धंममहामातापि मे ते बहुविधे अठेसु अनुगहिकेसु वियापटा से पवजीतानं चेव गिहियानं च [;] सर्व [ पासं ] डेसु पि च वियापटा से [1] संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होतिति [:] हेमेव बाभनेसु आजीविकेसु पि मे कटे
[५] इमे वियापटा होहंतिति [1] निगंठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति [ : ] नानापासंडेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंतिति [1] पटिविसठं पटीविसठं तेसु तेसु ते ते महामाता [] धममहामाता च मे एते चेत्र वियापटा सवेसु च अंनेसु पासंडेसु [1] देवानं पिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ : ]
[ ६ ] एते च अंने च बहुका मुखा दानविसगसि वियापटा से मम चेव देविनं च[;] सवसि च मे आलोधनसि ते बहुविधेन आ[का] लेन तानि तानि तुठायतनानि पटी [पाडयंति] हिद चैव दिसासु च [1] दालकानं पि च मे कटे अंनानं च देविकुमालानं इमे दानविसगेसु वियापटा होहंति ति
[७] धमपदानठाये धंमानुपटिपतिये [I] एस हि धमापदाने धमपटीपति च या इयं दया दाने सचे सोचत्रे मदवे साधवे च लोकस हेव वढिसतिति [1] देवानं पिये [पियद) सि लाजा हेवं आहा [ : ] यानि हि कानि चि ममिया साधवानि कटानि तं लोके अनूपटीपने तं च अनुविधियंति[;] तेन वढिता च
१. सुखीयते Indian Antiquary, Vol. XIII, p. 310, t.
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अशोकका धर्मशासन
[ ८ ] वढिसंति च मातापितृसु सुसुसाया गुलुसु सुसुसाया क्योमहालकानं अनुपटीपतिया 'बामनसमनेषु कपनवलाकेसु आव दासभटकेसु संपटीपतिया [1] देवानंपिये [पि] यदसि लाजा हेवं आहा [:] मुनिसानं चु या इयं धमवढि बढिता दुवेहि येव आकालेहि धमनियमेन च निझतिया च
[९] तत च लहु से धमनियमे [,] निझतिया व भुये [] धमनियमे च खो एस ये मे इयं कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि [,] अंनानि पिचु बहु [कानि] धमनियमानि यानि मे कटानि [1] निझतिया व चु भुये मुनिसानं धमवढि वढिता अविहिंसाये भुतानं
[१०] अनालंभाये पानानं [] से एताये अथाये इयं कटे [,] पुतापपोतिके चंदमसुलियिके होतु ति] तथा च अनुपटीपजंतु ति [1] हेवं हि अनुपटीपजंत हिंदतपालते आल होत [] सतविस तिवसाभिसितेन मे इयं धंमलिबि लिखापापिताति [ ] एतं देवानंपिये आहा[:] इयं
[ ११ ] धमलिबि अत अथि सिलायंभानि वा सिलाफलकानि वा तत कटविया एन एस चिलठितिके सिया ।
[ यह धर्मशासन-लेख अशोकके द्वारा महास्तम्भोंपर लिखाये गये लेखोंमैले अन्तिम है। इसको कोई-कोई आठवां धर्मशासन - लेख ( Edict ) मानते हैं, तो कोई मात्र सातवें धर्मशासन-लेखका ही अन्तिम भाग मानते हैं ।
इसमें बताया है कि सम्राट् अशोकने अपने राज्याभिषेकसे २७ वें वर्षमें यह धर्मशासन लेख लिखाया था । इसमें उसने अपने द्वारा नियोजित धर्ममहामात्योंका उल्लेख किया है । ये धर्ममहामात्य 'संघ' ( बौद्धसंघ ), भाजीवक, ब्राह्मण और निर्मन्थोंकी देखरेख रखनेके लिये
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हाथीगुफाका लेख [.] [क] [f] मानैः (१) उसने महाविजय-प्रासाद नामक राजसनिवास, अड़तीस सहसकी लागतका बनवाया।
दसवें वर्ष में उसने पवित्र विधानोंद्वारा युद्धकी तैयारी करके देश जीतनेकी इच्छासे, भारतवर्ष (उत्तरी भारत) को प्रस्थान किया ।... क्लेश (1) से रहित.........उसने आक्रमण किये गये लोगोंके मणि और रतोंको पाया।
[११] (ग्यारहवें वर्षमें ) पूर्व राजाओंके बनवाये हुए मण्डपमें, जिसके पहिये और जिसकी लकड़ी मोटी, ऊंची और विशाल थी, जनपदसे प्रतिष्ठित तेरहवें वर्ष पूर्व में विद्यमान केतुभद्रकी तिक्त (नीम) काष्टकी अमर मूर्तिको उसने उत्सवसे निकाला।
वारहवें वर्षमें........."उसने उत्तरापथ (उत्तरी पञ्जाब और सीमान्त प्रदेश) के राजाओंमें त्रास उत्पन्न किया।
[१२].........और मगधके निवासियोंमें विपुल भय उत्पन्न करते हुए उसने अपने हाथियोंको गंगा पार कराया और मगधके राजा बृहस्पतिमित्रसे अपने चरणोंकी बन्दना कराई ............(वह) कलिंगजिनकी मूर्तिको जिसे नन्दराज ले गया था, घर लौटा लाया और अंग और मगधकी अमूल्य वस्तुओंको भी ले आया।
[१३] उसने..........जठरोल्लिखित (जिनके भीतर लेख खुदे हैं) उत्तम शिखर, सौ कारीगरोंको भूमि प्रदान करके, बनवाये और यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि वह पाण्डवराजसे हस्ति नावोंमें भरा कर श्रेष्ठ हय, हम्ति, माणिक और बहुतसे मुक्ता और रन नजरानेमें लाया। [१४] उसने........"वशमें किया। फिर तेरहवें वर्षमें प्रत पूरा होनेपर (खारवेलने) उन याप-ज्ञापकोंको जो पूज्य कुमारी पर्वतपर, जहाँ जिनका चक्र पूर्णरूपसे स्थापित है, समाधियोंपर याप और झेमकी क्रियाओंमें प्रवृत्त थे; राजभृतियोंको वितरण किया। पूजा और अन्य उपासक कृत्योंके क्रमको श्रीजीवदेवकी भाँति खारवेलने प्रचलित रखा।
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१०
जैन-शिलालेख संग्रह ' [१५] सुविहित श्रमणों के निमित्त शास-नेत्रके धारकों, ज्ञानियों और तपोबलसे पूर्ण ऋषियोंके लिये (उसके द्वारा) एक संधायन (एकत्र होनेका भवन) बनाया गया। अर्हत्की समाधि (निषया) के निकट, पहाड़की ढालपर, बहुत योजनोंसे लाये हुए, और सुन्दर खानोंसे निकाले हुए पत्थरोंसे, अपनी सिंहप्रस्थी रानी 'पष्टी' के निमित्त विधामागार
[१६] और उसने पाटालिकाओंमें रन-जटित स्तम्भोंको पचहत्तर लाख पणों (मुद्राओं) के व्ययसे प्रतिष्ठापित किया । वह (इस समय) मुरिय कालके १६४ वें वर्षको पूर्ण करता है।
वह क्षेमराज, वर्द्धराज, भिक्षुराज और धर्मराज है और कल्याणको देखता रहा है, सुनता रहा है और अनुभव करता रहा है।
[१७] गुणविशेष-कुशल, सर्व मतोंकी पूजा (सन्मान ) करनेवाला, सर्व देवालयोंका संस्कार करानेवाला, जिसके रथ और जिसकी सेनाको कभी कोई रोक न सका, जिसका चक्र (सेना) चक्रधुर (सेना-पति) के द्वारा सुरक्षित रहता है, जिसका चक्र प्रवृत्त है और जो राजर्षिवंश कलमें उत्पन्न हुआ है, ऐसा महाविजयी राजा श्रीखारवेल है।
इस शिलालेखकी प्रसिद्ध घटनाओंका तिथिपत्रबी. सी. (ईसाके पूर्व)
, १४६० (लगभग) ... केतुभद्र " ...४६० (लगभग)... कलिंगमें नन्दशासन " [२३०
... अशोककी मृत्यु] ,, [२२० (लगभग) ... कलिंगके तृतीय-राजवंश
का स्थापन] , १९७ ... ... खारवेलका जन्म , [१८८ ... ... मौर्यवंशका अन्त और
पुष्यमित्रका राज्य प्राप्त करना] " १८२ ... ___... खारवेलका युवराज होना M[१८. (लगभग ... सातकर्णि प्रथमका राज्य
प्रारम्भ]
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"१७३
१७२
,, १६९
"
१, १६७
,, १६५
१६१
"2
99
१६०
⠀⠀⠀
...
...
...
:
...
वैकुण्ठगुफाका लेख
600
...
...
946
...
...
खारवेलका राज्याभिषेक
भूषिक- नगरपर आक्रमण
राष्ट्रिकों और भोजकोंका
पराजय
राजसूय-यज्ञ
मगधपर प्रथम बार आक्रमण
उत्तरापथ और मगधपर
आक्रमण, पाण्डवराजसे
अदेय ( नजराने ) की प्राप्ति शिलालेखकी तिथि
११
३
वैकुण्ठ (स्वर्गपुरी ) गुफा उदयगिरि - प्राकृत | [ लगभग १६५ मौर्यकाल ]
अरहन्तपसादनं कलिंग...य...नानं लोनकाडतं रजिनोलस... हेथिसहस्रं पनोतसयकलिंग वेलस अगमहि पिडकार्ड
[ इस शिलालेखमें अर्हन्तोंकी कृपाको प्राप्त गुहानिर्माण ( Excavation ) बताया गया है। इस लेखका शेषभाग इतना टूटा हुआ है कि वह पढ़ने में नहीं आसकता । वैकुण्ठ गुफा, जिसके नामसे यह शिलालेख प्रसिद्ध है, राजा ललाकके द्वारा अर्हन्तों और कलिंगके श्रमणोंके लाभ या उपयोगके लिये बनाई गई थी। ]
[JASB, VI, p. 1074]
४
मथुरा -- प्राकृत ।
[ बिना कालनिर्देशका ] लेकिन करीब १५० ई० पूर्वका [ बूल्हर ]
१ पितकड in JASB, vol VI, p. 1074.
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जैन-शिलालेख संग्रह समनस माहरखितास आंतेवासिस वछीपुत्रस सावकास उतरदासक[1] स पासादोतोरनं [1]
अनुवाद-माहरखित (माघरक्षित) के शिष्य, वली (वासी माता) के पुत्र उतरदासक ( उत्तरदासक) श्रावकका (दान) यह मन्दिरका तोरन(ण) है।
[El, II, F° XIV, n° 1.]
मथुरा-प्राकृत। [महाक्षत्रप शोडाशके ४२ ३ (?) वर्षका] १. नम अरहतो वर्धमानस।
२. स्व[मिस महक्षत्रपस शोडासस सवत्सरे ४० (?)२ हेमंतमासे २ दिवसे ९ हरितिपुत्रस पालस भयाये मममाविकाये'
३. कोछिये अमोहिनिये सहा पुत्रेहि पालवोपेन पोटघोषेन धनघोपेन आयवती प्रतिथापिता प्राय-[भ]
४. आर्यवती अरहतपुजाये [1]
अनुवाद-अर्हत् वर्धमानको नमस्कार हो । स्वामी महाक्षत्रप शोडासके ४२ (?) वें वर्षकी शीतऋतुके दूसरे महीनेके नौवें दिन, हरिति (हरिती या हारिती माता) के पुत्र पालकी बी, तथा श्रमणोंकी श्राविका, कोछि (कौत्सी) अमोहिनि ( अमोहिनी) के द्वारा अपने पुत्रों पालघोष, पोठघोष, (प्रोष्टघोष) और घनघोषके साथ आयवती (आर्यवती) की स्थापना की गई थी।
[El, II, n. XIV, n'2]
पभोसा (अलाहाबादके पास)-संस्कृत ।
[द्वितीय या प्रथम ईसवी पूर्व (फ्यूरर)] १ पढ़ो 'समनसाविकाय'।
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१. राज्ञो गोपालीपुत्रस २. बहसतिमित्रस
पोसाका लेख
३. मातुलेन गोपालीया
४. वैहिदरीपुत्रेन [ आसा ]
५. आसाढसेनेन नं
६. कारितं [ उदाकस ] दस
७.
मे सवछरे कश्शपीयानं अरहं
१३
८. [ ता] न
1-f
[11]
अनुवाद -- गोपालीके पुत्र राजा बहसतिमित्र ( बृहस्पतिमित्र ) के मामा, तथा गोपाली वैहिदरी ( अर्थात् वैहिदर - राजकन्या ) के पुत्र आसाढसेनने कश्शपीय अरहंतोंके • दसवें वर्ष में एक गुफाका निर्माण
कराया ।
[EI, II, p. 242.]
पभोसा ( प्रभात ) - प्राकृत | [ द्वितीय या प्रथम शताब्दि ई. पू. ] १. अधियछात्रा राञ शोनकायनपुत्रस्य वंगपालस्य २. पुत्रस्य रात्रो तेणीपुत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण ३. वैदिरीपुत्रेण आषाढ सेनेन कारितं [ ॥ ]
अनुवाद - अधिछत्राके राजा शोनकायन ( शौनकायन ) के पुत्र -राजा वंगपालके पुत्र (और) तेवणी ( अर्थात् वर्ण - राजकन्या ) के पुत्र राजा भागवतके पुत्र ( तथा ) वैहिदरी ( अर्थात् वैहिदर - राजकन्या ) के पुत्र आषाढसेनने बनवाई |
[ नोट- शुङ्गकालके अक्षरोंसे मिलने-जुलनेके कारण दोनों शिलालेखों का काल विश्वासके साथ द्वितीय या प्रथम शताब्दि ई० पूर्व निश्चित किया
१ संभवतः 'गोपालिया' । २ सभी अक्षर संशयापन हैं ।
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जैन-शिलालेख संग्रह जा सकता है। खास ऐतिहासिक चीज जो यहां बक्षित करनेकी है वह अधिछत्राके प्राचीन राजाओंकी वंशावलि है । अधिकता किसी समय प्रतापी उत्तर पाबालके राजाओंकी राजधानी थी । वंशावली इस प्रकार है:
शोनकायन तेवणी (त्रैवर्ण राजकन्या)से विवाहित वंगपाल
| (अधिछत्राका राजा) वैहिदरी (वैहिदर-राजकन्या) गोपालीसे विवाहित राजा भागवत
गोपाली
आषाढसेन
राजा बहसतिमित्र बहसतिमित्र कहांका राजा था और उसके पिताका नाम क्या था, यह नहीं बताया गया है । लेकिन, ए. फ्यूरर की सम्मतिमें हम उसे कौशाम्बीका राजा मान सकते हैं, क्योंकि वह (कौशाम्बी)प्रभास (पभोसा) के निकट है तथा बहुत-से उसके (बहसतिमित्रके ) सिके कौशाम्बीमें मिले हैं।
[EI, II, n' XIX, n° 2 (p. 243.)]
मथुरा-प्राकृत।
[विना कालनिर्देशका] १. नमो आरहतो वधमानस दण्दाये गणिका२. ये लेणशोभिकाये धितु शमणसाविकाये ३. नादाये गणिकाये वासये आरहता देविकुला ४. आयगसभा प्रपा शीलापटा पतिष्ठापितं निगमा
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मथुराका लेख ५. ना अरहतायतने स [ह] मातरे भगिनिये धितरे पुत्रेण ६. सविन च परिजनेन अरहतपुजाये।
अनुवाद-अहत् वर्धमानको नमस्कार हो । श्रमणोंकी उपासिका (प्राविका) गणिका नादा, गणिका दन्दाकी बेटी वासा, लेणशोभिकाने महन्तोंकी पूजाके लिये व्यापरियोंके महत्मन्दिरमें अपनी माँ, अपनी बहिन, अपनी पुत्री, अपने लड़केके साथ और अपने सारे परिजनोंके साथ मिलकर एक वेदी, एक पूजागृह, एक कुण्ड और पाषाणासन बनवाये ।
[I. A., XXXIII, p. 152-153.]
मथुरा-प्राकृत। (कालनिर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे. एफ. फ्लीटके अनुसार लगभग
१४-१३ ई० पूर्वका होना चाहिये) १. [न] मो अरहतो वर्धमानस्य गोतिपुत्रस पोठयशक. २. कालवाळस
३. [ भार्याये ] कोशिकिये शिमित्राये' अयागपटो प्रि [प्रतिष्ठापितो] __ अनुवाद-वर्धमान भईन्तको नमस्कार हो । गोतिपुत्र (गौतीपुत्र)की स्त्री कौशिककुलोद्भत शिवमित्राने एक अयागपट स्थापित किया । गोतिपुत्र पोठय और शक लोगोंके लिये काला सर्प (कालवाल) था।
[El, I, XLIV, n° 33]
मथुरा-प्राकृत। [विना कालनिर्देशका सम्भवतः १४-१३ ई. पूर्व] १. मा अरहतपूजा ये २. गोतीपुत्रस ईद्रपाल].... १ इसकी जगह 'शिवमित्रायें पढ़ना चाहिये (J. F Fleet)।
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जैन-शिलालेख संग्रह अनुवाद-गोती (गौती माता) के पुत्र इन्द्रपाल (इन्द्रपा) के... ......महन्तोंकी पूजाके लिये..........."प्रतिमा.......
[El, II, 'XIV, ..]
गिरनारः-संस्कृत ।
[विक्रमसंवत् ५८] हुमदके पवित्र स्थानके आगनमें वृक्षके नीचे एक चौकोर चबूतरा है । उसके किनारेपर निम्नलिखित लिखा हुआ है:
सं० ५८ वर्षे चैत्र वदी २ मोमे धारागले पं० नेमिचन्दशिष्य
पंचाणचंदमूर्ति अनुवाद-संवत १८ के वर्षमें, सोमवार, चैत्र वदी २ को, धारागअमें नेमिचन्द्र के शिष्य पंचाणचंदकी मूर्ति ।
{ASI, IVI, p. 357, n° 20]
मथुरा-प्राकृत ।
(विना कालनिर्देशका) १. भदंतजयसेनस्य आंतेवासिनीये २. धामघोपाये दानो पासादो [1] अनुवाद-भदन्त जयसेनकी शिष्या धमघोषा (धर्मघोषा) के दानस्वरूप यह मन्दिर है।"
[El, II, n° XIV, n° 4 ]
मथुरा-प्राकृत। भगवा नेमेसो भग-- अनुवाद-"भगवान नेमेस (नैगमेष), भगवान...
[EI, II, D° XIV, A6]
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मथुराके लेख
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अनुवाद - सफलता हो । महाराज, राजाधिराज, देवपुत्र, शाहि कनिकके ७ वें वर्ष में, हेमन्तऋतुके पहले महीनेके १५ वें दिन ( अमावस्या ) (Lunar day ) मर्योदेहिकीय ( आर्य उद्देहिकीय ) गण और अर्थ - नागभुतिकिय ( आर्य नागभूतिकीय ) कुलके गणी अर्थ बुद्धिशिरि ( आर्य-बुद्धश्री ) के शिष्य वाचक अर्थ्य ( सन्धि ) ककी भगिनी अर्थ्य जया ( आर्य जया ) अर्थ गोष्ट......
[EL, 1, XLIII, n 19]
२५
मथुरा -- प्राकृत | [ कनिष्क वर्ष ९...]
१. सिद्ध महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सरे नवमे
मासे प्रथ १ दिवसे ५ अस्य पूर्वाये कोट्टियातो गणातो भ जिमित
२. .......वत्र दिस
न बुद
विकट
[ यह महत्त्वपूर्ण लेख नववें संवत्, पहले महीने ( ऋतुका नाम लुप्त है ) पाँच दिनका है । यह महाराज कनिष्कके राज्यकाल (ईस्वी पूर्व ४८ ) का है । ]
[A Cunningham, Reports, III, p. 31, n° 4. ]
२६
मथुरा - प्राकृत ।
[ कनिष्कका १५ वाँ वर्ष ]
अ. १.
सं १० ५ गृ ३ दि १ अस्या पूर्व [[] य ब. १........हिकातो' कुलातो अजयभूति" स. १. स्य शिशीनिनं असङ्गमिकये शिशीनि.... द. १ अर्व्यवलये [ निर्वर्त्त ] नं
१ 'सिद्ध' की पूर्ति करो । २ 'मेहिकातो' पढ़ो।
३ ' शिशीनिनं' पढ़ो |
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२४
जैन - शिलालेख संग्रह
अ. २.
'लस्य धी [तु]
धु' वेणि
ब. २. '''श्रेष्ठि [स्य] धर्मपत्निये भट्टि [सेनस्य स. २. [ मातु ] कुमरमितयो' दनं भगवतो [ प्र ] .... द. २. मा सव्वतोभद्रका [11]
अनुवाद - [ सफलता हो । ] १५ वें वर्षकी ग्रीष्म ऋतुके तीसरे महीने के पहले दिन, भगवानकी एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाको कुमरमिता ( कुमारमित्रा) ने [मेहिक ] कुलके अर्थजयभूतिकी शिया अर्थ सङ्गमिकाकी शिष्या अर्थ्य वसुलाके आदेशसे समर्पित की । कुमारमित्रा. लकी पुत्री की बहू (वधू), श्रेष्ठी वेणीकी धर्मपत्नी और भट्टिलेनकी माँ थी । [ El, 1, u° XLIII, No 2]
...
"
२७
मथुरा - प्राकृत |
[ हुविष्क ? ] वर्ष १८
अ. स १ ०८ गृ ४ दि ३ [ अस्या पु ] - [य]
गण [ तो ].....
ब. संभोगातो वच्छलियातो कुलातो गणि........
द. १. [ द्र ]........
....
वासि जयस्य तु मासिगिये [ ? ] दानं सर्व्वत []भ
[ या ] तो
२. - [ सर्वस] ] वा [ नं ] सुखाय भवतु ।
अनुवाद - वर्ष १८ ग्रीष्मऋतुका ४ था महीना, तीसरे दिन अवसर पर, [ कोट्टि ] य गण, संभोग, वच्छलिय (वात्सलीय) कुळके गणि... ... के आदेश से जयकी ( माता ) मासिगिका दान एक सर्वतोभद्र [ प्रतिमा ] के रूप में किया गया ।
१ 'वधु' पढ़ो। २ इसे 'कुमारमितये' पढ़ना चाहिये ।
[ El, Il, n° XIV, n' 13 ]
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मथुराके लेख
२८
मथुरा - प्राकृत - भग्न ।
[ हुविष्क ? ] वर्ष १८
अ....ष १० [ ८ ] व २ दि. १ ० १
ब. धितु मि [ तशि ] रिये भगवती अरिष्टणेमिस्य [ वेवर्त ] :
---
अनुवाद- - वर्ष १८, वर्षाऋतुका २ रा महीना, ११ वां दिन, इस दिन की पुत्री मितशिरि (? मिश्रभी) के दानके रूपमें भगवान अरिष्टणेमि ( अरिष्टनेमि ) की [ की प्रतिष्ठा ) ......
[ El, II, XIV, n. 14]
२९
मथुरा - प्राकृत ।
[ कनिष्क सं. १९]
अ. १. सिद्धम् । सं १०९ व ४ दि १० अस्यां पु.... २. व्य वाचकस्य अर्य्यबल'
३. दिनस्य शिष्यो [वाच ] को अर्यमा.... ४. वुदिनः तस्य [[न] व्र्व्वर्त्त [न]
ब. १. [ कोडियातो गणातो ठानियातो
२. [ कुलातो श्रीगृहात संभोगातो ] ३. [ अर्थबेरिशाखात सु ] चि ... [ल ] स्य धम्यपत्निये ले...
स.
द. दानं भगवतो स [न्ति] [प्र] तिमा
* ..
"
२५
अ. ५. नाश..
तनं
ब. ४.. [न] मो अरततानं सर्व्वलोकुत्त [ मार्न J
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जैन शिलालेख संग्रह
अनुवाद - सिद्धि हो । १९ वे वर्षकी वर्षाऋतुके चौथे महीने में, वाश्वक अ बलदिन ( बलदत्त ) के शिष्य वाचक अर्थ्य मातृदिनके आदेश से भगवान शान्तिनाथकी प्रतिमा ले की तरफसे अर्पित की गई । यह अर्पण करनेवाली स्त्री सुचिल ( शुचिल ) की धर्मपत्नी थी और वह कोहि गण, ठानीय कुल, श्रीगृह सम्भोग तथा अर्थ बेरि ( आर्य-वज्र ) शाखाकी थी । सर्व लोकोंमें उत्तम ऐसे अर्हतोंको नमस्कार हो
[ El, 1, n° XLIII, n° 31
२६
३०
मथुरा--प्राकृत । [ कनिष्क वर्ष २० ]
अ १. सिद्ध स [ २० ] गृमा- दि. १० ५ कोट्टियातो गणतो [3] णियातो कुलनो बेरितो राखतो शिरिकानो
१. [ संभो ] गातो वाचकस्य असघसिहस्य निर्वर्त्तना दाति"मति
लस्य
२. लस्य कुठुविणिये जयवालस्य देवदासस्य नागादिनस्य च नागदिनय च मातु
स. १. श्राविका दि
२. [ ना ] ये दानं ॥ ३. वर्द्धमानप्र
४.
तिम |
अनुवाद - सिद्धि हो । २० वे वर्षकी ग्रीष्मऋतुके १ ले महीने के १५ वें दिन, कोट्टियगण, ठानीय कुल, बेरि ( वज्री ) शाखा और शिरिक सम्भोगके वाचक अर्थ्य सघसिह ( आर्य सङ्घसिंह ) के आदेश से श्राविका दीना ( दिना) की तरफसे वर्धमानकी प्रतिमा [ अर्पित की गई ] । यह
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मथुराके लेख
दिना दातिल [ की पुत्री ], मातिलकी पत्नी और जयपाल, देवदास, नागदिन ( नागदस ) तथा नागदिना ( नागदत्ता ) की माँ थी ।
[El, 1, n° XLIV, n° 28 ]
३१
मथुरा - प्राकृत---भन्न ।
[हुविष्क सं० २०
• ]
२७
अ. १. [ सिद्धं सं २० गृ ३ ] दि [१०] ७ [ एतस्य पूर्वाय कोट्टिय[[ ] तो गणातो ब्रह्मदासियातो कुलानो उच्चे [ नागरितो शा ] खातो [ श्री ] गृह [i] तो संभोगातो [ बृहत ]ाचक च गणिन चज [-मित्र ] स्य.....
२. अ [ ओ ] घस्य शिष्यगणिस्य [ अ ] पालस्य श्र [च] से [ वाच ]कस्य अय दत्त स्य शिष्यो वाचको अर्थसीहा [त ] स्य निव्वर्तणा [ खो ] दृमि [ त ] स्य मानिकरस्य [गी ]जयभ[ट्टि] धीतु दास्य
१. [ ] हाणियस्स वाधर वधू [ ह ] ग्गु [ देव ] स्य धर्म्मपत्निये मित्राये [ दानं ].... [ सर्व्व ] स [त्वानं ] हि [तसु ] खाये काक [ तेय ]
क्ष
२. - बाज
•F... ....... 'रज'
I
अनुवाद - सिद्धि हो । हुविष्क २० वे वर्षकी ग्रीष्मऋतुके तीसरे महीनेके १७ वें दिन, वाचक अर्थ सीह ( सिंह ) - जो वाचक दत्तके शिष्य थे, और जो कोट्टियगण, ब्रह्मदासीय कुल, उच्चनागरी शाखा तथा श्रीगृह
१ 'शिष्य' पढ़ो ।
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२८
जैन-शिलालेख संग्रह संभोगके थे-की आज्ञासे सब सत्वोंके सुख और कल्याण के लिये, मित्राकी तरफसे "समर्पित की गई । यह मित्रा हग्गु देव (फल्गुदेव) की धर्मपत्नी, लोहेका व्यापार करनेवाले वाधरकी बहू खोट्टमित्रके मानिकर जयमटिकी पुत्री.........। अर्य्यदत्त गणी अर्यपालके श्राद्धचर थे। अर्यपाल अर्य ओषके शिष्य थे और अर्घ्य ओघ महावाचक गणी जयमित्रके शिष्य थे।
[El, l, n XLIII, n" 4]
३२
मथुरा-प्राकृत-मन्न । [विना कालनिर्देशका है, पूर्ववर्ती शिलालेखसे ही मिलता-जुलता होनेसे इसका भी समय हुविष्क सं. २० है] वाचकस्य दत्तशिष्यस्य सीहस्य नि........
[E), I, p. 383, 160]
मथुरा-प्राकृत।
[हुविष्क सं. २२] १. सिद्ध सब २०.२ मि १ दि स्य पुर्वायं वाचकस्य अर्यमात्रिदिनस्य णि....१
२. सर्तवाहिनिये धर्मसोमाये दानं ।। नमो अरहंतान अनुवाद-सिद्धि प्राप्त हो । [हुविष्कके ] २२ में वर्षकी ग्रीष्मके पहले महीनेक दिन, वाचक अर्य-मात्रिदिन (आर्य-मातृदत्त) के आदेशसे यह धर्मसोमाका दान है । धर्मसोमा एक सार्थवाहकी खी थी । भईन्तोंको नमस्कार हो।
[El, 1, n° XLIV, n° 29] १ 'निर्वर्तना'।
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मथुराके लेख
३४
मथुरा - प्राकृत । [हुविष्क सं. २२ ]
[ सि ] द्धं सं २० (4) [२] प्रिं २ दि ७ वर्धमानस्य प्रतिमा वारणात गणातो पेतिवामि[क] ·
...
अनुवाद - सिद्धि प्राप्त हो । २२ में वर्षकी ग्रीष्मके दूसरे महीनेके ७ वें दिन, वारणा गण, पेतिवामिक [ कुल ] की तरफसे वर्धमानकी प्रतिमा [ प्रतिष्ठापित की गई ] ।
ग्र
ग्रह थे । यह शाखाके थे ।
[ E], 1, n° XLIII, n° 20]
——
३५
मथुरा - प्राकृत ।
[ हुबिक वर्ष २५ ]
अ. १. सवत्सरे पचविशे हेमंतम [से ] त्रितिये दिवसे वीशे अस्मि
क्षुणे
व. १. कोड्डियतो गणतो ब्र[ह्म] दासिकतो कुलतो उचेनागरितो शाखा अबलत्रतस्य शिप सधि
२९
२. 'स्य शिपिनि ग्रह f.... वतन [ ना ] दिअ [रि ] त जभ[क] स्य वधु जयभट्टस्य कुंटूबिनीय रयगिनिये [वु ] सुय [ 1 ] अनुवाद - २५ वें वर्षकी शीतऋतुके तीसरे महीनेके १२ वै दिनके समय रयगिनिने जो नान्दिगिरि ( ? ) के जभककी बहू थी, एक वुसुय - की आशासे समर्पित की । रयगिनि जयभट्टकी पत्नी थी । afrकी शिष्या थी । सधि अर्थ्य बलवत ( बलनात ) के शिष्य बलत्रात कोट्टिय गण, ब्रह्मदासिक कुल (और) उच्च नागरी
[El, 1, XLIII, a 5 ]
१ यह एक प्रकारकी या तो प्रतिमा है या कोई दान है ।
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जैन-शिलालेख संग्रह
मथुरा-प्राकृत। [विना कालनिर्देशका, संभवतः हुविष्कके २५ वे वर्षका] १. उचेनगरितो शखतो अर्यबलत्रतस्य शिमिणि अर्य्यब्रह्म---
२. अर्यबलत्रतस्य शिष्यो अर्यसन्धिस्य परिग्रहे नवहस्तिस्य धिता ग्रहसेनस्य वधु .... ..... ____३. गिवसेनस्य देवसेनस्य शिवदेवस्य च भ्रात्रिनं मातु जायये प्रतीमा प्र.... ....
४. [मा ] नस्य सर्वसत्वानं हितसुखय ।। अनुवाद-अयं ब्रह्म (आर्य ब्रह्म) [और ] अर्य बलत्रत (आर्य बल. त्रात) के शिष्य अर्य सन्धि (आर्य सन्धि) के ग्रहणके लिये उचेनगरि (उच्चनागरी) शाखाके अयं बलत्रत (आर्य बलत्रात) की शिष्या, जयाने सब जीवोंके कल्याण और सुखके लिये वर्धमानकी प्रतिमाकी प्रतिष्टा की। यह जया नवहस्तीकी पुत्री, ग्रहसेनकी बहू तथा शिवसेन, देवसेन और शिवदेव इन तीन भाइयोंकी माँ थी।
[E1, 11, n° IIT, n* 34]
मथुरा-प्राकृत।
[हुविष्क वर्ष २९] अ. महाराज..... कस सं. २०९ हे २ दि ३० अम क्षुणे भगवनो वर्धमानस प्रति [ मा प्रतिष्ठापिता ग्रहहाथ]स्य धितर सुखिताये बोधिनदि ये] ___ ब. कुटुंबिनिये वारणे गणे पुश्यमित्रीये कुले गणिस अर्थ [दत्तस्य शिष्यस्य ] गह [] कि [व] स निर्वत [ना अर[हं ] तपुजाये ।
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मथुराके लेख २. पुषस्य वधुये गिह "[ कुटिबिनि ] ... [पुष] दिन [स्य ] [ मातु] ....य
अनुवाद-४७ वें वर्ष की प्रीष्मऋतुके २ रे महीनेके २० दिन, वरण ( वारण) गण, पेतिवमिक (प्रैनियमिक) कुलके वाचक और ओह. नदि (ओधनन्दि) के शिष्य सेनकी प्रार्थनापर पुष (पुष्य) श्रावककी बहु, गिहकी गृहिणी, पुषदिन (पुष्पदत्त) की माँ,... · की तरफसे [यह समर्पित किया गया ] |
[EL, 1, n° XLIV. n* 30]
४८
मथुरा-'प्राकृत-मन्न ।
[काल लुप्त, संभवतः वर्ष ४७] १. सिद्धम् । महाराजस्य राजातिराजस्य ....... २. ओहनन्दिस्य शिष्येण से "न...f - 2
अनुवाद-सिद्धि हो। महाराज, राजातिराज......ओहनन्दि (भोघ. नन्दि) के शिष्य सेनने.........
LE!, II. 1. NIV. n° :7
मथुरा-संस्कृन ।
[हुविष्क वर्ष ४७] दानं देविलस्य दधिकर्णदेविकुलकस्य मं ४ ० ७ गृ० ४ दिवसे २९
अनुवाद-४७ वें वर्षकी ग्रीष्म ऋतु के चौथे महीनेके २९ वें दिन, दधिकर्ण मन्दिर (या चैत्यालय) के पुजारी (या माली) देघिलका दान ।
[1A, XXXIII, p. 102-103, p. 13 ] १ सेनेन' पढ़ो।
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૨૮
जैन - शिलालेख संग्रह
५०
मथुरा - प्राकृत —भन्न ।
[हुविष्क वर्ष ४८ ]
१. महाराजस्य हुविष्कस्य स ४० ८ है ४ दि ५
२. बमदासिये कुल [ ] उ [च] नागरिय शाखाया धर
अनुवाद - महाराज हुविष्कके राज्यमें, ४८ वे वर्षकी शीवऋतुके महीने ५ वें दिन, ब्रह्मदासिक कुल, उच्चनगरी शाखाके धर
[ 1A, XXXIII, p. 103, n 14 ]
५१
मथुरा - प्राकृत ।
[ हुविष्ककाल वर्ष ५० ]
१. पण ५० हेमंतमासे प....
२. आर्य्यचेरस्य ३. ये युधदिनस्य ४. धित
५. पूषबुधिस्य ....
[ इस खण्ड शिलालेखका पूरा अनुवाद संभव नहीं है। काल ५० व वर्ष और शीतऋतुका पहला या पाँचवां महीना है । ]
[El, II, n XIV, n° 17]
५२
मथुरा - प्राकृत - भग्न ।
[हुविकका ५० वां वर्ष ]
१. ५० (१) हे २ दि १ अस्य पुर्व्वय वरणतो गणतो.
अय्यभिस्त कुलतो [स]
२. खतो शिरिग्रहतो सभोगतो बहवो बचक च गणिनो च समदि [ अ ]....
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मथुराके लेख ३.... वस्य दिनरस्य शिशिनि अय्य जिनदसि पणति-धरितय शिशिनि अ........
४. धकरवपणतिहरमसोपवसिनि बुबुस्य धित रज्यवसुस्यधर्म...'
५. [द] विलस्य मतु विष्णु[भ] वस्य पिदमहिक विजयशिरिये दन वध........
६.............................
अनुवाद-५० वां वर्ष, शीतऋतुका दूसरा महीना, पहला दिन, इस दिन, वरण (वारण) गण, अय्यभिस्त (?) कुल, सं[कासिया] शाखा, शिरिग्रह (श्रीगृह) संभोगके महावाचक तथा गणि समदिव दिनर की शिष्या अय्य-जिनदसि (आर्य जिनदासी)की आज्ञाको माननेवाली... अय्य धकरब (?) की आज्ञाको धारण करनेवाली विजयशिरि विजयश्रीने] दानमें वध [मान] अर्थात् वर्धमान की प्रतिमा...... । यह विजयश्री बुबुकी पुत्री, रज्यवसु (राज्यवसु) की धर्मपत्री, देविलकी माँ (और) विष्णुभवकी नानी थी और इसने एक महीनेका उपवास किया था।
[El. II, n° XIV, n°36]
रामनगर-प्राकृत। [ काल ? वर्ष ५०]
। राजा
स्थान
न
कहाँ
विशेषता
बार
(अहिच्छत्र) 1891-1892, p. 3/
रामनगर JAS N-W-P-0, दूसरा महीना, शीतऋत, NAnnual report पहला दिन ब्राझी
लिपि
[JRAS, 1903, p. 7-14, ' 40]
१ 'धर्मपत्नी' पढ़ो। २ 'वधमान प्रतिमा' या शायद 'प्रतिमा' ।
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जैन-शिलालेख-संग्रह
मथुरा-प्राकृत ।
[हुविष्क वर्ष ५२] १. सिद्ध संवत्सर द्वापना ५० २ हेमन्त [मा स प्रथ-दिवस पंचवीश २० ५ अस्म क्षुणे कोट्टिया तो गणात[]
२. वेरातो शखतो स्थानिकियातो कुलात ] श्रीगृहतो संभोगातो वाचकस्यायंघस्तुहस्तिस्य
३. शिष्यो गणिस्यामंगुहस्तिस्य पढचरो वाचको अर्यदिवितस्य निवर्तना शूरस्य श्रम
४. णकपुत्रस्य गोष्टिकस्य लोहिकाकारकस्य दानं मचमत्यानं हितमुग्वायास्तु । __ अनुवाद-सिद्धि हो । ५२ वें वर्षके शीतऋतुके पहले महीनेके २५ वें दिन, कोट्टिय गण, वेरा (वज्रा) शाखा, स्थानिकिय कुल (तथा) श्रीगृह संभोगके वाचक आर्य धस्तुहम्तिके शिष्य और गणी मार्य महम्तिके श्राद्धचर ऐसे वाचक अयदिवितके आदेशसे श्रमणकके पुत्र, शूर लुहार गोट्टिकने दान दिया।
E, II, n XIV, 107
मथुरा-प्राकृत।
[हुविष्क वर्ष ५४] १.-धम् । मब ५० ४ हेमतमासे चतुर्थे ४ दिवसे १० अ२. स्य पुर्वायां कोट्टियानो [ग] णातो स्थानि [य]तो कुलातो ३. वैरातो शारखातो श्रीगृह [२] तो संभोगातो वाचकस्यार्य
४. [ह] स्तहस्तिस्य शिष्यो गणिस्य अर्यमाघहस्तिस्य श्रद्धचरो वाचकस्य अ
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________________
मथुराके लेख ५. यंदेवस्य नितने गोवस्य सीहपुत्रस्य लोहिककारुकस्य दानं
६. सर्वसत्वानां हितसुखा एकसरस्वती प्रतीष्ठाविता अवतले रङ्गान र्तन] से
७. मे [1] अनुवाद-सिद्धि हो । ५४ वें वर्षकी शीतऋतुके चौथे महीनेके (शुक्लपक्षके) १० वें दिन, वाचक आर्य देवकी प्रेरणासे सीहके पुत्र गोव लुहारके दानरूपमें एक सरस्वतीकी (प्रतिमा) प्रतिष्ठापित की गई। आर्य देव कोट्टियगण, स्थानिय कुल, वैरा शाखा तथा श्रीगृहसंभोगके वाचक आर्य हम्तहस्तिके शिष्य गणि आर्य माघहस्तिके श्राद्धचर थे। भवतलमें मेरा रङ्गशालीय नृत्य (1)।
[ El, 1, n XLIII, n* 21]
मथुरा--प्राकृत।
[हुविष्क वर्ष ६०] अ. सिद्धम् । म [ हा ] रा [ज] स्य र [जा] तिराजस्य देवपुत्रस्य हुवष्कस्य सं ४० (६०?) हेमन्तमासे ४ दि० १० एतस्यां पूळयां कोट्टिये गणे स्थानिकीये कुले अय्य[वेरि] याण शारवाया वाचकस्यार्यवृद्धहस्ति [स्य] __ब. शिष्यस्य गणिस्य आर्यख[f]स्य पुय्यम[ न ] .......[स्य
[व] तकस्य [क]-सकस्य कुटुम्बिनीये दत्ताये-नधर्मो महाभोगताय प्रीयताम्भगवानृपभश्रीः । __ अनुवाद-सिद्धि हो । महाराज, राजानिराज, देवपुत्र हुधिष्कके ६० में वर्षकी शीतऋतुके चौथे महीनेके १० वें दिन, कोष्ट्रियगण, स्थानिकीय कुल (तथा) अयं वेरियों (आर्य-वनके अनुयायियों) की शाखाके वाचक आर्य वृद्धहस्तिके शिष्य, गणि मार्य स्वर्णके आदेशसे “वतके निवासी १ 'दानधर्मो' पढ़ो।
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४२
जैन-शिलालेख-संग्रह पसककी पत्री दत्ताने महाभोगता (महासुख)के लिये यह दानधर्म किया। भगवान् ऋषभदेव प्रसन्न होवें।
[El, l, n° XLIII, n° 8]
मथुरा-प्राकृत।
[हु० संवत् ६२] वाचकस्य अर्थ-ककसघस्तस्य शिष्या आतपिको ग्रहबलस्य निर्वर्तन........
अनुवाद--वाचक आर्य ककसघस्त (कर्कशर्षित )के शिष्य आतपिक प्रहबलके आदेशसे ।
इस शिलालेखसे. मालूम पड़ता है कि किसी मुनिके आदेशसे जैन श्राविका वैहिकाने एक प्रतिमाका दान किया।
[1A, YYYTHI, p. 105-106, n° 19]
मथुरा--प्राकृत।
[हु० वर्ष ६२] १. सिद्ध । स ६०२ व २ दि ५ एतस्य पुत्रय वाचकस्य आयकर्कुहस्थ [स]
२. वारणगणियस शिषो ग्रहबलो आतपिको तस निवर्तना । अनुवाद-सिद्धि हो। वर्ष ६२, वर्षाऋतुका २ रा महीना, दिन ५, इस दिन, वारणगणके वाचक आय-ककुंहस्थ (आर्य कर्कशर्षित) के शिष्य आतपिक ग्रहबल थे। उनकी प्रेरणासे...........
(E), IL, I XIV, n" 19]
मथुरा--प्राकृत। [
वर्ष ७९ अ. १. सं. ७० ९-र्व ४ दि २० एतस्यां पुळयं कोट्टिये गणे वइरायां शाखायां........
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________________
मथुराके लेख २. को अयवृधहस्ति अरहतो णन्दि [आ] वर्तस प्रतिमं निवर्तयति ।
ब.... भार्यये श्राविकाये [ दिनाये ] दानं प्रतिमा बोद्वे थुपे देवनिर्मिते प्र........१ ___ अनुवाद-वर्ष ७९, वर्षाऋतुका चौथा महीना, २० वां दिन, इस दिन, कोहियगण (तथा) वहरा (वज्रा) शाखा के वाचक अय-वृधहस्ति (आर्य वृद्धहस्ति) ने दीना [दत्ता] श्राविकाको, जो..... की भार्या थी, एक अर्हत् गन्दिआवर्त (नन्द्यावर्त) की प्रतिमाके निर्माणके लिए कहा । दीनाकी यह प्रतिमा देवनिर्मित बोद्ध स्तूपपर प्रतिष्ठित हुई।
[ El, JI, n° XIV, n° 20]
मथुरा-प्राकृत-भन्न ।
[हुविष्क वर्ष ८०] १. [ सिध ] महरजस्य सं ८० हण व १ दि १२ एतस पूर्वायां........
धितु संघनधि [ स्य ] वधुये बलस्य....... अनुवाद-[ स्वस्ति । ] महाराज वासुदेवके ८० वें वर्षमें, वर्षाऋतुके १ ले महीनेके १२ वें दिन,..........की पुत्री, संघनधि (१) की बहू, बलकी ...............(अपूर्ण).
{ El, n" .NLIII, n° 243
मथुरा-प्राकृत-भग्न ।
[ ] वर्ष ८१ १. स ८० १ व १ दि ६ एतस्य पुवाय [अ] यिकाजीवाये अंते२. वासिकिनिये दताये निवतना । [प्र) हशिरिये.... १ प्रतिष्ठापिता'। २ नन्द्यावर्त्त जिसका चिह है ऐसे १८ वें तीर्थङ्कर अर्हनाथ भगवान्की प्रतिमा।
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जैन - शिलालेख संग्रह
अनुवाद - वर्ष ८१, वर्षाऋतुका १ ला महीना, ६ ठा दिन, इस दिन, afaar . जीवा ( आर्यिकाजीवा ) की शिष्या दत्ताकी प्रार्थनापर ग्रह शिरि ( ग्रहश्री )
1
मथुरा - प्राकृत |
[
वासुदेव ] वर्ष ८३
१. सिद्धं महाराजस्य वासुदेवस्य मं ८० ३ गृ २ दि १० ६
एतस्य पूर्व सेनस्य
स्य गन्धिकस्य कुटुम्बिनिये
[EI, 11, ° XIV, n' 21 ]
६२
२. [ धि ] तु दत्तस्य वधुये ब्यच' जिनदासिय प्रतिमा व [ मंद नं
अनुवाद - सिद्धि हो । महाराज वासुदेव के राज्य में ८३ वर्षकी ग्रीष्मऋतुके दूसरे महीनेके १६ वें दिन, सेनकी पुत्री, दत्तकी बहू, गन्धिक ( तेल, इत्र बेचनेवाले ) व्य-व की पत्नी जिनदासीके पवित्रदान में एक प्रतिमा
*** 1
ܐ
६३ मथुरा - प्राकृत |
[ हुविष्क वर्ष ८६ ]
१. सं ८० ६ है १ दि १० २ दसस्य धितु प्रयस्य कुटुविनिये [क] तो कुलतो अयस [ङ्ग] मि [क] य शिशिनिय अयवसुल [य] नि [ ] तने [ ॥ ]
....
"
[LA, XXXII, p. 107, n° 21]
अनुवाद - ८६ वे वर्षकी शीतऋतुके पहले महीनेके १२वें दिन, दस (दास) की पुत्री, पृथ ( प्रिय ) की पत्नी का दान अर्पित किया गया। यह दान [ मेहि ] क कुलकी अर्थ सङ्गमिकाकी शिष्या अर्थ वसुला कहनेसे हुआ ।
[ E], 1, n ́ XL]ll, n 12 ]
.....
Page #35
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________________
मथुराके लेख
मथुरा-प्राकृत।
[हुविष्क वर्ष ८७] [सं ८० ७ ? ] गृ १ दि [ २० ? ] अ [ स्मि ] क्षुणे उच्चेनागरस्यार्यकुमारनन्दिशिष्यस्य मित्रस्य"
अनुवाद-८७ (?) वें वर्षमें ग्रीष्मऋतुके १ ले महीनेके २० (?) वें दिन, उच्चनागरके, कुमारनन्दीके शिष्य, मित्रके .......
__[El, l, n° XLIII, n° 13]
मथुरा-प्राकृत-भन्न ।
[वासुदेव ] वर्ष ८७ १. सिद्ध । महाराजस्य राजातिराजस्य शाहिर-वासुदेवस्य
२. मं ८० ७ हे २ दि ३० एतस्या पुर्वाया....." __ अनुवाद-सिद्धि हो । महाराज राजातिराज शाहि वासुदेवके ८७ में वर्षकी शीतऋतुके २ रे महीनेके तीसवें दिन, ... ...
[IA, XX KIJI, p. 10s, n°22]
मथुरा-प्राकृत-भन्न
[सं० ९.] १. सब [ ९० व ] ... ... ... .... टुबनिए दिनस्य वधूय
२. को ... तो ग [ णा ] नो प-ब [ह ]-[क] तो कुलातो मझमानो शाखा [ तो ]..सनिकय भतिबलाए भिनि।
[यह लेख बहुत टूटा हुआ है। इसमें खास कामकी चीज मझमा शाखा और प-चह-क कुलका उल्लेख है । प-बहक कुल जैन परम्पराका प्रश्नवाहनक या पण्डवाहणय कुल है। वर्ष (सं)९० है]
[El, 11, n° XIV, n° 22]
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मथुराके लेख
८० मथुरा-प्राकृत-भन्न।
[विना कालनिर्देशका] पं. १. [ सि] द नमो अरहताण"वारणे गणे अयहाट्टि [ये ]
२. कुले वजनागरिया शाखाया अर्यशिरिकिये मंभो.......३
अनुवाद-सिद्धि हो । अर्हन्तोंको नमस्कार । [सिद्धोंको नमस्कार ] । वारण गण, अय हाहिय (मार्य हालीय)कुल, बजनागरि (वज्रनागरी) शाखा, भर्य-शिरिकिय संभोगके......
[El, I, XLIV, n° 34 ]
मथुरा-प्राकृत ।
[विना कालनिर्देशका] पं. १. [ते-रुसनंदिकस पुत्रेन नंदिघोषन ते वणिकेन अ.. त अले....."
२. णानं मंदिरे [आ] यागपटा प्रतियापित [1].........."
अनुवाद-ते-रूस (1)-नंदिकके पुत्र, तेवणिक (त्रैवर्णिक) नंदिघोषके द्वारा मायागपट ..... के मन्दिरमें स्थापित की गई।
[El, I, XLIV, n° 35]
मथुरा-प्राकृत।
[विना कालनिर्देशका अ. ... भगवतो उसमस वारणे गणे नाडिके कुले .... .... खा [य] ..."
१ पढ़ो 'नमो सिद्धान। २ संभवतः 'होळिये। ३ पड़ो "संभोगे'।
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जैन शिलालेख संग्रह ब. दुकस वायकस सिसिनिए सादिताए नि ..."
अनुवाद-भगवान् वृषम (उसम) को नमस्कार हो । वारण गण, नाधिक कुल तथा..............के वाचक....तुककी शिष्या सादिताके भादेशसे...........
[ El, II, n° XIV, n° 28]
८३
मथुरा-प्राकृत।
[विना कालनिर्देशका] स्थ [1]निकिये कुले गनिस्य उग्गहिनिय शिषो वाचको घोषको आहेतो पर्श्वस्य प्रतिमा
अनुवाद-"स्थानिकिय (कीय) कुलके गणि (गणिन् ) उग्गहिनिके शिष्य पाचक घोषकने एक अर्हत् पार्थको प्रतिमा...
[E), II, n XIV, n° 29]
मथुरा-प्राकृत-भग्न ।
[विना कालनिर्देशका] अ. वर्धमानपटिमा वजरनद्यस्य धिता वाधिशिव... १.-1 - स्य- कुटीबिनि दिनाये दाति बडिम [शि] ये.... २................ अनुवाद-"वजरमय (वनमन्दिन) की पुत्री, वाधिशिव (सद्धिशिव?) की बह, ... की पक्षी दिना (दत्ता) के दानके रूपमें एक वर्धमानकी प्रतिमा ... ... बडिमशिक......
[EL, II, D° XIV, D° 33]
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मथुराके लेख
मथुरा-प्राकृत-भन ।
[बिना कालनिर्देशका] अ. तिये निर्वर्तना ब. १. तो शखतो शिरिकतो संभोकतो अर्य ३. ... लनस्य मतु हा [स्त ]......." २.f-धराये निवतना शिवद [त]
[E1, II, n° XIV, n° 351 [नोट-निर्वर्तना' और 'निवतना' इन दो शब्दोंके एक ही शिलालेखों आ जानेसे एक ही शिलालेखके दो खण्ड मालूम पड़ते हैं और वे सम्बद्ध अर्थको व्यक्त नहीं करते हैं।
मथुरा-प्राकृत।
(विना कालनिर्देशका) १............ये मोगलिपुतस पुफकस भयाये
असाये पसादो अनुवाद-किसी मोगली (मों मौद्गलीविशेष) के पुत्र, पुफक (पुष्पक) की पली, असा (अश्वा !) का दान।
[1A,XXXIIT, p. 151, n° 28.]
राजगिरि-संस्कृत।
T. Bloch के आर्कीओलोजिकल सर्वे, बङ्गाल सर्किल, वार्षिक रिपोर्ट १९०२, पृ० १६, विश्लेषणमें इस शिलालेखका उल्लेख है । मूलका पता नहीं है।
[AS, Bengal cirole, Annnal report 1902, p. 16. ३. ]
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जैन - शिलालेख -संग्रह
८८
मथुरा - संस्कृत -- भग्न | [ सं० २९९ ]
१. नमस्- सर्वसिद्धाना अरहन्ताना । महाराजस्य राजातिराजस्य संच्छरशते द [ - ] [ तिये नव (?) -नवत्यधिके । ]
२. २०० ९० ९ (१) हेमन्तमासे २ दिवसे १ आरहातो महावीरस्य प्रातिमा
३. .... स्य ओखारिकाये धितु उझतिकाये च ओखाये श्राविका भगिनिय []
४. ........ शरिकस्य शिवदिनास्य च एतैः आराहातायनाने स्थापित []
S
...
-- देवकुलं च ।
५...
अनुवाद - सब सिद्धों और अर्हन्तोंको नमस्कार हो । महाराज और राजा तिराजके ( ९९ से अधिक ) दूसरी शताब्दिमे, २९९ ( ? ), शीतऋतुके दूसरे महीने के पहले दिन - भगवान महावीरकी प्रतिमा अर्हन्मन्दिर में के द्वारा तथा.. की पुत्री, ओखरिकाफी उज्झतिका द्वारा, ... श्राविका भगिनी जोखाके द्वारा, तथा शिरिक और शिवदिना इनके द्वारा स्थापित की गई साथमें एक जिनमन्दिर भी ।
[G. Buhler, J RAS, 1896, p. 578-581.] ૮૦
...
..
मथुरा - संस्कृत - भन्न [ गुप्तकाल ? वर्ष ५७ ] संवत्सरे सप्तपञ्चाश ५० ७ हेमन्धत्रिती.... १ --- [द] से त्रयोदशे अ-पूर्वायां....
१ 'हेमन्त' और 'तृतीय' या 'तृतीये' पढ़ो।
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नोणमंगलका लेख
५५ अनुवाद-५७ में वर्ष, शीतऋतुकी तीसरे महीनेके १३ वें दिन, इसदिन......
{ EI, II, n° XIV, n° 38 ]
नोणमाल-संस्कृत गुप्तकालसे पहिले, संभवतः ३७० ई० का
[नोणमंगलमें ताम्र-पत्रिकाओंपर ] [१ ब ] स्वस्ति नमम् सर्वज्ञाय ॥ जितं भगवता गत-घन-गगनाभेन पानामेन श्रीमज-जाह्नवेय-कुलामल-व्योमावभासन-भास्करस्य स्व-भुजजवज-जय-जनित-सुजन-जनपदस्य दारुणारिगण-विदारण-रणोपलब्धवण-विभूपण-भूपितम्य काण्वायनसगोत्रस्य श्रीमत्कोडणिवर्म-धर्ममहाधिराजस्य पुत्रस्य पितुरन्वागत-गुण-युक्तस्य विद्या-विनय-विहितवृत्तस्य
[२] सम्यक्-प्रजा-पालन-मात्राधिगत-राज्य-प्रयोजनस्य विद्वत्कविकाञ्चन-निकषोपल-भूतस्य विशेषतोऽप्यनवशेषस्य नीति-शास्त्रस्य वक्तृप्रयोक्तृकुशलस्य सुविभक्त-भक्त-भृत्यजनस्य दत्तक-सूत्र-वृत्ति-प्रणेतुः श्रीमन्माधववर्म-धर्म-महाधिराजस्य पुत्रस्य पितृ-पैतामह-गुणयुक्तस्य अनेक-चतुर्दन्त-युद्धावाप्त-चतुरुदधि-सलिलावादित-यशमः समद-द्विरदतुरगारोहणातिशयोत्पन्न-कर्मणः श्रीमद् हरिवर्मा-महाधिराजस्य पुत्रस्य गुरु-गो-ब्राह्मण-पूजकस्य नारायण-चरणानुध्या
[२ ब] तस्य श्रीमद्विष्णुगोप-महाधिराजस्य पुत्रेण पितुरन्वागतगुण-युक्तेन त्र्यम्बकचरणाम्भोरुहराजः( ज )पवित्रीकृतोत्तमाङ्गेन व्यायामोवृत्त-पीन-कठिनभुजद्वयेन ख-भुज-बल-पराक्रम-क्रय-क्रीत-राज्येन क्षुत्
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जैन - शिलालेख संग्रह
क्षामोष्ठ-पिसिताशनप्रीतिकर - निसित धारासिना श्रीमता माधवन-महाधिराजेन आत्मनः श्रेयसे प्रवर्द्धमानविपुलैश्वय्र्ये त्रयोदशे संवत्सरे फाल्गुने मासे शुक्ल पक्षे तिथौ पञ्चम्यां श्रीमद्-वीर-देव-शासनाम्बरावभासन-सहस्रकरस्य आचार्यवीर-देवस्य
५६
[ ३ अ ] निज - कृतान्तपर-राद्धान्त-प्रवीणस्य उपदेशनात् सुदुको तूर-विषये पेब्बोलल्याने अहदायतज्ञाय मूलसंधानुष्टिताय महा-तटाकस्य अधस्तात् द्वादश-खण्डुकावापमात्र क्षेत्रं च तोट्ट क्षेत्र च पटु-क्षेत्र च कुमारपुरश्रामच एतत्सर्वं स सर्व्वं परिहारकमेणाद्भिद्दत्तः योऽस्य लोभात् प्रमादाद्वापि हर्ता स पञ्च महा पातक संयुक्तो भवति अपि चात्र मनुगीता [:] लोका[:]
स्व- दत्तां पर-दत्तां वा यो हरेत वसुन्धराम् । afg-वर्ष - सहस्राणि घोरे तमसि वर्तते ॥
( अन्य हमेशा के अन्तिम लोक )
[ इस लेखमें गंगकुलके राजाओंकी परम्परा - कोङ्गमिवर्मा, मात्र वर्मा, हरिवर्मा, विष्णुगोप और माधववर्मा - देकर यह बताया है कि अन्तिम राजाने अपने राज्यके १३ वे वर्षमें, फाल्गुनसुदी पंचमीको, आचार्य वीरदेवकी सम्मतिखे, मुटुकोत्तर-देश के पेब्बबलू गांवमें मूलसंघद्वारा प्रतिष्ठापित जिनालय में (उक्त) भूमि और कुमारपुर गांव दानमें दिये । ]
[ EC, X, Malur tl., n° 73.]
९१
उदयगिरि ( सांची के निकट ) - संस्कृत ।
[ गुप्तकाल १०६ = ई. सं० ४२६ ]
Corrected transcript of the facsimile.
[१] नमः सिद्धेम्य: [1]
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उदयगिरि (सांची ) का लेख
श्रीसंयुतानां गुणतोयधीनाम् गुप्तान्वयानां नृपसत्तमानाम् [I]
[२] राज्ये कुलस्याभिवित्रर्द्धमाने
भते वर्षशतेऽय मासे [II] १. सुकार्त्तिके बहुलदिनेऽथ पञ्चमे
[३] गुहामुखे स्फुटविकटोत्कटामिमां [1] जितद्विषो जिनवरपार्श्वसंज्ञिकाम्
जिनाकृतीं शमदमवान
[ ४ ] चीकरत [II] २. आचार्य - भद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो सावार्यकुलोद्गतस्य [1] आचार्य-गोश
[५] मुनेस्तुतस्तु पद्मावत [ स्या ] श्वपतेर्भटस्य [11] ३. परैरजेयस्य रिपुन्नमानिनम्
स सङ्घ
[ ६ ] लस्येत्यभिविश्रुतो भुवि [1] स्वसंज्ञया शंकर नामशद्वितो विधानयुक्तं यतिमार्गमास्थितः [II] ४.
स उत्तराणां सदृशे गुरूणां उदग्दिशादेशवरे प्रसृतः [1]
[ ८ ] क्षयाय कर्मारिगणस्य घीमान्
५७
यदत्र पुण्यं तदपाससर्ज [II] ५.
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५८
जैन-शिलालेख संग्रह [इस शिलालेखमें शम-दमवाले किसी भ्यक्रिकेद्वारा पार्थनाप जिनेन्द्रकी प्रतिमाकी कार्तिक वदी पंचमीके दिन स्थापनाकी शत है। यह प्रतिमा किसी गुफाके द्वारपर खदी की गई थी। इस प्रतिमाकी स्थापना करने वाला था उसको खड़ा करनेवाला आचार्य गोशर्माका शिष्य था। ये गोशर्मा आचार्य भद्रके वंशमें हुए थे, इनकी परम्परा आर्यकुरूकी थी और अश्वपति योद्धाके लड़के थे। ये अश्वपति सहल (या सिंहल) के नामसे प्रसिद्ध थे और इन्होंने जिनदीक्षा लेनेके बाद अपना नाम शंकर रक्खा था।
[इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ११, पृ० ३१०]
मथुरा-संस्कृत।
[ गुप्तकाल, वर्ष ११३] . १. सिद्धम् । परमभट्टारकमाहाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्य विजयराज्यसं [१०० १०] ३ क......"लमा... दि ]-स २० अस्यां ५ [ पूर्वायां ] कोटिया गणा
२. द्विद्याधरी [ तो ] शारखानो दतिलाचाय्यप्रज्ञपिनाये शामाढ्याये भट्टिभवस्य धीतु ग्रहमित्रपालि त प्रा ना रिकस्य कुटुम्बिनीये प्रतिमा प्रतिष्ठापिता। ___ अनुवाद-सिन्द्वि हो । परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तके विजयराज्यके ११३ वें वर्षमें, [शीतऋतु महीने] कार्तिकके २० वें दिन, कोटियगण (तथा) विद्याधरी शाखाके दतिलाचार्य (दत्तिलाचार्य) की आज्ञासे शामान्य (श्यामाख्य) ने एक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करवाई । श्यामान्य महिभवकी बेटी (और) प्रहमित्रपालित प्रातारिक (घाटी या नाविक)की पत्नी थी।
[El, II, n° JIV, n* 39]
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कहायँका लेख
९३ कहायूँ — संस्कृत
[ गुप्तकाल १४१ वां वर्ष = ४५१ ई. स. ]
५९
सिद्धम् ।
[१] यस्योपस्थान भूमिर्नृपतिशतशिरः पातवानात्रधूता
२] गुप्तानां वंशजस्य प्रविसृतयशसस्तस्य सर्वोत्तमः [ ३ ] राज्ये शक्रोपमस्य क्षितिपतपतेः स्कन्दगुप्तस्य शान्ते [ ४ ] वर्षे त्रिंशदशैकोत्तरकशततमे ज्येष्ठमासि प्रपन्ने ॥ १ ॥ [ ५ ] ख्यातेऽस्मिन् ग्रामरत्ने ककुभ इति जनैस्साधुसंसर्गपूते [ ६ ] पुत्रो यस्सोमिलस्य प्रचुरगुणनिधेर्भट्टिसोमो महात्मा [ ७ ] तनूरुद्रसोम [:] प्रधुमतियशा व्याघ्र इत्यन्यसंज्ञो [८] मद्रस्तस्यात्मजोऽभूद् द्विजगुरुयतिषु प्रायशः प्रीतिमान् यः ॥ [ ९ ] पुण्यस्कन्धं स चक्रे जगदिदमखिलं संसरद्वीक्ष्य भीतो [१०] श्रेयोऽयं भूतभूत्यै पथि नियमत्रतामर्हतामादिकर्तृन् [ ११ ] पञ्चेन्द्रस्थापयित्वा धरणिधरमयान् सन्निखातस्ततोऽयम् [१२] शैलस्तम्भः सुचारुर्गिरिवरशिखराम्रोपमः कीर्त्तिकर्ता ॥ ३ ॥
[ इस शिलालेखमें, जो कि गुप्तकालके १४१ वे वर्षका है, बताया गया है कि किसी भद्र नामके व्यक्तिने, जिसकी कि वंशावली यहां उसके प्रपिसामह सोमिल तक गिनाई है, अर्हन्तो ( तीर्थकरों ) में मुख्य समझे जाने वाले, अर्थात् आदिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्व, और महावीर, इन पांचोंकी प्रतिमाओं की स्थापना करके इस स्तम्भको खड़ा किया । लेखकी ११ वीं पंक्तिके 'पञ्चेन्द्रान' से इन्हीं पांच तीर्थकरोंसे मतलब है । ] [ इण्डियन एण्टिकेरी, जिल्द १०, पृ० १२५-१२६ ]
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मर्कका लेख
६५
कुलसकलास्थायिक-पुरुष पेर्व्वक्कत्राण मर्रुगरेय सेन्दिक गञ्जेनाड निर्गुण्ड मणियुगुरेय नन्वाल सिम्बालादय भृत्ययां देश-साक्षि तगडूर कुळुगो वरुगणिगनूर तगडरु आल्गोडते नन्दकरं उम्मत्तूर बेल्लुररुमागेयर बदणेगुप्पेय सन्द बेल्लुररु पेगिविरं ॥
वदत्तपरदत्तां वा यो हरेय (त) वसुन्धरी (i) पष्टिं वर्षसहस्राणि विष्टायां जायते कृमि [:] [I]
वसुभि[र] वसुधा मुक्त (क्ता) राजभिस्सक-राजभिः । यस्य यस्य यदा भूमि तस्य तस्य तदा फलम् ॥
देवस्वं तु विषं घोरं न विषं विषमुच्यते । विषमेकाकिनं हन्ति देवस्व [ - ] पुत्रपौत्रिक(कां) ||
सामान्योयं धर्म्म हेतु ( सेतुं ) नृपाणाम् काले काले पालनीयो मवद्भि [:] सर्व्वा (ब) नेतां भागिन (नू भाविन: ) पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामभद्र[:] || विश्वकर्म्म लिखितम्
चेर राजाओंकी वंशावली इस दानपत्र में इस प्रकार दी हुई है:
१. कोङ्गणि प्रथम । २. माधव प्रथम । ३. हरिव । ४. विष्णुगोप । ५. माधव द्वितीय | ६. कोणि द्वितीय ( अविनीत ) ।
ये अविनीत महाधिराज कदम्बकुलसूर्य कृष्णवम्मं महाधिराजकी प्रिय बहिनके पुत्र थे । इनके लिये दानपत्र में कहा गया है कि- 'इनका अन्तरात्मा विद्या, विनयकी वृद्धिसे परिपूरित था, अजेय शौर्य इनमें था और विद्वानोंमें प्रथम गिने जाते थे।' इन्हींसे देसिंग ( देशीय ) 'गण' कोण्डकुन्द 'अन्वय' के गुणचन्द्र भटारके शिष्य अभयनन्दि-भटार, उनके शिष्य शीलभद्र भटार, उनके शिष्य जयन्दि- भटार, उनके शिष्य गुणणन्दि-भटार, उनके शिष्य वन्दन्द्र भटारको तलवननगरके श्रीविजय जिनालयके मन्दिरके लिये
१ सामान्यतया 'सगरादिभिः ।
शि० ५
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६६
जैन- शिलालेख संग्रह
बदणेगुप्पे नामका सुन्दर गाँव दानमें प्राप्तकर अकालवर्ष पृथवी वल्लभ मन्त्रीने शकसंवत्सर ३०८ के माघ महीनेकी शुक्ल पञ्चमी, सोमवारको स्वाति नक्षत्र के समय इसे भेंट किया । यह गाँव पूनाडु छः हजारके एडेनाडु सत्तरके मध्यमें अवस्थित है । साथमें १२ 'कण्डुग' प्रत्येक छः आश्रित गांवोंमेंसे, तथा पोगरिगेल्ले और पिरिकेर्रे में से भी दिया । ]
हल्सी (ज़िला बेलगाँव ) - संस्कृत ।
[ ई० पाँचवीं शताब्दिका ( फ्लीट ) ]
प्रथम पत्र ।
[ १ ] नमः ॥ जयति भगवाजिनेन्द्रो गुणरुन्द्रः प्र[थि]त [ परम ] कारुणिकः
[२] त्रैलोक्याश्वासकरी दयापताकोच्छ्रिता यस्य ॥ परम[ ३ ] श्रीविजयपलाशिकायां प्रजासाधारणा [शा] नाम् ॥ दूसरा पत्र; पहली ओर ।
[ ४ ] कदम्वानां युवराज : श्रीकाकुस्थवर्मा स्ववैजयिके अशीतितमे [५] संवत्सरे भगवनामर्हनाम् सर्व्वभूतशरण्यानाम् त्रैलोक्यनिस्तार
[ ६ ] काणाम् खेटग्रामे बदोवरक्षेत्र [ म्] श्रुतकीर्तिसेनापतये ॥ दूसरा पत्र; दूसरी ओर ।
[ ७ ] आत्मनस्तारणार्थे दत्तवा [न्] [II] तद्यो [हि] न (ना) स्ति स्ववंश्यः [प] रवंश्यो वा
[८] स पश्चमहापातकसंयुक्तो भवती (ति) [1] यो भिरक्षती (ति) तस्य सत्य ( सर्व्व, या सत्यं सव्र्व) गु
1
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देवगिरिका लेख [९] णपुण्यावाप्तिः- [1] अपि चोक्तम् [1] बहुभिर्वसुधा दत्ता ॥
[१०] [रा] जमिस्सगरादिभिः यस्य यस्य यादा]भूमिः तस्य तस्य तदा फलम् [1]
[११] खदत्ता परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां षष्टिवर्षसहस्र(स्रा) णी (णि)
[१२] नरके पच्यते तु सः ॥ नमो नमः [1] ऋषभाय नमः ॥ [इस लेखमें कदम्ब 'युवराज' काकुस्थ (काकुत्स्य)वर्माके द्वारा श्रुतकीर्ति सेनापतिको दिये गये एक क्षेत्र-दानका उल्लेख है । यह दान खेटग्राम नामक गाँवमें किया गया था।
[ई० ए०, जिल्द ६, पृ० २२-२४, नं० २० ]
देवगिरि (जिला धारवाड़)-संस्कृत ।
सिद्धम् जयत्यहँस्त्रिलोकेशः सर्वभूतहिते रतः
रागाधरिहरोनन्तोनन्तज्ञानदृगीश्वरः । स्वस्ति विजयवैजयन्त्यां खामिमहासेनमातृगणानुद्याताभिषिक्तानां मानव्यसगोत्राणां हारितीपुत्राणं(णां) अङ्गिरसां प्रतिकृतखाध्यायचर्चकानों सद्धर्मसदम्बानां कदम्बानां अनेकजन्मान्तरोपार्जितविपुलपुण्यस्कन्धः आहवार्जितपरमरुचिरसवः विशुद्धान्ययप्रकृत्यानेकपुरुषपरंपरागते जगप्रदीप भूते महत्यदितोदिते काकुस्थान्वये श्रीशान्तिवर्मातनयः
१ यह पूर्ण विरामका चिह्न फजूल है। २ इन पत्रोंमें यह खास बात है कि जहाँ द्वित्वाक्षरोंका इतना अधिक प्रयोग किया गया है वहाँ 'सत्व' और 'तत्व में 'त' अक्षर द्वित्व नहीं किया गया ।
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जैन-शिलालेख संग्रह श्रीमृगेश्वरवर्मा आत्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे पौषसंवत्सरे कार्तिकमासे बहुले पक्षे दशम्यां तियौ उत्तराभाद्रपदे नक्षत्रे वृहत्परलूरे () त्रिदशमुकुटपरिघृष्टचारचरणेभ्यः परमार्हदेवेभ्यः संमार्जनोपलेपनाभ्यर्चनभग्नसंस्कारमहिमा) प्रामापरदिग्विभागसीमाभ्यन्तरे राजमानेन चत्वारिंशन्निवर्त्तनं कृष्णभूमिक्षेत्रं चत्वारि क्षेत्रन्निवर्त्तनं च चैत्यालयस्य बहिः, एक निवत्तनं पुष्पार्थ देवकुलस्याङ्गनश्च एकनिवर्तनमेव सर्वपरिहारयुक्त दत्तवान् महाराजः । लोभादधर्माद्वा योस्याभिहर्ता स पंचमहापातकसंयुक्तो भवति योस्याभिरक्षिता स तत्पुण्यफलभाग्भवति । उक्तश्च
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्मगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ खदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां । षष्ठिं वर्षसहस्राणि नरके पच्यते तु सः ।। अद्भिदत्तं त्रिभिभुक्तं सद्भिश्च परिपालितम् । एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराजकृतानि च ॥ खं दातुं सुमहच्छक्यं दुःखमन्यार्थपालनं ।
दानं वा पालनं वेति दानाच्छ्योनुपालनम् ।। परमधार्मिकेण दामकीर्तिभोजकेन लिग्वितेयं पट्टिका इति सिद्धिरस्तु ॥
[ई० ए०, जिल्द ७, पृ० ३५-३७, नं. ३६ ] [यह पत्र श्रीशान्तिवर्माके पुत्र महाराज श्री 'मृगेश्वरवर्मा' की तरफसे लिखा गया है, जिसे पत्रमें काकुस्था(स्था)न्वयी प्रकट किया है, और इससे ये कदम्बराजा, भारतके सुप्रसिद्ध वंशोंकी दृष्टिसे, सूर्यवंशी अथवा इक्ष्वाकु
१ व्याकरणकी दृष्टिसे यह वाक्य बिलकुल शुद्ध नहीं मालूम होता। २ यह पद्य मिस्टर फ्लीटके शिलालेख नं. ५ में मनुका ठहराया गया है। आमतौरपर यह व्यासका माना जाता है।
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देवगिरिका लेख
६९
वंशी थे, ऐसा मालूम होता है। यह पत्र उक्त मृगेश्वरवर्माके राज्यके तीसरे वर्ष, पौधे (?) नामके संवत्सरमें, कार्त्तिक कृष्णा दशमीको, जबकि उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र था, लिखा गया है। इसके द्वारा अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भग्नसंस्कार ( मरम्मत ) और महिमा ( प्रभावना ) इन कामोंके लिये कुछ भूमि, जिसका परिमाण दिया है, अरहन्तदेवके निमित्त दान की गयी है । भूमिकी तफसील में एक निवर्तनभूमि खालिस पुष्पोंके लिये निर्दिष्ट की गई है । ग्रामका नाम कुछ स्पष्ट नहीं हुआ, 'बृहत्परलूरे' ऐसा पाठ पढ़ा जाता है । अन्तमें लिखा है कि जो कोई लोभ या अधर्मसे इस दानका अपहरण करेगा वह पंचमहापापोंसे युक्त होगा और जो इसकी रक्षा करेगा वह इस दानके पुण्य-फलका भागी होगा। साथ ही इसके समर्थनमें चार श्लोक भी 'उक्तं' च रूपसे दिये हैं, जिनमेंसे एक श्लोकमें यह बतलाया है कि जो अपनी या दूसरेकी दान की हुई भूमिका अपहरण करता है वह साठ हजार वर्ष तक नरक में पकाया जाता है, अर्थात् कष्ट भोगता है । और दूसरेमें यह सूचित किया है कि स्वयं दान देना आसान है परंतु अन्यके दानार्थका पालन करना कठिन है, अतः दानकी अपेक्षा दानका अनुपालन श्रेष्ठ है इन 'उक्तं च' श्लोकोंके बाद इस पत्रके लेखकका नाम 'दामकीर्ति भोजक' दिया है और उसे परम धार्मिक प्रकट किया है। इस पत्रके शुरू में अर्हन्तकी स्तुतिविषयक एक सुन्दर पद्य भी दिया हुआ है जो दूसरे पत्रोंके शुरू में नहीं है, परंतु तीसरे पत्रके बिल्कुल अन्तमें जरासे परिवर्तनके साथ जरूर पाया जाता है । ]
९८
देवगिरि (जिला- धारवाड़ ) -- संस्कृत -{[?]—
सिद्धम् || विजयवैजयन्त्याम् स्वामिमहासेनमातृगणानुयाताभिषि
१ साठ संवत्सरोंमें इस नामका कोई संवत्सर नहीं है । सम्भव है कि यह किसी संवत्सरका पर्याय नाम हो या उस समय दूसरे नामोंके भी संवत्सर प्रचलित हों । २ यह और आगेके लेख नं० ९८ और १०५ जैनहितैषी, भाग १४, अङ्क ७–८, पृ० २२८-२२९ से उद्धृत किये हैं ।
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जैन-शिलालेख-संग्रह क्तस्य मानव्यसगोत्रस्य हारितीपुत्रस्य प्रतिकृतच पारस्य विबुधप्रतिबिम्बानां कदम्बानां धर्ममहाराजस्य श्रीविजयशिवमृगेशवर्मणः विजयायुरोग्यैश्चर्यप्रवर्द्धनकरः संवत्सरः चतुर्थः वर्षापक्षः अष्टमः तिथिः पौर्णमासी अनयानुपूर्त्या अनेकजन्मान्तरोपाजितविपुलपुण्यस्कंधः सुविशुद्धपितृमातृवंशः उभयलोकप्रियहितकरानेकशास्त्रार्थतत्वविज्ञानविवेच्च ( ? ) ने विनिविष्टविशालोदारमतिः हस्त्यश्वारोहणप्रहरणादिषु व्यायामिकीषु भूमिषु यथावत्कृतश्रमः दक्षो दक्षिणः नयविनयकुशलः अनेकाहवाजितपरमदृढ़सत्वः उदात्तबुद्धिधैर्यवीर्य्यत्यागसम्पन्नः सुमहति समरसङ्कटे स्वभुजबलपराक्रमावाप्तविपुलैश्वयः सम्यक्प्रजापालनपरः स्वजनकुमुदवनप्रबोधनशशाङ्कः देवद्विजगुरुसाधुजनेभ्यः गोभूमिहिरण्यशयनाच्छादनानादिअनेकविधदाननित्यः विद्वत्सुहृत्स्वजनसामान्योपभुज्यमानमहाविभवः आदिकालराजवृत्तानुसारी धर्ममहाराजैः कदम्बानां श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा कालवङ्गन्यामं त्रिधा विभज्य दत्तवान् । अत्र पूर्वमहच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवासिभ्यः भगवदर्हन्महाजिनेन्द्रदेवताभ्य एको भागः, द्वितीयोहत्प्रोक्तमद्धर्मकरणपरस्य श्वेतपटमहाश्रमणसंघोपभोगाय, तृतीयो निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघोपभोगायेति । अत्र देवभाग धान्यदेवपूजावलिचरुदेवकमकरभग्नक्रियाप्रवत्तनाद्यर्थोपभोगाय । एतदेवं न्यायलब्ध देवभोगममयेन योभिरक्षति स तत्फलभाग्भवति, यो विनाशयेत् स पंचमहापातकसंयुक्तो भवति । उक्तश्च बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं । नरवरसेनापतिना लिखितं ।
[ई० ए०, जिल्द ७, पृ० ३७-३८, नं. ३७ ] १ इन प्रतिलिपियोंमें विसर्ग उस चिह्नके स्थानमें लिखा गया है जो कण्ठ्यवर्गों ( Gutturals) से पहले विसर्गकी जगह प्रयुक्त हुआ है। २ 'देवभागं समयेन' शुद्ध पाठ मालूम पड़ता है।
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देवगिरिका लेख
७१
[ यह दानपत्र कदम्बोंके धर्ममहाराज 'श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा' की तरफसे लिखा गया है और इसके लेखक हैं 'नरवर' नामके सेनापति । लिखे जानेका समय चतुर्थसंवत्सर, वर्षा (ऋतु ) का आठवाँ पक्ष और पौर्णमासी तिथि है । इस पत्रके द्वारा 'कालवङ्ग' नामके ग्रामको तीन भागों में विभाजित करके इस तरहपर बाँट दिया है कि पहला एक भाग तो अर्हच्छाला परमपुष्कल स्थाननिवासी भगवान् अर्हन्महाजिनेन्द्रदेवताके लिये, दूसरा भाग अर्हस्प्रोक्त सद्धर्माचरण में तत्पर श्वेताम्बर महाश्रमण संघके उपभोगके लिये और तीसरा भाग निर्मन्थमहाश्रमण संघ के उपभोगके लिये । साथ ही, देवभागके सम्बन्धमें यह विधान किया है कि वह धान्य, देवपूजा, बलि, चरु, देवकर्म, कर, भतक्रिया प्रवर्तनादि अर्थोपभोगके लिये है, और यह सब न्यायलब्ध है । अन्त में इस दानके अभिरक्षकको वही दानके फलका भागी और विनाशकको पंच महापापोंसे युक्त होना बतलाया है, जैसाकि नं० ९७ के दानपत्र में उल्लेखित है । परंतु यहाँ उन चार 'उक्तं च' लोकों से सिर्फ पहलेका एक श्लोक दिया है जिसका यह अर्थ होता है कि, इस पृथ्वीको सगरादि बहुतसे राजाओंने भोगा है, जिस समय जिस-जिसकी भूमि होती है उस समय उसी उसीको फल लगता है ।
इस पत्र में 'चतुर्थ' संवरसरके उल्लेखसे यद्यपि ऐसा भ्रम होता है कि यह दानपत्र भी उन्हीं मृगेश्वरवर्माका है जिनका उल्लेख पहले नम्बरके पत्र ( शि० ले० नं. ९७ ) में है अर्थात् जिन्होंने पूर्वका ( नं० ९७ ) दानपत्र लिखाया था और जो उनके राज्यके तीसरे वर्षमें लिखा गया था, परंतु यह भ्रम ठीक नहीं है। कारण कि एक तो 'श्रीमृगेश्वरवर्मा' और 'श्रीविजयशिव मृगेशवर्मा' इन दोनों नामोंमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर है। दूसरे, पूर्वके पत्र में 'आत्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे पौष संवत्सरे' इत्यादि पदोंके द्वारा जैसा स्पष्ट उल्लेख किया गया है वैसा इस पत्र में नही है; इस पत्र के समय-निर्देशका ढंग बिलकुल उससे विलक्षण है । 'संवत्सरः चतुर्थः, वर्षा पक्षः अष्टमः, तिथिः पौर्णमासी,' इस कथन में 'चतुर्थ' शब्द संभवतः ६० संवत्सरोंमेंसे चौथे नम्बर के 'प्रमोद' नामक संवत्सरका द्योतक मालूम होता है; तीसरे, पूर्वपत्र में दातारने बड़े गौरवके साथ अनेक विशेषणोंसे युक्त जो अपने 'काकुस्थान्वय' का उल्लेख किया है और साथ ही अपने पिताका नाम
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हल्सीके लेख
दूसरा पत्र; दूसरी ओर
पञ्चदशनिवर्त्तना तांब्रशासने भूमिर्निबद्धा उञ्छकर भरादिविवर्जिता श्रीमद्भानुवर्मराजलब्धपादप्रसादेन पण्डरभोजकेन परमाद्भक्तेन प्रवर्द्धमानराज्यश्रीरविवर्म्मधर्म्ममहाराजस्य एकादशे संवत्सरे हेमन्तषष्ठपक्षे
तीसरा पत्र |
दशम्यां तिथौ || तां यो हिनस्ति स्ववंश्यः परवंश्यो वा स पञ्चमहापानकसंयुक्तो भवति ॥ उक्तञ्च ॥
बहुभिर्व्वसुधा दत्ता राजभिः सगरादिभिः
यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुंधरा षष्टिवर्षसहस्राणि कुम्भीपाके स पच्यते
[ इस लेखमें भानुवर्मा और उसके अधीनस्थ कर्मचारी पण्डर 'भोजक' के दानका उल्लेख है । यह दान भानुवर्माके बड़े भाई रविवर्माके राज्यके ११ वें वर्ष में, हेमन्तऋतुके छठे पक्षमें दसवीं तिथिको दिया गया था । इस भूमिका दान जिन भगवानकी हर पूर्णिमाके दिन पूजन करनेके लिये ही हुआ था । भूमिका नाप १५ निवर्तन था । यह भूमि पलाशिका गाँव के कपटी की थी। इस लेखसे कदम्बवंशके राजाओंकी रविवर्माके समयतकativratar भी पता चलता है और वह यह है :
१. काकुत्स्थवर्मा
२. शान्तिवर्मा
1 ३. श्रीमृगेश
४. रविवर्मा (छोटा भाई भानुवर्मा ) ।
[ इं० ए०, जिल्द ६, पृ० २७- २९]
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८०
जैन - शिलालेख संग्रह
१०३
हल्सी - संस्कृत | -[ ? ] -
सिद्धम् ॥ स्वस्ति स्वामिमहासेन मातृगणानुध्याताभिषिक्तानाम् 'मानव्य' - सगोत्राणाम् हारितीपुत्राणाम् प्रतिकृतस्वाध्यायचच्चिकानाम् कदस्मा (म्बा) नाम्महाराजः श्रीहरिवर्म्मा
बहुभवकृतैः पुण्य राजश्रियं निरुपद्रवाम् प्रकृतिषु हितः प्राप्तो व्याप्तो जगद्यशसाखिलम् श्रुतजलनिधिः विद्यावृद्धप्रदिष्टपथि स्थितः स्वबलकुलिशाघातोच्छिन्नद्विपदसुधाधरः [ ॥ ]
स्वराज्य संवत्सरे चतुर्थे फाल्गुणशुत्रयोदश्याम् उच्चशृङ्ग्याम् सर्वजनमनोह्लाद वचनकर्म्मणा सपितृव्येण शिवरथनामधेयेनोपदिष्टः पलाशिकायाम् भारद्वाज - सगोत्रसिंहसेनापतिसुतेन मृगेशेन कारितस्याहदायतनस्य प्रतिवर्षमाष्टादिकमहामहसततच (2) रूपलेपनक्रियार्थं तदवशिष्टं सर्व्वतंत्र भोजनायेति सुद्दि ( ) लि कुन्दुरविषये वसुन्तवाटकं सर्व्वपरिहारसंयुतं कूर्चकानाम् वारिषेणाचार्यसङ्घहस्ते चन्द्रक्षान्तं प्रमुख कृत्वा दत्तवान् [ ॥ ] य एवं न्यायतोभिरक्षति स तत्पुण्यफलभाग्भवति [1] यश्चैनं रागद्वेपलोभमोहेरपहरति स निकृष्टतमां गतिमवाप्नोति [11] उक्तञ्च
स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धराम् टं वर्षसहस्राणि नरके पच्यते तु सः [I] बहुभिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् [II] इति
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इल्सीके लेख
मानाच्छासनं संयमासनम्
येनाद्यापि जगज्जीवपापपुंजप्रभंजनम् [1] नमोर्हते वर्धमानाय [II] [ यह दानपत्र कदम्ब -राजवंशके महाराजा हरिवर्माका है। उन्होंने अपने राज्यके चौथे वर्ष में शिवरथ नामके पितृव्यके उपदेशसे, सिंहसेनापतिके पुत्र मृगेशद्वारा निर्मापित जैनमन्दिरकी अष्टाङ्किका- पूजाके लिये और सर्वसंघके भोजनके लिए 'सुतवाटक' नामक गाँव कूर्चकोंके वारिषेणाचार्य संघके हाथमें चन्द्रको प्रमुख बचाकर प्रदान किया। यह और ९९ वां दानपत्र दोनों, ताम्रपत्रोंपर हैं । नम्बर ९९ वं के दान-पत्र में यापनीय, निर्मन्थ और कूक इन तीन सम्प्रदायोंके नाम हैं और इसमें सिर्फ कूर्थक सम्प्रदाका । इससे मालूम होता है कि इस सम्प्रदाय में 'वारिषेणाचार्य संघ' नामका एक संघ था, जिसके प्रधान चन्द्रक्षान्त ( मुनि ) थे । ]
[ इं० ए०, जिल्द ६, पृ० ३०-३१]
१०४
हल्सी - संस्कृत | -[!]
प्रथमपत्र ।
शि० ६
८१
सिद्धम् ॥ स्वस्ति | स्वामिमहा सेन मातृगणानुध्यानाभिषिक्तानाम् मानव्य गोत्राणा [न] हारितीपुत्राणाम् प्रतिकृतस्वाध्यायचर्चापा राणाम् कदम्बानाम् महाराजश्रीरविवर्म्मणः स्वभुजबलपराक्रमावाप्ता (?) निरवद्यविपुलराज्यश्रियः विद्वन्मतिसुवर्णनिकप्रभूतस्य कामाद्यरिगणदूसरा पत्र; पहली ओर ।
त्यागाभिव्यञ्जितेन्द्रियजयस्य न्यायोपार्जितार्थ [सं] हितसाधुज [न] - स्य क्षितितलप्रततविमलयशसः प्रियतनयः पूर्व्वसुचरितोपचितविपुलपुण्यसम्पादित शरीरबुद्धिसत्यः सर्व्वप्रजाहृदयकुमुदचन्द्रमाः महाराज - श्रीहरिवर्म्मा स्वराज्यसंवत्सरे पचमे पलाशिकाविष्टाने अहरिष्टि
समाय
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जैन - शिलालेख संग्रह
दूसरा पत्र; दूसरी ओर ।
श्रमणसङ्घान्वयवस्तुनः धर्म्मनन्द्याचार्य्याधिष्ठितप्रामाण्यस्य चैत्यालयस्य पूजासंस्कारनिमित्तम् साधुजनोपयोगार्थ सेन्द्रकाणां कुलललामभूतस्य भानुशक्तिराजस्य विज्ञापनया मरदे ग्रामं दत्तवान् [II] य एतल्लभायै कदाचिदपहरेत् स पञ्चमहापातकसंयुक्तो भवति यश्वाभिरक्षति स तत्पुण्यफलम्
८२
तीसरा पत्र |
अवाप्नोतीति [II] उक्तञ्च ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत बसुन्धराम् ष्टिवर्षसहस्राणि नरके पच्यते तु सः ॥ बहुभिर्व्वसुधा मुक्ता राजभिस्सगरादि [भिः ] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ ये सेतूनभिरक्षन्ति नान् संस्थापयन्ति च । द्विगुणं पूर्वकर्तृभ्यः तत्फलं समुदाहृतम् [II]
[ इस लेखमें अपने राज्यके पाँचवें वर्षमें सेन्द्रकके कुलके भानुशक्ति राजाकी प्रार्थनापर हरिवम्मीने 'मरदे' नामका गाँव दानमें दिया था, इस बातका उल्लेख है । यह हरिवर्मा रविवर्माका प्रियपुत्र है। यह दान राजधानी पलाशिका में किया गया। इस दानका निमित्त वह चैत्यालय था जो कि 'भद्दरिष्टि' नामके श्रमणसकी सम्पत्ति थी और जिसपर आचार्य धर्मनन्दिकी आशा चलती थी; उस वैत्याकयके पूजा इत्यादिके प्रबंधके लिये तथा साधुजनोंके उपयोगके लिये ही यह दान किया गया । ]
[ ई० ए०, जिल्द ६, पृ० ३१-३२. ]
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देवगिरिका लेख
देवगिरि-संस्कृत।
-[ ? - विजयत्रिपवते खामिमहासेनमातृगणानुद्याताभिषिक्तस्य मानव्यसगोत्रस्य प्रतिकृतखाध्यायचर्चापारगस्य आदिकालराजर्षिबिम्बानां आश्रितजनाम्बानां कदम्बानां धर्ममहाराजस्य अश्वमेधयाजिनः समरार्जितविपुलैश्वर्यस्य सामन्तराजविशेषरत्नसुनागजिनाकम्पदायानुभूतस्य (?) शरदमलनभस्युदितशशिसदृशैकातपत्रस्य धर्ममहाराजस्य श्रीकृष्णवर्मणः प्रियतनयो देववर्मयुवराजः स्वपुण्यफलामिकांक्षया त्रिलोकभूतहितदेशिनः धर्मप्रवर्त्तनस्य अर्हतः भगवतः चैत्यालयस्य भग्नसंस्कारार्चनमहिमार्थ यापनीय [स] वेभ्यः सिद्धकेदारे राजमानेन (?) द्वादश निवर्त्तनानि क्षेत्रं दत्तवान् योस्य अपहर्ता म पंचमहापातकसंयुक्तो भवति योस्याभिरक्षिता स पुण्यफलमश्नुते (1) उक्तं च-बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तथा (2) फलं ॥ अद्भिर्दत्तं त्रिभिर्युक्तं सद्भिश्च परिपालितं । एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराजकृतानि च ।
स्वं दातुं सुमहन्छक्यं दु (?):ख (म) न्यार्थपालनं । दानं वा पालनं वेति दानाच्छेयोनुपालनम् ।। खदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां । पष्टिवर्षसहस्राणि नरके पच्यते तु सः ॥ श्रीकृष्णनृपपुत्रेण कदम्बकुलकेतुना । रणप्रियेण देवेन दत्ता भूमिस्त्रिपर्वते ।। दयामृतसुखाखादपूतपुण्यगुणेप्सुना । देववम्मैकवीरेण दत्ता जैनाय भूरियम् ॥
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८४
जैन-शिलालेख संग्रह जयत्यहस्रिलोकेशः सर्वभूतहितंकरः । रागाधरिहरोनन्तोनन्तज्ञानदृगीश्वरः ॥
[ई० ए०, जिल्द ७, पृ० ३३-३५, नं. ३५] [यह दानपत्र कदम्बों के धर्ममहाराज श्रीकृष्णवर्माके प्रियपुत्र 'देववर्मा' नामके युवराजकी तरफसे लिखा गया है और इसके द्वारा 'त्रिपर्वत' के उपरका कुछ क्षेत्र अर्हन्त भगवानके चैत्यालयकी मरम्मत, पूजा और महिमाके लिये 'यापनीय' संघको दान किया गया है।
पत्रके अन्तमें इस दानको अपहरण करनेवाले और रक्षा करनेवालेके वास्ते वही कसम दिलाई है अथवा वही विधान किया है जैसा कि ९७ नम्बरके दानपत्रके सम्बन्धमें पहले बतलाया गया है। वही चारों 'उक्तंच' पद्य मी कुछ क्रमभंगके साथ दिये हुए हैं और उनके बाद दो पद्यों में इस दानका फिरसे खुलासा दिया है, जिसमें देववर्माको रणप्रिय, दयामृतसुखास्वादनसे पवित्र, पुण्यगुणोंका इच्छुक और एकधीर प्रकट किया है। अन्तमें अहम्सकी स्तुतिविषयक प्रायः वही पद्य हे जो ९७ नम्बरके दानपत्रके शुरूमें दिया है । इस पत्रमें श्रीकृष्णवर्माको 'अश्वमेध' यज्ञका कर्ता और शरद् ऋतुके निर्मल आकाशमें उदित हुए चंद्रमाके समान एक छत्रका धारक, अर्थात् एकछत्र पृथ्वीका राज्य करनेवाला लिखा है।]
पूर्वके नं० ९७,९८ व इस दानपत्रपरसे निम्नलिखित ऐतिहासिक व्यक्तियोंका पता चलता है:
१ स्वामिमहासेन-गुरु । २ हारिती-मुख्य और प्रसिद्ध पुरुष । ३ शान्तिवर्मा-राजा। ४ मृगेश्वरवर्मा-राजा। ५ विजयशिवमृगेशवर्मा-महाराजा । ६ कृष्णवर्मा-महाराजा। ७ देववर्मा-युवराज । ८ दामकीर्ति-भोजक। ९ नरवर-सेनापति।
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अल्मका लेख
१०६
अल्तेम ( जिला कोल्हापुर ) संस्कृत | [ शक ४११ = ४८० ई० ]
पहला पत्र |
स्वस्ति || जयत्यनन्तसंसारपारावार कसेतवः महावीराहतः पूताश्चरणाम्बुजरेणवः ||
८५
श्रीमतां विश्व-विश्वम्भराभिसंस्तूयमानमानव्य सगोत्राणां हारीतिपुत्राणां सप्तलोकमातृभिस्सप्तमातृभिरभिवर्द्धितानां कार्त्तिकेयपरिरक्षणप्राप्तकल्याणपरम्पराणां भगवन्नारायणप्रसाद समासादितवराहलाञ्छनेक्षणक्षणवशीकृताशेष महीभृतानां (भृताम् ) चालुक्यानां कुलमलंकरिष्णोः ॥ स्वभुजोपार्जितवसुन्धरस्य निजयाश्रवणमात्रेणैवावनतराजकस्य कीर्तिप ताकावभासितदिगन्तरालस्य जयसिंहस्य राजसिंहस्य (1) सूनुस्सूनृत - बागनवस्तदानाद्रकृतकरस्सुरराज इत्र प्रशमनिधिस्तपोनिधिरिव दृप्तवैरिषु प्राप्तरणरागो रणरागोऽभवत् [II] तस्य चात्मजे श्वमेधना ( ० मेघाव ) भृत (थ) स्नान पवित्रीकृतगात्रे प्रणतपरनृपतिमकुटतटघटितहट मणिगणकिरणवार्द्धाराधीतचारुचरणकमलयुगले चित्रकण्ठाभिधानतुरङ्गमकण्ठीरवेणोत्सारितारातिस्तम्भेरममण्डले वर्णाश्रम सर्व्वधर्म्मपरिपालनपरे गङ्गासेतु (:) मध्यवर्तिदेशाधीश्वरे शक्तित्रयप्रवर्द्धितम्राज्यसाम्राज्ये गङ्गायमुनापालि
दूसरा पत्र; पहली ओर ।
वजदडक्कादिपश्वमहाशब्दचिह्ने करदीकृतचोल-चेर-केरल-सिंहलकलिंगभूपाले दण्डितपाण्डयादिमण्डि (ण्ड ) लिके अप्रतिशासने 'सत्याश्रय' -श्री- पुलकेश्यभिधानपृथिवीवल्लभमहाराजाधिराजे पृथिवीमेकातपत्रं शासति सति [ ॥ ] राजा रुन्द्रनीलसैन्द्रकवंशशशांकायमानः
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पहोलेका लेख [इस लेख में कुल २० पंक्तियाँ हैं । पंक्ति १ से १४ तकमें एक संस्कृत शिलालेख है जिसमें दानशालाके लिये तथा दूसरे और भी कार्योंके लिये एक खेत के, तया गामुण्ड (गाँव के मुखियों) में से किसी के द्वारा निमापित जिनालय के दानकी प्रशस्ति है । वैजयन्ती या बनवासी का वर्णन चौथी पंक्तिमें हुभा-सा मालूम पड़ता है।
पंक्ति १५ से २० तक प्रायः पूर्ण हैं (खण्डित नहीं हैं) और उनमें एक पुरानी कर्णाटक-भाषाका लेख है जिसमें यह उल्लेख है कि, जिस समय कीर्तिवर्मा सार्वभौम सत्ताके रूपमें शासन कर रहा था, और जब कि सिन्द नामका कोई एक राजा पाण्डीपुर नगरमें शासन कर रहा था दोणगामुण्ड और एळगामुण्ड आदिने, राजा माधवत्तिकी सम्मतिसे, जिनेन्द्र के मन्दिरको पूजाके प्रबन्धके लिये अक्षत (अखण्ड चावल), सुगन्ध, पुष्प आदि, और चावल के खेतोंके आठ ‘मत्तल' शाही मापसे नाप कर दिये। ये चावलके खेत कर्मगलूर गाँवकी पश्चिमदिशामें थे।
इस शिलालेखका काल नहीं दिया है। लेकिन कीर्तिवाको जो उपाधियाँ दी हुई हैं उनसे, तथा अक्षरोंकी लिखावटसे यह स्पष्ट मालम पड़ता है कि इस लेखमें उल्लेखित कीर्तिवा पूर्ववर्ती चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा प्रथम है, जिसके राज्यका अन्त शक ४८९ में हुआ था। इस लेखसे यह भी मालूम पड़ता है कि कीर्तिवा प्रथमने कदम्बोंको जीता था।]
[ई. ए०, ११, पृ०६८-७१, नं० १२० ]
१०८ एहोले (जिला-कलद्गी)-संस्कृत ।
शिक सं० ५५६-६३४ ई.)
चालुक्यवंशोभूतश्रीपुलकेशीका शिलालेख । जयति भगवाञ्जिनेन्द्रोवीनज[रा-म]रणजन्मनो यस्य । ज्ञानसमुद्रान्तर्गतमखिलं जगदन्तरीपमिव ॥ १ ॥ तदनु चिरमपरिवेयश्चालुक्यकुलविपुलजलनिधिर्जयति । पृथिवीमौलिललामो यः प्रभवः पुरुषरनानाम् ॥२॥
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जैन-शिलालेख संग्रह शूरे विदुषि च विभजन्दानं मानं च युगपदेकत्र । अविहितयाथातथ्यो जयति च सत्याश्रयः सुचिरम् ॥ ३ ॥ पृथिवीवल्लभशब्दो येषामन्वर्थतां चिरं जातः । तद्वंशे (श्ये) षु जिगीषुषु तेषु बहुवप्यतीतेषु ॥ ४ ॥ नानाहेतिशताभिघातपतितभ्रान्ताश्वपत्तिद्विपे
नृत्यद्भीमकबन्धग्खड्गकिरणज्यालासहस्रे रणे। लक्ष्मी वितचापलादिव कृता शौर्येण येनात्मसा___ द्राजासीजयसिंहवल्लभ इति ख्यातश्चलुक्यान्वयः ॥ ५ ॥ तदात्मजोऽभूद्रणरागनामा दिव्यानुभावो जगदेकनाथः । अमानुषत्वं किल यस्य लोकः सुप्तस्य जानाति वपुःप्रकर्षात् ॥६॥ तस्याभवत्तनूजः पुलकेशी यः श्रितेन्दुकान्तिरपि । श्रीवल्लभोऽप्ययासीद्वातापिपुरीवधूवरताम् ॥ ७ ॥ यत्रिवर्गपदवीमलं क्षितौ नानुगन्तुमधुनापि राजकम् । भूश्च येन हयमेधयाजिना प्रापिनावभृथमजना बभौ ॥ ८ ॥ नलमौर्यकदम्बकालरात्रिस्तनयस्तस्य बभूव कीर्तिवर्मा । परदारविवृत्तचित्तवृत्तेरपि धीर्यस्य रिपुश्रियानुकृष्टा ॥९॥ रणपराक्रमलब्धजयश्रिया सपदि येन विरुग्णमशेषतः । नृपतिगन्धगजेन महौजसा पृथुकदम्बकदम्बकदम्बकम् ॥१०॥
तस्मिन्सुरेश्वरविभूतिगताभिलाषे
राजाभवत्तदनुजः किल मङ्गलीशः। यः पूर्वपश्चिमसमुद्रतटोषिताश्वः
सेनारजःपटविनिर्मितदिग्वितानः ॥ ११ ॥ १ 'सत्याश्रय' यह पुलकेशीका नामान्तर है।
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पहोलेका लेख
स्फुरन्मयूखैरसिदीपिका शतैर्युदस्य मातङ्गतमित्रसंचयम् । अवाप्तवान् यो रणरमन्दिरे कलचुरि श्रीललनापरिग्रहम् ॥ १२ ॥
पुनरपि च जिघृक्षोः सैन्यमाक्रान्तसालं रुचिरबहुपताकं रेवतीद्वीपमाशु | सपदि महदुदन्वत्तोयसंक्रान्तबिम्ब
वरुणचलमिवाभूदागतं यस्य वाचा ॥ १३ ॥ तस्यामजस्य तनये नहुषानुभावे लक्ष्म्या किलाभिलषिते पुलकेशिनानि ।
सासूयमात्मनि भवन्तमतः पितृव्यं
ज्ञात्वा परुद्धचरितव्यवसायबुद्धौ ॥ १४ ॥
९५
स यदुपचितमोत्साहशक्तिप्रयोग
क्षपित लविशेषो मङ्गलीशः समन्तात् । स्वतनयगतराज्यारम्भयलेन सार्धं
निजमतनु च राज्यं जीवितं चोज्झति स्म ॥ १५ ॥ तावत्तच्छत्रभंगे जगदखिलमरात्यन्धकारोपरुद्धं
यस्यासह्यप्रतापद्युतिततिभिरिवाक्रान्तमासीत्प्रभातम् ।
नृत्यद्विद्युत्पताकैः प्रजविनि मरुति क्षुण्णपर्यन्तभागेगर्जद्भिरिवाहैरलिकुलमलिनं व्योम या (जा) तं कदा वा ॥ १६ ॥ लब्ध्वा कालं भुवमुपगते जेतुमाप्यायिकाख्ये गोविन्दे च द्विरदनिकरैरुत्तराम्भोधिरथ्याः ।
यस्यानीकैर्युधि भयरसज्ञत्वमेकः प्रयात
स्तत्रावाप्तं फलमुपकृतस्यापरेणापि सद्यः ॥ १७ ॥
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९६
जैन - शिलालेख संग्रह
वरदातुङ्गतरङ्गरङ्गविलसद्धं मानदीमेखलां वनवासी मवमृद्रतः सुरपुरप्रस्पर्धिनी संपदा । महता यस्य बलार्णवेन परितः संछादितोतलं स्थलदुर्ग जलदुर्गतामित्र गतं तत्तत्क्षणे पश्यताम् ॥१८ गङ्गा पीत्वा व्यसनानि सप्त हित्वा पुरोपार्जितमंपदोऽपि । यस्यानुभावोपनताः सदासन्नासन्नसेवामृतपानशौण्डाः ॥ १२ ॥ कोणेषु यदादिष्टचण्डदण्डाम्बुवीचिभिः । उदस्तास्तरसा मौर्य पल्वलाम्बुसमृद्धयः ॥ २० ॥ अपरजलवेलक्ष्मीं यस्मिन्पुरी पुरभित्प्रभे मद्रराजघाकारैर्नायां शतैरगति ।
जलद पटलानीकाकीण नवोत्पलमेचकं
जलनिधिरिव व्योम व्योम्नः समोऽभवदम्बुधिः ॥ २१ ॥
प्रतापोपनता यस्य लाटमालवगूर्जराः । Postपतसामन्तर्या व इवाभवन् ॥ २२ ॥
अपरिमितविभूतिस्फीत सामन्तसेनामुकुटमणिमयूखाकान्तपादारविन्द्रः ।
युधि पतितगजेन्द्रानीकबीभत्सभूतो
भयविगलितहर्षो येन चाकारि हर्षः || २३ ||
मुमिरनीकैः शासतो यस्य रेवा विविधपुलिन शोभावन्ध्यविन्ध्योपकण्ठा ।
अधिकतर मराजत्वेन तेजोमहिम्ना
शिखरिभिरिभवर्ज्या वर्ष्मणां स्पर्धयेव ॥ २४ ॥
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एहोलेका लेख विधिवदुपचिताभिः शक्तिभिः शक्रकल्प
स्तिसृभिरपि गुणौधैः खैश्च माहाकुलाद्यैः । अनमदधिपतित्वं यो महाराष्ट्रकाणां
नवनवतिसहस्रनाममाजां त्रयाणाम् ॥ २५ ॥ गृहिणां स्वगुणैत्रिवर्गतुङ्गा विहितान्यक्षितिपालमानभङ्गाः । अभवन्नुपजातभीतिलिङ्गा यदनीकेन सकोसलाः कलिङ्गः ॥२६॥ पिष्टं पिष्टपुरं येन जातं दुर्गमदुर्गमम् । चित्रं यस्य कलेवृत्तं जातं दुर्गमदुर्गमम् ॥ २७ ॥ संनद्धवारण घटास्थगितान्तरालं
नानायुधक्षतनरक्षतजाङ्गरागम् । आसीजलं यदवमर्दितमभ्रगर्भा
केंणालमम्बरमिवोर्जिनसांध्यरागम् ॥ २८ ॥ उद्भूतामलचामरध्वजशतच्छन्नान्धकारैर्बलैः
शौर्योत्साहरसोद्धितारिमथनैर्मीलादिभिः पड्विधैः । आक्रान्तात्मबलोन्नतिं बलरजःसंछन्नकाञ्चीपुरः
प्राकारान्तरितप्रतापमकरोधः पल्लवानां पतिम् ॥२९॥ कावेरी द्रुतशफरीविलोलनेत्रा चोलानां सपदि जयोद्यतस्तस्य (८) । प्रश्चयोतन्मदगजसेतुरुद्धनीरा संस्पर्श परिहरति स्म रत्नराशेः ॥३०॥
चोलकेरलपाण्ड्यानां योऽभूत्तत्र महर्द्धये । पल्लवानीकनीहारतुहिनेतरदीधितिः ॥ ३१॥ उत्साहप्रभुमन्त्रशक्तिसहिते यस्मिन्समन्तादिशो
जित्वा भूमिपतीन्विसृज्य महितानाराध्य देवद्विजान् । शि०७
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जैन-शिलालेख संग्रह वातापी नगरी प्रविश्य नगरीमेकामिवोर्वीमिमां
चश्चन्नीरधिनीरनीलपरिखां सत्याश्रये शासति ॥३२॥ त्रिंशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः । सप्ताब्दशतयुक्तेषु श (ग) तेष्वब्देषु पञ्चसु (३७३५) ॥३३॥ पञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च (६५६) । समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम् ॥ ३४ ॥ तस्याम्बुधित्रयनिवारितशासनस्य
सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् । शैलं जिनेन्द्रभवनं भवनं महिम्नां
निर्मापितं मतिमता रविकीर्तिनेदम् ॥ ३५ ॥ प्रशस्तेर्वसतेश्चास्या जिनस्य त्रिजगद्गुरोः ।
कर्ता कारयिता चापि रविकीर्तिः कृती स्वयम् ॥३३॥ येनायोजि नवेङ्गमस्थिरमर्थविधी विवेकिना जिनवेश्म । स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः ३७
[प्राचीनलेखमाछा, प्रथमभाग, ले० १६, पृ. ६८-७२, से उद्धृत ] [ यह शिलालेख बीजापुर (पूर्वका कलागी ) जिलेके हुण्ड तालुकाके ऐहोळेके मेगुटि नामक प्राचीन मन्दिरकी पूर्वकी तरफकी दीवालपर है । लेखमें कुल १९ पंक्तियाँ हैं, जिनमेंसे १८ वी पंक्ति पूर्ण और १९ वीं छोटी पंक्ति बादमें किसीकी जोड़ी हुई हैं और जिनमें महत्वपूर्ण कोई बात नहीं है।
समूचा शिलालेख किसी रविकीर्तिका बनाया हुआ है । वे (रविकीर्सि) चालुक्य पुलकेशी सत्याश्रय (अर्थात् पश्चिमी चालुक्य पुलकेशी द्वितीय) के राज्यमें थे । यह राजा उनका संरक्षक या पोषक था । इन्होंने शिलालेखवाले जिनालयमें जिनेन्द्रकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा की । प्रतिष्ठाके समय यह लेख उत्कीर्ण करवाया गया था जिसमें सामान्यरूपसे चालुक्य वंशकी, और विशेषतः पुलकेशी द्वितीय (रविकीर्तिके आश्रयदाता) के
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लक्ष्मेश्वरका लेख पराक्रमोंकी प्रशस्ति है । इस लेखमें आये हुए ऐतिहासिक तथ्योंका पूरा विवरण प्रो. भाण्डारकर और डा० फ्लीटने दिया है।
इस लेख (या काव्य) का मुख्य भाग १७.३२ श्लोकोंका है । इनको रविकीर्ति के आशयानुसार, रघुवंशके (चौथे सर्गके) रघुदिग्विजयके समान, 'पुलकेशी-सत्याश्रय दिग्विजय' कहा जा सकता है । इस काव्य (कविता) की रचनामें रविकीर्तिका कालिदासके रघुवंशका तथा भार• विके किरातार्जुनीयका गहरा अध्ययन स्पष्ट काम कर रहा है। इसलिए उन्हींके शब्दोंमें उनका यह कथन कि 'स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारवि-कीर्तिः' सचमुचमें ठीक है ।
श्लोक २२ में बताया गया है कि पुलकेशीका प्रताप इतना तेज था कि लाट, मालध और गूर्जर लोग अपने-आप ही उनकी शरण आते थे, बलपूर्वक नहीं।]
[ई० ए०, जिल्द ५, पृ० ६७-७१]
लक्ष्मेश्वर-संस्कृत।
___ -[ ? ]जयत्यतिशयजिनै सुरस्सुरवन्दितः ।
श्रीमाञ्जिनपतिस्सृष्टेरादेः कर्ता दयोदयः ।। देहहिमरि ( इह हि स्वस्ति )॥
चालुक्यपृथ्वीवल्लभकुलतिलकेषु बहुष्बतीतेषु रणपराक्रमाङ्कमहाराजो भवत्तद्राजतनयः राजितनयो विवर्द्धितैश्चर्यश्चतुस्समुद्रान्तस्नाततुरङ्गेभपदातिसेनासमूहः एरैय्यनामधेयः श्रीमान् ॥
१ देखो प्रो० भाण्डारकरकी Early.History of the Dekkan, 2nd ed., especially p. 51; और डॉ० फ्लीटकी Dynasties of the Kanarese Districts, 2nd ed. especially p. 349 ff.
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बेलवतेका लेख
१०७
स्वस्ति श्रीमत् जितं भगवता जिनवर- वृषमेण वृषमेण पुरा कलिअवसर्पिण्यां द्वावरे युगे लोक-स्थितिरक्षार्थं काङ्क्षित मनुष्य जन्मना पुरुषोत्तमेन सूर्य वंश व्योम-सूर्येण महारथेन दाशरथिना राम - स्वामिना प्रतिष्ठापिताय भगवतोर्हतः परमेष्ठिनः सर्व्वज्ञस्य चैत्य-भवनाय पश्चात् पाण्डवजनन्या को ( कु ) न्तिदेव्या पुनर्नवीकृत संस्काराय भूमिदेव्यास्तिलकायमानाय स्वर्गापवर्ग-पदयोस्सोपान-पदवीभूताय धराधर-धरणेन्द्रस्य फणा- मणि-लीलानुकारिणे धराधरवराय जिनेन्द्र- चैत्य-सान्निध्यात् पावनाय परम-तीर्थाय तपश्चरण-परायण महर्षि - गणाध्यासित-कन्दराय श्री कुन्दाख्याय ( यहाँ बन्द हो जाता है)
[ वृषभ-देवको नमस्कार करनेके बाद, -
प्राचीन समय में, कलि-अवसर्पिणीके द्वापर युग में, सूर्यवंशके गगनमें सूर्यके समान, दशरथ के पुत्र महारथ राम-स्वामी ( रामचन्द्रजी ) के द्वारा अर्हन्त परमेष्ठीका यह चैत्य भवन प्रतिष्ठापित किया गया । बादमें, पाण्डवोंकी माता कुन्तीने इसे फिरसे नया बनवा दिया ।
भूमिदेवीको तिलकके समान, , स्वर्ग और अपवर्ग दोनोंके लिये सीढ़ी, सच पर्वतों में उत्तम, जिनेन्द्र- चैत्य ( बिम्ब ) के सान्निध्यसे पवित्रीकृत, परमतीर्थ, जिसमें जगह-जगह तपश्चरण-परायण महर्षिगणों के लिये कन्दराएँ ( गुफायें ) बनी हुई हैं, ऐसा 'श्रीकुन्द' नाम पर्वत ( यहाँ लेख खतम हो जाता है । ' )
[ EC, X, Chik-ballapur tl, no. 29.] ११९ बेलवत्ते- कन्नड़ |
विना काल:- निर्देशका ( संभवत: लगभग ७५० ई० )
[ बेलवत्ते - मैसूर तालुकेमें, बसवेश्वर मन्दिरके पश्चिमकी ओर ] नेरें यदि एर्दनु मुने.....ळलियु प्रभिन्न वाग्वि बिल्लोरु गुर्रि....
१ प्रारम्भके शब्द 'स्वस्ति' को यहाँ अन्त में लगा देनेसे यह लेख संभाव्यरूपसे पूर्ण समझा जा सकता है, क्योंकि 'स्वस्ति' के योगमें चतुर्थी विभक्ति होती है, जो यहाँ है ।
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१०८
जैन-शिलालेख संग्रह हूँ एल्दु दवे तम्म क्षेमकिरदल्लि मेच्चिर ताब्वदु परत्रे यपुदेवदेख महाप्रभु-गोवपय्यन इन्त् इन्दपु समाधियोळे मुडिपि ताब्दिदन्नितमरेन्द्रभोगमं ॥ पदेदोम् श्री-पुरुषय्यल् आम्मु-मोदलोळ कल्नाडन् अन्दों बळेक् एदेयोळ् अकुडु भूतिमूतुगानो दोत धाण धीक्षे सळे पडेदे.... पितृ-कळत्र-मित्र-जनम काव्यान्य ताब्द अप्पोडी-नुडियल वेल्कुमे पेम्पन् ओप्प गुणते तोळमिकिन्द गोपय्यनम् ॥
[महाप्रभु गोवपय्यको श्रीपुरुषकी तरफसे भूमि-दान मिला था और वे (गो. प.) समाधिमरणपूर्वक मरे थे।]
[FC, III, Mysore tl., no, 6]
देवलापुर-कन्नड़। विना कालनिर्देशका (संभवतः लगभग ७५० ई.)
[ देवलापुर ( कूड्नहल्लि तालुका ), मारीगुडीके पूर्वमें ] स्वस्ति श्रीपुरुष-महा........पृथुवी-राज्यकेये अरट्टिरम्मगन्दिर सिंगं दीक्षे बीळादु' अरट्टित्तीरर् कुडलूरद गोट्टे मडिओडे-यम्बर आण्विकय
(पृष्ठभागपर) नोकज-ओडे आग्गीकड...... कोट्ट नेल तेनेन्धक काळे कु साक्षी कुडलू पोङ्गुलरुं एळमडियर्स एटिरियरुं मदुगरुं कागब्बरं साक्षि आग कोटदु आळ आल् किडिशिदोन वारणासिया शासिर-कविले शासिरपार्वर् कोन्द कोले आका कोडिशिदोनु......"कडुवेडिळोनुडि तेन्ने... विद स्वचोनु अरटिंग तळर कुडलूर आब्बत्ति
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देवरहल्लिका लेख
१०९ [जिस समय इस पृथ्वीपर श्री-पुरुष महाराज राज्य कर रहे थेअरहि...... के पुत्र सिंगम् के (जिम) दीक्षा लेनेके बाद, (उसकी मां) अरहितिने कुडलर किलेके मडि-बोडेके द्वारा शासित प्रदेशमें भूमिदान किया।]
{ EC, III, Mysore tl., no. 25.]
१२१ देवरहल्लि-संस्कृत तथा कन्नड़।
शक सं० ६९८७७६ ई. [ देवरहलि ( देवलापुर प्रदेश )में, पटेल कृष्णय्यके साम्रपत्रोंपर ]
(IN) स्वस्ति जितं भगवता गतघनगगनामेन पद्मनाभेन श्रीमजाह्नवेयकुलामलव्योमावभासनभास्करः स्वखङ्गाहारखण्डितमहाशिलास्तम्भलब्धबलपराक्रमो दारुणारिगणविदारणोपलब्धव्रणविभूषणभूषितः काण्वायन-सगोत्रः श्रीमत्कोङ्गणिवर्मधर्ममहाधिराजः तस्य पुत्रः पितुरन्वागतगुणयुक्तो विद्याविनयविहितवृत्तिः सम्यक्प्रजापालनमात्राधिगतराज्यप्रयोजनो विद्वत्कविकाञ्चननिकषोपलभूतो नीतिशास्त्रस्य वक्तृ-प्रयोक्तृकुशलो दत्तकसूत्रवृत्तेः प्रणेता श्रीमान् माधवमहाधिराजः तत्पुत्रः पितृपैतामहगुणयुक्तोऽनेकचातुईन्तयुद्धावाप्तचतुरुदधिसलिलास्त्रादितयशः श्रीमद्धरिवर्ममहाधिराजः तस्य पुत्रो द्विजगुरुदेवतापूजनपरो (IIa) नारायणचरणानुध्यातः श्रीमान् विष्णुगोपमहाधिराजः तत्पुत्र: त्र्यम्बकचरणाम्भोरुहरजःपवित्रीकृतोत्तमाङ्गः स्वभुजबलपराक्रमक्रयक्रीतराज्यः कलियुगबलपङ्कावसन्नधर्मवृषोद्धरणनित्यसन्नद्धः श्रीमान् माधवमहाधिराजः तत्पुत्रः श्रीमत्कदम्बकुलगगनगभस्तिमालिनः कृष्णवर्ममहाधिराजस्य प्रियभागिनेयो विद्याविनयातिशयपरिपूरितान्तरात्मा निरवग्रहप्रधानशौर्यो विद्वस्तु ? (विद्वत्सु ) प्रथमगण्यः श्रीमान्
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जैन - शिलालेख संग्रह
कोणिमहाधिराजः अविनीतनामा तत्पुत्रो विजृम्भमाणशक्तित्रयः अन्दरि - आलत्तूर्-प्पोरुळ रें- पेल्लनगराद्यनेकसमरमुख मखहुतप्रहतशूरपुरुषपशूपहारविवसविहस्तीकृतकृतान्ताग्निमुखः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्ग- ( IIb ) टीकाकारो दुर्विनीतनामधेयः तस्य पुत्रो दुर्दान्तविमर्द्दविमृदितविश्वम्भराधिप मौलिमालामकरन्दपुञ्ज पिञ्जरीक्रियमाणचरणयुगलनलिनो मुष्करनामधेयः तस्य पुत्रश्चतुर्दशविद्यास्थानाधिगतविमलमतिः विशेषतोऽनवशेषस्य नीतिशास्त्रस्य वक्तृप्रयोक्तृकुशलो रिपुतिमिरनिकरनिराकरणोदय भास्करः श्रीविक्रमप्रथितनामधेयः तस्य पुत्रः अनेकसमरसम्पादितविजृम्भितद्विरदरदनकुलिशाघात - व्रणसंरुड भास्वद्विजयलक्षणलक्षीकृतविशालवक्षस्थल: समधिगतसकलशास्त्रार्थतत्वस्समाराधितत्रिवर्गो निरवयचरितर् प्रतिदिनमभिवर्द्धमानप्रभावो भूविक्रमनामधेयः
अपि च
११०
नानाहेतिप्रहारप्रविघटित भटोर ष्कवाटोन्थितास्त्रग्
धाराखाद - प्र (III) मत्तद्विपशतचरणक्षोदसम्मर्द्दईभीमे । संग्रामे पल्लवेन्द्रं नरपतिमजयद्यो विळन्दाभिधाने राज- श्रीवल्लभाख्यस्समरशतजयावाप्तलक्ष्मीविलासः ॥ तस्यानुजो नतनरेन्द्रकिरीटकोटि
रत्नार्कदीधितिविराजितपादपद्मः ।
लक्ष्य स्वयम्वृतपतिर्भवकामनामा शिष्टप्रियोऽरिगणदारणगीतकीर्त्तिः ॥
तस्य कोङ्गणिमहाराजस्य शिवमारापरनामधेयस्य पौत्रः समवनत समस्त सामन्तमुकुटतटघटितबहलरत्नविलसद मरधनुष्खण्डमण्डितच
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देवरहल्लिका लेख रणनखमण्डलो नारायण[चरण]निहितभक्तिः शूरपुरुषतुरगनरवारणघटासंघट्टदारुणसमरशिरसि निहितात्मकोपो भीमकोपः प्रकटरतिसमयसमनुवर्त्तनचतुरयुवतिजनलोकधूर्तोऽलोकधूर्तः सुदुर्द्धरानेकयुद्धमूर्धलब्धविजयसम्पद हितगजघ (IIIh) टाकेसरी राजकेसरी । अपि च ।
यो गङ्गान्वयनिर्मलाम्बरतलव्याभासनप्रोल्लसनमार्तण्डोऽरिभयङ्करः शुभकरस्सन्मार्गरक्षाकरः । सौराज्यं समुपेत्य राज्यसमितौ राजन् गुणैरुत्तमराज-श्रीपुरुषश्चिरं विजयते राजन्य-चूड़ामणिः ।। कामो रामासु चापे दशरथतनयो विक्रमे जामदग्न्यः प्राज्यैश्वर्ये बलारिबहुमहसि रविस्व-प्रभुत्वे धनेशः । भूयो विख्यातशक्तिस्स्फुटतरमखिलं प्राणभाजं विधाता
धात्रा सृष्टः प्रजानां पित(पति)रिति कवयो यं प्रशंसन्ति नित्यं ।। तेन प्रतिदिनप्रवृत्तमहादानजनितपुण्याहघोपमुखरितमन्दिरोदरेण श्रीपुरुपप्रथमनामधेयेन पृथुवीकोङ्गणिमहाराजेन अष्टानवत्युत्तरे[७] पदच्छतेषु शकवर्षेष्वतीतेष्वात्मनः प्रवर्द्धमानविजयैश्वर्ये संवत्सरे पञ्चाशत्तमे प्रवर्त्तमाने मान्यपुरमधिव-( IVa)मति विजयस्कन्धावारे श्रीमूल-मूलगणाभिनन्दितनन्दिसचान्वये एरेगित्तर्नाम्नि गणे पुलिकल्गच्छे स्वच्छतरगुणकिरणि प्रततिप्राळादितसकललोकः चन्द्र इवापरः चन्द्रनन्दीनाम गुरुरासीत् तस्य शिष्यस्समस्तविबुधलोकपरिरक्षणक्षमात्मशक्तिः परमेश्वरलालनीयमहिमा कुमारवद्वितीयः कुमारण(न)न्दी नाम मुनिपतिरभवत् तस्यान्तेवासी समधिगतसकलतत्त्वार्थसमर्थितबुधसार्थसम्पत्सम्पादितकीर्तिः कीर्त(त्ति)नन्द्याचार्यो नाम महामुनिस्समजनि तस्य प्रियशिष्यः शिष्यजनकमलाकरप्रबोधनकः
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जैन-शिलालेख संग्रह मिथ्याज्ञानसन्ततसन्तमससन्तानान्तकसद्धर्मव्योमावभासनभास्करः विमलचन्द्राचार्यस्समुदपादि तस्य (IVb) महर्षेर्द्धर्मोपदेशनया श्रीमद्भाणकुलकलः सर्वतपमहानन्दीप्रवाहः महादण्डमण्डलामखण्डितारिमण्डलद्रुमपण्डो दुण्डुप्रथमनामधेयो नीमुन्दयुवराजो जज्ञे तस्य प्रियात्मजः आत्मजनितनयविशेषनिःशेषीकृतरिपुलोकः लोकहितमधुरमनोहरचरितः चरितार्थत्रिकरणप्रवृत्तिः परमगूळप्रथमनामधेयश्रीपृथुवीनीगुन्दराजोऽजायत पल्लवाधिराजप्रियात्मजायां सगरकुलतिलकात् मरुवर्मणो जाता कुन्दाञ्चिनामधेया भर्तृभवन आबभूव भार्या तया सततप्रवर्तितधर्मकार्य्यया निम्मिताय श्रीपुरोत्तरदिशमलङ्कुर्वते लोकतिलकनाम्ने जिनभवनाय खण्डस्फुटितनवसंस्कारदेवपूजादानधर्मप्रवर्त्तनाथं तस्यैव पृ(Va)थिवीनीमुन्दराजस्य विज्ञापनया महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीजसहितदेवेन नीगुन्दविषयान्तति पोनळिनामग्रामस्सब्बपरिहारोपेतो दत्तः तस्य सीमान्तराणि पूर्वस्यां दिशि नोलिबेळदा बेळगल्-मोर्रादि पूर्वदक्षिणस्यां दिशि एण्यङ्गेरी दक्षिणस्यां दिशि बेळगल्लिंगेरेया ओळगे'या पल्लदा कूडळ दक्षिणपश्चिमायान्दिशि जैदरा केय्या बेळ्गल-मोटु पश्चि. मायान्दिशि पोङ्कवि ताल्तुबायराकेरी पश्चिमोत्तरस्यां दिशि पुणुसेया गोटेगाला कल्कुप्पे उत्तरस्यां दिशि सामगेरेया पोल्लदा पेम्मुरिकु उत्तरपूर्वस्यां दिशि कळम्बेत्ति-गट्ठ इमान्यन्यानि क्षेत्रान्तराणि दत्तानि दुण्डुममुद्रदा वयलुन् किर्रुदारीमेगे पदिकण्डुगं मण्णं पळेया एरेनल्लूरा ऊप्पाळु ओकण्डुगं श्रीवुरदा दु (Vh) ण्डुगामुण्डरा तोण्टदा पडुवायोन्दुतोण्ट श्रीवुरदा वयलुळ् कमर्गट्टिनल्लि इकण्डगं कळनि पेरिया केळगे आरंगण्डुगमेरे पुलिगेरेया कोयिल्गोडा एडे इMत्तुगण्डगं ब्बेडे आदुवु श्रीवुरदा बडगण पडवण कोणुळळण देवङ्गेरि मदमने ओन्दं
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मण्णेका लेख
१२१ अपि च ।
यस्यैकस्यापि सर्व जगदपि स-रुषो नाग्रतम् स्थातुमीष्टे
दित्सा-सम्भूत-बुद्धेरपि नव निधयो यस्य नालं नृपस्य । जिहे तीवाभिमानात् कपट-विजयिनां यद्-धृतेर्नाकधाम्नाम् [ रा ] ज्ञां विज्ञातकीर्ति [स्स ] सकल-जगतां नन्दनो मारसिंहः।।
यश्च सतत-सम्पादित-कमलानन्दोऽप्यप्रचण्डकरः पुण्य-जन-सत्त्वसमेतोऽप्यनृशंस-मानसः मत्त-मातङ्ग-स्कन्ध-लालितोऽप्यति-शुचि-स्वभावः प्रिय-धनुरप्यमार्गणः समनुष्ठित-दण्ड-नीतिरप्यदण्डक्रम-गतिः ।। अपि च ।
धूसरीकुरुते यस्य चरणाम्भोज-जं रजः ।
प्रणतानन्त-सामन्त-चूडामणि-मधुव्रजम् ॥ तेन लो ( ५ ब) क-त्रिनेत्रापर-नामधेयेन समधिगत-यौवराज्यपदेन भगवन्सहस्र-किरण-चरण-नलिन-षट्चरणायमान-मानसेन ॥ तस्मिश्च प्रसाधिताशेष-सामन्त ......."अखण्ड गङ्ग-मण्डलमनुशासति श्रीमारसिंहाभिधाने आसीत् समस्त-सामन्त-सेनाधिपतिः परमार्हतः परमधार्मिकः मन्त्र-प्रभूत्साह-शक्ति-सम्पन्नः श्रीविजयो नाम यश्च सहस्रदीधितिरिव तिरोहिताखिल-पर-तेजः पर-तेजः-प्रसरोऽपि असन्तापित-भूतलः सुनाशीर इवाखण्डित-सकल-जनाज्ञोऽपि अगोत्र-भेदन-करः गुह इव शक्ति-समुत्सारिता-बग्र्गोऽपि अकृत-बल-भावःशिशिरगभस्तिरिव प्रह्लादनोद्योतनसमर्थोऽपि अदोपाश्रित-विग्रहः बारिराशिरिव अपरिमित-सत्वसमाश्रयोऽपि अपङ्क-मल-गृहीतः विनतानंद [न] इव अतिदूर-द [श ] नोऽपि अपिशिताशनः शतक्रतुरिव बुध-गुरु-मित्र-परिवृतोऽपि न [प] र-दार-रति-शप्तः झषकेतन इव खवशीकृत-सकल-जनोऽपि अप्र (प)
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१२२
जैन-शिलालेख संग्रह हृत-बलाबलो-तप ....यश्च अमृतमयो भृत्यानां सुखमयो मित्राणां सुधामयो रामाणामुत्साहमयः प्रजानां विनयमयो गुरूणां नयस्स्व (६ अ) लद्-वृत्तीनां अग्रणी रसिकानां स्रष्टा काव्य-रचनानां उपदेष्टा नयानां द्रष्टा स्वामि-कार्याणां विद्वेष्टा कृत-दोषाणां यष्टा महा-मखानां परिमार्टा पापानां प्रष्टा निर्माण-हेतूनां परिकृष्टा श्रितागसाम् । अपि च ।
उदन्वानित्र गाम्भीर्ये विवस्वानिव तेजसि । शशलक्ष्मेव लावण्ये नभखानित्र यो बले ॥ मनोभूरिख सौरूप्ये मघवानित्र सम्पदि । सुरमन्त्रीव शास्त्रार्थे उशनेव च यो नये ॥ ग्रामे पुरे नदी-तीरे गिरौ द्वीपे सरोऽन्तिके । प्रावतयत् स्व-कीर्त्याभां योऽनेकं वसतिं प्रभुः ॥ स मान्यनगरे श्रीमान् श्रीविजयोऽकार [ य ] च्छुभम् । जिनेन्द्र-भवनं तुझं निर्मलं ख-महम्-समम् ॥ तस्य च प्रसाधिताशेप-सामन्त-चन्द्रस्य श्री-मारसिंहस्यानुज्ञया श्रीविजयो महानुभावः किषु-वेकर-ग्राममादाय मान्यपुर-विनिर्मिताय भगवदर्हदायतनाय अदादिति तस्य च ग्रामस्य ( यहाँ सीमाओंकी विस्तृत चर्चा आती है)। अपि च ।
आसीद(त्)-तोरणाचार्यः कोण्डकुन्दान्त्रयोद्भवः स नै [द ] द्विषये धीमान् शाल्मलीग्राममाश्रितः ॥ निराकृततमोऽरातिः स्थापयन् सत्पथे जनान् । खतेजोदयोतित-क्षोणिः चण्डाचरित्र यो बभौ ॥
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aurer लेख
तस्याभूत् पुष्पनन्दीति शिष्यो विद्वान् गणाम्रणीः । तच्छिष्यश्च प्रभाचन्द्रः तस्येयं वसतिः कृता
( ३ पंक्तियोंमें दानकी चर्चा है )
इदप शक वर्ष एकनूरा पत्तोम्भतु वर्षमुं मृषु तिङ्गलमाषाढशुक्ल पक्षदा पश्चमिमुत्तराभाद्रपतेनुं सोमवारमुं शासनं निर्मितं । अस्य दानस्य साक्षिणः षण्णवति - सहस्र - विषय - प्रकृतयः योऽस्यापहर्त्ता लोभान्मोहात् प्रमादेन वा स पञ्चभिर्महद्भिः पातकैस्संयुक्तो भवति यो रक्षति स पुण्यवान् भवति
अपि चात्र मनु-गीता: श्लोकाः
स्वदत्तां पर दत्तां वा यो हरेत वसुंधराम् ।
(७ अ ) पष्टि वर्ष- सहस्राणि विष्ठा [ यां जा ] यते कृमिः । स्वं दातुं सुमहच्छक्यं दुःखमन्यस्य पालनम् । दानं वा पालनं वेति दानाच्छ्रेयोऽनुपालनम् ॥ बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः ।
यस्य यस्य यदा भूमिः तस्य तस्य तदा फलम् ॥ ब्रह्मस्वं तु विषं घोरं न विषं विषमुच्यते । विषमेकाकिनं हन्ति देव-खं पुत्र-पौत्रकम् ॥
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सर्व्व-कलाधार भूत-चित्र-कलाभिज्ञेय-विश्वकर्म्माचाय्र्येणेदं शासनं लिखितं चतुष्कण्डुक-त्रीहि-बीजावाप-क्षेत्रं द्वि- कण्डुक-क क्षेत्र तदपि देव- भोगमिति रक्षणीयम् ॥
[ जाह्नवी ( ग ) - कुलके स्वच्छ आकाश में चमकते हुए सूर्य; काण्यायन- सगोत्रके
(१) श्रीमत्-कोङ्गणिवर्म- धर्म महाधिराज थे ।
(२) उनके पुत्र श्रीमान् माधव - महाधिराज थे ।
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जैन - शिलालेख संग्रह
(३) उनके पुत्र श्रीमद् हरिवर्म महाधिराज थे । श्रीमान् विष्णुगोप- महाधिराज थे ।
( ४ )
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(६) उनके पुत्र, जो कदम्ब कुलवंशीय कृष्णवर्म्म- महाधिराजकी प्रिय बहिनके पुत्र थे, अविनीत नामके श्रीमान् कोङ्गणि महाधिराज थे ।
(७) उनके पुत्र दुर्विनीत थे । इन्होंने अन्दरि, आलसूर, पोरुलणे, पेळूनगर और दूसरे स्थानोंके युद्धोंको जीता था । इन्होंने किरातार्जुनीय के १५ सर्वोपर टीका की थी ।
99
39
माधव - महाधिराज थे.
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(८) इनके पुत्र मुष्कर थे ।
( ९ ) उनके पुत्र श्रीविक्रम थे, ये चौदहों विद्याओंमें पारङ्गत थे ।
(१०) उनके पुत्र भूविक्रम थे । इन्होंने विळन्दकी भयानक लड़ाईमें राजा पल्लवेन्द्रको जीता था, और सौ लड़ाइयोंमें विजय लाभ करनेसे इनको 'राजश्रीवल्लभ' भी कहते थे ।
( ११ ) उनका छोटा भाई नव- काम था ।
(१२) शिवमार कोङ्गणि महाराजका नाती श्रीपुरुष था, उन्हें पृथिवीकोणि महाधिराज भी कहते थे ।
(१३) उनके पुत्र, प्रसिद्ध गंगवंशके स्वच्छ आकाशके सूर्य, कोङ्गणिमहाराजाधिराज परमेश्वर श्री शिवमार देव थे । इनकी बहुत-सी प्रशंसाका वर्णन है ।
(१४) उनके पुत्र, मारसिंह थे ।
जब वे अखण्ड गङ्ग-मण्डलपर राज्य कर रहे थे; उनका एक श्रीविजय नामका सेनापति था । उसकी प्रशंसा । उसने मान्य- नगरमें एक शुभ, विशाल जिनमन्दिर बनवाया । उसे श्रीमारसिंहसे किषु वेक्कूरु गाँव मिला था, वह उसने इसी अर्हत्-मन्दिरको भेंट कर दिया । इस गाँव की सीमायें ।
शाल्मली गाँव में रहनेवाले, कोण्डकुन्दान्वयके तोरणाचार्य थे । उनके शिष्य पद्मनन्दि थे । उनके शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जिन्होंने अपना आवास यहीं बना लिया था । जडियके तालाबोंकी नीवेकी जो जमीनें उनको दी गई थीं उनकी बिगत । यह शासन ( लेख ) शक वर्ष ७१९ के १ महीने बाद, आषाढ़ शुक्ला पञ्चमी, उत्तरभाद्रपद, सोमवारको निकला था ।
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मन्नेका लेख . इस दानके साक्षी-९६००० के विद्यमान अफसर ( अधिकारी गण)। वे ही श्रापारमक श्लोक ।
विश्वकर्माचार्य्यने इस शासनको लिखा था । प्रभाचन्द्र देवको दी गई भूमिकी विगत ।]
[ EC, IX, Nelamangaln, ti., n° 60]
१२३ मन्ने-संस्कृत।
शक ७२४-८०२ ई. [म में, शानभोग नरहरियप्पके अधिकारके ताम्रपत्रोंपर ] (१ ब) स वोऽव्याद् वेधसां धाम यन्नाभि-कमलं कृतम् ।
हरश्च यस्य कान्तेन्दु-कलया कमलङ्कृतम् ॥ भूयोऽभवद् बृहदुरुस्थल-राजमानश्री-कौस्तुभायत-करैरुपगूद-कण्ठः । सत्यान्वितो विपुल-बाहु-विनिर्जितारि
चक्रोऽप्यकृष्ण-चरितो भुवि कृष्ण-राजः ॥ पक्ष-च्छेद-भयाश्रिताखिळ-महा-भूभृत्-कुल-भाजितात् दुर्लध्यादपरैरनेक-विपुल-भ्राजिष्णु-रत्नान्वितात् । यश्चालुक्यकुलादनून-विबुधा[...]श्रया [द् ] वारिधेः लक्ष्मी मन्दरवत् स-लीलमचिरादाकृष्टवान् वल्लभः॥ तस्याभूत् तनयः प्रता [प]-विसरैराक्रान्त-दिड्-मण्डलश् चण्डांशोस्सदृशोऽप्य-चण्ड-करतःप्रह्लादित-क्ष्माधरो । धोरो धैर्य-धनो विपक्ष-वनिता-चक्त्राम्बुज-श्री-हरो हारीकृत्य यशो यदीयमनिशं दिङ्-नायिकाभिधृतम् ॥
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१२६
जैन - शिलालेख संग्रह
ज्येष्ठोल्लंघन - जातयाप्यमलया लक्ष्म्या समेतोऽपि सन् योऽभून्निर्म्मल-मण्डल-स्थिति-युतो दोषाकरो न कचित् । कर्णाः कृत-दान-सन्तति- (२ अ) भृतो यस्यान्य-दानाधिकम् दानं वीक्ष्य सुजिता इव दिशां प्रान्ते स्थिता दिग्गजाः ॥ अन्येन जातु विजितं गुरु-शक्ति-सारं
आक्रान्त भूतलमनन्य- समान मानम् । येनेह बद्धमवलोक्य चिराय गङ्गान् दूरे स्व-निग्रह - भित्र कलिः प्रयातः ॥ एकत्रात्म- बलेन वारिनिधिनाप्यन्यत्र रुव्वा घनान् निष्कृष्टासि - भटोद्धतेन विहरद्- प्राहातिभीमेन च । मातङ्गान् मद - वारिनिर्झर मुचः प्राप्यानतात् पल्लवात् तचित्रं मद- लेशमप्यनुदिनं यस्स्पृष्टवान् न क्वचित् ॥ हेला स्वीकृत गौड - राज्य-कमलान् चान्तःप्रविश्याचिरादू उन्मार्गे मरु-मध्यम-प्रतिबलैयों वत्सराजं बलैः । गौडीयं शरदिन्दु-पाद-धवल-च्छत्र-द्वयं केवलम् तस्मादाहृत-तद्-यशोऽपि ककुभां प्रान्ते स्थितं तत्-क्षणात् ॥ लब्ध-प्रतिष्ठमचिराय कलिं सुदूरम् उत्सा शुद्ध चरितैर्धरणी - नलस्य ।
कृत्वा पुनः कृत-युग - श्रियमप्यशेपम् चित्रं कथं निरुपमः कलि-बल्लभोऽभूत् ॥
प्राभू -( २ ब ) द् धर्म-परात् ततो निरुपमादिन्दुर्व्यथा बारिधेः शुद्धात्मा परमेश्वरोन्नत - शिरस्- संसक्त-पादस्तथा । पद्मानन्दकरः प्रताप- सहितो नित्योदयस्सोन्नतेः पूर्वादेरिव भानुमानभिमतो गोविन्दराजः सताम् ॥
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मन्नेका लेख यस्मिन् सर्व-गुणाश्रये क्षितिपतौ श्री-राष्ट्रकूटान्वयो जाते यादव-वंशवन्मधुरिपावासीद् अलङ्यः परैः । दृष्ट्वा सावधयः कृतास्सु-सदृशाः दानेन येनोद्धताः युक्ताहार-विभूषिताः स्फुटमिति प्रत्यर्थिनोऽप्यर्थिनः ।। यस्याकारमनानुषं त्रिभुवन-व्यापत्ति-रक्षोचितम् कृष्णस्येव निरीक्ष्य यच्छति पदं यद्याधिपत्य भुवः ।
आस्तां तात तवेयमप्रतिहता दत्ता त्वया कण्ठिका किन्वा व मया धृतेति पितरं युक्तं स तत्राभ्यधात् ।। तस्मिन् स्वर्ग-विभूषणाय जनने याते यशश्शेषताम् एकीभूय समुद्यतान् वसुमती-संहारमाधित्सया । वि-च्छायान् सहसा व्यधत्त नृपतीनेकोऽपि यो द्वादश . ख्यातानप्यधिक प्रताप-विसरैस्संवर्त ( ३ अ) कोल्कानिव ।। येनात्यन्त-दयालुनोग्र-निगल-वेशादपास्यानतम् स्वं देशं गमितोऽपि दर्प-विसरद् यः प्रा [...] कूल्ये स्थितः । लीला-भ्र-कुटिले ललाट-फलके यावच्च नालक्ष्यते विक्षेपेण विजिल्य तावदचिरादाबद्ध-गङ्गः पुनः ॥ सन्धायासि शिलीमुखान् ख-समयात् बाणासनस्योपरि प्राप्तं वर्द्धित-बन्धु-जीव-विभवं पद्माभिवृद्ध्यान्वितम् । सर्व क्षेत्रमुदीक्ष्य यं शरद्-ऋतुं पर्जन्यवद् गूर्जरो नष्टः कापि भयात् तथापि समयं स्वप्मेऽप्यपश्यन् ॥ यत्पादानति-मात्र... क-शरणानालोक्य लक्ष्मी-धिया दूरान् मालव-नायको नय-परो यत्रातिबद्धाञ्जलिः । यो विद्वान् बलिना सहाल्प-बलवान् स्पर्द्धा न धत्ते पराम् नीतेस्सूतिरसौ यदात्म-परयोराधिक्य-सम्वेदनम् ॥
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कडबका लेख
१३५
1
४० चिन्तामणिरिति ध्रुवं यं वदन्त्यर्थिनः । नित्यं प्रीत्या प्राप्तार्थसम्पदसौ प्रभूतवर्ष इति वि
४१ ख्यातो भूपचक्रचूडामणि: [11] तस्यानुजः धारावर्ष -श्री- पृथ्वी
बल्लभ-महाराजाधि
४२ राजपरमेश्वरः खण्डितारि-मण्डलासि भासित - दोर्दण्डः पुण्डरीक' इत्र बलिरिपु-मर्द्दना
४३ क्रान्त-सकल-भुवनतलः सुकृतानेक-राज्य-भार- भारोद्वहन समर्थः हिमशैल-वि---
४४ शालोर : स्थलेन राजलक्ष्मी-विहरण- मणिकुट्टिमेन चतुराङ्गनालि
गन-तुङ्ग-कुच
तीसरा पत्र; पहली बाजू
४५ संग-सुखोद्रेकोदित - रोमाञ्च योजितेन ख-भुजासि-धारा-दलितसमस्त- ' गलित-मुक्ताफल-वि
४६ सर - विराजितारि-बल- हस्ति- हस्तास्फालन- दन्त-कोटि- घट्टित-घनीकृतेन विराजमानः त्रिपुर
४७ हर वृषभ - ककुदाकारोन्नत विकटांस-तट-निकट दोधूयमान- चारुचामर-चयः फेन - पिण्ड
४८ पाण्डुर- प्रभावोदितच्छविना वृत्तेनापि चतुराकारेण सितातपत्रेणाच्छादित समस्त-दिग्- विव
४९ रो रिपुजनहृदयविदारणदारुणेन सकलभूतलाधिपत्यलक्ष्मीली
१ 'पुण्डरीकाक्ष' पढ़ो। २ ' दलितमस्त' पढ़ो | ३ आगे ४९ वीं पंक्तिसे प्राचीन लेखमाला, प्रथम भाग, लेख ११ परसे लिया है ।
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जैन-शिलालेख संग्रह लामुत्पादयता प्रहतपटहढक्कागम्भीरध्वानेन घनाघनगर्जनानुकारिणा अस्याचितो विनोदनिर्गमः (१) खकीयां साञ्चलता () परनृपचेतोवृत्तिषु दातुमिवोचराविलोलप्रकटितराज्यचिहः (?) तुरङ्गमखरखुरोत्थितपांशुपटलमसृणितजलदसंचयानेकमत्तद्विपकरटतटगलितदानधाराप्रतानप्रशमितमहीपरागः।
यस्य श्री चपलोदया खुरतरङ्गालीसमास्फालना
निर्मिन्नद्विपयानपात्रगतयो ये मंचलञ्चेतसः । (?) तस्मिन्नेव समेत्य सारविभवं संत्यज्य राज्यं रणे
भग्ना मोहवशात् खयं खलु दिशामन्तं भजन्तेऽरयः ॥ इदं कियद्भूतलमत्र सम्यक् स्थातुं महत्संकटमित्युदनम् ।
वस्यावकाशं न करोति यस्य यशो दिशां भित्तिविमेदनानि ।। अनवरतदानधारावर्षागमेन तृप्तजनतायाः धारावर्ष इति जगति विख्यातः सर्वलोकवल्लभतया वल्लभ इति । तस्यात्मजो निजभुजबलसमानीतपरनृपलक्ष्मीकरवृतधवलातपत्रनालप्रतिकूलरिपुकुलचरणनिबद्धखलखलायमानधवलशृङ्खलारवबधिरीकृतपर्यन्तजनो निरुपमगुणगणाकर्णनसमाह्लादितमनसा साधुजनेन सदा संगीयमानशशिविशदयशोराशिराशावष्टब्धजनमनःपरिकल्पनत्रिगुणीकृतस्वकीयानुष्ठानो निष्ठितकर्तव्यः प्रभूतवर्षश्रीपृथ्वीवल्लभराजाधिराजपरमेश्वरस्य प्रवर्धमानश्रीराज्यविजयसंवत्सरेषु वदत्सु । चारुचालुक्यान्वयगगनतलहरिणलाञ्छनायमानश्रीबलवर्मनरेन्द्रस्य सूनुः खविक्रमावजितसकलरिपुनृपशिरःशेखरार्चितचरणयुगलो यशोवर्मनामधेयो राजा व्यराजत । तस्य पुत्रः 'सुपुत्रः कुलदीपक' इति पुराणवचनमवितथमिह कुर्वन्नतितरां धीराजमानो
१ 'वहत्सु' पाठ मालूम पड़ता है।
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कडवका लेख
१३७ मनोजात इव मानिनीजनमनस्थलीयः (१) रणचतुरश्चतुरजनाश्रयः श्रीसमालिङ्गितविशालवक्षस्थलो नितरामशोभत । असौ महात्मा
कमलोचितसगुजान्तरश्रीविमलादित्य इति प्रतीतनामा ।
कमनीयवपुर्विलासिनीनां भ्रमदक्षिभ्रमरालिबक्रपद्मः ।। यः प्रचण्डतरकरवालदलितरिपुनृपकरिघटाकुम्भमुक्तमुक्ताफलविकीर्णितरुचिरक्ताधिकान्तिरुचिरपरीतनिजकलत्रकण्ठः शितिकण्ठ इव महितमहिमामोद्यमानरुचिरकीर्तिरशेषगङ्गमण्डलाधिराज श्रीचाकिराजस्य भागिनेयः भुवि प्रकाशत यस्मिन् कुनुन्गिलनामदेशमयशःपराज्युखी मनुमा ण पालयति सति श्रीयापनीयनन्दिसंघ'नागवृक्षमूलगणे 'श्रीकित्या चार्यान्वये बहुष्याचार्येष्वतिक्रान्तेषु व्रतसमितिगुप्तिगुप्तमुनिवृन्दवन्दितचरणकूविलाचााणामासीत् (?) तस्यान्तेवासी समुपनतजनपरिश्रमाहार: स्वदानसंतर्पितसमस्तविद्वजनो जनितमहोदयः विजयकीर्तिनाममुनिप्रभुरभूत् ।
अर्ककीर्तिरिति ख्यातिमातन्वन्मुनिसत्तमः ।
तस्य शिष्यत्वमायातो नायातो वशमेनसाम् ।। तस्मै मुनिवराय तस्य विमलादित्यस्य शणेश्वर ( ? )पीडापनोदाय मयूरखण्डिमधिवसति विजयस्कन्धावारे चाकिराजेन विज्ञापितो बल्लभेन्द्रः इडिगूर्विषयमध्यवर्तिनं जालमङ्गलनामधेयग्राम शकनृपसंवत्सरेषु शरशिखिमुनिषु (७३५) व्यतीतेषु ज्येष्ठमासशुक्लपक्षदशम्यां पुष्यनक्षत्रे चन्द्रवारे मान्यपुरवरापरदिग्विभागालंकारभूतशिलाग्रामाजनेन्द्रर्भवनाय दत्तवान् तस्य पूर्वदक्षिणापरोत्तरदिग्विभागेषु स्वस्तिमङ्गल
१ 'प्रकाशते यस्मिन्' यह पाठ मालूम पड़ता है। २ 'परामुखे' यह अपेक्षित है। ३ श्रीकीाचार्य' जान पड़ता है । ४ 'जिनेन्द्र' ऐसा पाठ मालूम पड़ता है।
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१३८
जैन- शिलालेख संग्रह
बेलिन्द - गुडुनूरत्तरिपाल इति प्रसिद्धा ग्रामाः एवं चतुर्णां मामाणां मध्ये व्यवस्थितस्य जालमङ्गलत्यायं चतुरावधिकर्मः पुनस्तस्य सीमाविभाग : ईशानतः मुकूडल्दक्षिणदिग्विभागमवलोक्य एल्तगकोडल-मूडगकेल-बन्दु इप्पेय-कोषदे-पल-ओलगण उलिअलरिये कोदेयालि- बेलने सयकने-बन्दु पोल पुणसे एव कीले अन्ते पोयिए बिदिरुर्गेरे मुकूडल् ततः पश्चिमतः पुलिपदिय तेङ्कण पेर ओल्बेये पेर बिलिके एलगल-करण्डलो मुकूडल् अन्ते सयुकने पोगि नायूमणिगेरेय तायुगण्डि मुकूडल् ततः उत्तरतः बल्लगेरेय पडुव गजगोड पळम्बे पुणुसेये आनेदलो गेरेए पुलपडिये एलगले पुलिगारद गेरे मुकूडलू ततः पूर्वतः निहु विळिके.दविन पुलपडिये कचगार गले पोल एल्ले पुणुसये बट्टपु
सये बेळने बन्दु ईशानद मुकूडलो कूडि निन्दत्तू । राचमल्लगामण्डनुं शीरनुं गङ्गगामुण्डनुं मारेयनुं बेल्गेरेय् ओडेयोरुं मोदबागे- एलपदिम्बरं कुनुन्गिल-अयसारं साक्षियागे कोहत्तू | नमः |
अद्भिर्दत्तं त्रिभिर्भुक्तं षभिश्व परिपालितम् । एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराजकृतानि च ॥ स्वं दातुं सुमहच्छक्यं दुःखमन्यस्य पालनम् । दानं वा पालनं वेति दानाच्छ्रेयोऽनुपालनम् ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुंधराम् । षष्टिं वर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमि: ॥ देवखं [हि] विषं घोरं कालकूटसमप्रभम् । विषमेकाकिनं हन्ति देवस्वं पुत्रपौत्रकम् ॥
( इण्डियन एण्टिक्वेरी १२।१३-१६ ) [ एपिग्राफिका इण्डिका, ४१३४०-३४५ ]
१ 'चतुरवधिक्रमः' यह पाठ मालूम पड़ता है ।
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कडबका लेख
१३९
[ इस शिलालेखमें बताया है कि राजा प्रभूतवर्ष ( गोविन्द तृतीय ) ने जब कि वे मयूरल डीके अपने बिजयी विश्रामस्थलपर ठहरे हुए थे, राजकी प्रार्थनापर शक सं० ७३५ में आलमङ्गल नामका गाँव जैन मुनि अर्ककीर्तिको भेंट दिया । यह भेंट शिलाप्राममें स्थित जिनेन्द्र भवनके लिये दी गई थी । कारण यह था कि कुनुन्गिक जिलेके शासक बिमलादिको उन्होंने ( मर्ककीर्ति मुनिने ) शनैश्वर ( ? ) की पीड़ासे उम्मुक्त किया था ।
इस लेख में पं० १-६४ तकमें राष्ट्रकूट राजाओंकी प्रशंसामात्र है । इसमें उनकी वंशावली इस प्रकार दी हुई है:
wigging
लेखप्रस्तुत नाम
( १ ) गोविन्द
I
(२) क 1
( ३ ) इन्द्र
1 ( ४ ) वरमेव
I ( ५ ) अकालवर्ष
[ वैरमेधका चाचा ( पितृष्य ) ]
ऐतिहासिक नाम = गोविन्द प्रथम
= कर्क प्रथम
इन्द्र द्वितीय
= दन्तिदुर्ग या दन्तिवर्म्मन् द्वि०
= कृष्ण प्रथम
( ६ ) प्रभूतवर्ष
= गोविन्द द्वितीय
'
(७) धारावर्ष श्री पृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर, द्वितीय नाम -- वल्लम = धुव (प्रभूत वर्षका छोटा भाई ) (८) प्रभूतवर्ष श्रीपृथ्वीवल्लभ [ महा ]- राजाधिराज परमेश्वर, द्वितीय नाम वल्लभेन्द्र = गोविन्द तृतीय
३४ वीं पंक्तिमें कहा गया है कि अकालवर्षने अपने ही नामसे 'कण्णेश्वर' नामक मन्दिर बनवाया था। पंक्ति २९-३० से ऐसा मालूम पड़ता है कि यह मन्दिर शिबके लिये अर्पण किया गया था। पं० ८१ में बताया
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१४०
जैन-शिलालेख संग्रह गया है कि दानके समय गोविन्द-तृतीय मयूरखण्डीके अपने विजयस्कन्धावार (पड़ाव) में ठहरे हुए थे।
पंक्ति ६५-७५ में विमलादित्यकी वंशावलीका उल्लेख हुआ है । उनके पिता राजा यशोवर्मा थे और उनके बावा नरेन्द्र बलवर्मा थे। चालुक्योंसे इस कुलका संबंध था, लेकिन वर्तमानमें चालुक्यवंशी राजाओंमें इन मामोंके राजा नहीं मिलते हैं, इसलिए प्रो. भाण्डारकरने उन्हें एक स्वतन्त्र शाखाका माना है। विमलादित्य कुनुन्गिल देश (ज़िले) का राजा था। विमलादिस्यको चाकिराजकी बहिनका पुत्र बताया गया है। चाकिराजको गङ्गों (अशेष-गङ्गमण्डलाधिराज) के समूचे प्रान्तका शासक कहा गया है । इसीकी प्रार्थनापर दान किया गया था।
पंक्ति ७५-८० में दानपात्रका विशेष वर्णन है। उनका नाम अर्ककीर्ति था, ये कूविल आचार्यके शिष्य विजयकीर्तिके शिष्य थे । यह मुनि श्री यापनीय नन्दिसंघके 'नागवृक्षमूलगणके श्रीकीर्त्याचार्यके अन्वय (परम्परा) के थे । इनका एक विशेषण 'तसमितिगुसिगुप्तमुनिवृन्दवन्दितचरण: है।
लेखके अन्तिम भागका सार उपर दे दिया गया है । लेखके अन्तिम भागमें कुछ साक्षियोंके नाम भी दिये गये हैं जिनके सामने यह दान किया गया था । अन्तके चार वे ही साधारण शापास्मक श्लोक हैं।]
नौसारी-संस्कृत।
[शक ७४३८२१ ईस्वी] यह शिलालेख सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदायका है। [H, H. Dhruva, Zeitschr. d. deut. morg. Gesell., XL,
p. 321, n° VI, a.]
कांगड़ा-संस्कृत। [लौकिक वर्ष ?]=८५४ ई.? (महर)
श्वेताम्बर सम्प्रदायका । [EI, I, I. XVIII (p. 120), t. & tr.]
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रिका लेख
कोर(जिला धारवाड़) संस्कृत ।
[शक सं०७८२-८६० ई.] श्रियः प्रियस्संगतविश्वरूपस्सुदर्शनच्छिन्नपरावलेपः । दिश्यादनन्तः प्रणतामरेन्द्रः श्रियं ममायः परमां जिनेन्द्रः ॥१॥ अनन्तभोगस्थितिरत्र पातु वः प्रतापशीलप्रभवोदयाचलः । सु-राष्ट्रकूटोर्जितवंशपूर्वजस्स वीर-नारायण एव यो विभुः ॥ २ ॥ तदीयभूपायतयादवान्वये क्रमेण वा वित्र रत्नसश्चयः । बभूव गोविन्दमहीपतिर्भुवः प्रसाधनो पृच्छकराज-नन्दनः ॥ ३॥ इन्द्रावनीपालसुतेन धारिणी प्रसारिता येन पृथु-प्रभाविना । महौजसा वैरितमो निराकृतं प्रतापशीलेन स कर्कर प्रभुः ॥ ४ ॥ ततोऽभवदन्तिघटाभिमईनो हिमाचला र्जित-सेतु-सीमतः । ग्वलीकृतोद्वृत्तमहीपमण्डलः कुलाग्रणीः यो भुवि दन्तिदुर्ग-राट् ॥ ५ ॥ खयम्बरीभूतरणाङ्गणे ततस्स निर्व्यपेक्षं शुभतुङ्गवल्लमः । चकर्ष चालुक्यकुलश्रियं बलाद्विलोल-पालिध्वज-माल-भारिणीं ॥ ६ ॥ जयोच्चसिंहासनचामरोजितस्सितातपत्रो प्रतिपक्ष राज्य(ज)हा । अकालवर्षोर्जितभूपनामको बभूव राजर्षिरशेषपुण्यतः ॥ ७ ॥ ततः प्रभूतवर्षोऽभूद्धारावर्षसुतश्शरैः । धारावर्षायितं येन संग्रामभुवि भूभुजा ॥ ८॥ तस्य सुतः
यज्जन्मकाले देवेन्द्ररादिष्टं वृषभो भुवः । भोक्तेति हिमवत्सेतु-पर्यन्ताम्बुधिमेखलाम् ॥ ९॥ ततः प्रभूतवर्षस्सन् स्वयम्पूर्णमनोरथः । जगत्तुङ्गसुमेरुर्वा भूमृतामुपरि स्थितः ॥ १०॥
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कोन्नूरका लेख
१४९
इस.
लेखके दो भाग हो जाते हैं। श्लोक १ से लेकर ४३ तक दानकी प्रशस्ति है । यह दान ८६० ई० में राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथमने दिया था । श्लोक ४४ से लेकर लेखके अन्तिम गद्य तकका भाग जैनधर्म और दो मुनियों-मेवचन्द्र त्रैविय और उनके शिष्य वीरनन्दी की प्रशंसा करनेके बाद, हमें यह सूचित करता है कि वीरनन्दिके पास एक ताम्रशासन ( तांबे के ऊपरका लेख ) था, जिसको बादमें कोळनूर ( कोसर जहांका यह शिलालेख है ) के महाप्रभु हुलियामरस तथा औरोंकी प्रार्थनापर प्रस्तुत शिलालेख के रूपमें उत्कीर्ण किया गया । इस कथनके अनुसार शिलालेखका आदिसे लेकर ४३ श्लोक तकका भाग, जिसमें दान- प्रशस्ति है, ताम्र-शासनके लेखपरसे लिया गया है । वीरनन्दी और उनके गुरु मेन्द्र त्रैविद्य कालसे इस पाषाण लेखके कालका निर्णय एक कीलहॉर्नने स्थूल रूपसे ईसवीकी १२ वीं सदीका मध्य निश्चित किया है । यह काल शिलालेख - निर्दिष्टकाल ८६० ई० (शक सं० ७८२ ) से भिन्न
पड़ता 1
शिलालेख के मुख्य भागमें ( श्लोक १ - ४३ तक ) यह उल्लेख है कि आश्विन महीनेकी पूर्णिमाको सर्वग्राही चन्द्रग्रहणके अवसरपर, जब कि शक सं० ७८२ बीत चुका था, और जगत्तुंग के उत्तराधिकारी राजा अमोघवर्ष ( प्रथम ) राज्य कर रहे थे, उन्होंने अपने अधीनस्थ राज्यकर्मचारी बयकी महत्त्वपूर्ण सेवाके उपलक्ष्य में कोनूरमें बङ्केयद्वारा स्थापित जिनमन्दिरके लिये देवेन्द्रमुनिको तलेयूर गाँव पूरा तथा और दूसरे गाँवोंकी कुछ जमीन दानमें दी । ये देवेन्द्र पुस्तक गच्छ, देशीय गण, मूलसंघके कालयोगीशके शिष्य थे । शिलालेख के प्रारम्भिक भाग ( लोक ३ से ११ ) में अमोघवर्षकी वंशावली दी हुई है । १७-३४ तकके लोकों में केय की सेवाओंकी प्रशंसा वर्णित है। इस भागके अन्तिम अंश (४२ लोकके बाद गद्य अंश और ४३ वें श्लोक में ) लेखकका नाम वत्सराज तथा बक्जेयराजके मुख्य सलाहकारका नाम महत्तर गणपति दिया हुआ है ।
इस शिलालेखपरसे अमोघवर्षकी जो वंशावली निकलती है तथा दूसरे ताम्र-पत्रोंपर जो उत्कीर्ण है उसमें कुछ अन्तर पड़ता है । पाठकोंके जानने के लिये हम यहाँ दोनों वंशावलियाँ दे देते हैं ।
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१५०
इस शिलालेखपरसे १ यादव वंश में,
जैन शिलालेख संग्रह
पृच्छकराजका पुत्र गोविन्द २. राजा इन्द्रका पुत्र कर्कर
३ उसका पुत्र दन्तिदुर्ग ४ शुभतुंगवल्लभ - अकालवर्ष
५ धारावर्षका पुत्र प्रभूतवर्ष
६ उसका पुत्र प्रभूतवर्ष जगत्तुंग
७ अमोघवर्ष
दूसरे ताम्रपत्रोंपर से
गोविन्दराज प्रथम
उसका पुत्र कक्कराज या कर्कराज उसका पुत्र इन्द्रराज
उसका पुत्र दन्तिदुर्ग शुभतुंग - अकालवर्ष ( कृष्णराज . जो कि कर्कराजका पुत्र है ) उसका पुत्र प्रभूतवर्ष ( गोविन्दराज द्वि० )
प्रथम,
उसका पुत्र प्रभूतवर्ष जगत्तुंग ( गोविन्द ) उसका पुत्र अमोघवर्ष ]
[ EI, VI, " 4 ( 1st part ) ]
१२८
देवगढ ( मध्यप्रान्त ) - संस्कृत |
[ विक्रम सं० ९१९ तथा शक सं० ७८४ = ८६२ ई० ]
१ [ ? ] [11] परमभट्टार [क] मह [1] राजाधिराज परमेश्वरश्री-भो२ जदेव महीप्रवर्द्धमान-कल्याणविजयराज्ये
३ तत्प्रदत्त-पञ्चमहाशब्द-महासामन्त-श्री- [वि] ष्ण []
१
४ [र] म- परिभुज्यमा [] " लुअच्छगिरे श्री शान्त्यायत [न] - ५] [] निधे श्री कमलदेवाचार्य-शिष्येण श्री देवेन कारा
६ [प] तं इदं स्तम्भे ॥ संवत् ९९९ अस्व ( श्व) युज-शुक्ल
७ पक्ष चतुर्दश्यां वृ ( बृ ) हस्पति - दिनेन उत्तरभाद्रप
१ 'माने' या 'मानक' । २ 'कारितोऽयं स्तम्भः' यह शुद्ध रूप पढ़ना चाहिये ।
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बड़नगरका लेख ८ दा-नक्षत्रे' इदं स्तम्भ समाप्तमिति ॥०॥ बाजुआ९ गगाकेन गोष्ठिक-भूतेन' इद स्तम्भं घटितमिति ॥०॥ १० [श]ककाल-[ब्द] सप्तशतानि चतुराशीत्यधिकानि
७८४ [1] [इस लेख में उल्लेख यह है कि परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीभोजदेवके राज्यमें जब लुअच्छगिरिपर ( देवगढ़का ही एक नाम मालूम पड़ता है-[एफ. कीलहॉन]) महासामन्त विष्णुरमका शासन था, नब जिस स्तम्भपर यह लेख खुदा हुआ है वह भाचार्य कमलदेवके शिष्य श्रीदेवके द्वारा श्री शान्तिनाथ मन्दिरके पास बनवाया गया था
और यह विक्रम सं. ९१९ के आश्विन सुदी १४, बृहस्पतिवारके दिन उत्तर भाद्रपदा नक्षत्रके योगमें बनकर तैयार हुआ था। बनानेवालेका नाम गोष्ठिक वाजुआगगाक था। इसके अतिरिक्त, अन्तिम पंक्ति शक संवत् , अक्षरों और अङ्क दोनोंमें, ७८४ का निर्देश करती है। ]
[El, IV, n° 44, A]
बड़नगर--संस्कृत। .
[सं० ९३२८८७५ ई.] १ तर प्रसिद्धम् श्री * * * क राज्ये यदु-कुल मल कु * । २ क्त्ययिविद्यनो तत्क्षेत्र भिबिभावितं अछोदेः श्री * ३ दियहागो धनपतेः ककुभि निर्ष मार्गः अस्य मुद्रुन् * ४ मिमस्य शशाङ्क तपनस्थितेः उमनेयं नवहट्टक ।
१ ऽयं स्तम्भः समाप्त इति' ऐसा पढ़ो। २ -भूतेनायं स्तम्भो घटित इति' पढ़ो। ३ ग्रो० बूल्हरकी रायमें 'गोष्ठिक' लोग धर्मदानोंका प्रबंध करनेवाली समितिके सदस्य थे, जिनको आजकलकी भाषामें 'ट्रस्टी' कह सकते हैं।
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जैन- शिलालेख संग्रह
५ स्यम् सं ९३३ वैशाखो सुदि १४ ॥
[ पथारिसे दक्षिणकी ओर करीब ३ मीeपर ज्ञाननाथ पर्वत की तलहटीमें एक झीलके किनारे बारो या बड़नगरके ध्वंसावशेष सुन्दर रीति से अवस्थित हैं । वहाँपर एक 'गडर- मर' नामका मन्दिर है, जो कि किसी गड़रियेका बनवाया हुआ था ।
इस गडरमर मन्दिरकी पश्चिम दिशा में छोटे-छोटे जैन मन्दिरोंका एक समूह है। उसके चतुष्कोण प्राङ्गणके बाहर एक चतुष्कोण छोटे पत्थरपर उक्त शिलालेख मिला था । ]
[ A. Cummingham, Reports, V. p. 74 ] १३० सौदत्ति--संस्कृत तथा कन्नड़ । [ शक ७९७ ८७५ ई० ] लेख
द्वादशग्रामाधिष्ठानस्य सुगन्धवर्तिनम ( सम्म )न्धिनि ॥ ग्रामे मूळगुन्दाख्ये । सीवटे पडू निवर्त्तनं । देवस्य ( ख ) चि (गु) दत्तं । नमयं (स् ) कन्नभूभुजा ॥ तस्य दक्षिणे भागे । तिन्तिणीवृक्षयोद्वयोः । मध्ये या स्थिता भूमि (ई ) ता श्रीकन्नभूभुजा । सुगन्धवर्त्तय सीमेयिन्द पद (डु ) बलू पिरियको मत्तर ६ ॥
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलांटनं ॥ जीया()लोक्यनाश्रस्य शासनं जिनशासनं ॥ श्रीमन्मैळापतीर्थस्य गणे कारेयनामनि [1) वभूवोतपोयुक्तः मूलभट्टारको गणी ॥ तच्छिष्यो गुणवान्सूरिः
दुर्भाग्य से यह लेख दोनों ओर ( प्रारम्भ और अन्तमें) अधूरा ही हैं. इसलिये कनिघम साहब इधर-उधर कुछ शब्दोंकी पृत्तिके बजाय इसके पूर्णरूप से समझने में असफल रहे हैं । अतएव इसका विशेष सारांश भी नहीं दिया
जा सका ।
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सौदत्तिका लेख
१५३ गुणकीर्तिमुनीश्वरः [1] तस्याथामी ( सीदि )द्रकीर्तिस्वामी काममदापहः ॥ तच्छात्रः पृथ्वीरामः लक्ष्मीरामविराजितः [0] सत्यरत्नप्ररोहादिः (मे)चडस्याग्रनन्दनः । श्रीकृष्णराजदेवस्य लक्ष्मीलक्षितवक्षसः [] नम्रभूपालवृन्दस्य पादाम्बुह( रुह )सेवकः ॥ यस्य बालप्रतापाग्निज्वालानिकरशोषितस्ममुद्री (द) पासुहृद्दपरसो निश्शेषको यथा । यस्य राजन्वती भूमिर्जितानन्दकरः करैः [३] राज्ञो यो धीमतो नीतिमार्गो दुर्गभयंकरः ॥ यस्य संक्रीडते कीर्तिहंसी लोकसरोवरे । याख्यं प्रश्र(स )जातं प्रणतारातिभूपतेः ॥ सप्तस(श )त्या नवत्या च समायुक्त (क्ते) स (षु) सप्तषु [] स(श) ककालेश्व ( ब ) तीतेषु मन्मथाह्वयवत्सरे । ग्रामे सुगन्धवत्ताख्ये तेन भूपेन कारिनं [1] जिनेन्द्र भवनं दत्तं तस्याष्टदशनिवर्त्तनं ॥ स्वस्ति ममम्तभुवनाश्रयं श्रीपीवल्लभ ( भं) महाराजाधिराज (जं) परमेवरं ( र ) परमभट्टारकं राष्ट्रकूटकुलतिलकं श्रीमतकृष्णराजदेवविजयगन्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रावतारं बरं मलुत्तमिरे । तत्पादपरोपजीवि ॥ स्वस्ति समधिगतपंचमहाशब्दमहासामन्तं वीरलक्ष्मीकान्तं विरोधिमामन्तनगवज्रदण्डं विद्वज्जनकमटमार्तण्डं सुभटचूडामणि भृत्यचिन्तामणि श्रीमन्महासामन्तेन पृथ्वीरामेण (न) खकारितजिनेन्द्रभवनाय चतुषु स्थलेषु स्थितमष्टादशनिवर्तनं सर्वनमश्यं ( स्यं ) दत्तं ॥ पृथ्वीरामेण (न) यद्दत्तं निवर्त्तनं कार्तवीर्यण भूयः स्वगुरवे दत्तं सर्वबादा (धा) विवर्जितं ।। सूर्योपरागसंक्रान्तो (नौ) कार्तवीर्याप्रकान्तया । श्रीभागला(लां)बिकादेव्या नमश्यं (स्यं) कृतमंजसा ॥
[सौंदत्तिमें जिसका पुराना नाम सुगन्धवर्ती है, एक छोटे जिनमन्दिरकी बाई ओर दीवाल में जड़े हुए पाषाण-शिलापरसे यह लेख लिया गया है । लेखमें अनेक विशेष दान हैं। यह बहुत-कुछ राजाभोंकी वंशावलीका
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१५४
जैन-शिलालेख संग्रह हाल भी बताता है । हम देखते हैं कि रद्दोंमें प्रथम जिसने कि प्रमुख अधिकारी होने का पद पाया था मेरडका पुत्र पृथ्वीराम था। उसको यह प्रमुख अधिपति होनेका पद राष्ट्रकूट राजा कृष्णकी अधीनतामें मिला था। इससे पहिले वह पूज्य ऋषि मैलापतीर्थके कारेय गणमें सिर्फ एक धार्मिक विद्यार्थी था । इस शिलालेखमें कृष्णराजदेवकी उपाधियाँ चालुक्य राजाओंके समान ही हैं तथा चक्रवर्तीकी उपाधियाँ हैं, और हम यह भी देखते हैं कि शक ७९८ में', जो मन्मथ संवत्सर था सुगन्धवर्तिमें उसने एक जिनमन्दिर बनवाया, और इसके लिये १८ 'निवर्तन' भूमि दी । किन्तु यह लेख किसी उत्तरवर्ती समयमें खोदा गया होगा, क्योंकि प्रथम चार पंक्तियोंमें राजा कनके जो कि पृथ्वीरामके :- या पीढ़ी आगे हुआ है, एक दानका उल्लेख आता है । यह दान सुगन्धवर्तिक मुलगुन्दके 'सीवट' में किया गया था।
लेखका वंशावलीका भाग लेख नं. २३७ की रिवंशोद्भवः ख्यातो' पंक्तिसे शुरू होता है। प्रथम नाम ननका आया है । उसका पुत्र कार्तवीर्य था जो चालुक्य राजा आहवमल्ल या सोमेश्वरदेव प्रथमक अधीन था। सोमेश्वरदेव प्रथमका काल मर डब्ल्यू. इलियट (Sir W. Eliot) ने शक ९६२ (ई. १०४०-१) से लेकर शक ९९१ (ई, १.६९-७०) दिया है और इमी लेखसे यह पता चलता है कि कार्तवीर्यने ही कुण्डी (जो कि उत्तरवर्ती लेखोंका 'कुण्डी तीन हजार' है ) की सीमायें निर्धारित की थीं। इसके बाद तीन पीढ़ी बीतनेपर चौथी पीढ़ीमें कार्तवीर्य द्वितीयका नाम आता है । यह चालुक्य राजा त्रिभुवनमलंदव, पेर्माडिदेव या विक्रमादित्य द्वितीय था !]
[JB, S. p. 391-98, insu° ", 1st pert]
बिलियर-कन्नड़ ।
[शक ८०९-८८७ ई.] भद्रमस्तु जिनशासनाय (1) शक-नृपातीता (त) काल-संवत्सगळे१ मूल लेखमें, "शक कालके ७९.७ वर्ष व्यतीत होने पर" है।
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बिलियूरका लेख
१५५ न्तुनूम्बित्तनेय वर्ष ‘प्रवर्तिसुत्तिरे स्वस्ति सत्यवाक्यकोङ्गुणिवर्मधर्म-महाराजाधिराज कुवलाल-पुरवरेश्वर नन्दगिरि-नाथ श्रीमत्पेर्मानडिय राज्याभिषेकं गेल्द पडि नेण्टनेय वर्पदन्दु पा (फा) ल्गुणमासद श्री-पञ्चमे यन्दु शिवणन्दि-सिद्धान्तद-भटारर शिष्यर् स्सर्व (4) णन्दि-देवगै पेण्णे-गडङ्गद सत्यवाक्य-जिनालय के पेड्डोरेगरेय विळियूर्-प्पन्निपटियुभ सर्व-पाद-परिहार पेर्मनडि कोट्टो नोम् भट्टर-मासिवरं अय्-सामन्तरं बेड्डोरेगरेय एल्पदिम्बरं एन्नोकटु इदक्कं साक्षी मले-मासिचरु अय्मुरुमं (अयनूबरूं) अय्-दामरिगरुं इदक्के कापु इदनलिटों बारणासियुमं सासिद्धार्चरुमं सासिरं कविले युमननिळदोम् पञ्चमहापातकनक्कु सेदोजन लिवित्त (त) बेळियूर ऐम्बटुगद्याण पोन्नू एण्टु-नूरु-बट्टमुं तेरुवोम् ।
[ यह दान शकवर्ष ८०९ के चालू रहते हुए फाल्गुन महीनेके पाँचवें दिन, जिस वर्ष पेर्मनडिके राज्याभिषेकका १८ वां वर्ष चालू, था, उन्होंने शिवनन्दि सिद्धान्त- भट्टारके शिष्य सर्वनन्दि-दवको पेड्रोरेंगरेके अन्तर्गत बिलियूरके १२ छोटे गाँव, हमेशाके लिये लगान वगैरः से मुक्त करके, दिये। यह दान पेन-कडङ्गक सत्यवाक्य जिनचैत्यालयके लिये दिया गया था । ऐसा दीखता है कि 'सत्यवाक्य कोङ्गुणिवर्म-धर्म-महाराजाधिराज' पेमनडिकी ही उपाधि या विरुद है । ये दोनों एक ही व्यक्ति हैं, अलग-अलग नहीं। ये कुवलाल-पुरके प्रभु तथा नन्दगिरिक नाथ थे। ___आगे लेखमें साक्षियों तथा संरक्षकोंका परिचय है । इस दानको भङ्ग करनेवालेको अमुक-अमुक पापका भागी बताया है। यह लेख सेदोजका लिखा हुआ है।
बिलियूर की आमदनी ८० गधाण सोना और ८०० (नाप) सन्दुल (चावल) की है।
FEC, I, coory. ins., n° "]
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बन्दलिकेका लेख
तीत-संवत्सर-सतङ्गल एण्डनूर मूवत्त- नाल्कनेय प्रजापति-संवत्सरं प्रवर्त्तिसे स्वस्ति समधिगत- पश्च-महा-शब्द महा - सामन्तं काल्क- देवर सरन्वयदोक् कलिविट्टरसर् बनवासिपन्निर्च्छा सिरमनालुत्तिरे नागरखण्डमेल्पत्तर्क सत्तरर नागार्जुन ना-गाण्ड गय्युत्तु श्री कलिविडरसर् बेस दोलतीतनादोडातन गावण्डगरसर न्नाळू - गावुण्ड-पत्तमनित्तोडे जकियब्बे नाव- गाण्डु गेय्युत्तिरे नण्डुवर कलिगं पेगडेतनं गेय्ये सन्दिगर कुडवुल् कोडङ्गेयूर्गे पेडतनं गेय्युत्तिरे एपदिम्बरुं मूणू
जकियो नुडिदवुतवरं बिडिसिदोर जकियब्बे नागरखण्डमेळपर्क अवुतवूरोलाद नाऊ-गाण्डवागमं बिसुतो देवारके जकिलियो नाकु मत्तल के कोइ ॥
१६३
वृत्तं । उत्तम प्रभु-शक्ति-युक्ते जिनेन्द्र शासन-भक्त कानू- । त्यात्त - विभ्रमे जकियन्त्रे समत्तु नागरखण्डमेल | पत्तुमं वधुवागि निज-वीर विक्रम - गदिम् । पेत्तवं प्रतिपालिसुत्तो सुदिन्द दिवसानदो || तनु रुजेयं पुदुङ्गुलिसे संसृति-भोगमसारमेन्दु निच् । चिनिसि निज- प्रियात्मजेगे सन्ततियं करेदित्तु मोह-बन् । धनद तोडपिनो तोडल्दु मोहिसि निर बल्ले बन्दु बन्- | दनिकेय तीर्थदो तोरदुदञ्चरियं जक्कियब्बेया || वसु-जलरासि वारिदपथं शक- भूताब्द संक्ये वर् । तिसे बहुधान्यमेम्ब वरिषं त्रिक-मासद काळ - पक्षदोऴ् । दसमियोळा - चारदुदितोदित - वेळेयोळमि भक्तियिम् । बसदिगे वन्दु नोन्त पूर्व्वतरं गड जकियन्देया ॥
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जैन- शिलालेख संग्रह
बरेदोम् नागवर्म्म देवारके कोड केयू ग अवुतवूर्ग काळान्तरदोळ्
मोह- सन्दोम् पश्ञ्च महा पातकनकु
१६४
यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् | ( बाजू में ) ई-कल्ल सन्दिगर कुळि बेलेयम्मन मगम्
मुद्दन् निरिसिदोम्....
--
[ जब प्रजापति संवत्सर शक वर्ष ८३४ में, महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक कनर - देवका राज्य प्रवर्धमान था, जिस समय कालिक देवसर - अन्वयके महासामन्त कलिविहरस बनवासि १२००० का शासन कर रहे थे, - नागरखण्ड सत्तरके 'नाळ गावुण्ड' के पदको धारण करनेवाले सतर नागार्जुनके मर जानेपर राजाने जक्कियब्वेको आवुतवूर और नागरखण्ड-सत्तर दे दिया । जक्कियन्येने भी जकलिमें मन्दिरके लिये ४ मत्तल चावलकी भूमि दी । एक बीमारीके समय उसने शक सं० ८४० में, बहुधान्य वर्ष में, पूर्ण श्रद्धा से बसदिमें आकर समाधिमरण ले लिया । ]
१४१ गिरनार - संस्कृत - भग्न | (काल लुप्त )
[ यह लेख नेमिनाथ मन्दिरके दक्षिण तरफके प्रवेशद्वारके पासके प्राङ्गणके पश्चिम दिशा की तरफके एक छोटे मन्दिरकी दीवालपर है । पाषाण टूटा हुआ है । ]
॥ स्वस्ति श्रीवृति
|| नमः श्रीनेमिनाथाय ज
|| वर्षे फाल्गुन शुदि ५ गुरौ श्री
|| तिलकमहाराज श्रीमद्दीपाल
॥ वयरसिंहभार्या फाउसुतसा ॥ सुतसा० साईआ सा० मेलामेला
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गिरनारका लेख
॥ जसुतारूडीगांगीप्रभृती
|| नाथप्रासादा कारिता प्राताष्ट
॥
11
द्रसूरि तत्पट्टे श्रीमुनिसिंह
'कल्याणत्रय
........
अनुवाद:- स्वस्ति श्री धृति ......श्री नेमिनाथको नमस्कार...
... वर्ष ...... फाल्गुन सुदी ५, बृहस्पतिवार, श्री महाराज और......
श्री महीपाल, "के तिलक फाऊ नामकी वयरसिंहकी भार्या; उसका पुत्र माननीय ...उसके पुत्र माननीय साईआ और मेलामेला ... उसकी पुत्रियाँ रूडी, गांगी इत्यादि । इन सबने एक नेमिनाथका मन्दिर बनवाया जिसकी प्रतिष्ठा ... • द्रसूरि के पट्टपर विराजमान श्रीमुनिसिंहने की ............कल्याणत्रय... |
[ ASI, XVI, p. 353 - 354, n° 11
104.
१६५
१४२
सूदी ( जिला - धारवाड़ ) - संस्कृत और कन्नड़ ।
शक सं. ८६० = ९३८ ई०
लेख
पहला ताम्रपत्र
१ श्रीविभाति सुवि (धी ) यस्य निरवद्य [T] निरत् (यू ) अया तस्मै नमोऽर्हते
२ लोक-हित-धर्मोपदेशिने ॥ जित [ - ] भगवता [गत ] - घनग[ग]नाभे-
३ न पद्मनाभेन [ ॥] श्रीमजाह्नवीय कुला[म] यो मावभासन
भास्करः ॥
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१६६
जैन - शिलालेख संग्रह
४ ख- खद्वैक-प्रहार- खण्डित- महा-शीलास्तम्भ-लब्ध-बळ-पराक्रमों दारुणा
५ रि-गण-विदारणोपलब्ध-त्र (व)ण - त्रिभूषण - भूषितः क [[]त्रा६ यन- सगोत्र [:] श्रीमत् कोङ्गुणिवर्म्म-धर्म्म महाराजाधिराजः [11] ७ तत्पुत्रः । पितुरन्वागत-गुण-युक्तो । विद्या विनय विहित-वृत्तिः ८ सम्यक्-प्रजा-पालन-मात्रा वि (धि)गत राज्य प्रयोजनो विद्वत्-कबि-का
९ वन- निकषोप- भूतो नीति शास्त्रस्य वक्तु प्रयोक्तृ-कुशलो दत्तक१० सूत्र - वृत्ते ( : ) - प्रणेता श्रीमन्माधव महाधिराजः | (II) ओं तत्पुत्र [:] पितृ-पैता
११ महगुणयुक्तोऽनेक - चा (च)तु['] द्दन् [ त् ]अ-युद्ध[[]वाप्त-चतुद्वितीय ताम्रपत्र; दूसरी बाजू
१२ रुदधि - सळीवादित्यशाह श्रीम[ []न् हरिवर्म्म - महाधिराजः [II] १३ तत्पुत्रः श्रीमान् विष्णुगोप मह[ [) धिराजः [11] ॐ तत्पुत्रः १४ स्व- भुज-बळ - पराक्रम क्रय-ऋ[]तराज्यः कलियुग-वळ-पङ्काव१५ सन्न-धर्म्म-वृषोद्धरण - निते (त्य) सन्नद्धः श्रीमान् माधव - महाधिराजः । (11) ओं
१६ तत्पुत्र [ : ] श्रीमत्-कदम्ब कुल-गगन - गभस्तिमालिनः । कृप (ष्ण) वर्म्म-स (म)
१७ हाधिराजस्य प्रिय भागिनेयो विद्या विनय-पूरिता
१८ न्तरात्मा निरवग्रह-प्रधान-शौर्यो विद्वत् प्रथमगण्य [ : ] श्रीमान्
१ 'सु' पढ़ो |
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सूदीका लेख १९ कोङ्गुणिवर्म-व (ध)ममहाराजाधिराज-पुर परमेश्वरः श्रीमद्
अविनीत-प्रथम२० नामज (धे ) यः [1] तत्पुत्रो विजृम्भमाण-शक्ति-त्रयः अन्द
रि-आलत्तूर-पुरुळरे-पेण२१ गराधनेक-समर-मुख-मख-ह(यु)त-प्रहत-शूरपुरुष-पशूप-हार
विघ२२ स-विहस्ति(स्ती)कृत-कृतान्ताग्निमुखः किरातार्जुनीयस्य पञ्चदशसर्ग-टीकाकार[:]
दूसरा ताम्रपत्र; दूसरी बाजू २३ श्रीमद्-द] विनीत-प्रथम-नामधेयः [1] ओं तत्पुत्रो दुर्दान्त
श(वि)मई-मृदिते(त)-विश्व[ ]भरा-- २४ रि(धि)प-मो(मौलि-माल(I)-मकरन्द-पु[]ज-पि[]जरीक्ष (क्रि) ____यमाण- चरणयुगल-नलिनः श्री [मुष्कार२५ प्रथम-नामधेयः । [1] ओं तत्पुत्रश्चतुर्दशविद्यास्थानाधिगतेरमल
मतिविशेषतो नि] र२६ वशेषस्य नीति-शास्त्रस्य वक् []-प्रया (यो) क्तु कुशलो रिपु
तिमिर-निकर-सरकरुणोदय-भा२७ स्करः श्री-विक्रम-प्रथम-नामधेयः [1] ओं तत्पुत्रा(त्रो)ऽनेक
समर-संप्राप्त-विजय२८ लक्ष्मी-लक्षित-वक्षस्थलः समधिगत-सकल-शास्त्रार्थः]श्री-भूवि
क्रम-प्रथम२९ प्रयम -नामधेयः ॥] ओं तत्पुत्रः खकीय-रूपातिशय-विजी
(जि) त-नल-भूपा१ इस शब्दकी अनावश्यकरूपसे पुनरावृत्ति हुई है।
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१६८
जैन- शिलालेख संग्रह
३० काराश्शिवमा[र - प्रथम-ना]मध[ ]यः [II] ओं तत्पुत्रः प्रतिदिन - प्रवर्द्धमान महादान - जनित - पुण्यो
३१ हसुळ-मुखरित-मन्दरोदराः श्री कोणिवर्म्म-धर्म्ममहाराजाधि-राजपरमेश्वरः
३२ श्रीसु (पु) रुष - प्रथम - नामधेयः। (II) तत्पुत्रो विमल ग[ ]गान्वयनभ[:]स्थलः र(ग)भस्तिमाली श्रीकों
३३ गुणिवर्म्म- दा (ध) महाराजाधिराज - परमेश्वरः श्री शू[]वमारदेव - प्रथम - नामधेयः ।
३४ शैगोता परनामा [I] तस्य कनीयान् श्री विजयादित्यः । (II) र (त) पुत्रस्समधिगत-राज्य
३५ लक्ष्मी-प(स)मालिङ्गित-वक्षः सत्यवाक्य- कोणिवर्म्म-धर्म्मम - हाराजाधिरा
तृतीय ताम्रपत्र; पहली बाजू.
३६ ज - परमेश्वर[:]श्री - राज मल्ग (ल्ल) - प्र [थ ] मनामधेयस्तत्पुत्रः रामति(दि) - समर - संहा
३७ ल्पि(रि)तोदार-वैरि-वि(वी)रपुरुषो नीतिमार्ग-कोणि-वधर्मराजाधिराज-परमेश्वर[:]
३८ श्रीमद्- एळे (रे) गङ्गदेव - प्रथम - नामधेयः [I] ओं तत्पुत्रः सामियसमर सञ्जनित - विज
३९ [य] श्री श्री सत्यवाक्य- कोङ्गुणिवर्म्म- धर्भमहाराजाधिराज परमेश्वर[:] श्री-राजमल्ल
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सूदीका लेख
१६९
४० प्रथम - नामधेयः । (II)ओं तसु (स्य) कनीयान् निल्लोर (ठि)ते-पल्लवाधिपः श्रीम[द]मोघवर्षदेव
४१ पृथ्वीवल्लभ - सुतया' श्रीमदब्बलब्बायाळ्ह (याः) प्राणेश्वर[ : ] श्रीबुदुग-प्रथम-ना
४२ मधेय : गुणदुत्तरङ्गः । (II) ओं तत्पुत्रः । एळे (रे) यप्प-पट्टबन्धपरिष्कृत - लला [मो] ज ( १ बं)
४३ टेप्पेरुपेरु-प्रभृति-युद्ध-प्रबन्ध - प्रकवि (टि) त-पल्लर (ब) पराजय [:] श्री -[नी] [f] म्]र्ग
४४ रंगिणिवर्म्म र (घ) महाराजावि (धि)राज-परमेश्वर [:] श्रीमदेळे (रे) गङ्गदेव - प्रथम-नामधेयः
४५ कोमर - वेडेङ्गः । (II) ओं तत्पुत्र[:]श्री सत्यवाक्य- कोङ्गुणिवर्म्म-धर्म्ममहाराजाधिराज - परमेश्वर [:]
४६ श्रीमन्नरसि[]घदेव- प्रथम-नामध[ ] यः बी (वी) रवेडङ्गः ॥ ओं तत्पुत्रः कोट्टमरद ....
४७ तोण्णिरग-श्री-नीतिमार्गकोङ्गुणित्रर्म्म-धर्म्ममहाराजाधिराज - परमेश्वर[:] श्री-र[[जम]ल्ल
४८ प्रथम - नामधेयः । कच्छेय-गङ्गः । ( 11 ) ॐ त्रि(वृ) [ ॥] तस्यानुजो निजभुजार्जित सम्पदार्थो
तृतीय ताम्रपत्र; दूसरी बाजू
४९ भूवल्लभ [ - ] समुपगम्य ल (ड) हाड़देशे श्री - बदेगं तदनु त - ५० स्य सुतां सहैव वाक्कन्यया व्यवहदुत्तव (म ) - धीत्रिपु
१ 'निर्लुण्ठित' और भी शुद्धरूप होगा । २ 'सुतायाः' पढ़ो।
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२००
जैन- शिलालेख संग्रह
- ५१ य [ ॥ ] अपि च ॥ लक्ष्मीमिन्द्रस्य हन्तु गतवति दिवि यद् बोगाङ्क (h)
५२ महीशे ह []त्वा ल [ १ ] एय- हस्तात्करि तुरग-सितच्छात्रेनि (सिं)
५३ हासनानि । प्रा[दा]त् कृष्णाय राज्ञे क्षित [f]-पति-गणनाव५४ ग्रणी ( : ) प्रतापात् राजा श्री - बृदुगाख्यस्समजनि विजि - ५५ ताराति-चक्रः प्रचण्डः || कश्चातः किन्ने नागादळचपुर-पतिः ५६ कङ्कराजोऽन्तकस्य बिज्जाख्यो दन्तिवर्मा युनि (धि) निजबनवासी स्व
५७ म राजवम्मी शान्तवं शान्तदेशो तुळुवु-गिरि- पतिर्दाम-रिर्द्दर्पभङ्ग [-]
चतुर्थ ताम्रपत्र; पहिली बाजू
५८ मध्येऽन्तं नागवर्म्मा भयमतिरभसाद् गङ्ग-गाङ्गेय-भू५९ पात् ।। राजादित्य नरेश्वरं गज घटाटोपेन संदर्पित (म्) ६० जिल्ला देशत एव गण्डुगमहा निद्रोट्य' तञ्जापुरीं नाळ्कोटे६१ प्रमुखादि- दुर्ग-निबहान् दग्ध्वा गजेन्द्रान् हयान् कृष्णा६२ य प्रथितन्धनं स्वयमदात् श्री ग[ - ]ग-नारायणः [I] ६३ आयी । एकान्तमत मदोद्धत- कुत्रादि- कुम्भीन्द्र कुम्भ-सम्भेदं ॥ (I) ६४ नैगम- नयादि कुलिशैरकरोञ्जयदुत्तरङ्ग नृपः ॥ गद्यम् ॥ ६५ सत्यनीतिवाक्य को कुणिवर्म्म-धर्म्ममहाराधिराज परमेश्वर [:]
१ 'सितच्छत्र' पढ़ो। २ संभवतः यह पाठ 'किचातः किन्नु' रहा होगा । ३ 'निर्द्धाव्य' पढ़ो |
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मदनूरका लेख
KO
१२ विष्णुवर्द्धनष्षत्रिंशतम् । नरेन्द्रमृगराजाख्यो मृगराजपराक्रमः[I] विजयादित्य- भूपालश्चत्वारिंशत्समाष्टभिः
१३ [||२] तत्पुत्रः कलिविष्णुवर्द्धनोष्यर्द्धवर्षं । त
१४ पुत्रः परचक्ररामापरनामधेयः [[ ] हत्वा भूरिनोडंबराष्ट्र नृपतिमंगिम्महासंग
१५ रे गंगानाश्रितगंग कूटशिखरान्निर्जित्य सङ्घ[[ह] लाधीश संकिलमुप्रवल्लभयुतं यो भ [1] -
१६ ययित्वा चतुश्चत्वारिंशतमब्दकांश्च विजयादित्यो ररक्ष क्षितिं । [३] तदनुजस्य लब्ध
दूसरा पत्र; दूसरी ओर ।
१७ यौवराज्यस्य विक्रमादित्यस्य सुतश्चालुक्यभीम शर्त [[] तस्याग्रजो विजयादित्यः
१८ षण्मासान् [I] तदग्रसूनुरम्म राजस्सप्तवर्षाणि । तत्सूनुमाक्रम्य बालं चालुक्यमीमपि -
१९ तृव्ययुद्धमल्लस्य नन्दनस्तालनृपो मासमेकं । नाना - सामन्तवगैरधिकबलयुतैर्म्म
२० त्तमातंग सेनैर्हत्वा तं तालराजं विषमरणमुखे सार्द्धमत्युप्रते२१ जाः [] एकाब्दं सम्यगम्भोनिधिवलयवृतामन्वरक्षद्धरित्रीं श्रीमांचालुक्य
२२ मीमक्षितिपतितनयो विक्रमादित्यभूपः । [४] पश्चादहमहमिकया विक्रमादित्यास्त
२३ म [य]ने राक्षसा इव प्रजाबाधनपरा दायादराजपुत्रा राज्याभिलाषिणो युद्धमल्लराशि० १२
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जैन-शिलालेख संग्रह २४ जमार्तण्डकण्डिकाविजयादित्यप्रभृतयो विग्रहीभूता आसन् । विग्र
तीसरा पत्र, पहली ओर। २५ हेगैर पंचवर्षाणि गतानि [1] ततः []] योऽवधीद्र [1] जमा
र्तण्डन्तेष[] येन रणे कृतौ [1] क२६ ण्ठिकाविजयादित्ययुद्धमल्लौ विदेशगौर [५] अन्ये मान्यमही
भृतोपि बहवो दु२७ ष्टप्रवृत्तोद्धता (6) देशोपद्रवकारिणः प्रकटिताः कालालय प्रापिताः
[] दोर्दण्डेरि२८ तमण्डलागलतया यस्योप्रसंग्रामकावाज्ञा' तत्परभूनृपैश्च २९ शिरसो मालेर सन्धार्थते । [६] नादग्ध्वा विनिवर्तते रिपुकुलं
कोपाग्निरामूल३० तः शुलं य [स्य] यशो न लोकरविलं सन्तिष्ठते न भ्रमत् []
द्रव्यांभोधरराशिरप्यनुदिनं ३१ सन्तप्यमाने भृशं दारिद्रयोपतरातपेन जनतासस्से न नो वर्षति ।
[७] स चालुक्यभीमनप्ता वि३२ जमादित्यनन्दनः ।] द्वादशावत्समास्सम्या राजमीमो धरातलं। [८] तस्य महेश्वरमू
तीसरा पत्र, दूसरी ओर । ३३ त्तरुमासमानाकृतेः कुमाराभः। लोकमहादेव्याः खलु यस्सम
भवदम्म[रा]३४ जाख्यः ॥ [९] जल जातपत्रचामरकलशांकुशलक्षणां[क]करचर१ शायद सांग्रामिकस्याज्ञा पढ़ो।
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मसारका
णतल: [] लसदाजा-- ३५ न्वत्रलंबितभुजयुगपरिधो गिरीन्द्रसानूरस्कः ॥ [१०] विदितधरा
धिपविद्यो विविधायु३६ धकोविदो विलीनारिकुल: [0] करितुरगागमकुशलो हरचरणांभोज
युग३७ लमधुपश्श्रीमान् ॥ [११] कविगायककल्पतरुईि जमुनिदीनान्ध
बन्धुजन३८ सुरभिः [1] याचकगणचिन्तामणिरवनीशमणिमहोग्रमहसा घुमणिः
॥ [१२] गिरिरसर्वसु३९ संख्याब्दे शकसमये मार्गशीर्षमासेस्मिन् [0 कृष्णत्रयोदश
दिने भृगुवारे मैत्रनक्षत्रे [॥ १३] १० धनुषि रवी घटलग्ने द्वादशवर्षे तु जन्मनः पट्ट [1] योधादुदयगिरीन्द्रो रविमित्र लोका
चतुर्थ पत्र, पहली भोर । ४१ नुरागाय ॥ [१४] स समस्तभुवनाश्रयश्रीविजयादित्यमहाराजा
धिराजपरमेश्वर परम[धा]४२ मिकोम्मराजकम्मनाण्डुविषयनिवासिनो राष्ट्रकूटप्रमुखान् कुटु
म्बिनस्स[7] नित्यमाज्ञापयति []] ४३ आर्या[:]। किरणपुरमधाक्षीकृष्णराजास्थितं यत्रिपुरमित्र महे
शx पा(ण्ड १)रंग[:]प्रतापी [1] तदिह [मु]१४ खसहस्त्रैरन्वितस्याप्यशक्यं गणनममलकीर्तेस्तस्य सत्साहसानाम् ।।
[१५] तस्य[]त्म
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जैन-शिलालेख संग्रह १५ जो निरवद्यधवला:] कटकराजपट्टशोभितललाटः [1] तत्तनयो
विजयादित्यकट४६ काधिपतिः । वृत्तं । तत्पुत्रो दुर्गराज प्रवरगुणनिधिर्धार्मिक
स्सत्यवादी त्यागी भोगी] १७ महात्मा समितिषु विजयी वीरलक्ष्मीनिवासः []] चालुक्यानां च
लक्ष्म्या यदसिरपि सदा रक्षणा[य]-.. ४८ व वंश[:] ख्यातो यस्यापि वेंगीगदितवरमहामण्डलालंबनाय ।
[१६] तेन कृतो धर्मापुरीद]१९ क्षिणदिशि सजिनालयश्चारुतरः [0 कटकाभरणशुभांकितनाम चे पुण्यालयो वसति [॥ १७]
चतुर्थ पन्न; द्वितीय ओर । ५० [श्री] यापनीयसंघप्रपूज्यकोटिमडवगणेशमुख्यो यः [] पुण्या
हनन्दिगच्छो जिननन्दिमुनीश्वरो [थ] ग५१ [ण] धरसदृशः । [१८] तस्याग्रशिष्य प्रथितो धरायाम् (1)
दिव[] कराख्यो मुनिपुंगवोभूत् [1] यत्केवलज्ञाननिधि५२ महात्मा स्वयं जिनानां सदृशो गुणौथैः ।। [१९] श्रीमान्दि___ रदेवमुनिस्सुतपोनिधिरभवदस्य शिष्यो धीम[] []] य५३ म्प्रातिहार्य्यमहिम्ना संप्पन्नमिवाभिमन्यते लोकः [ ॥ २० ] तद
घिष्ठितकटक[]भरणजिनालय[1]५४ य कटकराजविज्ञप्ते खण्डस्फुटनवकृत्याबलिप्रपूजादिसत्रसिद्ध्यर्थमु.
१ इस सम्पूर्ण समाससे 'कटकाभरणशुभनामाङ्कित' अपेक्षित है, जिसके रखसे छन्दोभा हो जाता।
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मदनूरका लेख ५५ त्तरायणनिमित्ते मलियपूण्डिनामग्रामटिका सर्वकरपरिहार(म्)
मुदक
५६ पूवं कृत्वा दत्ता । अस्य ग्रामस्यावधयः पूर्वतः मुंजुन्यहे।
दक्षिणतः यिनिमिलि ॥ पश्चिम]५७ तः कल्वकुरु ॥ उत्तरत[:] धर्मावुरमु ॥ एतद्वामस्य क्षेत्रा
वधयः पूर्वतः गोल्लनि५८ गुण्ठ || आग्नेयत[:] रावियपेरिय ० दु । दक्षिणतः स्थापितशिला ॥ नैर्ऋत्यां स्थ[7] पितशिलैव [0
पञ्चम पन्न। ५९ पश्चिमतः मल्कप को 20 बोयुनट[1] कश्च ।। वायव्यतः
स्थापितशिलैव । उत्तरतः दुब[चे] es Q []] ६० ऐशान्याम् (0) कल्वकुरि ऐल्चोकचेनि सीमैव सीमा ।। [ चूंकि लेखमें एक जैनमन्दिरके दानका उल्लेख है, अतः इसका प्रारम्भ जैनधर्मके मंगलाचरणसे किया गया है । पंक्ति ३ से लेकर ११ में पूर्वी चालुक्य वंशकी 'समस्तभुवनाश्रय' विजयादित्य (छठे) या अम्मराज (द्वितीय) तक की वंशावली है। वंशावली के भागमें ऐतिहासिक महरबके दो स्थल हैं, पहिला (पं० १३-१६) विजयादित्य तृतीयके राज्यका वर्णन करता है और दूसरे (पं. २२-३२) में चालुक्यभीम द्वितीयका अभिषेक अर्थात् राजतिलक है।
शिलालेखमें वर्णित मङ्गि नोलम्बवारिका एक पल्लव राजा और सहित दाहल (या चेदि) का प्राचीन सरदार मालूम पड़ता है । अन्त में इस शासन (लेख) में विजयादित्य तृतीयका एक नया उपनाम परचक्रराम (पं०१४) भाता है। विक्रमादित्य द्वितीयकी मृत्युके बाद बराबर पाँच वर्षतक युद्धमल, राजमार्तण्ड और कण्ठिका-विजयादित्यमें लड़ाई होती रही । मन्दमें राजमीम (या चालुक्यभीम द्वितीय) राजमार्तण्डका वधकर, कण्ठिका
१ या सम्भवतः 'मुंजुन्युरु'।
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जैन शिलालेख संग्रह विवादिस्य और युद्धमलको हराकर या देशनिकाला देकर व्यवस्था एवं शान्तिके स्थापनमें सफल हुमा। __उल्लिखित दान उत्तरायणमें (पं० ५४) किया गया था। दानपात्र एक बिनमन्दिर था, जो धर्मपुरी (श्लोक १७) के दक्षिणमें तथा यापनीयसंघके एक मुनिके अधिकारमें था । इसकी स्थापना 'कटकराज' (पं० ५४) दुर्गराज (श्लो. १६) ने की थी और उन्हींके उपनामसे वह कटकामरणजिनालय (श्लो० १७ तथा पं० ५३) कहलाया । उसकी प्रार्थना पर (पं. ५४) ही दान किया गया था, और दानके वर्णनका भाग उसके कुटुम्बकी बंशावली के वर्णनसे शुरू होता है। कहा गया है कि उसके पूर्वज पाण्डुरंगने कृष्णराज (श्लो. १५) के निवासस्थान किरणपुरको जला दिया था, और तदनुसार वह विजयादित्य तृतीयका कोई सैनिक अधिकारी होना चाहिये। उसके पुत्र निरवच धवलको 'कटकराज' का पट्ट दिया गया था (पं० ४४)। उसका पुत्र 'कटकाधिपति' विजयादित्य (पं० ४५) था, और उसका पुत्र दुर्गराज (श्लो० १६) था।
दान की गई चीज मलिपपूण्डि (पं. ५५) भामका एक छोटा गाँव या; यह कम्मनाण्डु (पं० ४२) जिलेमें था । इसकी सीमाएं पंक्ति ५६ में दी गई हैं। उत्तरकी सीमा धर्मवुरमु (धर्मपुरी) के दक्षिणमें यह बिनालय था।
[• E1, 1x, n° 6]
१४४ कलुचुम्बरू (जिला भतीली)-संस्कृत तथा तेलुगू। [विना कालनिर्देशका (ई. सन् ९४५ से ९७० के लगभग)]
ओं खस्ति श्रीमतां सकलभुवनसंस्तूयमानमानव्य-सगोत्राणां हारिति-पुत्राणां कौशिकीवरप्रसादलब्धराज्यानाम्मागणपरिपालितानां खामिमहासेनपदानुध्यातानां भगवन्नारायणप्रसादसमासादित-वर-वराहलाञ्छनेक्षणक्षणवशीकृतारातिमण्डलानामश्वमेधावभृतनानपवित्रीकृतवपुष चालुक्यानां कुलमलंकरिष्णोस् सत्याश्रयवछमेन्द्रस्य भ्राता []]
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फलुम्बुम्बरुका लेख
श्रीपतिर्विक्रमेणाद्यो दुर्जयाद्बलितो हृतां अष्टादशसमाः कुब्ज - विष्णुजिष्णुर्महीमपालयत् 1 (11)
तदात्मजो जयसिंहस्त्रयस्त्रिंशतं [1] तद
दूसरा पत्र; प्रथम ओर
नजेन्द्रराज - नन्दनो विष्णुवर्धनो नव । तत्सूनुर्भङ्गी-युवराजः पश्ञ्चविंशतिं । तत्पुत्रो जयसिंहस्त्रयोदश ॥ तस्य द्वैमातुरानुजः कोकिलिः षण्मासान् [I] तस्य ज्येष्ठो भ्राता विष्णुवर्द्धनस्तमुच्चाव्य सप्तत्रिंशतम् । तसुतो विजयादित्यभट्टारकोऽष्टादश । तत्सुतो विष्णुवर्द्धनः षट्त्रिंशतं । तत्सुतो नरेन्द्र मृगराजरसाष्टचत्वारिंशतं । तत्पुत्रः व. लि-विष्णुवर्द्धनोऽध्यर्द्ध-वर्ष [II] तःसुतो गुणग- विजयादित्यश्चतुश्चत्वारिं
शतं । अथवा ।
सुतस्तस्य ज्येष्टो गुणग· विजयादित्य-पतिरंककारस्साक्षादूवल्लभनृप - समभ्यश्चितभुजः प्रधानः शूराणामपि सुभट
दूसरा पत्र दूसरी तरफ
चूडामणिरसौ
चतस्रश्वत्वारिंशतिमपि समा भूमिमभुनक् ॥ तद्भ्रातुर्युवराजस्य विक्रमादित्यभूपतेः । शत्रुवित्रासकृत्पुत्रो दानी कानीनसन्निभः ॥ जित्वा संयति कृष्णवल्लभमहादण्डं सदायादकन् (!) दत्वा देव-मुनि- द्विजातितनयो धर्मार्थमर्त्यम्मुहुः । कृत्वा राज्यम[क]ण्टकन्निरुपर्म संवृद्धमृद्धप्रजं भीमो भूपतिरम्बभुंक्त भुषनं न्यायात् समाविशतं ॥
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जैन - शिलालेख संग्रह
तदनु विजयादित्यस्तस्य प्रियतनयो महानधिक नदस्सत्य-त्याग - प्रताप - समन्वितः । परहृदयनि [ ]भेदी नाम्नैव कोल्लविगण्ड-भूपतिरकृत षण्मासान् राज्यन्नयस्थितिसंयुतः ॥
तस्याप्रसूनुरपराजितशक्तिरम्मराजः पराजितपरावनिराजराजिः । राजा भवद्विदितराज महेन्द्रनामा वर्षाणि सप्त सरणिः करुणारसस्य ॥
तस्यात्मज विजयादित्यबालमुच्चाट्य श्रीयुद्धमल्लात्मजस्ता पराजो मासमेकमरक्षीत् ॥ तमाहवे विनिर्जित्य चालुक्यभीमतनयो विक्रमादित्यो विक्रमेणाक्रमे निक्षिप्य नत्र मासानपालयत् ॥ ततो युद्धमल्लतालप - राजाग्रजन्मा सप्त वर्षाणि गृहीत्वाऽतिष्ठत् ॥
तत्रान्तरे विदितको गण्ड सूनो
द्वैमातुरो विनुत- राजमहेन्द्र-नाम्नः
भीमधिपो विजितभीमबलप्रतापः
प्राचीं दिशं विमलयन्नुदितो विजेतुम् ॥ श्रीमन्तं राजमय्यन्-धळा-मुरुन्त (त) रनू तातबिकि प्रचण्ड बिज्जं स[ज्जं च] युद्धे बलिनमतितरामय्यपं भीममुप्र दण्डं गोविन्द राज - प्रणिहितमधिकं चोळपं लोवबिकिं विक्रान्तं युद्धमल्लं घटितगजवटान् सन्निहत्यैक एव ॥ भीतानाश्वासयन् सच्छरणमुपगतान् पालयन् कण्टकानुत्सन्नान् कुर्वन् सुगृहन् करमपरभुवो रञ्जयन् खं जनौघं ।
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क. मान-बाटिका, या मामके पेडोंका बमीचा ७. धन-वाड़ी, या धन उधान-मवन । ए० कनिंघमने सम्बत् १०११ को सुधारकर और युक्तिपूर्वक सिद्ध कर इसको सं० ११११ पढ़ा है। शिलालेखका पूरा श्लोक प्रो. एफ कीकहोनेने इस तरह शुद्ध किया है:
निजकुलधवलोयं दिव्यमूर्तिः सुशील:
समदमगुणयुक्तः सर्वसत्वानुकम्पी। सुजनजनिवतोषो धनराजेन मान्यः प्रणमति जिननाथं भव्यपाहिल्लनामा ॥१॥]
सुहानिया [ग्वालियर]-संस्कृत ।
- [सं० १०१३=९५६ ई .] संवत् १०१३ माधवसुतेन महिन्द्रचन्द्र केनकभा (खो ? )दिता [सुहानियामें माधवके पुत्र महेन्द्र चन्द्र ने एक जैन मूर्ति प्रतिपित की । संवत् १०१३ ।]
[JASB, XXXI, p. 399, a; p. 410, t.] [ ई० ए० जिल्द ७, पृ० १०१-१११ नं० ३८ १-५१ की पंक्तियाँ ]
लक्ष्मेश्वर-संस्कृत।
[शक ८९०=९६८ ई.] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।।
१ यह 'प्रतिष्ठिता' का अपभ्रंश मालूम पड़ता है।
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जैन- शिलालेख -संग्रह
स्वस्ति जितं भगवता गतघनगगनाभेन पद्मनाभेन [II] श्रीमजाहबीय कुलालव्योमावभासनभास्करः खखङ्गैकप्रहारखण्डितमहा शिलास्तम्भलब्धबलपराक्रम दारुणारिगणविदारणोपलब्धत्रणविभूषणविभूषितः कण्वायनसगोत्रः श्रीमान् कोङ्गणिवर्म्मधर्म्ममहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीमाधवप्रथमनामधेयः ॥ तत्पुत्रः पितुरन्वागतगुणयुक्तो विद्याविनयविहितवृत्तः सम्यक्प्रजापालनमात्राधिगतराज्यप्रयोजनो विद्वत्कविकाश्चननिकषोपलभूतो नीतिशास्त्रस्य वक्तृप्रयोक्तृकुशलो दत्तकसूत्रवृत्तेः प्रणेता श्रीमन्माधव महाराजाधिराजः ॥ तत्पुत्रः पितृपितामहगुणयुक्तो (S) नेकचतुर्द्दन्तयुद्धावातचतुरुदधिसलिलाखादितयशः श्रीमद्ध रिवमहाराजा
धिराजः ॥
अपिच ॥ वृत्त |
आसीज्जगद्गहनरक्षणराजसिंहः
क्ष्मा मण्डलाब्जवन मण्डनराजहंसः । श्रीमारसिंह इति बृंहितबाहुकीर्त्ति - स्तस्यानुजः कृतयुगक्षितिपालकीर्तिः ॥
आदेशाद्देवचोलान्तकधरणिपतेर्गंगचूडामणिस्त्वां वेगादभ्येति योद्धुं त्यज गजतुरगव्यूहसन्नाहदर्थम् । गङ्गामुत्तीर्य गन्तुं परबलमतुलं कल्पयेत्पाप दूतैविज्ञप्तं गुर्जराणां पतिरकृति तथा यत्र जैत्रप्रयाणे || पद्माम्भोरुहभृङ्गभृत्यभरणव्यापारचिन्तामणिः
संत्रासग्रह विह्वलीकृतरिपुक्ष्मापालरक्षामणिः विद्वत्कण्ठविभूषणीकृतगुणप्रोद्भासिमुक्तामणिदेवस्सज्जनवर्णनीयचरित श्रीगङ्गचूडामणिः ॥
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'मन्दाकिन्या जिनेन्द्रसपनाविधिपयस्स्यन्दसम्पादितायाः
कालिन्चाचण्डवैरिग्रहतगजमदखेतनिवर्तितायाः । • सम्मेदे श्रीनिकेताङ्गणभुवि भवतो गाकन्दर्पभूष
व्यातन्यो दिग्वधूनां विधुविजयी (यि) यशो हारमाचन्द्रतारम् ॥ अपि च ॥ वृत्त। निर्बादोज्ज्वलबोधपोतबलतस्सिद्धान्तरनाकरम् चारित्रोत्प्लुतयानपात्रबलतस्संसारमीनाकरम् । उत्तीर्णस्समुदीर्णभक्तिविनर्बन्धाभिधानो बुबै
रासीद् देवगणाग्रणमर्गुणनिधिद्देवेन्द्रभट्टारका ॥ उद्दामकामकलिनिलनैकवीर
स्तस्यैकदेव इति योगिषु देव एकः । शिष्यो बभूव हृदि यस्य दधाति भन्यो
रतत्रयं शिरसि यचरणद्वयं च ॥ महितस्य तस्य महितैर्महतां, प्रथमस्य च प्रथमशिष्यतया । जयदेवपण्डित इति प्रथितः, प्रथमानशास्त्रमहिमद्रविणः ।। अपि च ।। गद्य ॥
तस्मै स भुवनैकमङ्गलजिनेन्द्रनित्याभिषेकरनकलशः स तु सत्य वाक्य कोङ्गणिवर्म-धर्ममहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीमारसिंहदेवप्रथमनामधेयः गङ्गकन्दप्पः ॥ शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टेसुनवस्युत्तरेषु प्रवर्गमाने विभवसंवत्सरे बहवसति-तीर्थवसतिमण्डलमण्डनस्य गङ्गकन्दपेजिनेन्द्रमन्दिरस्य दानपूजादेवमोगनिमित्तं पुलिगेरे नगरात्पूर्वस्यां दिशि तल-वृक्ति दत्ते स्म [1] तस्यास्सीमा समाख्यायते तथया । १शुपाठ संभक्तः भूपस्मातेने होना चाहिये।
शि० १३
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कुमारीसरसः पूर्वस्यामाशायामेकनिवर्तनान्तरादुरलयुगलादक्षिणस्या दिशि वेल्कनूरामपश्चिमसीनः पावकदिशि कोशितटाकपुरोवर्तिनशिलासरसस्समीरणदिकोणे हस्ति-प्रस्तरात् पश्चिमस्यां दिशि वट-तटाकपुरोनिकटनिनोत्तरदिग्वर्तिनः कृष्णपाषाणादुत्तरस्यां दिशि नागपुरप्राममार्गादक्षिणस्यां दिशायां मळिगमार्चण्डगृहक्षेत्रादेशान्यां दिशायामानीलशिलायाः पुनः पश्चिमस्यां दिशि कृष्णसरसबाउत्तरजलप्रवाहनिर्गमादुत्तरस्यां दिशि नीलिकार-तटाकागतप्रवाहादुत्तरस्यामाशायामेकनिवर्तनान्तरे वायव्यदिक्कोणवतिरक्तपाषाणपार्थवर्त्तिन्याशम्या । पूर्वदिग्मुखेनागत्योत्कीर्णादरुणपाषाणामागपुरग्राममार्गस्योत्तरपार्थे पूर्वदिग्मुखेन गत्वोत्तरदिशं प्रति निवृत्तात्पश्चिमदिशायामेकनिवर्त्तनान्तरे पूर्वोत्तरदिशि कृष्णपाषाणादक्षिणस्यामाशायां शमी-कन्थारीगुल्मान्तशैतानीलशिलायाः पश्चिमतः पुरोक्तव्यक्तपाषाणयुगले सङ्गता सीमा [1] प्राक्प्रकाशितकृष्णसरःपुरोभागवर्तीनि षग्निवर्त्तनान्यम्यन्तरीकृत्य सुष्ठि( स्थी)कृतानि षष्टि-शतं निवर्त्तनानि ॥ तस्मादेव नगरादूरुणदिग्भागवर्त्तिन्यास्तलवृत्तेस्सीमा समानायते तद्यया । देशग्रामकूटक्षेत्राद्वायव्यां ककुभि त्रिशमीरक्तोपलाद् वायव्यामाशायामेकशम्या आखण्डलदिशायामेकदण्डान्तरादरुणपाषाणादायकोणवर्त्तिनो विशालशमीकन्यारीजालात्पश्चिमस्यां दिशि श्रेष्ठितटाकदक्षिणजलप्रवाहनिर्गमाद् बल्लभराजमार्गात् पूर्वस्यामाशायां कन्यारीगुल्मात् सवसी-प्राममार्गादक्षिणतश्शमीकन्यारीकुलात् कुबेरककुभो वायव्यायामाशायां ज्येष्ठलिज भूमेनिया हरितकृष्णपाषाणात् पूर्वस्वां दिशि वलभराजमागर्गात् पश्चिमस्यामाशायामुत्तरदिग्मुखप्रवृत्तमहाप्रवाहान्तर्गतकिारपाषाणाद् दक्षिणस्यां दिशायामन्यकारक्षेत्रात् पश्चिमसीमि प्राक्स
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कटीकृतादेशमामकूटक्षेत्रा वायव्यां दिशि त्रिशमीशोणपाषाणे सीमा समागता । एवं पश्चिमदिग्वन्तीनि चत्वारिंशच्छत निवर्त्तनानि ॥ शशवसन्त्रसवदिशि निवर्त्तनमात्रः पुxप (पुष्प) वाटः पश्चिमदिशि च निवर्तनद्वय द्वपदो (1) पुरुप (पुष्प) वाट: ॥ तस्य चैत्यालयस्य पुरप्रमाणमाख्यायते [1] पूर्व्वतः वाळवेश्वरपश्चिमप्राकारः पावकदिशि च कारदेवगृहसीमान्तम् [1] तत्पश्चिमतः वारिवारणसीमां कृत्वा दक्षिणस्या दिशि पुप (प )वाटा (?) जचैत्यपुरपुरः श्री मुक्करवसतेः पश्चिमस्यां दिशि गोपुरपर्द्धन्तात् पश्चिमदिग्वर्त्तिदेवगृहद्वयमम्यन्तरीकृत्य मरुदेवीदेवगृहस्य पश्चाद्भागादुत्तरस्यां दिशि चन्द्रिकाम्बिकादेवगृहात् पूर्व्वतः मुक्करव सतिं प्रविष्टीकृत्य रायराचमत्रसर्ति (ति) दक्षिणप्राकारः ततः पूर्व्वतः श्री विजयवसतिदक्षिणप्राकारः ई (ऐ ) शान्यां दिशि कणटेश्वरदेवगृहं तदक्षिणतः पूर्वोक्तवाळवेश्वर पश्चिमसीमा [I] देवनगरात्पश्चिमदिशि पुरुप (प )त्राटद्वयनिवर्त्तनक्षेत्रं दत्तम् ॥ तस्य सीमा पृथक्तियते [i] परक्सरसः पूर्व्वदिशि तपसीनामपथादुत्तरतो पुरुप (प) त्राटनिव र्त्तनमेकं । गङ्ग-पेमडिचैत्यालयपुप (ध) बाटादुत्तरतो निवर्त्तनमेकं नागवल्लीवनम् । एवं गङ्गकन्दर्पभूपाळ जिनेन्द्र मन्दिरदेव भोगनिमित्तं निवर्त्तनशतत्रयमात्रक्षेत्रं पुष्प (ष्प) वाटत्रयमुवशदेशग्रामकूटाकारविष्टिप्रभृतिबाधापरिहारं मनोहरमिदम् ॥ श्लोक ||
बहुभिर्व्वसुधा दत्ता राजाभिस्सगरादिभिः ।
यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ महूशंजा: परमहीपतिवंशजा वा
15
पापादपेतमनसो मुवि माविभूपाः ।
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PA
जैन शिलालेखसंग्रह ये पालयन्ति मम धर्ममिमं समस्त
तेषां मया विरचितोऽचलिरेष मूर्षि ॥ .. ... [पा शिलालेख धारवाड़ जिले के दक्षिण-पूर्व कोनेकी भोर मिरज रियासक्के लक्ष्मेश्वर तालुकेके प्रसिद्ध शहर लक्मेवारके शहवसति नामके मन्दिरमें पत्थरकी एक लम्बी शिलापर है। इसमें ८२ किया है। मक्षर पसी सताब्दिकी पुरानी कर्णाटक (कर) लिपिके हैं। इसमें तीन विमिशिलालेख समाविष्ट है।
पहला भाग-१ से लेकर ५१ वी पंक्तितक गाथा कोहु वंशका शिलालेख है। इसमें उशिलित दान, ८९० शा वर्षके व्यतीत होनेपर और जब विमल संवत्सर प्रपतमान था, मारसिंहदेव-सत्यवाक्ष-कोजाणिवर्मा, के द्वारा जिन्हें गा-कन्दर्प भी कहते थे, जयदेव नामके एक जैन पुरोहित (पण्डित)को किया गया था। विमव संवत्सर शक ८९० ही था और भक ८९ शुद्ध संवत्सर था, इसलिये शिलालेखका समय ठीक दिया हुमा है। यह दाम पुलिगेरे (जिसका अर्थ होता है बीतेके तालाबका नगर) नगरकी कुछ भूमियोंका था। इस 'पुलिगेरे नगरको मिस्टर पलीउने लक्ष्मेश्वरका ही पुराना नाम माना है। पह दान एक जैनमन्दिरके लिये, जिसे इसमें 'गजकन्दर्प जिनेन्द्रमन्दिर' कहा गया है, किया गया था। इस मन्दिरको स्वयं मारसिंहदेवने बनवाया या उसका जीर्णोद्धार किया था।
वंशावली इस तरह दी गई है:
माधव-कोजाणिवर्मा (या माधव प्रथम)
माधव द्वितीय
इरिवर्मा .. मारसिंह मारसिंहदेव-सलवाक्य-कोजाणिवर्मा,
या
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ह
, दि .
१09-11१.० ३८ (43
कियाँ)]
[शक ८९५-९७१०] [कहरमें, किलेके दरवाजे के एक सम्मपर ] (पश्चिममुख ) खस्ति श्री-कोण्डकुन्दान्वय देशिय-गण-मुख्यर देवेन्द्रसिद्धान्त-भटार-रवर पिरियशिष्यर चान्द्रायणदमटाररवर-शिष्यगुणचंद्र-भटारवर-शिष्यर् श्रीमदभयणन्दि-पण्डिस-देवर नाणब्बे-कन्तियर शिशिन्तियडियर-दोरपय्यन पिरियरसि पाम्बन्बे तले वरिदु मुवत-वरिसं तपं गेय्दग्दै नोन्तुच्छम-ठाणमेरिदबरेदोनवर मर्ग विडि.........
(उत्तरमुख) परसे महाप्रसाददोळोरेवकनिम्मडि-पोरनोल्दुतन्न् ।
अरसुममौल्य-वस्तुगळुमं कुड़े बूतुगनकनेन्दु विस् । तरिसे धरित्रि जीय बेसनेनेने सन्दिबु सन्दवल्लेविन्द । अरसु दलेन्दु पाम्बवेगळन्तु तपो-नियमस्तरादोर (आदोर) आर || स्वस्ति यम-नियम-खाध्याय-ध्यान-मोनानुष्ठान-परायणे( यणे )यरप्प श्री-पाम्बबेकन्तियरय्दं नोन्तुच्छम-हाण-मेरिदर। बरेदोनवर मगनईदभक्तम् ।
(दक्षिण मुख) [अपरका लोक, जो 'परसे' इत्यादिले शुरू होता है, यहाँ दुहराया गया है।
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हेमावतीका लेख
२०५ ये दोनों खम्भवत् (विशाल) मूर्तियाँ (विक्रम सं०. १०३८ और ११३५ [शि. ले. नं. २११]) दिसम्बर १८८९ में, श्वेताम्बर संप्रदायके मालूम पड़नेवाले मध्यवर्ती मन्दिरके पास मिली थीं। ' महमूद गजनवी (गजनीका रहनेवाला) के द्वारा मथुराका विनाश ई. सन् २०१८ में हुआ। उक्त प्रतिमा (सं० १०३८-९८१ ई. की) इस विनाशसे पहिलेकी स्थापित हुई हैं और शि. ले. नं. २११ की इस घटनाके करीब ६० साल बाद । आक्रामकने चाहे-जितना विनाश किया हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि जैन लोगोंके पास उनके पवित्र स्थान विना किसी ज्यादा बाधाके बने रहे । ]
[ Antiquities of Mathura (ASI, XX), p. 53, t. ]
श्रवणबेलगोला-कमड़-भन्न । [वर्ष चित्रभानु-९४२ ई० (लू. राइस)]
[जैन शि० ले० सं०, भाग १]
श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कपड़
[शक ९०४-९८२ ई.] - [जैन शि० ले० सं०, भा० १]
हेमावती-काड़
[शक ९०४-९८२ ई.] [ हेमावतीमें, पूर्वकी तरफके खेतमें पाषाणपर ] उद्द-वळमेळेवरेम्बुदे । बिई मुन्नल्लि कडुपिनोळ बहु-विधदिन्द् ।
उद्द-वळमेळेदु मुरिगुम् । बिइमेनल् बलन्द पोरगनेळेवचेडङ्गम् ॥
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२०६
जैन-शिलालेख संग्रह एरकमल्लदे पोल्लदागेरगि दोरेकामे कोळ्व तेरनल्लदें। नेरेये बरल् तक्कडियल्लि विसुवल्लिये बिस अरिदयिल्ल । परियना दिष्टि मुरिवल्लि कडुपिनोळ मुरिदयिल्लिल्लिय बिनणवन् । नेरेये कल्पदे बीरर बीरनं गिडेगळाभरणनं नेडिकल्छ । आसुवर्नु कूसुवनुम् । बीसुवर्नु गडेय नेगळ्द तक्कडियोळेनुत्त् । आसदेयु कुङ्कदेयुम् । बीसन्देयु बिद्द मेळेगुमेळेव-बेडङ्गम् ।। एरगरियदे मेण्टुकम्मगुळ्दुं बरलणमरियदे तप्पा पिन्दम् । तेरेननरियदे भागमनिक्कियु मूरेडेगल्लदे कट्टाडियु मुरिये पायिसिद । तुरुय कोन्दु धरेगेडेतेगे गेडेयिवनेनिसदं । नेरेये कड्ड-जाणनेनिमल्के बकुमे गडेगळाभरणन कल्लदन्नम् ॥ काल्गळ कयगळ तुरगद । कोल्गळ तिणियुगोळल्लि बञ्चिसुतेळेगुम् । गेल्गुमेने नेगळ्द मार्गदे।
गेल्गुमे बणेदल्लि कीर्ति-नारायणनम् ॥ वनधि-नभो निधि-प्रमित संख्य-स(शोकावनिपाळ काळमं । नेनेयिसे चित्रभानु परिवर्तिसे चैत्र-सितेतराष्टमीदिन-युत-भौमवारदोळनाकुळ-चित्तदे नोन्तु तान्दिदम् ।
जन-नुतनिन्द्र-राजनखिळामर-राज-महा-विभूतियम् ॥ [एरेव-बेडगम्, कीर्ति-नारायणके युद्धमें शोके कार्योंका वर्णन । (उक्त मितिको) अनाकुल चित्तसे व्रतोंको पालते हुए, प्रसिद्ध
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२०७
माडिका लेख . इन्द्रराजने स्वर्गकी विभूति पाई-(अर्थात् मर गये)
[ EC, XII, Sira tl., n° 27.]
१६५ श्रवण बेल्गोला-संस्कृत [विना काल-निर्देशका ]
[जै. शि. ले. सं., मा. १.]
१६६
अङ्गाडि-संस्कृत तथा काड़-भग्न
[काल लुप्त, पर लगभग ९९० ई० का] [ अङ्गाडि ( गोणीबीड परगना ) में, बसदिके पासके पाषाणपर ]
( सामने ).................."सुद पञ्चमी-बृहस्पति वारदन्दु खस्ति यम-स्वाध्याय-ध्यान-मौनानुष्ठान-परायणरप्प द्रविळ-संघद.... अद श्री-कोण्डकुन्दान्वयद त्रिकालमौनि-भट्टारक शिष्यर श्रीमदिरिवबेडेङ्गठन गुरुगळ् बिमलचन्द्र-पण्डित-देवर् सन्यासन-विधियिं मुडिपि मुक्तियनेरिददर ।। ( पीछे ) श्रुत-विमळादिचन्द्र...." श्रीमनु.............."पण्डिताहृयसु-विमळचन्द्र-मुनिः ॥
नमो विमळचन्द्राय कळाकळित-मूर्तये ।
सत्त्वात् सद्-बुधसेव्याय शान्तामृतमयात्मने ॥ श्री-विमळचन्द्र-पण्डित-देवर गुड्डी हवुम्ब्बेया तङ्गे शान्तियम्बे तम्म गुरुगळ्गे परोक्ष-विनयं गेग्दर् ॥
[(साधु-गुणोंसहित ), दविल-संघ, कोण्डकुन्दान्वय तथा पुस्तकगच्छके त्रिकालमौनि-भट्टारकके शिष्य,-श्रीमद् ईरिव-मेटेज.. के गुरु,
१ उसका काल और अंतिमावस्थाका कथन वही है जो श्रवणबेलगोला नं. ५७ के शिलालेखमें हैं । इन्द्रराज अन्तिम राष्ट्रकूट राजा था।
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२०८
जैन-शिलालेख-संग्रह विमलचन्द्र-पण्डितदेवने, संन्यास-विधिसे मरण कर, मुक्ति प्राप्त की। पण्डित पदके साथ बिमलचन्द्रमुनिकी प्रशंसा।
विमलचन्द्र-पण्डित-देवकी गृहस्थ शिष्या हयुम्बेकी छोटी बहिन शान्तियग्वेने अपने गुरुके स्वर्गवासके उपलक्ष्यमें स्मारक खड़ा किया।]
[EC, VI, Mudgere tl., n° 11]
पञ्चपाण्डवमलै-तामिल [ काल लगभग ९९२ ई.)
१ स्वस्ति
२ [को] विराजराज [क] [सर] व न] मर्कु याण्डु ८ आ [व]दुपडुवू[ ]त्तुप्पेरुन्-तिमिरिनाटुतिरुप्प[]न्मलैप्पो___३ गमागिय कूरगनिप्]ाडि [इ] रैयिलि पाळ]लिञ्चन्दत्त की []-प्[प]ग[लां][इ लाडर[[]जर्गळ कर्पूर-विले को [ण्डु इ] द्धा में मङ्के
४ टुप्पोगिन् रडेन् रु उ]डैयार इला[ड] राजर् पु[ग] ब्धिएवर्-ग] ण्डन् मग[ना]र वीरशोळ तिरुप्पान् ] मलै देवरेत्तिरुव
५ (डित्तोल [देळुन् ]द[रु]ळि इ []उक्क इ[व]र देवियार् इलाडमह[]देवि[य]र कर्पूर-विलैयुमन्निया[य]वावदण्डविरै [यु] म []. ६ जिन्द[रुळ वेण्डुमेन्रु विष्णप्पजेय् [य उ]. या] [वी] र-शोळर् कर्पूर-विलैयुमन्निया[य] वावदण्ड विरै
७ युमो [v] f जोमेन्ररुञ्चेय्य [य] ऊर् किळ [बन्] | गि[य वी] र-शोळवि-लाड-प्पेर [२] * यानु/डैयार [क] मियेया
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२०९
पञ्चपाण्डवमलैका लेख ८ पत्तियागविदु' कर्पूर-विलैयुमन्नियाय-[वा] वदण्ड[व] इरैयुमोळि __ अ शासनाञ्चेप्द-पडि [1] इदु [व]९ ल [द] उ कर्पूर-विलैयुमन्नियाय-बाबदण्डव्-इरैयुमिप्पण्ळिञ्चन्द
त्तक्कोळ्[ ]नि गङ्गैयि१० डै [कुमरिय] इडैच्चेप्दार शे[य] द पा [व]ङ्कोळ्वारिदुवल्लदिप्प
लिच्चन्दत्तै केडुप्यार वल्लबारे ११ ..''[न ]रु[व] [1] [] छ [मत्] तै [रक्षिप्पान् पादळिय्
एन्-रिलै मे लीन {T] अर[म]रवर्क अरमल्ल तु[ण) यिल्लै । [यह शिलालेख तमिल गयकी ११ पंक्तियोंका है । लेखकी दूसरी पंक्तिमें राजराज-केशरीवर्मनके राज्यका ८ वां साल इसका काल बताया गया है । प्रस्तुत लेख महाराजा राजराज चोलके राज्य कालका है । यह ९८४८५ ई. में गद्दीपर बैठे थे। इस लेखमें किसी विजयका वर्णन नहीं है। इस शिलालेखके नीचे एक पशु बनाया गया है, वह चीता होना चाहिये, क्योंकि चोल राजाओंका वह चिह्न रहा है।
लेखमें (पंक्ति ३) लाटराज वीरचोलका एक शासन है । वह चोल राजा राजराजका कोई अधीनस्थ राजा होना चाहिये, क्योंकि राज्यकाल उसीका (राजराजका) दिया हुआ है। लाटराज वीर-चोल पुगविप्पवर गण्डका पुत्र था । वीर-चोल और उनके पूर्वजोंके नामके पहले लाटराज ऐसा बिरुद लगा रहनेसे मालूम पड़ता है कि ये लोग पहले किसी समय लाट (गुजरात) से आये थे। __यह अभिलेख इस बातका उल्लेख करता है कि अपनी रानीकी प्रार्थना पर वीर-चोलने तिरुप्पान्मलैके देवताके लिये (पं०४) कूरगन्पाडि गाँवसे कुछ आमदनी बाँध दी थी।
यद्यपि चैत्यालयका नाम सिर्फ 'तिरुप्पान्मलेका देवता' दिया गया है, परतु 'पल्लिचन्दम्' इस शब्दसे मालूम पड़ता है कि यह कोई जैन १ 'इन्द' पढ़ो।
शि० १४
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२१०
जैन - शिलालेख संग्रह
चैत्यालय होना चाहिये । शिलालेख नं० ११५ से भी यह निर्णीत होता है । उसमें यक्षिणी और नागनन्दि गुरुकी प्रतिमा है । यद्यपि यक्षिणियोंको बौद्ध और जैन दोनों ही मानते हैं, परन्तु नागनन्दि यह जैन नाम है । ]
--
लेखमें कूरगम्पाडिके 'पलिश्चन्द' की आमदनी दो तरहकी बताई गई है:एक तो कर्पूर विलें ( कपूर के खर्च ) की, दूसरी 'अभियाय यावदण्डविरै' की । कपूर खर्च की बात तो ठीक समझमें 4 जाती है, लेकिन उत्तरकी आमदनी 'अaियाय वावदण्डविरै' का क्या अर्थ है, सो स्पष्ट नहीं है । इसके भी दो अर्थ किये जाते है: एक तो अन्याय वावदण्ड ( जुलाहोंका करघा ) इरै (कर)। इसका अर्थ होगा 'अनधिकृत करघोंपरका कर' (The tax on unauthorised looms ) | दूसरा अर्थ इसका यह हो सकता है अन्याय + आव+दण्ड + इरे । 'आव'का अर्थ होता है वाणोंका तूणीर | इसका तात्पर्य यह है कि विना अधिकारपत्र पाये जो धनुषवाणका प्रयोग करते थे उनपर जुर्माना ( दण्ड ) किया जाता था ।
[El, IV. n° 14, B.]
१६८ श्रवणबेलगोला - कन्नड़
[ बिना काल-निर्देशका ]
[ जै. शि. ले. सं., भा. 1.]
१६९
कुम्बरहल्लि - कन्नड़
--भभ
[ विना काल-निर्देशका, पर सम्भवतः लगभग १००० ई० ] [ कुम्बरहलि ( कूदनहल्लि परगना ) में, बसवगुडिकी दक्षिणी दीवालपर ] स्वस्ति श्रीमदजित सेनपण्डितदेवर शिष्यण नाक पुणि-समय [ इसमें अजित सेन- पण्डितके शिष्यका वर्णन है । ] [ EC, III, Mysore tl., n° 31. J
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तिरुमलैका लेख
१७०
मुत्सन्द्र - कचड़
[ विना काल-निर्देशका, पर सम्भवतः लगभग सन् १००० ई० का ] [ मुसन्द्र ( देवळापुर परगना ) में, गाँव के पूर्वमें एक गोल बटिया (Boulder) पर ]
श्रीमतु कलुकरें-नाडू आवरु चोक- जिनालयक्के मत्तिकेय नट्ट कल चतुस्सीमान्तरेषु बिट्ट दत्ति इदं किडिसिदवं कविले बाह्मणनुव कोन्द ब्रह्म " एय्दुगु
[ कलुकरें - नाडुके शासकने चोक जिनालयके लिये मत्तिकेरें का दान दिया । ] [EC, IV, Nagamangala tl., n° 92.]
२११
१७१
तिरुमलै - ( नार्थ अर्काट ) - तामिल [ १००५ ई० ]
१ स्वस्ति श्री [I] तिरुमगळ पोलप्पेरु निलच्चे
२ त्रियुन् तनके रिमै पूण्डमै मनकोळ कान्दकुर वाले कलमरुत्तरुळि वेगेनाडु गङ्गपाडियु
३ नुबपाडियु न्तडिंगै पाडियुङ् कुडमलैनाडुङ् कोल्लमुङ् कलिङ्गमुं एण्ड पुगळ्तर विमण्डलं तिण्डिरल् वेन्रित
४ ण्डारकोण्ड [ते ]लि वळरुळि एल्लायाण्डुं तोळुतेळ विळड्गुयाण्डै चेळित्रारैत्ते को श्रीको वि
५ राज इराजकेशरिपन्मरान श्रीराजहराजदेवर्क याण्डु २१ आवदु अलपुरियं पुनर पोनि आरुडैय चोळन
६ अरुमोळिक्कु याण्डु इरुपत्तोन्रावदेन्रुङ्गलै पुरियुमतिनिपुणन् वेण्
किळान्
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२१२
जैन-शिलालेख संग्रह ७ गणिशेखरमरुपोचुरियनन् नामत्ताल् वामनिलै निकुड्८ कलिअचिट्ठ नीमिर वैग्गैमलैक्कु नीडुळि इरुमरुडं नेल विढय९ कण्डोन् कुलै पुरियु पडै अरचर कोण्डाडु पादन गुणवीरमा
मुनिवन् १० कुळिर वैयौक्कोत्रेय् (1]
[ यह अभिलेख कोविराजाराजकेसरिवर्मन्, उर्फ राजराज-देवके २१ वें वर्षमें अभिलिखित है, तथा पोलि, अर्थात्, कावेरी नदीके स्वामी 'शोरन् अरमोरी' के इक्कीसवें वर्ष में (शब्दों में )।
लेख बताता है कि किसी गुणवीरमामुनिवन्ने एक नहर या मोरी (Sluice ) गणिशेखर-मरु-पोर्चुरियन् नामके उपाध्यायके नामसे बनवाई थी। तिहमले चट्टानका उल्लेख "बैरंगैमलै" नामसे है।।
[South Indian Ins., I, n. 66 (p. 94-95), t. & tr. ]
बेलूरु-काड़-भन्न
[शक ९४४-१०२२ ई.] [बेलूरु (कोत्तत्ति परगने )में, तालाबपर दुर्गा-देवीके पीछेके पाषाणपर]
खस्ति समस्त-रिपु-नृप-कुम्मि-कुम्भ-दळन-पञ्चास्य समुदित-श्रीम.... ळ-विमुक्त-चोळ-भूपाळ..."लिन... जित-वीर-लक्ष्मी आश्रित-भक्त-मलापकर्षण भूमिसश्चरण जय-मूल-स्तम्भं श्रीमद् अ.."गङ्गमण्डलेश्वर प्रभुपद्म-युग्माशोक-भोगिकाश्रित-भ्रमद्-भ्रमर जित-रिपु संसित-समर-प्रताप राज्य-भार-धुरन्धरं अमात्य-समिति-विराजमानम् सत्यत्व-नाभि-कानीनम् समर-जित-भूप-जीव-प्रदर्नु अतिपूताचरणम् रिपु-खरकिरणम् ....." तिगाञ्जनेयं सौच-गाङ्गेयं शरणागत-यज्र-पञ्जरम् रिपु-का-कुञ्जरम् तन्म-रक्षामणि मन्त्री-चिन्तामणि विनेय-विळासम् श्रीमत्-पेगंडे-हासम्
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मथुराका लेख
विश्व-बिस-हासर् 'पतिहिताभरणम् ॥ शक-नृप-कालातीतसंवत्सरशतङ्गळ् ९४४ नेय दुमुखि ( दुर्म्मति ) संवत्सरद फाल्गुण-मास-सुद्धपञ्चमी-सोमवार पुनर्वसु-नक्षत्रदन्दु गङ्ग-पेर्म्मनडिगलु कर्णाटनाळुत्तमिरे तम्म ख- दोरादन्दु नव जिनालयके पेर्म्मनडि जीवितम् .........द बलोर - कट्टलाळ्वाद केर्रेय मेकं बोप्सि कट्टेय कट्टिसि तूबनिरसि मुन्नं तव... कोळा मज्णु विट्ट दोन्दकेशेंगे मुमं बिट्ट दिनदि कोटि-कविलेयं ब्राह्मणरुं काशियुमनलुकिरे
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः ।
यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥
[ इस लेखमें 'पेगंडे- हासम्' के द्वारा, उक्त मितिको, बलोर-कट्टके गहरे तालाब की सीढ़ियोंके बनवाने, बांधके निर्माण कराने, नहर या मोरीके बनाये जाने, तथा.... 'एक 'कोलग' भूमिके देने का जिक्र है । उसके समयमें कर्णाट ( कर्नाटक ) पर गङ्ग पेर्म्मनडि शासन कर रहे थे । यह पुण्यकार्य पेनडिके दीर्घजीवनकी कामनाके लिये उसकी सरकार स्थानमें एक नये जिनालयके रूपमें किया गया था । ]
[ EC, III, Mandya II., n 78]
१७३
मथुरा - संस्कृत
[ संवत् १०८०=१०२३ ई० सन् ]
१ ओ श्रीजिनदेवः सूरिस्तदनु श्रीभावदेवनामाभूत् । आचार्यविजयसिङ्ग
२ स्तच्छिष्यस्तेन च प्रोक्तैः ॥ [ १ ॥ ] वग्रामस्थानादिस्यै स्वसक्तितः ।
सुषाव
२१३
१ संवत्सर 'दुर्मुख' दिया हुआ है: यह स्पष्टतः गल्तीसे लिखा गया है । इसकी जगह 'दुर्म्मति' होना चाहिये जो शक ९४४ से मेल खाता है ।
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अमरिका लेख
२१९
१७८
अङ्गडि-कबड़-भान [बिना काल-निर्देशका, पर संभवतः लगभग १०४० (१)..
(लू० राइस)।] [भङ्गाडि (गोणीषीदु परगना)में, हरमकि दोड-उडयेमें पाषाणपर ]
.........."राज्यं गेये....द्रविणान्वयद मूल-सं........... .."पण्डित............."तु तर्काचाळितामा....जलधि-यशो...कुतूहल...शय वज्रपाणि पण्डित-चरण || एनिसि सले गङ्गवाडिय । मुनि-वर रिं राजमल्ल-भूपालकनीमनु-नीति-मार्गनभयं । जन-पति-सम्यक्व-मार-नृपतिय गुरुगळ् ॥ वृ ॥ इरदापन्निगङ्गळि तळ.. व्यत्त हो....। दुरितारण्यमनेयदे सुदु सोसवरोळ् विळद कालान्तदोळ् । .... रे सन्यास-विधानाद मुडिपि पूज्यं वज्रपाणि-व्रतीश्वररत्युत्तम-मुक्तियं पडेदरेम् पुण्यक्कवर नो.... ||
(बायीं ओर ).............. रविकीर्तिमुनीन्द्रनेन्दु पट्टळिगेये पेळदेनेळ्व कल्नेले-देवर साहसोक्तियम् ॥ श्रीमत्-कल्नेले-देवतम्म गुरुगळ्गे निषिधिगेयं माडिसिदर् मङ्गळ
[विणान्वय, मूलसंघके पण्डितके शिष्य वज्रपाणि-पण्डितके चरणोंमें जब राज्य कर रहा था:- गणवाहिके मुनियों में प्रसिद्ध राजा राजमल था। इसके गुरु वनपाणि-वतीश्वरने सोसवूरमें अपना जीवन व्यतीतकर मन्तमें संन्यास-मरण धारण किया और उन्हींका यह स्मारक है।
[EC, VI, Mūdgere t)., n° 18)
ध्या(बया )ना (राजपूताना)-संस्कृत [सं० ११००=१०४४ ई]
[ IA, XIV, p. 8-10 n° 151, t. & a.] १ यह शिलालेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका है।
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जैन-शिलालेख संग्रह
१८० दोडु-कणगालु-कन्नड़ । [वर्ष तारण=१०४४ ई. ? (ल• राइस)।] [दोड-कणगालुमें, गौडके खेतमें एक दूसरे पाषाणपर ] श्री-मूलसंव देशिय-गण पुस्तक-गच्छ कोण्डकुन्दान्वय इजळेश्वरद बळिय....."शुभचन्द्र-देवर प्रियान-शिष्यरुमप्प प्रभाचन्द्र-देवर निसिधि तारण-संवत्सर-चैत्र-शुद्ध-पञ्चमी-शुक्रवारदन्दु मुक्तरादरु ।
[श्री-मूलसंघ देसिय-गण पुस्तक-गच्छ कोण्डकुन्दान्वय और इजलेश्वर बलिके.."शुभचन्द्र-देवके प्रिय ज्येष्ठ शिष्य प्रभाचन्द्र-देवकी समाधि (निसिधि)। (उक्त वर्ष में ) उन्हें छुटकारा मिला, अर्थात् स्वर्गगत हुए।]
[ EC, IX, Coorg tl., 1.56]
१८१ बेळगामि-कमड़
[शक ९७०% १०४८ ई०] [सोमेश्वर मन्दिरके पासके एक पाषाणपर] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। स्वस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ-तिळकं चालुक्याभरणं श्रीमत्-त्रैलोक्यमल्लदेवर विजय-राज्यं प्रवर्तिसे तत्पाद-पल्लवोपशोभितोत्तमाङ्ग खस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरं वनवासि-पुर-वरेश्वरं महालक्ष्मी-लब्ध-वर-प्रसादं त्याग-विनोदमायदाचार्यनसहाय-शौर्य गण्डर गण्डं गण्ड-मेरुण्डं मूरु-रायास्थान-कलि बिरुद-मण्डलिक-वृषभ-शंकरं कलिगळ मोगद कयि बिरुदरादित्यम् प्रत्यक्ष-विक्रमादित्य जगदेक-दानि
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बेळगामिका लेख
मु श्रीमन्महामण्डलेश्वरं चा-ण्ड-रायरसर
नामादि- समस्त प्रशस्ति-सहितं बनवासि - पनिर -च्छासिरमनाळुत्तमिरल राजधानि - बलिगावेय नेलेवीडिनोळ शक वर्ष ९७० नेय सर्व्वधारी संवत्सरद ज्येष्ठ-शुद्धत्रयोदशी-आदित्यवारदन्दु जजाहुति - श्री - शान्तिनाथ -सम्बन्धियप्प चळगार-गणद मेघनन्दि-भट्टारकर - शिष्यरम्प केशवनन्दि - अष्टोयवासि-भळा(ट्टा)रर बसदिगे पूजा- निमित्तदिं धारा-पूर्वकं जिड्डुळिगे ७० र बयि राजधानि बळिगात्रेय पुल्लेय-बयलोळ् मेरुण्ड-गळेयोळ् कोइ गळ्दे मत्तरख्दु अदर सीमे ( सीमाओं की चर्चा )
धर्मेण शौर्य-सत्येन त्यागेन च महीतले । गण्ड-भेरुण्ड-सादृश्यो न भूतो न भविष्यति ॥ ( हमेशा के अन्तिम श्लोक )
बनवासे-देसदोळगण |
२२१
जिन-निळयं विष्णु-निळयमीश्वर-निळ्यम् । मुनि-गण-निळयमित्रं रा- ।
यन बेसदिं नागव - विभु माडिसिदम् ॥
[ जिस समय, ( हमेशाकी चालुक्य उपाधियों सहित ), त्रैलोक्यमल देवका विजयराज्य प्रवर्द्धमान था :- बनवासि पुरवरका ईश्वर, महालक्ष्मीसे जिसने वर प्राप्त किया था, 'गण्ड-भेरुण्ड' 'जगदेकदानी' इन और दूसरे पदों सहित, महामण्डलेश्वर चामुण्डराय रायरस बनवासी १२००० पर शासन कर रहा था; - बळ्ळिगावे राजधानीमें, ( उक्त मितिको ), जजाहुति शान्तिनाथके साथ सम्बद्ध बळगार - गणके मेघनन्दि भट्टारकके शिष्य केशवनन्दि अष्टोपवासि-भट्टारकी बसदिमें पूजा करनेके लिये, जिड्डुळिगे - सत्तर में, राजधानी बलिगावे मृगवनमें, 'भेरुण्ड' दण्ड ( माप ) अनुसार, ५ मत धान ( चावल ) - क्षेत्रका दान किया । ( भूमिकी सीमाएँ ) ।
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२२२
जैन-शिलालेख संग्रह गण्ड-भेरुण्ड' की प्रशंसा । हमेशाके अन्तिम श्लोक । बनबासे देशमें, जिन-निवास, विष्णु-निवास, ईश्वर-निवास और मुनिगणके लिये निवास । ये, रायकी माज्ञासे, नागवा -विभुने बनवाये।]
[EC, VII, Shikarpur tl., n° 120 ]
१८२ कल्भावी-संस्कृत तथा कचड़ ।
शक २६१ (?) ॐ (॥) श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं
जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ वस्त्यमोघवर्षदेव-परमेश्वर-परमभट्टारक-विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रबर्द्धमानमा चन्द्रावतारंबरं सलुत्तमिरे ।। तत्पादपमोपजीवि समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वरं कुवलालपुरवरेश्वरं पद्मावतीलब्धवरप्रसादितं कोङ्गुणि-पट्टबन्धविराजितं शासनदेवीविजयमेरीनिग्?षणं भगवदहन्मुमुक्षुपिञ्छध्वजविभूषणं सकलभूपालमौलिमाणिक्यचूडारत्नरञ्जितचरणं विद्विष्टमनोरमालङ्कारहरणं सारस्वतजनितभापात्रयकविताललितवाग्ललनालीलाललामं गजविद्याधामं श्रीमत्-शिवमाराभिधानसैगोट्टगङ्ग-पेर्मानडिगळ मरदलुमेतेयागे गङ्गवाडि-तोम्भत्तारु-सासिरमं सुखसङ्कथाविनोददि प्रतिपाविसुत्तिन्दु' कादलबल्लि-मूवत्तरोळगण कुम्मुदवाडदोळ् जिनेन्द्रमन्दिरमं माडिसिदनदे दोरेयदेन्दोडे ॥ ७ ॥ इदु गङ्गाधीश्वर-श्रीगृहमिदु विलसद्गङ्गभूपालराम्नायद कीर्तिश्रीविहारास्पदकरमिदु गङ्गावनीनाथरौदार्य्यद जन्मस्थानमेम्बन्तिरे विबुधजनानन्दमं भव्यसंपत्पदम सैगोट्ट-पेनिडि जिनगृहमं माडिदं भक्तियिन्दम् ॥
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कल्भावीका लेख
२२३
आ जिनमन्दिरके । वृ० ।
विमळ श्रीगुणकीर्तिदेवरवरंतेत्रासिगळ्नागचन्द्रमुनीन्द्रर्तदपत्यरुद्घजिनचन्द्राख्यर्त्तदीयात्मजद्दमिताघशुभकीर्ति देवरेसेदर्त्तच्छिष्यरुद्यद्वचो रमणीयर्सले देवकीर्त्तिगुरुगळ्वादीभकण्ठीरव[र् ॥ ] आ परमेश्वरर्षरवादिविध्वंसिगळं विदिताशेषशास्त्ररुं मैलापान्वय मेनिसिद [क][रेयगणगगनचूडामणिगळुमप्प देवकीर्ति पण्डितदेवर का क ि॥ ॐ शकवर्ष २६१ नेय विभवसंवत्सरद पौष्य ( प ) - बहुल - चतुर्दशी सोमवारमुत्तरायण संक्रान्तियन्दु सैगोड-ग कुम्मुदवाड मेम्बूरं बिल्लिये मत्तं दानसालेगे पोलनुमं कुम्मुदब्बेय देगुलर्दि asa पोगि मूड मुखं रिवुमं बसदियिं मूडलु दानसागे पनिर्कयिनिवेसणमुमं । ऊरि मूड सपर्सि ( १ ) - गद्देयं वयलुमं बिट्ट || ना ग्रामद सीमेयेन्तेन्दोडे । आलिंगोण्डदि । सिडिलनेरिलिं । समेयदातनकेरेयिं । मलप्प-बूदनिं । तोळप-वळप-बिलियन्टरिथिं । गङ्गरोळादुब -संकिय- केरेथिं । हिच्चलगेरेय कोडियिं । निन्दबेलिं । सिन्दगिरि-बोर्भागदिं । सुन्दिगेरेय नीर तट बोर्भागर्दि । सिङ्गस गेरेयिं । कदिकोड-बविवि-गर्दैथिन्दोकगुळ भूमि कुम्मुदवाडके || मत्तमूरिं तेङ्क दानसालेय पोलके एरपकेरेय मूडण कोडिय बडगण गुत्तिय तेक मुखदे मूडल्मेरे । तेङ्क [लु ] बक्विटि-गद्देयुं । आलिगोण्डमुं मेरे । बडगलिंविन केरेय मध्यं मेरे । पडुवल विकिय बेहद तेङ्कण बागोळगागि मेरे || (1) इल्लिन्दोळगुल भूमि दानसागे || ओम् [11]
ॐ स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वरं कुवलाल-पुरवरेश्वरं पद्मावतीलब्धवरप्रसादितं कोणि पट्टबन्धविराजितं शासनदेवी विजय
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२२४
जैन-शिलालेख संग्रह मेरीनिम्?षणं भगवदर्हन्मुमुक्षुपिञ्छध्वजविभूषणनुमप्प श्रीमत्कञ्चरसस्सैंगोट्ट-गङ्गनि बन्द धर्ममं समुद्धरिसिदनिदन्तप्पदे प्रतिपालिसिदात वारणासियोळ् सासिद्धरु ब्राह्मणगर्गे सासिर कविलेय[ म् ] कोट्ट फलम् । इदनळिदातं वाणरासियोळ् सासिर कविलेयुमं सासिवर्त्तपोधनरुमं सासिाह्मणरुमनळिद पातकमक्कु [1] ओम् [1]
सामान्योऽयं धर्मसेतुं नृपाणाम् । ___ काले-काले पालनीयो भवद्भिस्स नेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान् ___ भूयो-भूयो याचते रामभद्रः । (1) खदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धराम् षष्टि-वर्ष-सहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।। न विषं विषमित्याहुः देवखं विषमुच्यते विषमेकाकिनं हन्ति देवस्वं पुत्र-पौत्रिकम् ॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।
[ कल्भावी बम्बई प्रान्तके बेलगाँव जिलेके सम्पाँव तालुकेके मुख्यशहर सम्पगाँव ( Sampgaum ) से दक्षिण-पूर्व करीब ९ मीलदूर एक गाँव है। इसका पुराना नाम इसी शिलालेखकी पंक्ति ८, १५, और २१ में 'कुम्मदवाड' दिया हुआ है। लिपिकी लिखावटसे यह लेख ई० ११ वीं शताब्दिका मालूम पड़ता है।
लेख प्रकट करता है कि किसी अमोघवर्ष नामके राजाने मैलाप भन्वय और कारेय गणके देवकीर्ति नामके जैन गुरुके पादों (चरणों) का प्रक्षालन किया था। उस समोघवर्षके सामन्त, गङ्ग महामण्डलेश्वर सैगोट्टपेर्मानडि या सैगोट्ट-गण-पेनिडिने, जिनका दूसरा नाम शिवमार था,
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२२५
.
नल्लूरका लेख कुम्मुखवाड (कल्भावीका ही पुराना नाम) गाँव में एक जिनेन्द्रका मन्दिर बनवाया और इसके लिये गाँव दानमें दे दिया। इस दानका काल शक संवत् २६१, विभव संवत्सर दिया हुआ है। लेकिन, जे० एफ० फ्लीटकी रायमें, यह काल जाली है और वास्तविक उल्लेख लेखके उत्तरार्ध में सन्निहित है (ॐ स्वस्तिसे लेकर ), जिससे मालूम होता है कि उपर्युक्त दान बीचमें या तो जब्त कर लिया गया था या असावधानीके कारण बन्द कर दिया गया था और उसे कचरस नामके किसी दूसरे गा महामण्डलेश्वरने फिरसे चाल, किया। भले ही तमाम लेख बनावटी हो, पर, जे. एफ. फ्लीटकी मान्यतानुसार, इसका उत्तरार्ध तो सच्चा है। मौलिक दानपत्रके खो जानेसे ही स्वयं लेखगत दानकी बनावटी तिथि देनी पड़ी है । लेखमें खाली 'अमोघवर्ष' ऐसा नाम देनेसे यह पता नहीं चलता कि 'ममोघवर्ष' नामके राष्ट्रकूट राजाभोंमेंसे कौन-सा अमोघवर्ष इस समय शासन कर रहा था। मौलिक दानका काल मैलाप अन्वय तथा कारेय गणके आचार्य गुणकीर्ति, नागचन्द्र, जिनचन्द्र, शुभकीर्ति और देवकीर्तिके वर्णनसे निकाला जा सकता है । प्रथम दान देनेके समयका काल शक सं० २६१ गलत है, क्योंकि विभव संवत्सर चालू शक सं० २३१ पड़ता है । ]
[Ind. Ant., Vol. X VIHI, pp. 309-13.]
नल्लूर-संस्कृत तथा कन्नड़ [विना काल-निर्देशका; लगभग १०५० ई० (लई राइस )] [नल्लूर (हत्तुगडुनाड्) में, तीतरमाडके घरके पास सर्वे (Surves) ११७ नं. के तालाबके बाँधपर एक पाषाणपर ]
भद्रं भूयाजिनेन्द्राणां शासनायाघनाशिने ।
कु-तीर्थ-व्यान्त-संघात-प्रभिन्न-वन-भानवे ॥ खस्ति श्री प.."धनं परत्र-हित-कारणकं परमोपकारकर। कुडे त.."ताब्दि""य तिग"मतिग""भया""दन्तम ।
शि० १५
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मुल्लूरका लेख
२३३ संघदरुङ्गळान्वयद गुणसेन-पण्डित-देवगर्गे माडिसि धारा-पूर्वक कोट्टरु ॥ (वही अन्तिम श्लोक)। [धर्म-सेष्टिके द्वारा लिखित ।
स्वस्ति । ( उक्त मितिको ), राजेन्द्र-कोङ्गाळ्बने, अपने पिता द्वारा निर्मित बसदिके लिये हेरुवनहळ्ळि, भरकनहळ्ळि, तथा निडुत गोडलुमें तीन खण्डगका दान दिया, और इसी तरह दूसरे गाँवोंमें (जिनके नाम दिये हैं)। __ और राजाधिराज कोङ्गाल्वकी माँ पोचबरसिने अपने गुरु दविळ-गण, नन्दि-संघ, तथा अरुङ्गळान्वयके गुणसेन-पण्डित-देवकी प्रतिमा बनवाकर जलधारापूर्वक इसे समर्पित की। शाप ।]
[EC, IX, Coorg tl., n° 35]
१९० __ मुल्लूर-संस्कृत तथा कमड़ [विना काल-निर्देशका, पर लगभग १०५८ ई. का]
_ [मुल्लूरमें, पार्श्वनाथ बस्तिके नीचे देहलीमें ] स्वस्ति श्री राजेन्द्र चोळकोङ्गाब्वन पुत्र श्री-रा"कोणाच" वास-स्थानमं तम्म गुरुगळ तिवुळ-गणदरुङ्गळान्वयद नन्दि-संघद गुणसेन-पण्डित-देवर्गे धारा-पूर्वकं कोर्ट मङ्गळ महा श्री श्री।
[स्वस्ति । राजेन्द्र-चोळ-कोङ्गाळ्वके पुत्र रा. कोङ्गाळ्वने तिवुळ-गण, अरुजालान्वय और नन्दि-संघके अपने गुरु गुणसेन-पण्डित-देवको रहनेके स्थानके रूपमें... दिया।]
[ EC, IX, Coorg tl., n* 38]
१९१
मुल्लूर-कमड़ [विना काल-निर्देशका, पर लगभग १०५० ई.]
[उसी बस्तिके प्राङ्गणमें एक पाषाणपर] खस्ति श्री गुणसेन-पण्डित-देवर अगळिसिद नागवावि नकरद धर्म
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२३४
जैन - शिलालेख संग्रह
[ स्वस्ति | नाग-कुआँ जिसको गुणसेन पण्डित देवने नकर याने व्यापारी संघ धर्म के रूप में खुदवाया । ]
[ EC, IX, Coorg tl., n° 42] १९२ सोमवार - कन्नड़
[ विना काल-निर्देशका; लेकिन संभवत: लगभग १०६० ई० ] [ सोमवार (मलिपट्टण परगना ) में, बसवण्ण मन्दिरकी बाहरी दीवाल के पाषाणपर ]
धरेयोळगेचल-देविगे ।
गुरुगल गुणसेन - पण्डित विळ-गणम् । वर - नन्दि-संघमन्वय मरुङ्ग'....''नगदेन्दडेम्बणिपुडो ||
भद्रमस्तु ।
[ एचलदेखिके गुरु, — द्रविळ-गण, नन्दि-संघ और गुणसेन पण्डित, जो इतने प्रसिद्ध हैं, उनका वर्णन इस सकता है ? कल्याण हो । ]
अरुङ्गल - अन्वयक,
संसार में कैसे हो
[ EC, V, Arkalgud 1., 1° 98.3 १९३ कडवन्ति - कन्नड़-भन
[ विना काल-निर्देशका पर संभवतः लगभग १०६० ई० ] [ कडवन्ति में, मेलु-कडवन्तिकी चट्टानपर ]
भद्रमस्तु जिनशासनाय श्रीमत् दान खचर कन्दर्प सेनमार पृथुवी राज्यं गेय्युत्तमिरे देव-गणद पापाणान्वयद महेन्द्र-बोळळं पडेद अङ्कदेव भटारर शिष्यर्महीदेव भटारर गुडं निरवद्यय्यं मेळसरय मेगे निरवद्य - जिनालयमं माडिं खचर कन्दर्प- सेनमारन दयगेये निरवद्यय्यं मानिये पडेदु जक्कि मानियेन्दु पेसरनि निरवद्य - जिनालयके को
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अडका लेख
२३५
एडेमलेय सासिर्व्वरुं गळ्देय मेक्कळ तम्म तम्म गळ्देय मेगे एल्ला-कालमुं पलं दप्पदे जक्कि गोळगमेन्दित्तर्कडमन्तियोम् मादेर रचिपन्द्रुगं एलिंग सिरिपुरसनुमित्तुवु मूगण्डग भत्तं पोकुति-मक्किय पलिसिन तारनित्तरुज्जे नियोळ नाल-गण्डग भगमनित्तरईवाडियोळपिन्दगर - ण्डुग
मूगण्डुग मित्तमुलि - भाग दोक्
.......मूगण्डुगमित्तं शालादि
-
त्यर कपिगमिर्कण्डुगं " मुळियर कुन्द कोण्टापन्दियो सार "मेदुकय्यं किरगादण्ण मू-गण्डुगं मण्णम् इकुळ- भत्तमुमन .... न्ददणिकिग देपण मूगण्डु" ... मित्तरयोळ श्री च " [ जिस समय खचर- कन्दर्प सेनमार पृथ्वीपर राज्य कर रहे थे:निरवद्यने, जो देवगण और पात्राणान्वयके अङ्कदेव भटारके शिष्य महीदेव भटारका गृहस्थ- शिष्य था और जिसने महेन्द्र-बोळलुको पाया था, - मेलस चट्टानपर निरवद्य जिनालय खड़ा किया; और खचरकन्द सेनमारकी कृपा प्राप्तकर निरवद्यको एक 'मान्य' मिला, जिसे उसने जकिमान्यका नाम देकर निरवद्य - जिनालयको भेंट कर दिया ।
-
....
और एडेमले हजारने अपनी हरएक धान्यके खेतोंकी फसलसे कुछ धान्य ( चावल ) दानरूपमें हमेशा के लिये दिया ।
और भी जिन लोगोंने अनाजका दान किया उनके नाम दिये हैं । ] [ EC, VI, Chikmagalur tl., n° 75]
१९४ अङ्गडि - कन्नड़
[ विना काल-निर्देशका, पर संभवतः लगभग १०६० ईसवी ] [ अङ्गडि ( गोणीबी परगना ] में, छठे पाषाणपर ]
( ऊपरका हिस्सा टूट गया है ) सोसवूर सेट्टिगळ लोकजितनिगे निषिधिय कल्ल नखर-समूह नट्टरु
[ सोसवूरके व्यापारी लोकजितके इस स्मारकको उस नगर के व्यापारी लोगोंने खड़ा किया । ]
[ EC, VI, Mūdgere tl., n° 16.]
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जैन- शिलालेख संग्रह
१९५ चिक- हनसोगे - कन्नड़
[ विना काल-निर्देशका, पर संभवतः लगभग १०६० ई० का ] [ चिक्क-हनसोगे ( हनसोगे परगना ) में जिन - बस्तिके दरवाजेके ऊपर ] श्री वीर राजेन्द्र ननि चङ्गाळव देवम्र्म्माडिसिद पुस्तक- गच्छद
बसदि
[ वीर-राजेन्द्र नन्नि चङ्गाळ्व-देवने पुस्तकगच्छकी बसदि बनवाई ] [ EC, IV, Yedatore tl., n° 22.]
१९६ चिक्क- हनसोगे – कन्नड़
[ विना काल-निर्देशका, पर सम्भवतः लगभग १०६० ई० ] [ जिन-बस्तिमें, दरवाजेपर पड़े हुए पत्थरोंपर ]
दशाशिर - प्रहारियप्प रामस्वामि विट्ट परमेश्वर - दत्तियं शकनोड विक्रमादित्यं पडिसलिसि - तान......मुन्निनन्ते बडगण - तुम्बिन नीर्व्वरिदनितु नेलनं ख..... .....तास्त्र - शासन-पूर्वकं कोहरदे मारसिंह देव पडिसलिसलेन्ता - परमेश्वर - दत्तिय बडगण तूम्बिन नीर्व्वरिदनितु "मुन्निनन्ते कादना-रामर दत्तिय ताम्ब - शासन पडिय........ मडि ईयकर बरेदवदं ननि चङ्गाळ्व-देवपुनवं माडिसिद बसदिय तुम्बिनलक्कर प्रतिमेयु माडिद तपिदर्गे कविलेंगे तपिद पाप
२३६
W
[ पहले की ही तरह, उत्तरीय नहरसे, सींची गई सारी जमीन, दशशिर ( रावण ) के वधक रामस्वामीके द्वारा जो छोड़ दी गई थी, परमेश्वरने जिसे दिया था, और जिसे इनामके तौर पर शक तथा विक्रमादित्यने भी दिया था, - ताम्बेके शासन ( लेख ) पूर्वक दी । परमेश्वर प्रदत्त तथा उत्तरीय नहरसे सींची गई सारी जमीनका दान मारसिंह देवने किया और पहले की ही तरह उसका रक्षण भी किया ।
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हुम्मचका लेख
२३७ ...."मडिने रामके दिये हुए इस ताम्बेके शासनपर दानके अक्षर लिखे और बसदिके पानीकी राहके फाटकपर मूर्तियाँ और अक्षर खोदे । इस बसदिको नग्नि-चङ्गाळ-देवने फिरसे बनवाया।]
[EC, IV, Yedotore t)., no 25.]
[शक ९८४१०६२ ई.] [सूळे बस्तिके सामनेके पाषाणपर ] खस्ति समस्त-सुरासुरमस्तक-मुक्तांशु-जाल-जल-धौत-पदम् । प्रस्तुत-जिनेन्द्र-शासन
मस्तु चिरं भद्रमखिल-भव्य-जनानाम् ॥ खस्ति श्री पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ-तिलकं चालुक्याभरणं श्रीमत्-त्रैलोक्यमल्ल देवरराज्यं सलुत्तमिरे ॥ खस्ति ममधिगत-पञ्च-महाशब्द महामण्डलेश्वरनुत्तर-मधुराधीश्वर पट्टि-पोम्बुर्च-पुर-बरेश्वरं महोग्र-वंश-ललामं पद्मावती-लब्ध-बरप्रसादासादित-विपुल-तुलापुरुष-महादान-हिरण्यगर्भ-त्रयाधिक-दानं वानरध्वज-विराजित-राजमानं मृगराज-लाञ्छन-विराजितान्वयोत्पन्नं बहु-कळाकीर्णं शान्तरादित्यं सकळ-जन-स्तुत्यं कीर्ति-नारायणं सौय्य-पारायणं जिन-पादाराधकं रिपु-बल-साधकं नीति-शास्त्रज्ञ बिरुद-मज्ञं श्रीमतत्रैलोक्यमल्ल-वीर-शान्तर-देवं सान्तलिगे-सायिरमुमनेकच्छत्र-च्छायेयिन्दमाळुत्तमिरे ॥ तत्पाद-पद्मोपजीवि वस्त्यनेकगुण-गणाभिमण्डनं नखर-मुख-मण्डनं शान्तर-राज्या-भ्युदय-कारणं कलि-युग-दोस(ष)निवारणं आहाराभय-भैषज्य-शास्त्र-दान-कानीनं विशद-यशो-निधानरप्प
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जैन- शिलालेख संग्रह
श्रीमत्-पट्टण-स्वामि-नोक्कय-सेट्टि स ( स ) कवर्ष ९८४ शुभकृत्संवत्सरद कार्त्तिक-मुद्ध ५ आदित्यवारदन्दु तन्न माडिसिद पट्टण-स्वामि-जिनालय के वीर सान्तर- देवङ्गे ( यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा आती है ) मर्व्व-बाधा- परिहार- मागि माडि तन्न सहधमिंगळू सकलचन्द्र - पण्डितदेव कोट्टम् ( यहाँ वे ही हमेशा के अन्तिम वाक्याव - यव आते हैं ) ।
२३८
इष्टनोनिविदेव तेगेन्दोसे दित्तुदम् । दुष्टनोर्व्वनदर फल सले तिन्दवम् । सिट्टि - मेले परमात्मने बन्देगोत्रदम् । कट्टिकोण्ड बिदिरन्ते कुल-क्षयमागुगुम् ॥
( वे ही अन्तिम श्लोक 1 )
रेन्द्र
अक्कर || ईवरेन्द्रत्ति पल्लिरिंदरदप तागि बेळ्दपर लेजेगेड कावमरणेन्दु वन्दपर त्तार िमरेवकुं बाल्वेमेन्दु साम-बङ्गदा मरेवकुं बन्... विडियं निदे पट्टियदन्दु
जीवजीवके तक के बारदे कि बरके बीर-देव || धुरदोलभि-लतेयनुच्चिदड् ।
अरि-नृप -युवतियर मुगुळ कङ्कणदा - कीलू |
तरतरदिनुळिचदवु निज- ।
कर-खळगमवर्के 'कीले शान्तर - नृपति || बीरुगन दोरेगे दोरे पेर- 1
रारुं बन्दवरी-कृतयुगं त्रेते द्वा । परं कलि-युगदोळगण ।
बीररुदार - प्रतापगाळू धर्म - परर ॥
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हुम्मचका लेख
२३९
वृत्त | परम-श्रीजैन-धर्मक्कतिशय - विभवं मार्प विद्वज्जनक्का - । दरदिन्दं सन्तोस (ष) माडु मुनि - जनकाहार - भैषज्यमं वि- । स्तरदिन्दं चिन्ते-गेय्वुन्नत-गुण- [] युतं पट्टण-स्वामिनोकं - । वरमा भव्यर्कन्ता- पुरुष - रतुनदि बीरदेवं कृतार्थम् ॥ पुदिद तमम्-तमः- पटलं ओन्दिद चिन्ते तगुदु तन्तु प- । त्तिद रुजे पे साचिद दरिद्रते बोळा सेंद बडूगिदपुदु कण्ड काण्केयो तप्पदु पट्टण सावि नोक्कनि- । लडे बदु बन्द बुध-मण्डलिगी - मले सृ ( शू ) न्यमागदे || raat पेर्बुमिय बरिकगे भाजनमाद दोळगे बी- ।
वरिवन्ते नेल्द नरे-गडद दोड्डर बेल्लवातुगळ । कोल्मनार्के केम्मनेडेयाडदिरोवेले शिष्ट बेडिको- 1 कोडे नम्म धर्म्मद तने पट्टण- सामि नोक्कनम् ॥ जिननं बणिप पूजिप ।
जिनागमोक्तियाडे नेगळ्व जिन पदमं भा ।
वनेयं निच्चं ताळ्दुवन् ।
एने पट्ट[[ ]- सावि ये जिनागम-निधियो ||
वचनम् ॥ सम्यक्त्व वारासियुमेनिसिद पट्टण-स्वामि नोक्कय्यं .. हरदो देवर बल्लभरनेरगिमि रत्नङ्गम् वचियिमि । पोन बेलिय पवळद महा-मणिय पच-लोहदो प्रतिमेगळं माडिमिदं । ( यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा है | ) सकळचन्द्र पण्डितदेवर गुड्ड मल्लिनाथं बरेदम् ॥
सुजन-जन - कुमुद-चन्द्रन । सुजन-जनानन-विलोक-मणिमुकुरनना- ।
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जैन - शिलालेख संग्रह
सुजन-जन-वनज-हंसन । सुजनजनं पोगले मल्लिनाथ नेगळ्दम् ॥ गुडिवयमं बिट्ट ( सिरेपर ) पट्टण खामिय परि नेम-ब तवेरे दन्दे तुरवनिन्तिदुगेय्यदयेत्तिद यसा सन्तोस (घ) -दानविनोद’............'।। श्री-पट्टण-सामिय गुरुगळ् श्रीमद्- दिवाकरणन्दि-सि द्धान्त-रत्नाकर-देवरु श्री बिरुद सर्वज्ञं बीर- सान्तर -देवम् ॥ पुसियदिरारोळंब- नदि पर - नारिय तपोगे तप्पू । एसगदिराव- जीवदेळवडेयेम्बुदनेन्तुमोल्लदिर् । कुसियदि यदि पोण तळतेडेयो व्रतमेन्दु कोण्डुदम् । बिसडदिरेम्बुदी - बरेद... सने सान्तर - वीर - देवनम् ॥
ग्रान्वय-पद्मिनी - दिनकरं श्री - शान्तरोशनु |
२४०.
....
-गुणाम्भोनिधि बीरुगं बिरुद सर्वज्ञं धरा-मण्डलम् । पोग [] कूर्मिमयिनीये निर्मळ यां धर्म्माधिकं तान्दिदम् । जगदोल पट्टण - सामि मनिदम् नोकं यशो-भागियो ||
पट्टण स्वामि- जिनालयद शासनम्
[ जिनेन्द्र की प्रशंसा |
जब, ( उन्हीं चालुक्य पदों सहित ), त्रैलोक्यमल देवका राज्य प्रवर्तमान था - जब, ( उन्हीं पदों सहित जिनसे अलङ्कृत नन्नि शान्तर शि० ले० नं० २१३ में हैं ), त्रैलोक्य मल्ल वीर - शान्तर -देव शान्तळिगे हज़ार
पर एकछत्र राज्य कर रहा था;
तत्पादपद्मोपजीवी ( उन्हीं पदों सहित जैसे कि पद शि० ले० नं० २११ में हैं ) । पट्टण-स्वामि नोक्कय्य-सेष्ट्टिको ( उक्तमितिको ) अपने बनवाये हुए पट्टण-स्वामि जिनालय के लिये वीर-शान्तर -देवको सोने के १०० गद्याण मेंट करने पर, मोलकेरेका दान मिला; इस गाँवकी सीमायें । इसने
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मुल्लूरका लेख
२४७ लक्कद सव-लेकद मरु-। वक निन्दपुवे समर संघटनदोळ ॥ (हमेशाके मन्तिम श्लोक)
[प्रथम माग बहुत घिसा हुआ है और अन्तिम पंक्तियोंमें दानकी विशेष चर्चा है।
छेनी और बल्लिको पकड़नेवालोंमें प्रधान, अर्थात् पाषाणशिल्पियों में प्रधान विद्यावान पोयसळावारिके पुत्र माणिक-पोयसळाचारिने यह बसदि बनवाई।
इतनी भूमि देकरके, उन्होंने (उक्त मितिको) भगवानकी प्रतिष्ठा की, और पूजाकर तिरू-नन्दीश्वरके कालमें दान देकर मन्दिर पोऽसलके गुरु मुल्लूरके गुणसेन पण्डितदेवको सौंप दिया।
परियल-देवी और मलेपरोळ्-गण्डकी प्रशंसा । "रकस होयसळ" इन ६ अक्षरों को अपने झण्डेपर लिखकर यदि वह उसे उड़ाता है, तो लक्षावधि शत्रु भी क्या उसका युद्ध में सामना कर सकते हैं ? (हमेशाके अन्तिम श्लोक)]
[EC, VI, Mudgere tl., n° 13.]
मुल्लर-संस्कृत तथा काड़
[शक ९८६=१०६४ ई.] मुल्लूर (निदुत परगना) में, बस्ति मन्दिरमें पार्श्वनाथ बस्तिके
पश्चिममें प्रथम पाषाणपर] (पहली ओर) स्वस्ति शक-नृप-कालातीत-संवत्सर-शतङ्गळ् ९८६ नेय क्रोधि-संवत्सरं परिवर्तिसुत्तिरे तच्-चैत्र-बहुल-नवमी मङ्गळवारं पूर्वाभाद्रपद-नक्षत्रम्मिनोदयदल् ॥
खस्ति समस्त-सुरासुरेन्द्र-मकुट-तट-घटित-मणि-मयूख-रेखालङ्कृत-चा (दूसरी ओर ) रु-चरणारविन्द-युगलं भगवदर्हत्-परमेश्वर-परम-भट्टारकमुख-कमल-विनिर्गतागमामृत-गम्मीराम्भोराशि-पारगरम्प श्रीमद्-गुणसेनपण्डित-देवरम्मोक्ष-लक्ष्मी-निवासके सन्दर् (तीसरी मोर)
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जैन- शिलालेख संग्रह
गुरुगळ् सिद्धान्त-तत्त्व-प्रवचन- पटुगळ् पुष्पसेन - व्रतीन्द्रर । वर-सङ्घ नन्दि-सङ्घं द्रविळ-गण-महारुङ्गाम्नाय - नाथम् । परमार्हन्त्यादि - रत्न- त्रय-सकल-महा-शब्द-शास्त्रागमादि- । स्थिर- षट् - तर्क-प्रवीण, व्रति-पति-गुणसे नार्य्यरार्थ्य-प्रणूतर् ॥ [ ( उक्त मितिको ), आगमरूपी अमृतके गहरे समुद्रके पार जाने वाले श्रीमद् गुणसेन - पण्डित देवने मोक्ष लक्ष्मीका निवास प्राप्त किया। उनके गुरु पुष्पसेन व्रतीन्द्र थे । गुणसेन - पण्डित देव द्रविळ-गणके नन्दिसंघके तथा महा अरुङ्गलानायके नाथ थे । ये सब विद्याओं-- व्याकरण, आगम, तर्क में प्रवीण थे । ]
२४८
[ EC, IX, Coorg tl. n° 34 ] २०३
हुम्मच - कन्नड़
[ शक ९८७=१०६५ ई० ]
[ हुम्मच में, चन्द्रप्रभ बस्तिकी बाहरी दीवालपर ]
भद्रमस्तु जिन सा ( शा ) स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्रीपृथिवी वल्लभं महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारकं सत्याश्रय-कुळतिळकं चालुक्याभरणं श्रीमत् त्रैलोक्य मल्ल- देवर् चतुसमुद्र - पर्यन्तपृथ्वी - राज्यानुष्ठानादिनिरे तत्पादपद्मोपजीवि । स्वस्ति समधिगत- पञ्चमहा-शब्द महामण्डलेश्वरनुत्तर- मधुराधीश्वर पट्टि - पोम्बु-पुर-नरेश्वरं महो वंश - ललामं पद्मावती-लब्ध-वर प्रसादासादित- विपुळ-तुळापुरुष-महादान - हिरण्यगर्भ-त्रयाधिक दान वानर-ध्वज- विराजित - राजमानं मृगराज- लाञ्छन- विराजितान्वयोत्पन्नं बहु-कलाकीर्ण सान्तरादित्यं सकलजन- स्तुत्यं कीर्त्ति - नारायणं सौर्य-परायणं जिन पदाराधकं रिपु-बळसाधकं नीति-शास्त्रज्ञ बिरुद सर्व्वज्ञं नामादि- समस्त प्रशस्ति- सहितं श्रीमत् त्रैलोक्य मल्ल - भुजबळ -शान्तर - देवं शान्तळिगे - सासिरमं निर्दायादवुं निरा
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बलगाम्वेका लेख
२४९ कुळं माडि राज्यं गेय्युत्तिन्दुः स(शोक-वर्ष ९८७ नेय विश्वावसुसंवत्सरं प्रवर्तिसुत्तमिरे निजान्वय-राजधानि-पोम्बुझ्दोळ् भुजबळ-शान्तर-जिनालयक्के माघ-मासद · सुद्ध-पञ्चमी-सोमवारमुमुत्तरायण-संक्रमणदन्दु तम्म गुरुगळ् कनकणन्दि-देवगर्गे धारा-पूर्वकं माडि हरवरियं बिट्टम् । ( यहाँ सीमाओंकी विस्तृत चर्चा आती है)।
जिनशासनके कल्याणकी कामना । स्वस्ति । जब, (उन्हीं चालुक्य पदों सहित) चतुस्समुद्रपर्यन्त पृथ्वीके राज्यपर त्रैलोक्यमल्लदेव शासन कर रहे थे:
तस्पादपभोपजीवी,—जिस समय, (उन शान्तरके पदों सहित जो कि शि० ले. नं० १९७ में दिखाये गये हैं), त्रैलोक्यमल्ल भुजबल-शान्तरदेव, शान्तळिगे हजारको उपदवों और कष्टोंसे मुक्तकर शासन कर रहे थे;-(उक्त मितिको), अपनी राजधानी पोम्बुर्ष में भुजबल-शान्तर जिना. लयके लिये अपने गुरु कनकनन्दि-देवको हरवरिका दान किया थाः इसकी सीमायें । बसदिका ऐसा शासन (लेख) है।]
[EC, VIII, Nagar tl., n° 59]
२०४ बलगाम्बे-संस्कृत तथा कमड़ ।
_ [शक ९९०=१०६८ ई.] [ बलगाम्वेमें, बडगियर-होण्डके पासके भांगनमें पाषाण-खण्डोंपर ]
श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोवलाञ्चनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ खस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर ....... भट्टारकं सत्याश्रय-कुल-तिलकं चालुक्याभरणं श्रीमत्त्रैलोक्यमल्लनाहवम....."सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेय्युत्तमिरेयिरे ॥
वृत्त । मलेपर् म्माराम्परिल्लक्रमदितराटHरिल्लुर्कि दर्छन् । दले वावुद्वृत्तरिल्लोडजि-वेरसु कुरुम्बर्तरुम्बिपरिल्ले ।
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जैन - शिलालेख संग्रह
तलब केन्दुरित्र रिपुगव्लेिम्बिनं कुन्तकोर्त्री । तिळकं त्रैलोक्यमल्ल-क्षितिपतिगे धरा-चक्रदो क चक्र II लाट-कलिंग गंग-करहाट- तुरुष्क- वराळ चोळ-क- । र्णाट- सुराष्ट्र - माळवदशार्ण सुकोशल- केरळादि - - । शाटविकाधिपर म्मले निल्लदे कम्पमनित्तु निर्मिता । घाटदोळि अळवी-दोरेता हवमल देवन ॥
I
कन्द || इन्तु चतुरन्त-धात्री । कान्तेयनळवडिसि चक्रवर्त्ति श्रियम् । तां तळेदु सुखदे पल-का- । लन्तव तत्र निधिगवीशनाहव-मल्लम् ॥ वृत्त ॥ म धावन्ति वंग-द्रविळ- कुरु-खसाभीर- पाश्चाळ-लाळा दिगळं पेसेळे कोन्दुं कर्दुमसदनं कोट्टजं गोण्डुमाळो । लिंगे दण्डुं तो-तीनुं मनद तत्रकर्मु पोगदेन्दिन्द्रनं का- । डि गेलल कप्पं गोडलू वरिसि तळईनेकां गर्दि सार्व्वभौमम् ॥ गगन-नवाङ्कसंख्ये शक काळदोळागिरे कीळकाब्दकम् । नेगळे तदीय-चित्र- बहुळाष्टमियो रविवारदो जसम् । मिगे कुरुवर्त्तियो परम-योग- नियोगंदं तुम्..... "द्रेयोळ् । जगदपि त्रिविष्टपमनेरिदनाहवमल्ल-बल्लभम् ॥ कन्द || आ-चालुक्य - ललाम-म- । हा चक्रिय पेर्म्मगं धरा-तळमं गोत्राचळ-जळधि- परीतमन् । आ-चन्द्र- स्थायि यागळाळ्व महात्मं ॥ .... दिन- व्योम - नवाङ्क - संख्ये सक काळं वर्त्तिसल कीळकादद वैशाखद सुद्ध- सप्तमियोळ् इज्य-ज्योतियोळू शुक्रवा- । वृत्तं ॥ [रदोळत्यन्त-कुळीर-लग्न दोळिभाश्व-त्रात - रत्नातप- ।
च्छद-सिंहासन-पूज्य राज्य-पदमं सो[ मे ]श्वरं ताकिददम् ||
२५०
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roarrant लेख
वृत्तं || जयमं धर्म्म धर्मान्वयमनसदकं साधु-वर्गके वर्ग- । त्रयमं तन्नन्तरङ्गकोडरिसि धरेयं कूडे सन्मान-दान- ।
यदि सन्तसे काळं कृत- युग-मयमाप्तेम्बिनं तन्न राज्यो- ! दयदोळू लोकक्के रागोदयमोदविदुदेम् धन्यनो सार्व्वभौमम् ॥ आ-प्रस्तावदोळ ||
२५१
वृत्तं ॥
नव-राज्यं वीर भोज्यं पुगलिदवसरं सुत्तुवें गुत्तियं मु- । तुवेनेम्बी-गदि चोटिकनधिक बळं मुत्ति मार्-गुत्तियं प- । ष्णुवुदं केळदेत्तेनुत्तेत्तिद तुरग-धळन् तागे सप्तागदप्रा- 1 वो बेग सोमेश्वर-नृपन बळक्कोडिदं वीर-चोळम् ॥ पेसरं केळद कि बेकुर्त्तदु पर - धरणी-मण्डलं गण्डु - गेट्टाळू । वेसनं पूर्णदत्तु शौर्य्योन्नतिगगिदसुहृन्मण्डळ मेल्पनावर- 1 जिसिदोन्दाज्ञा-विसेपकेळसिद्द सुहृन्मण्डळं सन्तमिन्ता- । देसक वैगमे सोमेश्वर-नृपति मही-चक्रमं पाळिसुत्तम् ॥ अन्तःकण्टकरं पडबडसि दुर्गधीरं दुष्ट-सा- । मन्त-द्रोहरनुद्धताटविकरं निर्मूळनं गेय्दु वि- ।
कान्तारातिगळं कळल्चि धरेयं निष्कण्टकं माडि नि- । श्चिन्तं श्री भुवनैकमल-महिपं राज्यं गेयुत्तिर्पिनम् ||
वचन ॥
तत्पादपद्मोपजीवि समधिगत- पश्च-महा-शब्द-महा-मण्डलेश्वरनुदारमहेश्वरं चलके बलगण्डं शौर्य -मार्त्तण्ड पतिगेक- दार्श संग्राम - गरुडं मनुजमान्धातं कीर्ति - विख्यातं गोत्र - माणिक्यं विवेक-चाणिक्यं पर-नारी- सहोदरं
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२५२
जैन-शिलालेख संग्रह वीर-वृकोदरं कोदण्डपाथं सौजन्य-तीत्थं मण्डलिक-कण्ठीरवं परचक्रभैरवं राय-दण्ड-गोपालं मलय-मण्डलिक मृग-शार्दूळ श्रीमत् त्रैलोक्यमल्लदेव-पाद-पङ्कज-भ्रमरं श्री-भुवनैकमल्ल-बल्लभराज्य-समुद्धरणं पति-हिताभरणं मण्डलिक-मकरध्वज विजय-कीर्ति-ध्वजं मण्डळिक-त्रिनेत्रं रिपु-रायमण्डलिक-यम-दण्डं जयाङ्गनालिङ्गित-दोर् द्दण्डं विसुळर-गण्डं गण्ड-भूरिश्रवनेम्बिव मोदलागे पलवुमन्वाङ्क-मालेगळिनलंकरिसि ॥ कं ॥ त्रैलोक्यमल्ल-बल्लभन् - । आळेनिसिदरोळगे मिक्क पसयितनुं मिकाळु मिकश्मिन ब- । लाळं लक्ष्मणने पेररनरिवरुमोळरे ॥ भुवनैकमल्ल-देवन । भवनदोळं ताने मानसं ताने महा- । व्यवसायि ताने विजय- । प्रवर्द्धकन् ताने पसयितं लक्ष्म-नृपम् ।।
अन्तेनिसि ॥ वृत्त । अणुगाळ कार्य्यद शौर्यदाळ् विजयदाळ चालुक्य-राज्यक्के का
रणमादाळ् तुलिलाळ्तनक्के नेरेदाळ कायदाळ मिक्क म-। न्नणेयाळ् मान्तनदाळ् नेगळ्ते-बडेदाळ विक्रान्तदाळ मेळदाळ् रणदाळाळ्दन नचुवावेडेयोळं विश्वासदाळ् लक्ष्मणम् ।। एरडुं राज्यदोळं प्रजा-परिजनं कोण्डाडे चक्रेशरि-। बरु मोरन्दद कूमेयिन्दे बनवासी-देशम शासनम् । बरेदश्व-द्विप-पट्टसाधन-समेत कोट्ट कारुण्यदिम् । पोरेयलमण्डलिक-त्रिणेत्रनेसेदं भू-भागदोळ् लक्ष्मणम् ।। किरिय विक्रम-गङ्ग-भूपनेनगा-पेाडि-देवङ्गे नेगिरियं वीर-नोणम्ब-देवनेनगं पेडिगं सिङ्गिगम् । किरियै नीं निनगेल्लरुं किरियरेन्दग्गय्सि कारुण्यदिम् । नेरे को प्रतिपत्ति-वृत्ति-पदमं लक्ष्मने सोमेश्वरम् ।।
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बलगाम्वेका लेख
२५३ मिगे बनत्रासे-नाळके विभु लक्ष्मणनागे नोळम्ब-सिन्दवाडिगे विभुवागे विक्रम-नोळम्बनळंपुरमादियाद भू-। मिगे विभु गङ्ग-मण्डलिकनागे यमाशेगे नीळ्द लाड़-विण्डिगेयेने कण्डु कोट्टनवर्गा-नेलनं भुवनैक-वल्लभम् ॥ मदवद्वैरि-नरेन्द्र-मण्डलिक-सेना-भञ्जनं वीर-नी। रद-दुरि-समीरणं वितरण-क्रीडा-विनोदं प्रताप-दिलीपं रिपु-पुञ्ज-कच-वन-केती-कुञ्जरं लञ्जिका-।
मदनास्त्रं चलदङ्क-राम नृप-लक्ष्मी-लक्ष्मनं लक्ष्मणं ॥ कं ॥ बलिवलेव मलेव केलेवद-टलेव पळश्चलेव मलेपरेल्वं मुरिदं ।
मलेयद केलेयद बलियद । मलेपरनिसुवेसके बेससिदं लक्ष्म-नृपम् ॥ वृ ॥ धाळियनिट्ट कोङ्कणमनङ्कणियोक्किदपं तगुळ्दु कोम्ब्-।
एलुमनट्टि मुट्टि मले-येळुमना ""मुचि मुक्ति नि
ळिमिदप्पनेन्दु मलेपर्त्तले दोरदे रायदण्ड-गो-। पाळ नृपङ्गे मुन्दुवरिदेन्दुःनेन्दपरेम् प्रतापियो । आळ्बलमुळेडश्व-बलमिल्ल भटाश्व-बलङ्गळुछडम् । नोळ्वलमिल्ल भृत्य-हय-दोर्-बलमुडमेलङ्गळिल्छ । आळ् वेसगेय्यदेके बलिवर मलेपर म्मलेयेम्बुदेनदम् । बेळ्चलमागे मुन्तुळिदनल्लने लक्ष्मणनेम्ब कावणम् ॥ कवि दुग्ग चातुरङ्गं बबसे दम्वुळं धाळि सूळेरेनिप्पा-। हबदोळ् चालुक्य-रामं बेससे रिपु-बळक्केननिन्द्रारियन्नम् । भवननं भद्रननं सिडिल बळगदन्नं ज्वळ-ज्वालियनम् । जवनन्नम्मारियनं समर-समयदोळ् लक्ष्मणं रामननम् ॥ कुदुरेय मेले बिल परसु शूलिगे तीरिके भिण्डिवाळमे।
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सत्तिका लेख
२६१
•
*
शीकर काळानळनु (ने) तदप्प (?) भयंकरवि[द्वि ] महिपाळ मेघलयकाळोत्पातवातं क्षितीश्वर - चूडाम [णि] [II] श्रीवनितेशं कीर्तिश्रीवनिताधीशनुदित संशुद्धवच (चः ) श्रीरमणीशं वीर (श्री) .............[| जिन ] नारा घिपदेवनुद्धचरितत्रियावन
टासनधर्म्मा (?) रुगळ्बिरो
....
जनकनुर्विजाते प्रत्यक्ष गोमिनि तायि
मैळलदेवियेन्दधिक'
• नोकद मतक्किवर्ण (?) री क्षितिपति सैनि (?) र वधूप्रकर "दिति" - आतन कुळांगने [11] श्री निते ताने बन्दु मही वनितेगे तिळकमेनिसि कत्तन वक्ष (क्षः) श्रीवनिते नेगई [भाग]लदेवी जगज्जननि सज्जनाग्रणियेनिकु ॥ आ दंपतिगळगे गिरिसुतेगं हरंगमनुरागदे षण्मुखनेन्तु पुट्टुवंत (वि) रे नगर्द रुग्भिणिगमा ह[रिंग] स्मरन्तु पुडुवन्तिरे सले कान्तिग रविगमर्कतनूभव तुपुहुवन्तिरलवग्गोंदु पुट्टिदनु रगु कलि सेनभूभुज ॥ अवनीपालानत श्री पद कमलयुगं तत्वनिणिक्तराद्धान्तवि चारित्ररत्नाकरन मळवच (चः) श्रीवधूकान्तनं गोद्भवदपरण्यदावाननुदितलसद्बोधसंशुद्धनेत्रं रविचन्द्रस्वामि भव्याम्बुजदिनपन चौवादिसद्वज्रपात ॥ कं ॥ कंडूगणान्धिचन्द्रन खण्डितसुतपोवि भासिखण्डितमदनं डिंडीरपिंड सुरवेदण (ड) [य] शशपिण्ड नर्हणंद मुनीन्द्र || मल्लिकामाले || कन्तुराजगजेन्द्रकेसरि भ[ व्यलोकसुखाकरं कान्तवाग्वनिता मनोरमनुप्रवीरतपो ] मयं शान्तमूर्ति दिगन्तकीर्तिविराजि दडा ( ढाभिमानी रणभूसेनानि रवान्वयश्रीनेत्रं बुधमित्र नुज्य ( जय ) ळयशश्पात्रं नृपं रंजिपं आ सेनावनिपंगमप्रतिमलक्ष्मी देविंग पुट्टिदं । भूसंरक्षणदक्षदक्षिणभुजं विध्वस्तशत्रु (त्र ) जं त्रासानम्रनृपालपाळितजयश्रीस (श) स्तान्विता
...
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२६२
जैन-शिलालेख संग्रह भासं सूनृतवाग्विळासनवनीनाथोत्तमं कत्तमं ॥आ विभुविन वधु पबलदेवी कळारूपविभवजिनमतदोब्वाग्देवी रतिदेवी लक्ष्मीदेवी शचीदेवियेनिसि मिगे सोगयिसुवळ् ॥ श्रीपति ना विष्णुः पृथुवीपति येने लक्ष्मीदेवनोगेदु वसुदेवोपमकत्तमविभुगं श्रीपालदेवियेम्ब मुतदेवकिगं ॥ प्रकटिततेजनन्वयसरोजसमूहविकासि(शि) सज्जनप्रकररथांग सम्मदकर (२) नियताभ्युदयप्रशोभिताधिकनिजमण्डकं जितकळंक पवित्रचरित्रनागि चन्द्रिकेगधिनाथनादनिदु विस्मयन्त प्रभुलक्ष्मीभूभुजं ॥ श्रीयुवतीशहेमगरुडध्वजमंडितमण्डलेश्वरनारायणलक्ष्मणंगे तनुजम्भुजदन्ते धरोरुभारधौरेयरनून दानजयधर्मधरविभुकार्तवीर्यलक्ष्मीयुतमल्लिकार्जुन महीश्वररादरतयंविक्रमर् ॥ परचक्र निजविक्रमक्कगिदु तेजःच ( जश्न ) क्रमं बिटु कोवर चक्रक्केणे याप्प नन्तिरेविनं दिक्चक्रम ब्यापिसुत्तिरे
[यह लेख भी एक टुकड़ा है और उस पाषाण-तलसे लिया गया है जो मि० फ्लीटको उस मन्दिरके आँगनमें आधा गड़ा हुभा मिला था जिसमें कि पूर्वके दो लेख (नं. १३० और १६०) मिले थे। इसमें नमसे ले कर कार्तवीर्य द्वितीय तककी वंशावली मिलती है । का० द्वि० को चालुक्य राजा भुवनैकमलदेव या सोमेश्वर द्वितीय बतलाया गया है। इसका काल सर डब्ल्यू इलियट (Sir W. Elliot) ने शक ९९१ ? (१०६९७०६० ) से लेकर शक ९९८ ( १०७६-७ ई० ) तक बताया है । इसमें उसके पुत्र सेन द्वितीयका नाम भी आता है, लेकिन लेखकी वंशावलिके भागका मुख्य उद्देश्य स्पष्टतः ७ वी पंक्तिमें है जिसमें कार्तवीर्यकी सन्तान-परम्पराका उल्लेख है। यही कार्तवीर्य उस समय अपने कुटुम्बका प्रतिनिधि था, उसका पुत्र सेन नहीं, क्योंकि वह उस समय निरा बच्चा रहा होगा। दानगत लेखका भाग लुप्त है।] [JB, X, p. 172, a; p. 213--216, t.; p. 217-219, tr. (ins. n° 4)]
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बन्दालिकेका लेख
२६३
मुल्लूर-संस्कृत तथा काड़
[काल लप्स पर लगभग १०७० ई.] [मुल्लूर (निडुत परगना )में, पार्श्वनाम बस्तिके पश्चिममें तीसरे पाषाणपर]
.................. यानिधि सत्या..............."ल-देवि ॥ भूतल ............विनिर्गत..........."लोक्यविख्याते............यण मोक्षदे ..........."वर्ण............द्यामुलं........पनिद..."मालि........... नुर्वीपाळ-भूत 'बरसिद कारुणियोदव"......."न वचन काय वद्दिग ......"तुन्छिन":....यम्बन्तिरे स.........."त दिविजलोक ॥ खं .........."पृथुविकोङ्गाळवनरसि....
[यह समस्त लेख बहुत बिगड़ा हुआ है। किसी मरे हुएका स्मारक है । और पृथुविकोङ्गाळवकी रानी..........]
[ EC, IX, Coorg tl., n° 36]
बन्दलिके-संस्कृत तथा कन्नड़-भग्न
[शक ९९६=१०७४ ई.] [ बन्दलिकेमें, उसी बस्तिके उत्तरकी ओरके एक दूसरे पाषाणपर]
भद्रं समन्तभद्रस्य पूज्यपादस्य सन्मतेः । अकलंक-गुरोर्भूयात् शासनाय जिनेशिनः ॥ श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाच्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ खस्ति श्री-प्रमदा-प्रमोद-जनकं यस्योरु-वक्ष-स्थलम् यद्दोईण्ड-कृतान्त-वक्त्र-विवरे मनं द्विषट्-पार्थिवैः ।
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२६४
जैन - शिलालेख संग्रह
यस्येयं वसुधा चतुर्जलनिधिर्व्यावेष्टिता प्रेयसी जीवाच्छ्री भुवनैकमल्ल नृपतिः सोऽयं नतानन्दनः || तेनेदं नरपाल-मौलि-विळसन्माणिक्य-लीढाङ्क्षिणा श्रीमद्-मल्ल-सुतेन शासनमहो दत्तं द्विषणमाथिना । आहारादि चतुर्विधं मुनिगणे दानं च यस्य प्रियम् तेनाप्तं कुलचन्द्र-देव- मुनिना शुभ्रभ्र-सत् कीर्त्तिना (म्) |
स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री - पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय-कुळ- निळकं चालुक्याभरणं श्रीमद्-भुवनैकमल्लदेवर विजय राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रबर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारं बरं सलुत्तमिरे बङ्कापुरद नेलेवीडिनोळ्ळ सुख-संकथा- विनोददिं राज्यं गेय्युत्तमिरे ॥ तपादपद्मपजीवि स्वस्ति समस्त - भुवन प्रस्तुत ब्रह्म-क्षत्र वीरान्वय श्रीपृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वरं कोळाळ- पुरवरेश्वरं विक्रम-ग जयदुत्तरङ्गं ...........मणि मण्डलिक-मकुट - चूडामणि श्रीमच्चा.... पेड भुवनेक वीरनुदयादित्यनुं चालु ल-स्तम्भं नर वैद्यं कुमार मण्डलिकं बुद्धर गेष्यलु श्रीमद्-भुवनैकमल - देवरु भर 'क्रवर्त्ति - नवीकृतमप्प बन्दणिकेय तीर्थ शान्तिनाथ- देव .......त नवीकारलाप्रवर्तन
...
कालान्तरित-पु
'नव' " द कम्पणं नागरखण्ड ....... बाड
शक वर्ष ९९६ रनेय आद पुष्य-मासदुत्तरायण-संक्रमण... श्री-मूल- संघान्वय-क्राणूर-ग्गण ...च्छद् सिद्धान्त-वाद्धि-चू
श्रीमदुभयप राम (परमा) नन्दि - सिद्धान्त - देवर शिष्यरु कुळ ' देवर कालं कचि सर्व्व- नमश्यं धारा- पूर्व " ब्रशासनमुं शिला - शासनमुं माडि ... ... ( हमेशा के अन्तिम वाक्यावयव
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बलगाम्वेका लेख
२६५ और श्लोक)........तं रितोक्ति-सहितं............"ख मुखाब्ज-लसित ......"मतोदयं सद..... मदनेम्बिनं नेगळ्द............( हमेशाका मन्तिम श्लोक)।
[जिनशासनके कल्याणकी कामना । श्रीमद् मल्लके पुत्रद्वारा यह शासन (दान) कुलचन्द्र-देव-मुनिको मिला था। जिस समय (चालुक्य पदों सहित) भुवनैकमल-देवका विजय-राज्य प्रवर्द्धमान था और वे बंकापुरमें रहते थे:-तत्पादपद्मोपजीवी चालुक्य पेाडि भुवनैकवीर उदयादित्य शासन कर रहे थे;--भुवनैकमल-देवने शान्तिनाथ मन्दिरके लिये, (उक मितिको), मूलसंघान्धय तथा काणूर-गणके परमानन्द सिद्धान्त-देवके शिष्य कुलचन्द्र देवको नागरखण्ड में भूमिदान किया।]
[ EC, VII, Shikarpur tl., n. 221.]
२०८
बलगाम्वे-कबड़ [विना काल निर्देशका, पर संभवतः लगभग १०७५ ई. ?] [बलगाम्वेमें, चन्न-बसवप्पके खेतमें भग्न जिन-मूर्तिपर ]
(नागरी अक्षर) स्वस्ति श्री चित्रकूटाम्नायदावलि मालवद शान्तिनाथ-देवसम्बन्ध श्री-बलात्कार-गण मुनिचन्द्र-सिद्धान्त-देवर शिसिनु अनन्तकीर्ति-देवरु हेग्गडे केसव-देवङ्गे धारा-पूर्वकं माडि कोटेवु प्रथिष्टे पुण्य सान्ति ( यहाँ दानकी विगत दी हुई है)।
[बलात्कार-गणके, मालवके शान्ति-नाथ-देवसे सम्बन्धित चित्रकूटामायके मुनिचन्द्र-सिद्धान्त-देवके शिष्य अनन्तकीर्चि-देवने हेग्गडे केशवदेवको दान दिया ( यहाँ उसकी विगत है)।]
[ EC, VII, shikapur tl., n° 134.]
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२६६
जैन-शिलालेख संग्रह
कुप्पुटूरू-कन्नड़
[शक ९९७=१०७५ ई.] श्रीमज्जयत्यनेकान्त-वाद-सम्पादितोदयम् । निष्प्रत्यूह-नमपाकशासनं जिन-शासनम् ।। पदिनाल्कु..................''आस्पदमा- ।
दुदशेष-लोकमल्लिर-प्पुदु मध्यम-एक-रज्जु-प्रमितम् ॥ आ-मध्यम-लोकद
............."नडुबण। पोम्बेद तेङ्कलेसेव भरतावनि"......।। ......"बुजवदनेय कुन्तळव् । एम्बन्ते सेदत्त ललित............. ॥ कुन्तळ-भूतळक्के तोडवादुदु तां वनवासि-देशमो- । रन्तेसेवग्रहार-पुर-पल्लिगळिन्दुरु-नन्दनानियिन् । दं तुरुगिई शाति-वनदिन्द्.......।
क्रान्त-विरोधियिर्दु वनवासियोळन्वय राजधानियोळ् । खस्ति समधिगत-पञ्चमहा-शब्द महा-मण्डळेश्वर वनवासि-पुरवराधीश्वर"........"लब्ध-बर-प्रसादं कादम्ब-कुळ कमळ-मार्तण्डनेनिसिद कीर्ति-देवन वंश-वीर्य-प्रभावमेन्तेन्दडे ॥
विनुतानन्द-जिन-व्रतीन्द्र-भगिनी......। वन-जैनाङ्गि-सरोज-भृङ्गनधिकाभ्यस्तास्त्र-शास्त्रं...। ""नुतोीज-तळ-प्रसूति-वर-वानप्रस्थ-तद्-योगि-पू- । जन-शीलं वनवासियागि......."इन्द्रोत्तमम् ।।
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गुडिगेरीका लेख
२७५ ३२ न्दुमं प्रतिपालिसुत्रवर्गे वारणासि कुरुक्षेत्रं प्रयागेयग्य॑तीर्थ ___मोदलागि पुण्यतीर्थङ्गयो३३ ळु सूर्यग्रहणटोळु मासिर कविलेयनलङ्कारसहितं चतुर्वेदपार
गरप्प मासिळाह्म३४ णर्गेयुभयमुखिगोट प(फ)लमकुवी धर्ममनछियल मनंद
दवग्गयिन्ती पुण्य-तीर्थङ्ग टोळु सासि३५ रकविलेयुम [म् ] सासिाह्मणरुमनलिद पञ्चमहापातकनक्कु ।।
ॐ स्वस्ति श्रीमत् परवादि-शरभ-भे३६ रुण्डापरनामधेयरप्प श्रीनन्दिपण्डितदेवर्मत्तमा पडुववोल
दोनगे पन्निवर्गावुण्डुगन्गे दये-गेय्दुम्बलियागि ३७ कोट मतन्नर पन्नोन्दु पेगडे प्रभाकरय्यन मग रुद्रय्यङ्गे दये
गेदम्बळियागि कोट्ट मतपेदि३८ नाल्कु । सेनबोव हब्बणंगे दये-गेय्दुम्बळियागि कोट मत्त
पदिनाल्कु भूकियर-कावण्णंगे दये-गेय्दुम्बळि३९ यागि को मत्तरेलु कन्तियर-नाकय्यङ्गे दये-गेय्दुम्बळियागि ____ को मत्त ल्कु कम्मवरुनूरु श्रीमद्भवनै४० कमल्ल-शान्तिनाथ-देवमुनमस्यमागि पडेद मत्तरिात्तु ।
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः य४१ स्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा प(फ) लम् ।। खदत्तां
परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धराम् पष्टिवर्षसहस्रा- । ४२ यां (णि) मि (वि) ष्ठायां जायते कृमिः ॥ { प्रभाकर ( पंक्ति २) या प्रभाकरय्य (पंक्ति. ३) नामके 'पेर्गडे' की जगहपर काम करनेवाले एक अधिकारीके वर्णनके साथ यह लेख शुरू होता है। उसके समयमें श्रीनन्दि पण्डितदेव (पं. ७) सिरियनन्दि
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२७६
जैन - शिलालेख संग्रह
सुनीन्द्र ( पं. ९ ), या सिरिणन्दि ( पं. १७) नामके गुरु थे जो सर्व पदार्थों के व्याख्यान करनेमें चतुर थे, जिनकी पदवी 'परवादिशरभ - भेरुण्ड' ( पं. ६) थी । जब ये आचार्य, श्रीनन्दिपण्डित, तपश्चर्या में संलग्न थे, उनके शिष्य 'अष्टोपवासिगन्ति' ( पं. १० ), या अष्टोपवास- कन्ति (पं. २९ ) थे, जो जिनधर्मके उद्धार करनेमें बहुत प्रसन थे । और इनको श्रीनन्दि पण्डितसे सात 'मसर' भूमिका 'नमस्य' दान मिला था और इस दानका उपयोग ध्वजतटाक ( पं० १२ ) ( गाँवके) १२ ' गवुण्डु' सरदारोंकी छत्रछायाके नीचे, पार्श्वजिनेश्वरकी पूजा तथा शास्त्र लिखनेवालोंके भोजनके प्रबंधके लिये किया। इसके बाद लेखमें एक 'सेनबोव' या पटवारी सिङ्गण ( पं. १३ ), सिङ्ग ( पं. १४ ), या सिङ्गय्य ( पं. २२ ) का उल्लेख आता है जो जिनधर्मभक्त था । यह सिङ्ग श्रीनन्दिका पटवारी था ।
इसके बाद कथन है कि अनल संवत्सर, जो व्यतीत शक सं. ९९८ था, की श्राही या भाश्रहीमें श्रीनन्दिपण्डितको गुडिगेरीकी भूमि में पश्चिम दिशाके खेतोंका अधिकार मिल गया था । ये खेत, एक ताम्रपत्र के अनुसार, उस आनेसेज्जेय बसदिके जैनमन्दिरके अधिकारमें थे, जिसको श्रीमत् चालुक्यचक्रवर्ती विजयादित्यवल्लभकी छोटी बहिन कुङ्कुममहादेवीने पहले पुरिगेरी में बनवाया था । श्रीनन्दि पण्डितने इन खेतोंमेंसे अपने शिष्य सिङ्गय्य ( पं. २२ ) को, 'सर्वनमस्य' दानके तौर पर, १५ मत्तर भूमि दी । सिङ्गय्यने यह भूमि गुडिगेरीके मुनियोंके आहारके प्रबन्धके लिये दे दी, और इस बातका ध्यान रखते हुए कि इसकी उत्पन्न इसी कार्यमें खर्च होती है, किसी दूसरे धर्म या कार्यमें खर्च नहीं होती, यह काम राजा, पण्डितों, १२ 'गावुण्ड' लोग, और शेष सभी धार्मिक लोगों को ( पं. २५ ) सौंप दिया। जबतक चन्द्र, सूर्य और समुद्र तथा पृथ्वी हैं तबतक यह दान जारी रहे, यह बात भी निगाह में रखनेके लिये इन लोगोंको कहा । इसके पश्चात् इस भूमिकी सीमायें दी हुई हैं ।
उन्हीं पश्चिम दिशाके खेतोंमेंसे श्रीनन्दि पण्डितने, लगान-मुक्त जमीनके रूपमें, १२ गाण्डों को १११ मत्तर (पं. ३६ ); 'पेर्गडे' प्रभाकरथ्यके पुत्र रुय्यको १५ मन्तर सेनबोब हन्वण्णको १५ मन्तर ( पं. ३८ );
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हुम्मचका लेख
२७७ मूकियर-काधण्णको ७ मत्तर; कन्तियर-नाकस्यको ४ मत्सर और ६०० 'कम्म' (पं. ३९); और 'सर्वनमस्य'-दानके रूपमें श्रीमद्भुवनैकमल्ल शान्तिनाथदेवको २० मत्तर (पं. ४०) दिये । भुवनैकमल शान्तिनाथदेव नामका मन्दिर 'भुवनैकमल्ल' विरुदवाले पश्चिमी चालुक्य राजा सोमेश्वर द्वितीयने बनवाया था या उसमें शान्तिनाथकी प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी।
[ ई० ए०, १८, पृ० ३५-४०, नं० १७३ ]
मथुरा-संस्कृत
सं० ११३४-१०७७६० [ पद्मासनस्थ तीर्थकरकी विशाल मूर्तिका लेख ] [इस मूर्तिका लेख साफ-साफपढ़ने में नहीं आता। कुछ भाग पढ़ा जाता है, कुछ नहीं । परन्तु लेख सिर्फ दो पंक्तियोंका है । इस मूर्तिका लेख सिर्फ कालकी दृष्टि से ध्यान देने योग्य है। डा० फूहरर् (Dr, Ftihrer ) के मतसे यह लेख बताता है कि इस मूर्तिका निर्माण मथुराके श्वेताम्बर सम्प्रदायकी तरफसे हुआ था। शेष लेख नं. १६१ के अनुसार जानना ।]
[ Antiquities of Mathura, (ASI, XX), p. 53, t.}
हुम्मच-कन्नड़ [विना काल-निर्देशका; पर लगभग १०७७ ई० का]
[ हुम्मचमें, सूळे बस्तिके सामनेके मानस्तम्भपर ] ( पश्चिम मुख ) श्री-वीरसान्तरन पिरिय-मगं तैलह-देवं भुजबळशान्तरनेन्दु पट्टमं कट्टिसि कोण्डु पट्टण खामि माडिसिद तीर्थदबसदिगे बीजकन बयलं बिट्टन् (वे ही शापात्मक वाक्यावयव ) खस्ति समधिगत-पञ्च-महा-कल्याणाष्ट-महाप्रातिहार्य-चतुस्त्रिंशदतिशय
1 "Progress Report" for 1890-91, p. 16.
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૨૭૮
जैन शिलालेख संग्रह विराजमान भगवदर्हत्-परमेश्वर-परम-भट्टारक-मुख-कमळ-विनिर्गत-सदसदादिवस्तु-खरूप-निरूपण-प्रवीणरुं सिद्धान्तामृत-बार्द्धि-चाौत-विशुद्धेद्ध-बुद्धि-समृद्धरुभय-सिद्धान्त- रत्नाकररप्प श्रीमद्-दिवाकरनन्दि-सिद्धान्त-देवर गुड्ड स्वस्त्यनेक-गुण-गणाभिमण्डनं नरवर-मुख-मण्डनं शान्तर-राज्याभ्युदय कारणं कलि-युग-दोष-निवारणं शान्तळि-देशकान्तारान्तर-जङ्गम-तीर्थ कलि-युग-पाय बोम्बु कुलोद्भव-दिवाकर जिन-पाद-शेखरं आहाराभय-भैषज्य-शास्त्रदान-कानीनं विशद-यशोनिधानं सम्यक्त्व-बाराशियुमप्प श्रीमः पट्टण-स्वामि-नांकय्य-सेट्टियर वृत्त || जिन तत्व व्याप्त-चित्तं जिन-मन-तिनकं जन-कल्पावनीजं ।
जिन-धर्माम्भोधि-चन्द्रं जिन-समय-सरोजाकरोत्तंस-हंसम् । जिन-राज-स्तोत्र-माळाविळ-मुख-कमलोद्भासि सिद्धान्त रत्ना-।
कर-देव-श्री-पदाम्भोरुह-मधुपनेनल पट्टण-स्वामि सन्दम् ॥ (उत्तरमुख ) गुणिगल् सिद्धान्त-रत्नाकररमल चरित्रमहा-योगि-वृन्दा- ।
प्रणिगळ श्री-शान्तिनाथ-क्रम-कमळ-युगाराधकर भारती-भू-। पणबुद्धर् ज्ञानिगळ् देशिग-गण-निळकर जैन-सिद्धान्तचूडा-। मणिगळ् श्री-पट्टण-खामिगे गुरुगळेनल नोक्कनन्तार् कतार्थर् ।। परम-श्री-जैन-धर्मकृतिशय-विभव मार्प विद्वजनक्का- । दरदिन्दं सन्तोसं माडुव मुनि-जनकाहार-भैषज्यम वि- । स्तरदिन्दं चिन्ते-गेय्बुन्नत-गुण-युन पट्टण-स्वामि नोक्कम् । बरमार भव्यर्कळ् अन्ता पुरुष-रतुनदि बीर-देवं कृतार्थम् ।। हरि-संवातदे कुट्ट-पेत्त बडय-ज्वाळाळियि बेन्द मी-। कर-पाठीन-तिमिङ्गिळानियिनतिक्षोभक्के सन्दिळ्दग- । स्त्यरिनप-प्राशनकेय्दे वारदति-तीक्ष्ण-क्षार-वारि-प्रभ-।
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हुम्मचका लेख .
२७९ गुर-वाराशियोन्तु पोलिपुदो पेळ् सम्यक्त्व-बाराशियम् ॥ सिरिगावासमनेक-रत्न-निचयोत्पत्त्याश्रयं भीरु-र- । क्ष-रतं चन्द्र-कळा-प्रवर्द्धन मुदं पीयूष-पिण्डास्पदम् । वर-वेळा-वळयामृतं समतेयिं वारासि पोल्तुं मनो- ।
हर-दानत्वदिनेय्दे पोलदे वलं सम्यक्त्व-बाराशियम् ॥ पट्टण-खामिय मग मल्लं बरेदम् । (पूर्वमुख ) जडलं बाळकरुं बुध-प्रकरमुं तत्त्वार्थमं कल्तघम् । किडे सम्यक्त्वमनेब्दि सप्त-परम-स्ता(स्था)नाप्तियं निश्चयम् । पडेयल् माडिदरोप्पे ........."तत्वार्थसूत्रके क- । न्नडदिं वृत्तियनेल्लिगं नेगळ्पिनं सिद्धान्त रत्नाकर ।। कन्तु-दर्प-हरं जिनं तनगाप्तनाळ्दनवार्य-वि- । क्रान्तनोळ्गलि वीर-शान्तरनम्मणं गुणि तन्दे दिग्-। दन्ति-वर्तित-कीर्तिगळ् गुरुगळ् दिवाकरणन्दि-सि-। द्धान्त-देवरेनल्के पट्टण-सामिनोकने सन्नुतम् ॥ स्नानं पञ्चामृताख्यं पटु-पटह-रणं झल्लरी-शब्दरम्यम् पूजां पुष्पाभिरामं मळयज-पयसा लेपनं दिव्य-धूपम् । नित्यं कृत्वा जिनानां सकळ-जन-दया-जीव-रक्षान-दानम् पोम्बुर्हित्-प्रतिष्ठा तव भवति परं लोक-विद्या-विवेकः ॥ दारिद्य-लोभ-मद-भय-नाशकरं एकमेव तत्क्षणतः । पञ्चाक्षरमिदं मन्नं पट्टण-सामि ते जप-विबुधम् ॥ पुसि नुडिव चपल-वित्तियोळ् । असदळमेसगुव पराङ्गना-सङ्गतिगा। टिसुव तवगिल्लदोळ्पम् ।
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जैन - शिलालेख संग्रह
पसरप नररण्म- नोनं पोल्तपरे ।
( दक्षिण मुख ) चारु चरित्ररी-दोरेयरारेनिपोळिपन चन्द्रकीर्ति-भ- | वारकरम - शिष्यरघ- हारिगळाईत तस्त्र-वस्तु-वि- ।
२८०
स्तारिगळङ्गजारिगळशेष- विशेष - गुणावली-मनो- | हारिगळेम्बिनं नेगळदरल्ते दिवाकरणन्दि सूरिगळ् ॥
वचन ॥ उभयसिद्धान्त-चूडामणिगळु त्रैविद्य दैवरुमेनिसिद श्री दिवाकरनन्दि - सिद्धान्त - रत्नाकर - देवर शिष्य ||
सकलचन्द्र-मुनि-नाथरुर्व्वरा - । सकलदोळ् परम-योग्यरेम्बुदम् ।
ककुभ -दन्तिगळ दन्तदोळ् करम् । प्रकटमागे बरेदं पितामहम् ॥
वचन ॥ सम्यक्त्व - वाराशियुमेनिसिद पट्टण-स्वामिनोकय्य सेवियर
मगम् ॥
सुन्दर - रूपदि विनयदिन्दभिमान दिनोळिपनि जना- | नन्द - परोपकार - गुणदिं सुजनत्यदिनोजेयिं जगद्- | वन्दित-कीर्ति पुण्य-निधि तन्देयोळच्चिनोळोत्तिदन्ननेन्दू- । अन्देले वैश्य वंश - तिलकं नेगदिन्दिरनेम् कृतार्थनो ॥
[ वीर-शान्तरके ज्येष्ठ पुत्र तैलह देवने, जो भुजबल-शान्तर नामसे भी ज्ञात था, राजा होकर, पट्टण-स्वामिके द्वारा निर्मित तीर्थद-बसदिके लिये मन्दिरके दानके रूपमें, बीजकन बयल्का, दान किया। (शाप )
भगवद द्वारा प्रतिपादित सत्य और असत्यकी प्रकृतिके प्रतिपादन करनेमें निपुण दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव थे, जिनके गृहस्थ-शिष्य पट्टणा स्वामी नोकय्यसेहि थे। उनकी और उनके गुरुकी प्रशंसा । उसके द्वार
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हुम्मचका लेख
२८१ पीरदेव भी सफल हैं । भागेके श्लोकोंमें उनकी समुद्रसे तुलना की गई है। पष्टण-स्वामीके पुत्र मछने इसे लिखा।
सिद्धान्त-रत्नाकरदिवाकरनन्दिने मूखों या बचों तथा विद्वानोंके सबके भवबोधार्थ कमडमें तत्वार्थसूत्रकी वृत्ति लिखी। पट्टणस्वामीके इष्ट देव जिन थे; उसके शासक वीर-शान्तर थे, उनके पिता अम्मण, गुरु दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव थे। (जिनकी पूजाके लिये दैनिक सामग्री तथा लोगोंके कल्याणका वर्णन करनेके बाद ),-नोककी प्रशंसा।।
चन्द्रकीर्ति-भष्टारकके मुख्य शिष्य दिवाकरनन्दिसूरिकी प्रशंसा। उन्हींका अपर नाम सिद्धान्त-रवाकर था। उनके शिष्य सकलचन्द्र-मुनिनाथ थे। पट्टण-स्वामीनोक्कय्य-सेट्टिके पुत्र वैश्य-वंश-तिलक इन्दरकी प्रशंसा ।]
[EC, VIII, Nagar tl., n° 57]
२१३ हुम्मच;-संस्कृत तथा कन्नड़
[शक९९९=१०७७ ई.] [ हुम्मच में, पञ्चबस्तिके आँगनके एक पाषाणपर ] भद्रमस्तु जिन-शासनाय ॥
श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ।। शक-वर्ष ९९९ नेय पिङ्गळ-संवत्सरं प्रवर्तिसुत्तमिरे स्वस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ-तिळकं चालुक्याभरणं श्रीमत्-त्रिभुवनमल्ल-देवर राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि प्रवर्धमानमा चन्द्रार्कतारं सलत्तमिरे । तत्पादपभोपजीवि ॥ समधिगतपञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरनुत्तर-मधुराधीश्वरं पट्टिपोम्बुञ्च-पुर-वरेश्वरं महोग्र-वंश-ललामं पद्मावती-लब्धवर-प्रसादासादित-विपुळ-तुळापुरुष-महादान-हिरण्यगर्भ-त्रयाधिक-दान वानरध्वज
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॥ आतनि विरिय - बासक-महीभुजा लोसमझनामसिदाहवमल्लदेवन मावनष्यण रेबरसन लाम् सावि लिम्मजिवि विनियकालदेविगं पुटिद गोविन्दरदेव ॥ क ॥ निरवद्य-चरितनन्वय
धुरन्धरं सत्यवाक्य निबर-गण्डम् । परचक-बाळशं ग-1
ण्डरमूकुति गण्ड-दल्लळं नृपतिळकम् ॥ वृ ॥ वसुधालंकारनारोहकर मोमद कै बल्कणि ब्रह्मनुप्रा।
रि-समूहोत्साह-शक्ति-प्रलय-कर-करामीळ-खळगा यशश्श्री
प्रसर-प्रच्छन्न-दिङमण्डलनधिक बळं गङ्ग-नारायणं २- । कस-गलं गङ्ग-चूडामणि निऋप (नृप )-तिळकं वीर-मार्चण्डदेव ।।
क ॥ तळियं दाटुव करियम् ।
घलिलेने पिडिदुगिये निज-शिरं पेचकमम् । कळिदुदु करि-सिरमुरमम् । पळिलेने तागिदुदु कदन-कण्ठीरवन ।। आतननुजं जगद्-वि-। ख्यातं कोमरङ्क-भीमनामुनि-देवम् । नीतिज्ञनधिक-तेजन-।
राति बळ-प्रलय-काळनाहब-धीरम् ।। व ॥ अन्तातङ्गे कदम्ब-मयूरवर्मनात्मजे जाकल देविगं पञ्चल देवाम् पुट्टिद सान्तियम्बरसिंग गुडिप-दडिगो घट्ट गट्टि राज्य गेम्सिदनन्वयद बलवर्म-देवगं पुरिदम्पल देविगै सहमबाहु-प्रतापर्नु
शि० १९
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२९०
जैन-शिलालेख संग्रह मही-हय-वंशोद्भवन ज्योतिष्मती-पुरवरेश्वर - मध्य-देशाधिपतियु एनिसि. दय्यण-चन्दरसङ्गं पुट्टिद गावब्बरसिग अरुमुळि-देवङ्गम् ॥ क ॥ सरसतियु सिरियु दिन- ।
करनुं पुट्टि?वेम्बिनं चट्टलेयुम् । वर-वधु कञ्चलेयुं सत्-। पुरुषोत्तमनेनिप राज-विद्याधरनुम् ।। पुढे तनगन्दु राज्यद । पढें कै-सार्दुदेन्दु रक्कस-गङ्गम् । निट्टिसि तन्नरमनेयोळ् । .
नेट्टने तन्दिरिसिदं महोत्सवदिन्दम् ॥ व ॥ अन्तु सुखदि बळेयुत्तिई कन्या-रत्नङ्गळिबरिं पिरिय-चट्टलदेवियं तोण्डे-नाडु नाल्वत्तेण्यासिरक्कधिपतियु कञ्ची-नाथनुवीश्वर-वरप्रसादन वृषभ-लाञ्छननुमेनिसिद काडुवेट्टिगे रक्कस-गङ्ग-पेनिडि विवाहोत्सवमं माडि चट्टल-देविगे काडव-महादेवि-वट्टमं कट्टि सुखदि निरिसिदन् । आ-वीर-देवङ्गं कञ्चल-देवियेनिसियु वेरडनेय पेसरं तान्दिद वीर-महादेविगम् ॥ क ॥ दसरथन तनयरन्दमन् ।
एसेदिरे पोन्तिई तैलनु गोग्गिगनुम् । कुसुमास्त्रनेनिसिदोडग-। वसुधेसनुमन्तु बर्मनुं तनयरवर् ।।
पुट्टलोडमात्म-गृहदोळ् । . . पुट्टिदुदैश्वर्य्यमोळ्पुमाप्पु कूर्णीम् ।
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२२१
हुम्मचके लेख नेहनरि-नृपर गृहदोळ् ।
पुट्टिदुवुत्पात-भीति चेतो-विकळम् ।। व ॥ अन्ता-कुमारर् सुखदिं बळेयुत्तिरे यवरोळपज तैलप देव. नसहायसिंहनेनिसियु तन्न बाहा-बळमे चतुरङ्ग बळमागे दायिगरुमनाटविकरुमं राज्य-कण्टकरुमं निःकण्टकं माडि तन्न दोबळ-विक्रमदि सान्तरवट्टमनवटसि भुजबळ-शान्तरनेनिसि सुखदिं राज्यं गेय्द ।।
भुजबन-शान्तर-नृपतिय । भुजबळदळ, प्रताप, शौर्य्यतेयुम् । विजिगीषु-वृत्तियुं निज-।
विजयमुमी-लोकदोळगे भुम्भुकमेनिकुम् ॥ अन्तातननुज गोविन्दर-देवम् ॥ .
गोविन्दरन पराक्रमम् । आवगमवु तन्नोळेय्दे तोरिरे धरेयं । काव पर नृपरनळ्करे।
सोव महा-गुणमे तनगे निज-गुणमेनिकुम् ।। वृ॥ देव समुद्र-मुद्रित-वसुन्धरेयोळ् नृपरादरेल्लरम् ।
भाविसि कण्डेनान्त रिपु-सन्ततियं नेलेगेड्ड पोपिनम् । सोब बुधाळिगार्जु पिरिदीव शरण-बुगे काव सद्-गुणक् । आवनो निन्नवोल् नेरेद मण्डलिकर कलि-नभि-शान्तर ॥ पिरिदेत्तं मेरुगं सागरमे जगदोळा-मेरुगं सागरकम् । धरणी-चक्र करं भाविसुवडे पिरिदा मेरुगं सागरक्कम् । धरणी-चक्रकपाशालिये कडुविरिदा-मेरुगं सागरक्कम् । धरणी-चक्रक्कमाशालिगमेले पिरियं शान्तरादित्य-देव ॥
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जैन-शिलालेख संग्रह ख्यातियनेनं पेखुदो। बूतुग-वेर्माडि पडेद महिमोन्नतियम् । भूतळदोळ् शान्तरनुप-1 मातीतं चक्रि कुडल पडेदनमोघ ॥ अर्द्ध-पथमिदिर्गे वोन्दु तद् अर्द्धासनमेनिप लोह-विष्टरदोळ् सम् । वर्द्धित-शान्तरनेनिप ध-।
नुर्द्धरनं चक्रवर्ति निलिसिदनेसेयल् ॥ व ॥ इन्तेनिसिदुन्नतियं ताब्दि तन्न मण्डळदोळगण राज्य-कण्टकर निष्कण्टकं माडि तनगे ननिये निज-गुणमप्य कारणदिं ननि-शान्तरनेम्ब पट्टमं ताब्दि पल-कालदिं परायत्तमाद भूमियं वायत्तं माडि जगदेक-दानियेनिसि लोकदथि-जनके पिरिदनित्तु सम्यक्त्व-रत्नाकरन जिन-पादाराधकनुमेनिसियुमेल्ला-समयगळं ख-धर्मदिं नडयितुं पराजना-सहोदरनेनिसि वीरदोळं वितरणदोळं धर्मदोऊ शौचदोळं लोकदोळ् पेररिल्लेनिसि नडेदु बन्धु-जनमुमं ख-देशमुमं रक्षिसि चट्टल-देवियु कुमारर ओद्दमरसनु बर्म-देवर्नु तामु पोम्बुर्चदोळ् सुखदिं राज्यं गेव्युत्तमिर्दु धर्म प्रागेत्र चिन्तेदेम्ब वाक्यार्थमुमं भाविसियरुमुळि-देवङ्गं गावब्बरसिगं वीरल-देविगं राजादित्य-देवङ्गं परोक्ष-विनयमं माडलेन्दु -तिळकमेनिसिद पश्च-वसदियं मार्म्युयोगमनेतिकोण्डु ॥ कं ॥ 'श्रीविजय-देवरुप-त-।
पो-विभवर ग्गुरुगळखि-शास्त्रागम-सं-। भावितरेनिसल चट्टल-। देविये कृत-पुण्यवन्ते विश्वम्भरेयोळ् ।
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हुम्मायके लेख छ । जनकं रकस-गण-भूमिपति काञ्चीनाथनात्म-प्रियम् विनुतर् श्री-विजय सुशिक्षकरेनल् विद्विष्ट-भूपाळ-सं-। हण-विक्रान्त-यशो-विलास-भुज-खड्गोल्लासि तां गोग्गिनन्दनना-चट्टल-देविगेन्दोडे यशश्रीगिन्तु मुन्नोन्तरार् ।। क ॥ केरे भावि बसदि देगुलम् ।
अरवण्टगे तीर्थ शत्रमारवे-मोदलाग् । अरिकेय धादिगळम् । नेरे माडिसि नोन्तलेसेके चट्टल-देवि ।। उत्तुंग-प्रासादमन् । उत्तर-मधुरेशनप्प गोग्गिय ताय् लो- । कोत्तरमेने माडिसिदळ् । बित्तरदिं पञ्च-कूट-जिन मन्दिरमम् ॥ देसेयागसमेम्बेरडुमन् ।
असदळमेदिईवेम्बिनं पोस-गेरेयम् । बसदियुमं माडिसि तन्न् । एसमं शान्तरन ताय् निमिर्चिदळेत्त ॥ वृ॥ इन्तु समस्त-दान-गुणदुन्नतिग पेररारो मुन्नमेम् । नोन्तवरेम्बिनं नेगर्द चट्टल-देवि चतुस्-समुद्र-प-। र्य्यन्तमनेक-विप्र-मुनि-सन्ततिगन्न-हिरण्य-वस्त्रमम् ।
सन्ततमित्तु शान्तरन ताय पडेद पिरिदप्प कीर्तिय ॥ व ॥ अन्तु पोगर्तेगं नेगर्तेगं नेलेयेनिसि चट्टल-देवियु नन्नि-शान्तरनु बोडेय-देवर गुडगळप्प-कारणदिं श्रीमत्-तियङ्कडिय निडम्बरे-तीर्थदरुङ्गळान्वयद सम्बन्धद नन्दिगणाधीश्वररेनिसिद श्रीविजय-भ
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२९४
जैन-शिलालेख संग्रह द्वारकर नामोच्चारणदिं शुभ-करण-तिथि-मुहूर्त्तदलवर शिष्यर् श्रेयांसपण्डितरुर्बी-तिळकमेनिसिद पश्च-वसदिगुन्नतमप्पेडेयल करवेनिसे केसर्कल्लिक्किदरवराचार्यावळियदेन्तेने । श्री-वर्द्धमान-स्वामिगळ तीर्थं प्रवर्तिसे गौतमर ग्गन(ण)धररेने त्रि-ज्ञानिगळप्प मुनिगळ् सले यरिं चतुरङ्गुळऋद्धि-प्राप्तरेनिसिद कोण्डकुन्दाचार्य्यर केलव-कालं पोगे भद्रबाहुस्वामिगळिन्दित्त कलिकाल-वर्तनाये गण-मेदं पुट्टिदुदवर अन्वय-क्रमदि कलि-कालगणधरलं शास्त्र-कर्तुंगळुमेनिसिद्द समन्तभद्र-स्वामिगळवर शिष्य-सन्तानं शिवकोव्याचार्य्यरवरिं वरदत्ताचार्य्यरवरिं तत्वार्थसूत्रकर्तुगळेनिसिदार्य-देवरवरिं गङ्ग राज्यमं माडिद सिंहनन्याचार्य्यरवरिन्देकसन्धि-सुमति-भट्टारकरवरिम् । वृ ॥ राजन् बुद्धोप्यबुद्धस्सुरगुरुरगुरुः पूरणोऽपूरणेच्छः
स्थाणुः स्थाणुस्त्वजोजोविरविरळघुमाधवो माधवस्तु । व्यासोप्यव्यास-युक्तः कणभुगकणभुग् वागवागेव देवी
स्याद्वादामोध-जिह्वे मयि विशति सति मण्डपं वादिसिंहे ॥ व ॥ एनिसिदकलङ्क-देवरवरिं वज्रणन्द्याचार्यरवीरं पूज्यपादखामिगळवीरं श्रीपाल-भट्टारकरवीरं अभिनन्दनाचार्य्यरवरिं कविपरमेष्ठिखामिगळवरिं त्रैविद्यदेवरवरिनकळङ्क-सूत्रके वृत्तियं बरेदनन्तवीर्य भट्टारकरवीर कुमारसेन-देवरवीरं मौनि-देवरवीरं विमळचन्द्रभट्टारकरवरशिष्यर ॥ क ।। आदित्यन केलदोळ चन्- ।
द्रोदयमेसेयदघोली-धरा-मण्डलदोळ् । वादिगळेम्बी-टुण्टुक-। वाडिगळेसेदपरे वादिराजन केलदोल् ॥
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२९५
हुम्मचके लेख व ॥ अन्तेनिसि राय-राचमल्छ-देवङ्गे गुरुगळेनिसिद कनकसेनभट्टारकरवर शिष्यर् शब्दानुशासनक्के प्रक्रियेयेन्दु रूपसिद्धियं माडिद दयापाळदेवरु पुष्पषेण-सिद्धान्त-देवरम् ॥ वृ॥ अळवे दिग्-दन्ति-दन्तं बरमेसेदुदु सद्-गद्य-पद्योक्तिविद्या
बलवे सर्वज्ञ-कल्पं बिरुदनुग्वुिदिन्नन्य-वादीन्द्रनिं चावळिसल् वेडोहो पत्रं गुडदिरेदळळिर बेन्द्रपं पेळ्बोडिन्निन्न् ।
अळवल्लं वादिराजं पर-मत-कुभृत् आभीळ-बाग-वज्र-पातम् ॥ व ॥ इन्तेनिमिद पट्-तर्क-षण्मुखनुं जगदेकमल्ल-वादियुमेनिसिद वादिराज-देवरं ॥ रक्कस-गङ्ग-पेनिडिगळ चट्टल-देविय बीरदेवन ननि-शान्तरन गुरुगळेनिसिद ॥ व ॥ यद्विद्या-तपसोः प्रशस्तमुभयं श्री-हेमसेने मुनौ
प्रा......."चिराभियोग-विधिना नीतं परामुन्नतिम् । प्रायश्श्रीविजयेश-देव सकलं तत्त्वाधिकायां स्थिते संक्रान्ते कथमन्यथा........... दृक् तपः॥ शास्त्रं बुधानामुपसेव्.... यं दातुकामं यत एव दाता । ततोपि हि श्रीविजयेति-नाम्ना
पारेण वा पण्डित-पारिजातः ॥ व ॥ एनिसिद श्री-विजय-भट्टारकरुमवर शिष्यर् चोळ....... शान्तादेवर गुणसेन-देवर दयापाल-देवर कमळभद्र-देवरजितसेनपण्डित-देवर श्रेयांस-पण्डितरन्तवरायुर्बी-तिळकमेनिसिद पश्चक्टवसदिय शक-वर्ष ९९९ नेय पिङ्गळ-संवत्सरद जेष्ठ शुद्ध-बिदिगेबृहस्पतिवारदन्दु प्रतिष्टेयं माडिया-बसदिय खण्डस्फुटित-जीर्णोद्धारण
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हुम्मचके लेख
३०३ विनुतर् श्रीविजयर सु-सि (शि) क्षकरेनल् विद्विष्ट-भूपाळसं-। हन-विक्रान्त-यशो-विळास-भुज-खळगोल्लासि तां गोग्गि नन्-।
दनना-चट्टल-देविगेन्दोडे यशश्रीगिन्तु मुन्नोन्तरार् ॥ अन्तु समस्त-गुण-सन्दोहकं धर्मकं जन्म-भूमियेनिसिद चट्टल-देवियु भुजबळ-शान्तर-देवतुं ननि-शान्तर-देवतुं विक्रम-शान्तर-देवर्नु बर्म-देव- पोम्पुर्चदोळ् सुखदिं राज्यं गेय्युत्तमिर्दु धर्म प्रागेत्र चिन्तेदेम्ब वाक्यार्थमं भाविसि तमगे श्रेयो-निबन्धनार्थं उर्बी-तिळकमेनिसिद पश्च-वसदियं मार्गाद्योगमनेत्ति कोण्डु तामेल्लरु मोडेयदेवर गुड्ड गळप्प कारणदिन्द द्रविळ-संघद नन्दि-गणदरुङ्गुळान्वयद श्रीविजयदेवर नामोच्चारणं गेय्दवर शिष्यरु श्रेयान्स-पण्डितरिन्दुर्ची-तिळकमेनिसिद पञ्च वसदिगे सु(शु )भ-मुहूर्तदोळाचन्द्रार्क स्थायियप्पन्तुन्नतमप्येडेयोळ केसर्कल्लिक्विसिदरु अवराचार्यावळियेन्तेने । श्रीचर्द्धमानस्वामिगळ तीर्थं प्रवर्तिसे सप्तर्द्धिसम्पन्नरप्प गौतमर ग्गणधररेने त्रिज्ञानिगळप्प मुनिगळ् पलंबरुं सले अवरिं चतुरङ्गुळ-ऋद्धि-प्राप्तरेनिसिद कोण्डकुन्दाचार्यरं श्रुतकेवळिगळेनिसिद भद्रबाहुस्वामिगळ् मोदलागि पलम्बराचार्य्यर् पोदिम्बळियं समन्तभद्र-खामिगळुदयिसिदरवरन्वयदोळ् गङ्ग राज्यमं माडिद सिंहनन्द्याचार्य्यरवरिं अकलङ्कदेवरवरि रायराचमल्लन गुरुगळप्प वादिराज-देवरेनिसिद कनकसेन-देवरुमवरशिष्यरोडेय देवरं रूपसिद्धियं माडिद दयापाळदेवरं पुष्पसेनसिद्धान्त देवलं षट्-तर्क षण्मुखरुं जगदेकमल्ल-वादियुमेनिसिद वादिराजदेवरवरिं कमळभद्र देवरवरिम्
एकास्यः चतुराननो गणपतिर्नेभाननो भारती न स्त्री सर्व कलाधरोऽशशधरः कामान्तको नेश्वरः ।
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३०४
जैन-शिलालेख-संग्रह विद्यानां परिनिष्ठित-क्षिति-तळं तन्मूळमाळम्बनम्
चित्ते तेजितसेन-देव विदुषां वृत्तं विचित्रीयते ॥ अन्तेनिसिद शन्द-चतुर्मुखनु तार्किक चक्रवर्तियुं वादीमसिंहनुमेनिसिदजितसेन-देवर सह-धमिंगळु
दुरित-कुळ प्रध्वंसं । स्मर-माद्यत्-कुम्भि-कुम्भदळन-मृगेन्द्रम् । वर-वाग्-वनिता-कान्तम् ।
धरेयोळ् नेगी-कुमारसेन-देव-मुनीन्द्रम् ॥ अन्तेनिसिद कुमारसेन-देवरिं वैद्य-गज केसरियेनिसिद श्रेयान्स देवरन्तवरायुर्वी-तिळकमेनिसिद पञ्च-वसदियना- शक-वर्षद९९९नेय पिङ्गळ-संवत्सरद ज्येष्ठ शुद्ध-बिदिगे-बृहस्पतिवारदन्दु प्रतिष्ठेयं माडिया बसदिय खण्ड-फुटित-जीर्णोद्धारणकमल्लिई ऋषि-समुदायदाहार-दानकं पूजा-विधानकमागे समस्त-गुण-मणि-गणविराजमानेयरप्प श्रीमतु चट्टल देवियरुमन्तु तम्मं नाल्वरुमिहुँ कमळभद्र-देवर कालं कर्चि धारा-पूर्वकमासम्बन्धिय समुदाय-मुख्यमागे भुजवळशान्तरदेवं कोट्ट ग्रामङ्गल (जैसाकि कहा गया है) मत्तमातननुजं ननिशान्तर-देवं सुखदिं राज्यं गेय्युत्तमि? पोम्बुर्च-नाडोळाण हादिगारु अदर कालुहळि हल्लवनहल्लियुं बिडेयुमं कोट्ट अन्तातन तम्मं विक्रम शान्तर-देवं राज्यं गेयुत्तमि? पोम्बुर्च नाडोळागण हालन्दूरुं कल्लूरु-नाडोळगण केरेगोड समीपद मडम्बळियुमं कोट्टरिन्ती-बसदिय वृत्ति-एल्लवकं देवि-देरे अडे-गर्बु काणिके सेसे बिटु बीय-मोदलागे कुमार-गद्याणं किरुदेरे किरु-कुलायं साम्यं सलगे मोदलागि पेरवू तेरेगळेम्ब सर्व-बाधापरिहारवं माडिदर् । (यहाँ सीमाएँ तथा हमेशाके अन्तिम वाक्यावयव भाते हैं)।
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हुम्मचके लेख
३०५
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[ जिनशासनकी प्रशंसा । जिस समय, ( उन्हीं चालुक्य पदों सहित ), त्रिभुवनमल देवका बिजयी राज्य चारों ओर प्रवर्द्धमान था — और तत्पादपनोपजीवी ( ऊपर के शिलालेख नं० २१३ में जो उपाधियाँ नविशान्तरकी हैं, उन्हीं के सहित ) महामण्डलेश्वर बीरा या वीर शान्तर- देव था । उसकी प्रशंसा । उसकी रानी बीरल -महादेवी थी। उनके चार लड़केतैल, गोग्गिक, ओड्डग, और बम्म - थे । इनमेंसे तैलका नाम भुजबळ - गोग्गिक या गोबिन्दर-देवका ननि शान्तर तथा मोडुगका विक्रमशान्तर प्रसिद्ध हुआ। सबसे छोटे भाईका नाम कुमार बर्म्म- देव ही रहा। इनकी माँ चहल- देवी ( वीरल महादेवी ) थी । उसके पिता राजा रकस-गङ्ग, पति काञ्ची-अधिपति, गुरु श्रीविजय, और पुत्र गोग्गि ( नन्नशान्तर ) थे ।
शान्तर,
इस प्रकार, जिस समय सब धार्मिक गुणों और पवित्रताकी जन्मभूमि जलदेवी, भुवशान्तर- देव, नन्नि शान्तर - देव, विक्रम-शान्तर - देव और देव पोम्बु में थे और शान्तिसे राज्य कर रहे थे 'धर्म सर्व प्रथम चिन्तनीय है', इसका खयाल करके, धर्म उपार्जन करनेके लिये, उन्होंने 'तिलक' नामकी पञ्च वसदिके निर्माणका कार्य अपने हाथ में लिया। ये सब ओडेय-देवके ( श्रेयांस पण्डितके शब्दोंमें जो श्री विजय देवका नामान्तर है ) गृहस्थशिष्य थे । उन सबने किसी शुभ दिन पञ्चव सदिकी नींव डाली ।
श्रेयान्सदेव आचार्योंकी परम्परा वर्द्धमान स्वामी के तीर्थ में गौतम गणधर हुए । उनके पश्चात् बहुतसे त्रिकालज्ञ मुनियों के होनेके बाद क्रमशः कोण्ड कुन्दाचार्य, 'श्रुतकेवली' भद्रबाहु स्वामी, बहुत-से आचार्योंके व्यतीत होनेके बाद, समन्तभद्र स्वामी, सिंहनन्द्याचार्य, अकलङ्क -देव, कनकसेन देव ( जो वादिराज नाम से भी प्रसिद्ध थे ), ओडेयदेव ( श्रीविजयदेव जिनका ऊपर नाम दिया है ), दयापाल, पुष्पसेन सिद्धान्तदेव, वादिराज - देव ( जो 'षट् तर्क- षण्मुख' तथा 'जगदेकमल्ल-वादि' नामसे भी प्रसिद्ध थे ), कमलभद्र देव, अजितसेन देव ( प्रशंसा सहित ) हुए। और अजितसेन देवके सहधर्मी शब्द चतुर्मुख, तार्किक चक्रवर्ती वादी मसिंह हुए । तत्पश्चात् कुमारसेनदेव मुनीन्द्र | इनके बाद श्रेयान्सदेव हुए ।
शि० २०
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जैन-शिलालेख संग्रह (उक्त मितिको) पञ्चवसदिकी नींव डालकर, चट्टल देवी और चारों भाइयोंकी उपस्थितिमें, कमलभद्रदेवके पैर धोकर, भुजबल-शान्तर-देवने (जैसा कि ऊपर कहा गया है) गाँव और भूमियाँ दीं। इसीतरह उसके छोटे माई ननि-शान्तर देवने तथा इसके छोटे भाई विक्रम शान्तरदेवने (जैसा कि लेखमें बताया गया है) गाँव और भूमियाँ दानमें दी और बसदिके इन दानोंको (जिसकी सूची लेख में दी हुई है) उन्होंने सभी करोंसे मुक्त कर दिया । सीमायें, शाप और आशीर्वचन।]
[EC, VIII, Nagar ti., r* 36 ]
२१५
हुम्मच-संस्कृत तथा कन्नड़ [विना काल-निर्देशका; पर लगभग १०७७ ई० का]
[हुम्मचमें, मानस्तम्भके ऊपर, दक्षिणकी तरफ श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ।। नमो अहते ॥
खस्ति-श्री रमणी-विनोद-भवनं यस्योद्ध(द्व)-वक्षः-स्थलम् बाग्-देवी वनिता-विकास-निळयो यस्याननाम्भोरहम् । वीर-श्री-युवतेरभूत् कुळ-गृहं यद् बाहु-दण्ड-द्वयम यत्कीर्तिश्शरदिन्दु-कान्ति-विमला पारेदिशं वर्तते ॥ साक्षादुन-कुळ-प्रभुनिज-भुज-प्रोद्भासि-कौक्षेयकप्रवस्तीकृत-भूरि-गर्व-वळविद्वेषि-भूपाळकः । दीनानाथ-जना यदीय-सु-महा-दानात् परेट-प्रदस् स श्रीमान् भुवि नत्रि-शान्तर इति ख्यातो भृशं भ्राजते । विभाति यस्याप्रतिमः प्रतापः मानोगतो (!) वैरि-महीपतीनाम् ।
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हुम्मचके लेख सन्तापयत्येव तदन्तरङ्गम् श्रीमानसावोडग-मण्डलेशः॥' कुमार चूडामणिरेष भाति श्री ब्रह्म-देवो गुणवाननिन्धः । श्री-जैन-पादाम्बुज-युग्म-भृङ्गः यशोऽभिवेष्टयाखिळ-भूमि-मागः॥ श्रीमद्-राक्षस-गण-मण्डलपतिः श्री-गण-नारायणः दोर-दण्ड-द्वय-वीर्य्य-भीषित-रिपुः श्री गण पेनितिः । स्याद् यम्या जनको मतो निरुपमो विख्यात कीति-ध्वजः श्रीमच्चट्टल देवि अत्र भुवने ख्याता परीवृत्यते ॥ दृष्टे यन्न महोत्सवैक-निळ्ये पश्यजानानां मनः पुण्यं सम्चिनुते-तरामतितरामहो हत्यप्यलम् । पूजाभिः पृथुभिः पुन: प्रतिदिनं वाभाति योऽयं सदा श्रीमत् पञ्च-जिनालयो निरुपमो भक्त्या यया निम्मितः ।। संसाराम्भोधिमध्यान् निरुपम-गुण-सद्-रत्न-मेदाधिवासम् निर्वाण-द्वीपमाप्तुं प्रतियत-मनसां पण्डितानां मुनीनां । कृत्वा श्रीमजिनेन्द्राळय-विलसित-नावं व्यधाद् यक्षिणामन्मानस्तन्भो सत्-कूबरमपि च धनान्यत्थि-साय दत्वा ।। आहाराभय-भैषज्य-शासा-दानेरनिरन्तरैः । श्रीमञ्चट्टल-देवीयं बाभाति भुवन-स्तुता ॥ रोहिणी चेळिनी सीता देवता च प्रभावती । श्रूयन्ते बातया सेयं दृश्यन्ते विमलैर्गुणैः ॥ . श्रीमद्रविळ-संघेऽस्मिन् नन्दिसंघेऽस्त्यरुङ्गळः । अन्बयो भाति योऽशेष-शास्त्र-वाराशि-पारगैः॥ यद्-वाग्-बन्नाभिघातेन प्रवादि-मद-भूभृतः । सञ्चूर्णिणतास्तु भाति स्म हेमसेनो महामुनिः।।
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जैन-शिलालेख संग्रह शब्दानुशासनस्योचैर् रूपसिद्धिर्महात्मना । कृता येन स वाभाति दयापालो मुनीश्वरः ॥ श्री-पुष्पसेन-सिद्धान्त-देव-रक्वेन्दु-सङ्गमात् ।। जातावभाति जैनीयं सर्व-शुक्ला सरस्वती ॥ नम्रावनीश-मौळीद्ध-माला-मणि-गणार्चिदम् । यस्य पादाम्बुजं भातं भातः श्रीविजयो गुरुः ।। सदसि यदकलङ्कः कीर्त्तने धर्मकीर्तिः वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समय गुरूणामेकतस्संगतानाम् प्रतिनिधिरित्र देवो राजते वादिराजः ॥ सांख्यागमाम्बुधर-धूनन-चण्ड-वायुः वौद्धागमाम्बुनिधि-शोषण-बाडवाग्निः । जैनागमाम्बुनिधि-वर्द्धन-चन्द्र-रोचिः जीयादसावजितसेन-मुर्नान्द्र-मुख्यः ।। श्रेयांस-पण्डितर ग्गतमायादि-कवायरमळ-जिन-मत-सारर् । न्याय-पर् स्मित-कमठ-1 श्री-युत-द-न-कुन्द-रुन्द्र-कीर्ति-पताकर ।। नमो जिनाय।।
[जिन-शासनकी प्रशंसा । नबि-शान्तरके यशकी प्रशंसा। राजा ओडुग, अशा(बम्म-)देव, और चहल-देवीको प्रशंसा ।
हेमसेन मुनि, शब्दानुशासनके लिये 'रूपसिद्धि' बनानेवाले दयापाल मुनीवर, पुष्पसेन सिद्धान्तदेव, श्रीविजय, इन सबका प्रशंसापूर्वक उल्लेख !
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हुम्मचके लेख वादिराजदेवकी प्रशंसा । मजितसेन मुनींद्रकी प्रशंसा । श्रेयांसपण्डितकी प्रशंसा।]
नोट:-इस शिलालेखमें समय (काल) का कोई निर्देश नहीं है और न किसी कार्य या दानका इसमें उल्लेख है। यह लेख शुद्ध प्रशंसात्मक है।
[EC, VIII, Nagar,11., n° 39.]
हुम्मच-संस्कृत तथा कनड़ [शक ९९९=१०७७ ई.]
(पश्चिम मुख) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ [ तीसरी पंक्तिमें 'स्वस्ति से लेकर १७ वीं पंक्ति में "कूडिर्प-सौभाग्यम तक शि० ले० नं. २१४ की ११ से ३१ की पंक्तितक मिलता है।
एनिसिद बीर-देवनग्र-तनयम् ॥] अरि-बिरुद-भूभुजकळ । विरुदं बेरिन्दे किर्तुं वीर-श्रीयोळ् । नरेददटुपमातीतम् । धरेगेने भुजबळने शान्तरान्चय-तिळकम् ॥ विरुद-रिपु-नृपर शिरमम् । भरदि सेण्डाडि वीर-लक्ष्मि यनोलिसल । नरपतिगळारो धुरदोळ् । निरुतं निन्नन्ते नन्नि-शान्तर-नृपति ।। उत्तर-मधुराधीश्वरम् । उत्तम-गुणनुग्रवंश-तिळके विबुध- ।
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हट्टणका लेख बनवसे १२००० के जिद्दलिगे ७० का मनेवने गाँव दिलवाया। यह दान गुणभद्र के शिष्य रामसेनको किया गया था। वे मूल-संव, सेन-गण, और पोगरिगच्छके थे।
[EC, VII, Shikarpur tl., n° 124 ]
२१८ हट्टण-संस्कृत तथा काड़
[शक १०००-१०७८ ई.] [ हट्टण (कब्बनहळ्ळि परगना) में, बस्तिके चन्द्रशालेमें एक पाषाणपर]
श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ खस्ति समस्त-भुवनाश्रयं । श्री-पृथ्वी-वल्लभं । महाराजाधिराजम् । परमेश्वरं परम-भट्टारकम् । सत्याश्रय-कुळ-तिलकम् । चालुक्याभरणम् । श्रीमतु भूलोकमल्ल-सोमेश्वर.........."देवरु । विजय-राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्धमानमा-चन्द्रार्क-तारं-बरं सलिसुतमिरे ॥ श्रीमतु त्रिभुवनमल्ल एरेयग]-होयसळ-देवर्गम् । येचल-देविममुदितोदितमागलु बन्द वंशावतारमेन्तेन्दडे ॥ खस्ति श्रीमनु-महा-मण्डलेश्वर द्वारावतीपुरवराधीश्वरम् । यादव-कुलाम्बर-धुमणि । सम्यक्त्वचूडामणि । मलपरोळु गण्ड । कदन-प्रचण्डम् । असहाय-सूर गिरिदुर्ग-मल्ल निरशङ्क-प्रताप भुजबळ-चक्रवर्ति श्री-वीर-बल्लाळदेवरु । पृथ्वीराज्यं गेय्युत्तमिरे । तत्पादपद्मोपजीवि श्रीमन्महा-सामन्तं गण्डरादित्यङ्गम् हुग्गियवे-नायकित्तिगं सु-पुत्रं कुळ-दीपकरेनिसि पुटिदरु सामन्त-सुब्बयनु सामन्त-सातय्यनुं सामन्त-बूवय्यनुं श्रीमनु-महा-सामन्त माचय्यन प्रतापवेन्तेन्दडे । खस्ति समधिगत-पञ्चमहाशब्द-महा-सामन्त वीर-लक्ष्मी-कान्त । तुरेय रेवन्त
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३१८
जैन- शिलालेख - संग्रह
सामन्तर
गण्ड |
पर-बळ - कृतान्त | बिरद - गण्डर वदिसुव ............गण्ड । समर - प्रचण्ड । नुडिदन्ते गण्ड । ...... पराङ्गनापुत्र | दायिगमुरारि विनेयोपकारि । वल्लभं दुष्टाश्व-मल्ले भीतर कोल्लं हडिय माक्कळु दळुन बेङ्कोळुवं । इडगूर-देवी- लब्धवर प्रसाद । मृगमदामोद । यत्तिल-वन-विकासचन्द्र सदानन्द योग-नागेन्द्र होयसळदेव-पादाराधकम् । पर-बळ-साधकम् । नीति -चाणुक्यं एक वाक्य वैरिमनो-भङ्ग | अय्यन सिङ्ग दायिग-दुट्टर गण्ड । तप्पे तप्पुत्र | धीरदिन्दो - पुत्र । सामन्तजगदळ । मलेय. ••दुळिव । मलेगे आने । येत्तिद मोनेगे मुन्तु केट्ट काळगके पिन्तु यदि ळम् । चतुस्समयसमुद्धरणनप्प श्रीमन् महा- सामन्त- माचाय्यनन्वयवेन्तेन्दडे |
......
...
बेळगेरेय माचेय-नायक- ।
ननुपम - गुण ने माकल - देविय दान- । व्रतसेये चैत्य-गेहमु- । मनत्तियोळोप्पे साळ्कुमा- पट्टणदोळ् ॥
[स] रसतिगे रतिगे सीतेगे ।
सरि दोरेयेनिसिद मारेय नायकन ।
सतियं वरेयं बणिसुवुदु । निरन्तरं नेगब्द बम्मियव्वेय पेम्पम् ॥
सरणेने कायल बलम् । नेरेदत्तियोळीय-बल्लनाश्रित- जनकम् । पर-बळ वैरि-भूपर |
कोल बल्ल बेळगेरेय बल्ल निम्मडि - बल्ल || रुगुमिणि बेळगिदरुन्वति ।
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हट्टणका लेख
मिगिलेनिसिद सीतेयेम्ब सतियरोळीगळ् ।
समनि सतियेनिसिद ।
सति यल्लरे बल्लयनर्द्धाङ्गि केतवे देवियकं धरेयो || श्रीमतु सावन्त बलि- देवनर्द्धाङ्ग केतवे नायकितियरुं देवियक नायकितियरुमवर सुपुत्र सुय्यदेव पेरुमाळु देव सावन्त - मारय्य माचि देव सुख-सङ्गता ( था ) - विनोददिं राज्यं गेय्युत्तिरे ॥ सादिसिद मोक्ष-लक्ष्मय- ।
नादरदिन्द्र भयरन्न-दान-विनोदम् ।
मेदिनियोळोप्पे माडुव । सासल-बम्मय्य भव्य - तिळ्यं धरेयोळ भव्य कुछ- तिळकनोपुव ।
३१९
अग्रज माणिक्य चाकि सेट्टियरनुजन् । एकाट्टि सेट्टियेन्ती ।
- पुरुपर नेगब्द दान- चिन्तामणिगळ् ॥ तक-व्याकरणदोळम् । वाणगे बल्ल सकल-क्तिगळिम् । मिक्वादतिजाणं धर्- । स्तकत्थिंग नेगदिई माचि सेट्टिये धन्यम् ॥ आ-माचि-सेट्टेयनुजं । भाविसे श्री - जैन-धर्म्म- सुर- कुजदन्नङ्गार स्सममेनिसकाइ परि । यीत्रगुणं काळि सेट्टियोरेगं दोरेगम् ॥ कलि-काल-कल्प- वृक्षमन् । अलसदे नीं बेडु काळि सेट्टिय सुतनं बुं पोन्नुं वस्त्रम | सले यीयलु बल्ल मान्यना - बम्मय्यम् ॥ आश्रित जन-चिन्तामणि । विश्रुत कीर्त्ती शनमळ-बोधाधीसं ( शं) श्री - श्रेयांस-जिनेशं । वैश्रावण सेडिगी नुडिदेरड्डु - डिकवलं | कडु
सुख-सम्पदमम् ॥ इल आश्रितजनकन्- |
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३२०
जैन-शिलालेख संग्रह तेडेयुडुगदीव-दान- । प्रतियं कर्पूर-सेष्टियं वेड्ड बुदा ॥
कीर्ति-श्री-रमणान-बोलु । मूर्तियोळभिनव-मनोजननम् । कूर्तीव मसण-सेटिगे। मार्तण्डन मग नळ-......"नृप ळवे । ............. मनुजर्गम् ।। मरे-वोकरनेग्दि काब वन्धु-जनकम् । नेरे पोल कल्प-तरुवम् । नेरे बणिपुदेय्दे काचि-सेट्टियम्.......।। गणधर-भूपनन्वय-शिखामणि गोत्र-पवित्रन-द्विषम् गुण-गण-नाथ गुण्पिन..पेम्बिन मेरु वोन्द । अगणित-चाव सत्यद तवर्मने मानव-वन्यनेन्दोडिन्न् । एणे "हट्टणदोनोप्पुत्र माणिकनन्दि-देवरोळ् ।। खस्ति स(श)क-बरिस-सायिरद कालयुक्त-संवत्सरं प्रवत्तिसे नखरजिनालयके बिट्ट भूमि-( यहाँ दानकी विगत आती है ) आ-पट्टणदल नडव देव-दाय हत्तु हेरिङ्गे हाग देवरिगे लोडरेण्णेगे गाण १ ( हमेशाके शापात्मक वाक्य ) श्री-मूळ-संबदेसिय-गणपोस्तक-गच्छ. कोण्डकुन्दान्वयद श्रीनतु नागचन्द्र-चान्द्रायण-देवर-शिष्य रुणिकच्छगोण्डि-देवरु मदळिगे बोप्पवे मगळु काचवे मल्लवे मादवे माचवे बाळ चन्द्र-देवल । सेष्टिय हल्लिय मळि-सेटि चिकसेटि तम्म... सेट्टिगे विट्ट भूमि जक्कसम् ददल्लि सलगे ५
__ * रोदद हलोजन मग बीरोज ई-शासनव होयिद ।। * यह पंक्ति पत्थर के सिरेपर है।
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हट्टणका लेख
३२१
[जिनशासनकी प्रशंसा ।
जिस समय, ( उन्हीं चालुक्य पदों सहित ) भूलोकमल सोमेश्वर-देवका विजयी राज्य प्रवर्द्धमान थाः
त्रिभुवनमल एरेय - होय्सळ-देव और एचल-देवीके कुलमें उत्पन्न, स्वस्ति । जब ( अपने पदों सहित ) वीर बल्लाल देव पृथ्वीका शासन कर रहे थे:
तत्पादपद्मोपजीवी, महा सामन्त गण्डरादित्य और हुग्गियन्त्रे नाय कित्तिके सामन्त सुब्वय, सातथ्य, और बूवथ्य उत्पन्न हुए थे 1
महा सामन्त माचय्यकी प्रशंसा । उसकी कुछ उपाधियाँ। माचय्यकी उत्पत्तिका वर्णन । जिस समय सामन्त बल्लि देव ( माचय्य ) अपनी दोनों स्त्रियों और चार लड़कों सहित शान्ति और सुखसे राज्य कर रहा था;सासल बम्मथ्य और उसके दो लड़कों माणिक्य और जाकि-सेट्टिका उल्लेख । माचि-सेट्टि और उसके लड़के कालि-सेहि, फिर उसके लड़के बम्मय्यका वर्णन | माणिक नन्दि देवका उल्लेख । ( उक्त मिति को ) नखर जिनालय - के लिये (उक्त ) भूमियाँ, दस गट्ठोंका दाम, एक कोल्हू दानमें दिये गये थे ।
श्री-मूल संघ, देशिय गण, पोस्तक- गच्छ, तथा कोण्डकुन्दान्वयके नागचन्द्र- चान्द्रायणदेवके शिष्य रुणिकच्छगोण्डिदेव थे; उनकी पत्नी बोपवे, बच्चे काचवे, मलवे, मादवे, माचवे और बालचन्द्रदेव थे । कुछ सेट्टियोंने और भी कुछ भूमियाँ दीं । रोद हलोजके पुत्र बीरोजने यह शासन लिखा ।]
[EC, XII, Tiptur tl., n° 101]
१ ऊपर जो १०७८ ई० काल दिया हुआ है, वह विनयादित्य के कालका है । उसके लड़के बल्लालदेवका ( ११०१-११०४ ई० ) नहीं, और न भूलोकमल (११२६-११३८ ई० ) का ।
शि० २१
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जैन- शिलालेख संग्रह
२१९
भम
तट्टेकेरे - संस्कृत तथा कन्नड़[ शक १००१ = १०७९ ई० ]
[ तट्टेकेरे ( शिमोगा परगना ) में, रामेश्वर मन्दिरके सामनेके पाषाणपर ] स्वस्ति सक वर्ष १००१ नेय क्रोधन- संवत्सरद ज्येष्ठ-बहुल- बडवार शासन निन्दुदु
३२२
श्रीमत्-परम- गंभीर स्याद्वादामोघ लाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन - शासनम् ॥
वीतरागाय स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री - पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारकं सत्याश्रयतिळकं चालुक्याभरणं श्रीमत्त्रिभुवन मल्ल- देवर् कल्याणद - नेलवीडिनोक् सुखदिं राज्यं गेय्युत्तमि..... जीयात् समस्त - ककुभान्तर-वर्त्ति कीर्त्तिर् इक्ष्वाकु वंश-कुल-वारिधि-वर्द्धनेन्दुः | कैलाश-शैल- जिन-धर्म-सु-रक्षणार्थम् भागीरथी-वि ........तो द्वितीयः ॥
स्वस्ति समस्त भुवनाधीश्वरेक्ष्वाकु वंश -कुल-गगन गभस्तिमालिनी पराक्रमाक्रान्त-कन्याकुब्जाधीश्वर - शिरो.. ... वि-मुखो पार्थिवपार्थः । समर- केलि-धनंजयो धनञ्जयः । तस्य वल्लभा गान्धारि देवी तत्सुतो हरिश्चन्द्रः । रोहि दडिग - माधवापरनामधेयः । आगङ्गान्वयदरसुगळेल्लवेळगे पाडिवद चन्द्रनन्तुदितोदितवागि पल.......ज्यं गेय्युत्तिरे तदन्वयाम्बर-धुमणियं गङ्ग-चूडामणियुमेनिसिद भुज-बळ गंगपेमडि
गुणि बेळव-जनके दान-मणि दोर-गर्वोद्धताध्मात-निर् घृण वैरिप्रकरके बल-कणि कळा-विन्यास- बारासि सत्
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तट्टेकेरेका लेख
'वेष्टित-यशं विक्रान्त- तु नृपा- 1
प्रणियादं कलि- गंग- देवन सुतं श्री वर्म्म-भूपाळकम् ॥
The II...............fo -
परिघनिरि-नृपरनलेदु सेले-योऴ् त्रोदुर्
रे बण्णिसलेसेदं गं - । गर-भीमं लोकदोळगे भुज-बळ....ग ॥ .....ळियेनिसिद पेमडि-वर्म्म- देवनं पाण्ड्य-कुलोद्भवेयेनिसिद गङ्ग-महा-देवियर्ग रत्नत्रयं पुट्टुवन्ते...
वृ || श्री - मारसिंग - नवनी-तळ-रक्ष-पाळम् । कामोपमं भगीरथान्वय - रत्न - दीपम् । भीम- प्रताप नहिता
सामान्यनल्लनुदितोदितनेकवाक्यम् ॥
*******
३२३
।
-रेश्वरम् ।
आतनमुमाणुं लोक-विख्यातमाद तदनन्तरदोळ् । स्वस्ति सत्य · वर्म्म-धर्म्म- महाराजाधिराज परमेश्वरं कुवळाल-पुरनन्दगिरि - नाथं राज-मान्धातम् । पद्मावती -लब्ध - वर-प्र .. चकिकामोदन् । असती-सहोदरं वीर-वृकोदरम् । सम्यक्त्व-रत्नाकरं जिनपादशेखरम् | मद-गजेन्द्र लाञ्छनम् चतुर- विग गङ्गेयं शौचाञ्जनेयं । गङ्ग-कुल- कमळ-मार्त्तण्डम् दुट्टर - गण्डम् । मन्निय- गङ्गम् जयदुत्तरंग | श्रीमन्महा-मण्डलेश्वरम् त्रिभुवन मल्ल - गङ्ग-पेम्माडि- देवरग्गङ्गवाडितोम्भतरु सा सिरमं बायकेटिसि तदाभ्यन्तरद मण्डलिसासिरमं श्रीमत् - त्रिभुवन मल्ल- देवर् दये-गेय्ये निधिनिधानमोळगागि त्रि-भागाभ्यन्तर - सिद्धियिन्दे सुखदं राज्यं गेग्युत्तिरे ।
-
कन्द ॥ श्रीगे नेलेयागि बचन | श्रीगागरमागि निजभुजार्जितविजय- ।
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चिक्कनसोगेका लेख
३३१
पट्टक्के हिरियकेरे केळगे बिट्ट गद्देगळेय मत्तलोन्दु ( भागेकी ३ पंक्ति
में दानकी चर्चा है)
[ महामण्डलेश्वर भुजबल-गंग पेम्मडि-बम्मे देवने मण्डलि- तीर्थंकी पट्टद बसदिके लिये ( उक्त) भूमिका दान किया और उसकी रानी गंगमहादेवी, उसका पुत्र मारसिंग देव, उसका छोटा भाई सत्य ( नशिय ) गंग, उसका छोटा भाई रक्कस गङ्ग, उसका छोटा भाई भुजबल-गंग, उसका पुत्र मारसिंग - देव ननिय गङ्ग-पेम्मंडि, इन सबने ( उक्त ) भूमि-दान किये ।
और अपनेद्वारा शासित नाइके गाँवोंमें पद्मावती देवीको ५ पणका उपहार दिया । यह उपहार तबतकके लिये जारी रहेगा जबतक आकाशमें सूर्य, चन्द्रमा और तारे चमकते हैं । ]
[ EC, VII, Shimoga tl. n° 6]
२२३ चिक्कहन सोगे - कन्नड़
[ विना काल-निर्देशका, पर सम्भवतः लगभग १०८० ई० ] [ जिन-बस्तिमें, नवरङ्ग-मण्टपके दरवाजेके ऊपर ]
श्री - कोण्ड कुन्दान्वय देशिय गण पुस्तक-गच्छद श्री - दिवाकरनन्दि - सिद्धान्त - देवर ज्येष्ठ- गुरुगळप्प ( भट्टार) दामनन्दि-भट्टार सम्बन्दि ई - पनसोगेय चङ्गाळ्व-तीर्थदेल्ला बसदि-गळुमब्बेय बसदियुं तो- नाड बेळवनेय बसदियुं तत्समुदाय - मुख्यम्
[ कोण्डकुन्दान्वय, देशि-गण तथा पुस्तक-गच्छके, दिवाकरनन्दि-सिद्धान्तदेवके ज्येष्ठ गुरु--- दामनन्दि भट्टारक के अधिकार में इस पनसोगेके चङ्गालनतीर्थकी सारी बसदियाँ ( मंदिर ) हैं । अब्मेय बसदि तथा तोरेनाडकी बसदि भी उनके प्रधान शिष्य-गणके अधिकार क्षेत्र में हैं ।
आगेका शिलालेख |
[ इनसोगेमें, आदीश्वर-बस्तिके दाहिनी ओरके दरवाजेके ऊपर) नोट:-यह लेख ऊपरके ही लेख-जैसा है । उसमें कुछ फेरफार नहीं है । [ EC, IV, Yedatore tl. n° 23 and 27 ]
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जैन - शिलालेख - संग्रह
२२४
मदलापुर - कन्नड़-भन्न
[ काल लुप्त - पर संभवतः लगभग १०८० ई० ] [ मदलापुर (मलिपट्टण परगना ) में, गोणि वृक्षके नीचे एक पाषाणपर ] ( सामने ) खस्ति श्रीमनु''''वर्य- नवरस 'अरकेरेय बसदि माडितु इदके दु-गद्दे मण्णु अय्- गण्डुग पिरियदोळ्यूगण्डुग-मण्णु बिसवूर-मण्णु अय्-गण्डुग कोटेय मण्णु मृ-गण्डुग इनि बसदिगे सत्र-भूमि अदा-पदके अदटरादित्य अधिरत - पाण्ड्यय बेळतु "अरसर- कालदो श्रीम‘''मन्ने-'ग''''सित्रय्य''''
३३२
गुड्डेय - मण्डळ कलाचन्द्र-सिद्धान्त देव भट्टारर शिष्यर्.... अमळचन्द्र भट्टारक..बसदिय माडि ...सल्सिद्......... ( हमेशाका अन्तिम श्लोक ) ।
सेनवो दे.........
[ ...... नलरसने अरकेरेकी बसदि बनाई । ( उक्त ) भूमिका दान उसके लिये किया । जो कोई इसे नष्ट करेगा, वह अदटरादित्यके क्रोधका पात्र होगा ।
....... भरसके समयमें, ....रमण्डल कलाचन्द्र- सिद्धान्तदेव भट्टारके शिष्य अमलचन्द्र भट्टारकने इस बसदिको बनवाया । हमेशाका अन्तिम श्लोक | सेनबोव दे]
[ EC, V, Arkalgud tl. n° 102]
२२५ खजुराहो- संस्कृत [सं० ११४२ = १०८५ ई० ]
[ इस प्रतिमा-लेखके लेखका पता नहीं है, क्योंकि यह लेख एक खण्डित प्रतिमापरसे ए. कनिंघमने लिया है, जो कि प्रतिष्ठाकाळ और प्रतिमाके नामके सिवा और कुछ नहीं बताता । इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा या स्थापना
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हुम्मचका लेख
३३३ श्रेष्ठी श्री बीबतसाह और उसकी पत्नी सेठानी पद्मावतीने की थी। इस लेखके ऊपरसे ए. कनिंघमने फलितार्थ यह निकाला है कि प्राचीन बौद मन्दिर ग्यारहवीं शताब्दिके जैनोंद्वारा अपने काममें लाया गया था। संभव है बौद्धमतकी हीनताके समय खजुराहामें जैनोंकी संख्या अधिक होनेसे उन्होंने उस प्राचीन बौद्ध मन्दिरको अपना बना लिया हो; या हो सकता है कि कनिंघमका यह अनुमान ही गलत हो कि गन्थरई-भग्नावशेष जैनोंका न होकर बौद्धोंका था। वस्तु, जो कुछ हो । इन खण्डित दि. जैन मूर्तियोंसे उस समय खजुराहोमें जैनधर्मकी प्रधानता योतित होती है।] [A. Cunningham, Reporte, II, p. 431, a.]
२२६ हुम्मच-संस्कृत तथा कन्नड़ [शक १००९-१०८७ ई.]
(उत्तरमुख) खस्ति-श्री-लसदुग्रवंश-तिलकः श्री-वीर-देवात्मजः दृप्यद्-वैरि-निकाय-दर्प-दळन-प्रादुर्भवद्-विक्रमः । सम्पूर्णेन्दु-करावदात-सु-यशोव्यालिप्त-दिग्-भित्तिकः श्रीमान् विक्रमशान्तरो विजयते लक्ष्मी-वधू-वल्लभः ।। ओदेदु तटत्तटेम्ब पद-ताटनेयिन्दे दिशा-गजादिगळ् । मदमुडुगिळ्दुवञ्जि पुगुविडे गाणने नागराजनुम् । कदळद गम्पदिन्दमेळे कम्पिसे कूडे कलङ्के सागरम् । बिंदिर्दलगिन्दे तारकि कळल् तरलोड्डुगनाईडोडुगुम् ।। अदिरदे बर्प चप्परिप कप्परि पाईलगोत्ति शास्त्रमम् । बिदिर्दु मरल मरल्चेनुते कुत्तुव कुत्तिदोडान्तु कहिदा-1 पददोळे सुत्ति मुत्तिदवोलेरने तोरुच गेण बिनणक्क् । ओदवुव बिनणं नेगळलोड्डग नीनरसङ्क-गाळनै ।
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३३४
जैन-शिलालेख संग्रह परिदुदराग्मियं मरेदु तिन्द पेणङ्गळिनादजीर्णादिम् । मरुळ बळाळि वैद्य-मरुळं बेसगोण्डडे दन्ति मद्देनल् । करियने नुङ्गि सूडुकोळे वैद्य-मरुळ नगे वीर-लक्ष्मि नो।
डरि-हर निन्निनास्तिदेने विक्रम-शान्तरनादनोडगम् ॥ अन्तेनिसिद विक्रम-शान्तर-देवर स्स(श)क-वर्ष १००९ नेय प्रभव-संवत्सरद शुद्ध-पाडिवदन्दु पञ्च-बसदिय पूजा-विधान-जीर्णोद्धरणक्कमल्लिर्ण ऋषि-समुदायक्काहार-दानार्थमुमागि ।
सरसति निनगिनितु कला-। परिणति नेगर्दजितसेन-पण्डितरिन्दम् । दोरेवेत्तु देवियादी।
पिरियतनं निन्नदल्तिदवर महत्त्वम् ॥ एनिसिद परवादीभसिंहापर-नामधेय-श्रीमत्-अजितसेन-पण्डितदेवर कालं कर्चि धारा-पूर्वकमा-सम्बन्धद समुदायं मुख्यमागे कोट्ट ग्रामङ्गल (यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा तथा वे ही अन्तिम वाक्यावयव और श्लोक आते हैं) द्रमिळ गणो लसतितरां निरुपम-धी-गुण-महितैः ॥ श्रीमत् सेनवोवं शोभनय्यं दिगम्बर-दासि बरेदम् ॥ [स्वस्ति । वीर-देवके पुत्र विक्रम-शान्तरकी प्रशंसा। उसका मूल नाम ओडग था। उसकी प्रशंसाके श्लोक । ओडग 'विक्रम-शान्तर' हो गया।
विक्रम-शान्तर-देवने (उक्त मितिको) पञ्चवसदिमें पूजाके लिये, मरम्मत तथा ऋषियोंके माहारके लिये, वादीभसिंह इस द्वितीय नामसे प्रसिद्ध अजितसेन-पण्डित-देवके पैरोंके प्रक्षालनपूर्वक (उक) गाँवोंका दान, संपूर्ण करोंसे मुक्ति दिलाकर, किया। वे ही अन्तिम श्लोक ।
मिळ-गणकी अत्यन्त शोभा है । सेनबोव शोभनय्य दिगम्बरदासिने इसे लिखा है।]
[EC, VIII, Nagar tl., n° 40 ( Part II).]
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कोणूरका लेख
२२७ कोणूर (जिला बेलगाँव)-कक्षद [विक्रमादित्य चालुक्यका १२ वां वर्ष-१०८७ ई.] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥
श्रीनारिप्रिये(य) कण्डु तन्न नयनद्वन्द्वाळकवातमं जैनान्धिद्व(द्वि)नखाळियोळमधुकरवातं सरोजाळियं तानेंतिल्लेगे तन्दुदेन्दु बगेदळमुग्धत्वदिन्दा जिनं भूनाथेशधरेश मोक्षुनिधिगंगी गायुमं श्रीयुमं ॥ ___ खस्ति श्री त्रैभुवनाश्रयं पृथुधराश्रीवल्लभं शूकरन्यस्तेद्धध्वजलाञ्छनं नुतमहाराजाधिराजं यशोविस्तारं परमेश्वरांकपरमं भट्टारकं शात्रवोन्मस्तन्यस्तपदाब्जनूर्जितयशं चालुक्यकण्ठीरवं ॥
सत्याश्रय-कुळतिळकं सन्य युधिष्ठिरननेकविद्यानिपुणं प्रत्यक्षविक्रमादित्यायंतयशोविळासि त्रिभुवनमल्लं ॥
तद्राज्यमुत्तरोत्तरवद्रिप्रभुचन्द्रसूर्य्यरुन्नेवरं भद्रं सलुत्तमिरे रिपुविद्रावणतत्प्रियात्मजं जयकण ॥ ___ जयकर्णावनिपाळभासुरलसल्लालाटिक श्रीवधूनयनाळंकृतरूपमूर्जितयशःश्रीकामिनीवल्लभं जयकान्ताभुजदण्डनाहवगदादण्डं गुणोन्मण्डितं नयदि कुंडिधराधिपत्यदोठिरल् चामण्डदंडाधिपं ॥ ___ खस्ति समधिगतपंचमहास्तुत्यविराजमानशब्द महाश्रीविस्तार पृथुविमळगुणस्तोमं मण्डळेश्वरं सेननृपं ॥
वदनं निर्मळवाग्वधूसदनवात्मीयोरुवक्षं लसत्सदळंकाररमाविळासविळसल्लक्ष खदोईण्डवुन्मदवीरारिशिरःप्रकन्दुकहतिक्रीडोद्धदण्ड निजाभ्युदयं सर्वजनानुरागदुदयं श्रीसेनभूपाळन ।
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३३६
जैन-शिलालेख संग्रह __इभपतियतिरे दक्षिणशुभदोद्यत्करविळासि भासुरतेनं सुभटमदकरटविघटनविभवं चामण्डरायनिरे निज सभेयोळ् ।।
शुभमति योगंधरनवोलभयप्रदनय्यणय्यनार्जितसुयशोविभवं निजसभेयोळिरल्प्रभुमन्त्रोत्साहशक्तिगुणसंपन्नं ॥ दुष्टोप्रविनिग्रहदि शिष्टप्रतिपाळनदि निळेयनाळुत्तुं शिष्टेष्टप्रदम्नत्युत्कृष्टदे राज्यगेयुत्तमिरे सेननृपं ।। ___ श्रीरमणीभासि बळत्कारगणाम्भोधिकोण्डनूरोळ् निधिगं भूरमणीमकुटाळंकारदि नेसेदोष्पि तोर्प जिनमन्दिरमं ॥ एसेदिरे माडिसि वृत्तियन सदळमेनलोसेदु बिडिसुतं निधिगं पेलिसिदनदेन्तेन्दडे निजलसदाचार्यान्वयोद्भवप्रक्रममं ॥
श्रीलीलोभनयाक्षि निर्मळदयादेहं गुणोन्मल्लिकामालाकुन्तळभासि भासुरतरश्रीजैनधर्मोद्भवं त्रैलोक्योदरवर्तिकीर्तिविळ सत्स्याद्वादनामांकितं मूलोकक्के निरन्तरं सोगयिकुं श्रीमूलसंघान्वयं ॥
जिनसमयमेम्ब सरसिज वनदोळगलझैपि तोर्प हेमाम्बुजदन्तनुपममेने करमेसेवुदवनियोळ् सद्गुणगणं बळात्कारगणं ।।
वारिधिवेष्टिताखिळधरातलशोभितकीर्तितद्बलात्कारगणाम्बुजाकरवनान्तरदल्लि मराळलीलेयिं चारुचरित्रमार्गद जिनेशमुनीश्वरदुद्वपापहारमदेभकुंभविलुठोत्कटशूररनेकरोप्पिदर् ॥
उदयगिरीन्द्रदोळेसेवरतुदितोदयवागि बळेप चन्द्रन तेरदन्तुदियिसिदं कुवळयकभ्युदयकरं तद्गणाद्रियोळ्गणचन्द्रं । पक्षोपवासि देवनयक्षयतन्मुनिपदाब्जमधुकरशीळं रक्षितगुणगणनिळयमुमुक्षुजनानंदियप्प नयनन्दिबुधं ॥ __ आ नयनन्दिय शिष्यं नानाविद्याविळासर्जिततेनं श्रीनारीनाथनवोल् भूनुतना श्रीधराय॑यतिपतितिळकं । तन्मुनिपदाब्जमधुकरनुन्म
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कोणूरका लेख दमिथ्याकथाविमथनं मुनिपं सन्मागि चन्द्रकीर्ति वियन्मार्गद चन्दनन्ते कुवळयपूज्यं ॥
अतिचतुरकविचकोरप्रतति दरस्मरनयनमींटिदपुदु दंबित कर्णचंचुपुटदिं श्रुतिकीर्तिमुनीन्द्रचन्द्रवाक्चन्द्रिकेय ॥ _श्रीघरदेवं सुयशःश्रीधरनधिगतसमस्तजिनपतितत्व श्रीधरनेसेदं सद्वाश्रीधरना चन्द्रकीर्तिदेवन तनयं ॥
आ मुनिमुख्यन शिष्यं श्रीमञ्चारित्रचक्रि सुजनविळासं भूमिपकिरीटताडितकोमळनखरश्मि नेमिचन्द्रमुनीन्द्रं ॥ ___ श्रीधरवनजद सिरियं साधिपेनेम्बन्तिरेसेव मधुपन तेरनं श्रीधरपदसरसिजदोळ् साधिप वोलेसेदु वासुपूज्यं पोल्तं ॥ ___ विद्यास्पदवासुपूज्यमुनिपं स्याद्वादविद्यावच प्रावीण्यप्रविभासिनोडनुडियल्-भव्याळिगायतुद्भवं नोवायतु प्रतिवादिगळिगे पिरिदं भ्रान्तास्तु मिथ्यामदोद्रीवर्गेन्तु निजैकवाक्यदिननेकान्तत्वमं तोरिदं ॥
श्रीवाणीवदनांबुजातरसमं तन्नक्किरि पीरतुं लावण्यांगितपःप्रकृष्टवधुवं च्यालिंगनंगेय्वुतुं जीवानन्ददयावधूवदनमं कूततियिं नोडुतुं त्रैविद्यास्पदवासुपूज्यमुनिपं तानिप्पनी धात्रियोळ् ॥
बृहितपरमतमदकरिसिंहं त्रैविद्यवासुपूज्यानुजनुद्धांहस् संहरनेसेदै संहृतकामं यशस्विमलयाळबुधं ॥
अतिचतुरकविकदम्बकनुतपद्मप्रभमुनीश राद्धान्तेशं श्रुतकीर्तिप्रियनेसेदं यतिपत्रविद्यवासुपूज्यतनूजं ॥ ___ श्रीरमणीभासि बळात्कारगणाम्भोजमधुपरिरिंतिरे सततं चारुतरं हिलेयरवतारं तद्गणसरोजगुणद वोलेसेगुं ॥
शि० २२
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जैन- शिलालेख संग्रह
तत्कुल राजान्वयदोळ् सत्कविराज- प्रियावलोकनलीलोद्यत्कनका
म्बुजदन्ते बृहत् किरणं सोरिगांकविभु घरेगेसेदं ॥
"2
तत्सुत रमळिन संकळजनोत्सवकर रुचिवचनरचनाळापर्मात्सर्यप्रभुसुभटमरुत्सुतरा बल्लकल्लुगामण्डबुधर् ॥ श्रीत्रधुगे भवतियन्ता भूविदितमेनल्केमानकांगियनन्ता श्रीविभुकलिदेवं बलदेवानुजनेम्ब कीर्त्तिगास्पद - नादं ॥ अळिकुळकुन्तळे कुत्रळयदळलोचने चक्रवाककुचे कनकलतोज्वळमध्ये कनकिगामण्डल सत्तत्प्रभुमनोजसति रतियन्नळ् ॥
वरचूतद्रुमवेषनोज्वळलतापुष्पांकुरोत्पत्तियन्तिरे तदपंतिगलिगे पुट्टि - दगुरु श्रीजैनधर्मोत्सवं वरभव्याळिमनोनुरागविळसबाशी चोविस्तरं परमानंदयशोधिकं निधियमं सत्पात्रदानोद्यमं ॥
श्रीधरदेव पदाब्ज श्रीधरनादोळिपनिं हृदब्जदोळीतं श्रीधरनादं निविगं साधितगुरुचरणनप्पवं पडेयुदुदें ॥ तत्पुत्रर् श्रीरमणीकनत्कनककुण्डळ रावनिताविळाससस्मेरकटाक्षवीक्षणपरपुरुषोत्तम मरुद्ध कीर्तिगळ् श्रीरम वासुपूज्यमुनिपादप योरुह भृंगरौप्पुवर्चारुगुणाद्यरागि कलिदेवलसद्बल देव ||
•
स्वस्ति श्रीमच्चालुक्य विक्रमकालद १२ नेय प्रभवसंवत्सरद पौषकृष्ण चतुर्दशीव वारदुत्तरायण सकान्तियन्दु श्रीमन्महाप्रभु निधियमगामण्डं तन्त्र मान्यदोगे हिंडादिय होलदोळ सर्व्वबाधापरिहारागि कूण्डिय कोललित्तय्युम पनेरडु मनेयु मनोन्दु गाणमुमोन्दु तोण्टमु तळवृत्तियागि माडि कोट्टना देवसं श्रीमन्महाप्रधाण गेयिं ........ तजिनालयवन्दनार्थं बन्दु श्रीमन्महामण्डलेश्वर ......... कन्ननृपं देवरंगभोगरंगभोगक्कं खण्डस्फटितजीर्णोद्धारकं तन सीबटदोळगण त........ वणनागि माडि .......श्रीधर - पंडितदेवर श्रीपा
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टुबकुण्डका लेख
३४५
४३ धारणजातशोभस्तस्मादजायत स दुर्लभसेनसूरिः । सर्व्व श्रुतं समधिगम्य सहैव सम्यगात्मस्वरूप निरतो भवदिद्ध४४ [घ]र्यः || आस्थानाधिपतौ वु (बु) धा [दवि ] गुणे श्रीभोजदेवे नृपे सभ्येष्वंव (ब) रसेन पंडितशिरोरत्नादिषूधन्मदान् । योने
४५ कान् शतशो व्यजेष्ट पटुताभीष्टोद्यमो वादिनः शास्त्रांभोनिधिपारगोभवदतः श्रीशांतिषेणो गुरुः ॥ गुरुचर
४६ णसरोजाराधनावाप्तपुण्यप्रभवदमलवु (बु) द्धिः त्रयस्मात् । अजनि विजयकीर्त्तिः सूक्तरत्नाव४७ की ज[धि] भुवमित्रैतां यः प्रस (श)स्ति व्यधत्त ॥ तस्मादवाप्य परमागमसारभूतं धर्मोपदेशमधिकाधिगत
शुद्धरत्न
४८ प्रवो (बो) धाः | लक्ष्म्याश्च वं (बं)धुसुहृदां च समागमस्य मत्वायुषश्च वपुषश्च विनश्वरत्वं || प्रारब्धा (ब्धा) धर्मकांतारविदाहः
४९ साधु दाहः । सद्विवेक [ कू] केकः सूर्पटः सुकृते पटुः ॥ तथा देवधरः शुद्धः धर्मकर्मधुरंधरः । चं[द्रा ] लिखि५० तनाकश्च महीचंद्र : शुभार्जनात् ॥ गुणिनः क्षणनाशिश्रीकलादानविचक्षणाः । अन्येपि श्रावकाः केचिद
५१ कृतें [धन ] पात्रकाः ॥ किं च लक्ष्मणसंज्ञोभूद हरदेवस्य मातुलः । गोष्ठिको जिनभक्तश्च सर्व्वशास्त्र
५२ विचक्षणः ॥ शृंगामोल्लिखितांव (ब) रं वरसुधासांद्रद्रवापांडुरं सार्थ श्रीजिनमन्दिरं त्रिजगदानंदप्रद सुं
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RE
जैन - शिलालेख संग्रह
५३ दरम्। संभूयेदमकारयन्गुरुशिरः संचारिकेत्वेव (ब) रप्रांतेनोच्छलतेव वायुविहतेर्घामादिश[त्पश्य-]
५४ ताम् ॥ ० ॥ अथैतस्य जिनेश्वर मंदिरस्य निष्पादनपूजनसंस्काराय कालान्तरस्फुटितत्रुटितप्रतीका
५५ राय च महाराजाधिराज श्रीविक्रमसिंहः खपुण्यरासे (शे) रप्रतिहतप्रसरं परमोपचयं चेतसि [[न] धाय
५६ गोणीं प्रति विशोषकं गोधूमगोणीचतुष्टयवापयोग्यक्षेत्रं च महा[चक्र ] ग्रामभूमौ रजक द्रहपू
५७ दिग्भागवाटिकां वापीसमन्वितां । प्रदीप मुनिजनशरीराभ्यंजनार्थं करघटिकाद्वयं च दत्तवान् । तच्चाचं५८ द्रार्क महाराजाधिराजश्रीविक्रमसिंहोपरोधेन । "व (ब) हुभिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य य
५९ स्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फल " मिति स्मृतिवचनानिजमपि श्रेयः प्रयोजनं मन्यमानैः सकलैरपि
६० भाविभिर्भूमिपाल: प्रतिपालनीयमिति ॥ ० ॥ लिलेखोदयराजो यां प्रस (श) स्ति शुद्धधीरिमाम् । उत्कीर्णवा६१ न् शिलाकूटस्तील्हणस्तां सदक्षराम् ॥ संवत् १९४५ भाद्रपदसुदि ३ सोमदिने || मङ्गलं महाश्रीः ||
[ यह शिलालेख सन् १८६६ में कप्तान डब्ल्यू. भार. मैलबिलीको दुबकुडके एक मन्दिरके भग्नावशेष में मिला था । इस लेखमें कुल ६१ पंक्तियाँ हैं । ५४-६१ की पंक्तियोंको छोड़कर शेष लेख श्लोकोंमें हैं । इसको प्रशस्ति ( पंक्तियाँ ४७ और ६० ) कहा है । इसको बिजयकीर्ति (पं. ४६ ) ने बनाया, उदयराजने ( पं. ६०) लिखा और उत्कीर्ण करनेवाला
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दुधकुण्डका लेख
३४७ शिल्पी तिल्हण (पं. ६.) था । इस सारे लेखमें 'ब' 'व' अक्षरसे लिखा गया है।
इस लेखका उद्देश्य एक जैनमन्दिरकी-जिसके कि पास यह शिलालेख मिला है-स्थापनाका उल्लेख करना है। इसकी स्थापना कुछ निजी भादमियोने की थी और इस मन्दिरको कुछ दान महाराजाधिराज विक्रमसिंह (पं. ५४-५८) ने दिया था। इस शिलालेखके लिखनेके समय, विक्रम सं. ११४५ में, वे दुबकुण्डके आसपासके प्रदेशपर शासन करते थे। इस लेखके स्पष्टतः दो विभाग हो जाते हैं: पहले विभागमें (पंक्तियाँ १०-३२) युवराज विक्रमसिंह और उनके पूर्वजोंका वर्णन है। दूसरे में (पंक्तियाँ ३२-५१) मन्दिरके संस्थापकों (या प्रतिष्ठापकों) तथा उनसे सम्बद्ध कुछ मुनियोंका वर्णन है । प्रारम्भके छह श्लोकों (पं. ५-१०) में कवि ऋषभस्वामी, शान्तिनाथ, चन्द्रप्रभ और महावीर इन तीर्थकरोंकी, तथा गणधर गौतम, श्रुतदेवताकी जो पंकजवासिनीके नामसे जगत्में प्रसिद्ध है, स्तुति करते हैं।
युवराज विक्रमसिंहके वर्णन (पं. १०-३२) में ऐतिहासिक तथ्य इस प्रकार है:कच्छपघात (कछवाहा) वंशमें१ पांडु श्रीयुवराज (?) हुए । उनके बाद उनके लड़के२ अर्जुन हुए, जिन्होंने विद्याधरदेवके कार्यसे, युद्ध में राज्यपालको
मारा। उनके पुत्र३ अभिमन्यु हुए, जिनके पराक्रमकी प्रशंसा राजा भोजने की थी।
उनके पुत्र४ विजयपाल हुए; और फिर उनके पुत्र५ विक्रमसिंह हुए, जिनके कालकी तिथि यह शिलालेख संवत् ११४५
भाद्रपद सुदि ३ सोमवार बतलाता है। दूसरे विभागके लेखका सार यह है कि विक्रमसिंहके नगरका नाम चंदोभा था । यह चंदोभा वर्तमान दुबकुण्ड ही होना चाहिये और उस समय यह एक बड़ा भारी व्यापारका केन्द्र रहा होगा। ३२-३९ की पंकियोंके लोकों में उस समयके दो प्रसिद्ध जैन व्यापारियों का नाम-ऋषि और बाहर
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૨૨૮
जैन-शिलालेख संग्रह दिया हुमा है । विक्रमसिंहने उनको 'श्रेष्टि' की पदवी दी थी और इन्हीमें से एक-साधु दाहड़-मन्दिरके संस्थापकोंमेंसे हैं । ऋषि और दाहड़ दोनों ही जयदेव और उसकी पत्नी यशोमतीके पुत्र, तथा श्रेष्ठी जासूकके नाती थे। जासूक जायसवाल वंशके थे जो 'जायस' (एक शहर) से निकला था।
३९-४५ की पंक्तियों में कुछ जैन मुनियोंका वर्णन है। उनमेंसे मन्तिम विजयकीर्ति थे। उन्होंने न केवल इस शिलालेखका लेख ही तैयार किया था, बल्कि अपने धार्मिक उपदेशसे लोगोंको इस मन्दिरके निर्माणके लिये मी, जिसका कि यह शिलालेख है, प्रेरणा की थी। उल्लेखित मुनियोंमेंसे सर्वप्रथम गुरु देवसेन हैं। ये लाट-वागट गणके तिलक थे। उनके शिष्य कुलभूषण, उनके शिष्य दुर्लभसेन सूरि हुए । उनके बाद गुरु शान्तिषण हुए, जिन्होंने राजा भोज देवकी सभामें पंडित शिरोरत्न अंबरसेन आदिके समक्ष सैकड़ों वादियोंको हराया था। उनके शिष्य विजयकीर्ति थे।
मन्दिरके संस्थापकों मेंसे पंक्तियाँ ५८-५१ उनका नामोल्लेख इस प्रकार करती हैं:-साधु दाहड़, कूकेक, सूर्पट, देवधर, महीचन्द्र, और लक्ष्मण । इनके अलावा दूसरोंने भी जिनका नाम यहाँ नहीं दिया गया है, इस मन्दिरकी स्थापनामें मदद दी थी।
गद्यभागमें (५४ वीं पंक्तिसे शुरू होनेवाला) कथन है कि महाराजा. धिराज विक्रमसिंहने मन्दिर तथा इसकी मरम्मतके लिये तथा पूजाके प्रबन्धके लिये प्रत्येक गोणी (अनाजकी?) पर एक 'विंशोपक' कर लगा दिया था तथा महाचक्र गाँवमें कुछ जमीन भी दी थी तथा रजकद्रहमें कुमासहित बगीचा भी दिया था। दिए जलानेके लिये तथा मुनिजनोंके शरीरमें लगानेके लिये उन्होंने कितने ही परिमाणमें (ठीक ठीक परिमाण जाना नहीं जा सका शिलालेखके शब्द हैं 'करघटिकाद्वयं') तेल भी दिया।
अन्तमें आगामी राजाओंको भी उपर्युक्त दानको चालू रखनेकी प्रार्थना करनेके बाद, ६०-६१ पंक्तियों में इस प्रशस्तिके लिखनेवाले और इसको खोदनेवाले दोनोंका नाम दिया है । लिखी जानेकी तिथिका उल्लेख करके यह शिलालेख समाप्त हो जाता है।
[ F. Kielhorn; EI, II, nxVIII. (p. 237-240 ). ]
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कणवेका लेख
३४९
श्रवणबेलगोला-संस्कृत
[विना कालनिर्देशका [देखो, जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग]
२३० कणवे-संस्कृत तथा कन्नड़-भन्न [वर्ष शुक्ल. १०९० ई० ? (लू० राइस)।] [कणवेमें, कल्लु-बस्तिमें एक समाधि-पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। साहस.............."महिमं जित-शत्रु धि......'होयसळा....." निळेयं सम्यक्त्व-चूडामणियने नेगळदं भण्डारि-चन्दिमय्यन प्रियेयु जिनपादाम्बुजम स्मरियसुत दिवकेय्-दिदरेन्दोडे कृतार्थरिन्नार् विखावनियोळु॥
खस्ति समस्त-प्रशस्ति-सहितं जिन-गन्धोदक-पवित्रीकृतोत्तमाङ्गनु भव्य-रत्नाकरन सरस्वती-देवी-कर्ण-कुण्डलाभरणनप्प श्रीमन्महा-प्रधान होयसळ-देवन भण्डारि चन्दिमय्यन हेण्डति बोप्पन्वेयु शुक्ल-संवत्सरद पौष्य-मासदल्लु सन्यासनं गेय्दु समाधि सहित सोमवारदेरडनेयजावदलु स्वर्ग-प्रापितरादर
[जिनशासनकी प्रशंसा । प्रधान मंत्री होयसळ-देवके खजाजी चन्दिमव्यकी पत्नी बोप्पव्वेने (उक्त मितिको), संन्यसन करते हुए, समाधिपूर्वक . 'स्वर्ग' प्राप्त किया।
. [ EC, VIII, Tirthahalli ti., n° 198.]
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जैन-शिलालेख संग्रह
२३१
बाळहोन्नूर-संस्कृत [विना कालनिर्देशका;-पर संभवतः लगभग १०९० ई० का ]
[बाळहोन्नूरमें, दूसरी चट्टानपर] श्रीमद्वादीभसिंहस्याजितसेन-महा-मुनेः ।
अपशिष्येण मारेण कृता सेयं निशीधिका ॥ अगणितगुणगणनिलयो जैनागम-वार्धि-बर्द्धन-शशाङ्कः ।
.."त्यूर्जित-मण्डलि......."र-गणे नत-गणाधीशः ॥ [वादीभासिंह भजितसेन महामुनिका यह स्मारक उनके प्रधान शिष्य मारके द्वारा बनवाया गया था । ये गणाधीश अगणित गुणोंके निलय (स्थान) थे, जैनागमरूपी समुद्र के पानीको बढ़ानेके लिये चन्द्रमा थे।]
[EC. VI, Koppa td., n* 3.]
कणवे-संस्कृत तथा कन्नड़ [वर्ष भाङ्गिरस, १०९३ ई० ? (लू. राइस)।]
[कणवेमें, एक दूसरे समाधि-पाषाणपर] श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोध-लाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनायस्य शासनं जिनशासनम् ।। श्री-मूलसंघ-कोण्डकुन्दान्वय-देशीयगण-पुस्तकगच्छ लोकियब्बे बसदिय प्र........."तळताळ बसदि
बळ "रं बळल्चुव लतान्त-सङ्गि"दि सञ्- । चळिसि पळञ्चि तूरन नडिसि मेवगेयाद-दूसरं । कळयदे निन्द कब्बुनद कग्गिद बिट्टिनमरकेवेत्त क। तळमेनिसित्तु पुत्तडद मेय्य मलं मलधारिदेवर ॥
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सोमवारका लेख
स्वस्ति श्रीमदाङ्गिरस -संवत्सर - पौष्य- मास- बहुळ-सप्तमियादित्यवारदन्दु अवर शिष्यरु शुभचन्द्र- देवर् समाधिविधियिं स्वर्गस्थ -
रादरु ।
[ जिनशासनकी प्रशंसा । श्री-मूलसंघ, कोण्डकुन्दान्वय, देशिय-गण और पुस्तक- गच्छ, लोकियब्बे बसदिकी तलवाल बसदिके मलधारि-देव थे, कठोर तपस्यासे जिनका सारा शरीर धूल-धूसरित हो रहा था, लोहेके समान बहुत समयतक जिसपर जङ्ग-सी चढ़ी हुई थी, और वल्मीक ( चींटियोंकी खोदी हुई मिट्टीका ढेर ) के समान हो गया था । ( उक्त मितिको ), उनके शिष्य शुभचन्द्र-देवने समाधिके बलसे स्वर्ग प्राप्त किया । ]
[ EC, VIII, Tirthahalli tl., n° 199.1 २३३
३५१
हळे-बेलगोला - संस्कृत तथा कन्नड़ [ शक १०१५ = १०९३ ई० ] ( जैन शिलालेखसंग्रह, प्र० भाग )
२३४
सोमवार - कन्नड़ - भन्न [ शक १०१७ = १०९५ ई० ]
[ सोमवार (मल्लिपट्टण परगने ) में, बसव मन्दिरकी एक सोटपर ] स्वस्ति''''भद्रमस्तु जिनशासनाय स्वस्ति शक वर्ष १०१७ नेय युवसंवत्सरद भाद्रपद - मासद सुद्ध - सप्तमी - गुरुवार दन्दु मकर लग्नं गुरूदयदल् श्रीमत् - सुराष्ट- गणद कल्नेलेय रामचन्द्र-देवर शिष्यन्तियरप्प अरसव्वे - गन्तियर ( यहाँ खत्म हो जाता है ) ।
[ ( उक्त मिति को ) सुराष्ट्र-गणके कल्नेलेके रामचन्द्र देवकी शिष्या भरसवे-गन्ति ......]
[ EC, V, Arkalgad tl., n° 96.]
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३५९
सण्डका लेख [देसिग-गण और पुस्तक-गच्छके श्रीघरदेव थे, जिनके शिष्य एलाचार्य थे, उनके शिष्य दामनन्दिभवारक थे, उनके साथी चन्द्रकीर्ति-भट्टारक थे, उनके शिष्य दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव थे, उनके शिष्य जयकीर्ति-देव थे जिनका दूसरा नाम चान्द्रायणी देव भी था; इन सबका समुदाय इन बसदियोंका मालिक है। जो इस समुदायके अधीन नहीं हैं उन्हें यह समुदाय भगा देगा, बाहर भेज देगा।
चङ्गाब्वने, १८ बिलस्तके दण्डेके नापसे, विक्रमादित्यकी छोड़ी हुई और तोल्लडिकी उत्तरीय नहर या मोरीसे सींची गई तथा परमेश्वरकी दी हुई और रामस्वामीकी छोड़ी हुई १५०० 'कम्म' (एक नापविशेष) जमीन दानमें दी; उसी नापसे बेजिरिंगट्टकी २५० 'कम्म' जमीन बगीचेके लिये, और ५०० 'कम्म' मदुरनहल्लिमें दिये।
[ EC, IV, Yedatore tl., n° 28]
२४२
अङ्गडिकखड़-ध्वस्त । [विना काल-निर्देशका, पर संभवतः लगभग ११.० (?) ई० का]
[भङ्गाडि (गोणीबीड परगना)में, बसदिके पासके पाषाणपर ] भद्रमस्तु जिनशासनस्य श्री."ण गङ्गदासि-सेट्टि सोमदि"" ......."घिय मुडिहिद प.."क्षके मग चटयं निलिसिद सासन
[जिन-शासनका कल्याण हो। गङ्गदास-सेट्टिके मर जानेपर, उसके पुत्र चटयने यह स्मारक उसके लिये खड़ा किया।]
[EO, VI. Midgere tl., n* 10]
२४३ सण्ड-संस्कृत तथा कबाड़-मन . [विना काल-निर्देशका, पर संभवतः लगभग ११००१० का] .
[सण्डमें, वालावके प्रवेश-द्वारपरके एक पाषाणपर]
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३६०
जैन - शिलालेख संग्रह
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वाद ामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
स्वस्ति समस्त भुवनाश्रयं श्री - पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय-कुळतिळक चालुक्याभरण श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल देवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारम्बरं सलुतमिरे ॥ तत्पादपद्मोपजीवि ॥ स्वस्ति समधिगत- पश्च-महा-शब्द महासामन्ताधिपति महा-प्रचण्ड - दण्डनायक विबुधवर - दायक सुजन - प्रसन्न नुडिदु मत्तेनं गोत्र-पवित्र पराङ्गना-पुत्र " नामादि-समस्त-प्रशस्ति-सहितं श्री यकननन्तपाळय्यं गजगण्ड- अरुनूरुमं सप्तार्द्ध - लक्ष्म (क्ष) यच्छ-पन्नाय मुमं पडेदु तत्पादपद्मोपजीवि ॥
• सोत्तुङ्गनय्यन - सिङ्ग मने वेगडे-दण्डना
वेगडे
मुम
बनवासे " सुख-संकथा - विनोददि •••
...
श्री-वनिता कुच -सम्भृत- । पीवर वक्षस्थळं लसद्गुण-मणी...।
'सकळ - विभु (बु) ध- जनता"
आ-समस्त-गुण-गणाभरणनु विबुध-जन- पर
जगद्-वळय... वनुं रण-रङ्ग भैरवनं सकळ-सु-कवि-जन-क वीर-लक्ष्मी-विळा सनुमनन्तपाळ-प्रसादनुदिताधिकार-लक्ष्मी-विळासनुं ..... " [गो] विन्दरसं वनवासे-पनिच्छसिरमुमं मेल्पट्टेय वड्ड
राबुळमु.... .....नोददिं प्रतिपाळिसुत्तमिरे ॥
*****....
श्रियं निज- भुज-बळदिम् ।
दायाद- बळ
.........]
'विळसित
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प
सण्डका लेख
.............न ।
यं रिपु- नृप - पयोज - सोमं सोमम् ॥
आनेग............गळ महा ... बेयोगेव वोलानत - रिपु-वोगेद महीपति-प्रतिम-प्रताप-निळयं निज-सन्ततिगोसुगे पुढे रिपु ......... पुट्टिदं सोवरस || .... ज़मदनण्मिनार्पेने कड्डायदे चलदोळोदविदुन्नतिनभमं............ रेम् पुट्टिदर ॥
शरणेमगेन्नदेवदेमगे बेसनावुदु बुद्धियेन्दुम् । बरिसि नितान्तमेरिसिद बिल्लवोलुद्धत-वृत्ति ने पे- 1 डिर केलदोळ केळल्दु बीरुव बिडे बीरुयधिक चैरि-भू-1 परनातनत्तर मरुळ तण्डम नोडने सोम-भूमिपम् ॥ किं कल्पद्रुम-वल्लरी किमु रतिः शृङ्गार-भङ्गी-गुरोः किं वा चान्द्रमसी कला विगलिता लावण्य - पुण्या दिवः । सम्यग्दर्शन - रेवती किमु परा सोमाम्बिका राजते राज्ञी सा बनवासि सोम नृपतेर्जाता मनोवल्लभा ॥ लोक ॥ क्षीर-सिन्धोर्व्यथा लक्ष्मीर्हिमांशोरिव दीधितिः ।
३६१
तथा तयोस्सुते जाते जिन - शासन- देवते ॥ पूर्वं वीराम्बिका जाता ततोऽजन्युदयाम्बिका । इति भेदं तयोर्म्मन्ये सद् गुणैस्समता द्वयोः ॥ किं देवेन्द्र - विमान एष किमुत श्री नागराजाश्रयः किं हेमाचल - शैल इत्यनुदिनं शङ्का दधानं जने । निश्शेषावनिपाल - मौलि- विलसन्- माणिक्य- मालाश्चितम् । भात्यत्युन्नतिमज्जिनेन्द्र - भवनं ताभ्यां विनिर्मापितम् ॥ तोडरे तोड मच्चरिसे गण्टल सिल्किद-गाळ बुक्के मार- ।
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३६२
जैन-शिलालेख संग्रह नुडिदडे जिह्वमं पिडिदु किळ्प तोडपिन पाशवेन्देडेन्त् । एडरुव (व) रेन्तु मञ्चरिपरेन्तु करं कडि केय्दु दप्पम [म्] । नुडिदपरण्ण बाणुं मुळिदम्बद जूजिनोळन्य-भूभुजर् ॥ बिडदेडरे सेणसि चुन्न। नुडिवरी-मन्नेयर बेन्न बार मिडियिम् । पेडेतले-वरम्माळ्पोत्तुत्र । कडु-गलि शसि-विशद-कीर्ति जूज-कुमार ॥ जवनेरे बच्चितेम्बिनेगमान्तरि-भूपरनट्टि कोन्दु कू-। गुव तवे तिन्दु तेगुव तडगडिदि....व बेन्न-बारनेत्- । तुव पिडिदच्चि मुकुव पसुगरिडिं बडगिन्दियादुवा- । हव-भुज-शौर्य्यम • 'लि-बीरदनेन्दोड् इन्ना र पोगळ नेगळ्द
__कुमार गजकेसरियं ॥ अरमनेयोळे....................। .................."न्दु बिगिदु संगरमादन्दे । शिरलेय मुङ्गाल्गेणेयनि-। परसर प्पोल्तपरे कु...................... || .........."डे मोगमं तिरिपुवरिन्""दडे नगुवरन्यरम्बद जूजं मुनि...............यं रिपु-जनकमथि-जनक्कम् ॥ अनुपममेनिसिद गुण............... वारितमेनिप दान-गुणदोलु मत्तवण दोरेय.............."तळदोळ ।। आतनळिय ॥ खण्डदोळि ......................."नेदु मूळेगळम्मूरि...
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उदयगिरिका लेख
३६३ [जिन-शासनकी प्रशंसा । जिस समय, (चालुक्य उपाधियों सहित), त्रिभुवनमल्ल-देवका राज्य चारों ओर प्रवर्द्धमान था और तपादपोपजीबी मने-वेगंडे दण्डनायक अनन्तपालस्य, गजगण्ड ६००, बनवासे १२०००,
और ससार्द्ध-लक्ष (देश) अच्छ-परायको प्राप्त करके उनके ऊपर शासन कर रहा था, तत्पादपनोपजीवी, जिस समय (भनेक उपाधियों सहित) गोविन्दरस बनवासे १२००० तथा मेल्पट्टे 'बड्ड-रावुळ'की शान्तिसे रक्षा कर रहा था;-उसका पुत्र (प्रशंसासहित) सोम या सोवरस था, जिसकी पत्नी सोमाम्बिका थी। उनकी वीराम्बिका और उदयाम्बिका, ये दो पुत्री थीं। इन दोनोंने एक जिनमन्दिर बनवाया। मम्ब जूज-कुमारके, जिसे कुमार गजकेसरी भी कहते थे, पराक्रमकी प्रशंसा । उसका दामाद,... (लेख बहुत घिसा हुमा है)।
[EC, VII, Shikarpur tl., n° 311]
२४४
गुब्बी-कन्नड़ [विना कालनिर्देशका] (देखो, जै०शि० सं०, प्र. भाग) .
२४५ उदयगिरि (कटकके पास)-संस्कृत [लगभग ईसाकी ११ वीं शताब्दि ]
उद्योतकेसरीके समयका शिलालेख नोट:-इस शिलालेखके लेखका कुछ पता नहीं है। इसका उल्लेख मात्र टी. ब्लॉक (T. Bloch) के Archaeological Survey of India, Annual Report 1902-1903, पृ० ४० के उल्लेख परसे
[उद्योतकेसरीके समयका यह शिलालेख, जो कि है वी शताब्दिमा है, शुभचन्द्र के कुल और गणका उल्लेख करता है। शुभचन्द्र के शिष्यका
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जैन-शिलालेख संग्रह नाम कुलचन्द्र था। ये (कुलचन्द्र) यहाँकी किसी गुफामें रहते थे और अपने गुरुकी तरह, अवश्य जैन रहे होंगे]
[T. Bloch, A SI, Annual Report 1902-1903, p. 401
नेसर्गी (जिला बेलगाँव);-काड़ [बिना काल-निर्देशका, पर ई० ११ वीं या १२ वीं शताब्दिका (फ्लीट)]
बेलगाँव जिलेके सम्पगाँव तालुकामें नेसर्गीके एक छोटेले तथा अर्द्धध्वस जैनमन्दिरकी एक खड्गासनस्थ बुद्ध-प्रतिमाके चरणपाषाणपर निनालिखित अभिलेख पुरानी कमड़के ई० ११ वीं या १२ वीं शताब्दिके अक्षरोंमें है:
श्रीमूलसंधद बलात्कारगणद श्रीपार्श्वनाथदेवर श्रीकुमुदचन्द्रभट्टारकदेवर गुड बाडिगसात्ति-सेट्टियरु मुख्यवागि नख (ग?) रङ्गळु माडिसिद नख (ग? )रजिनालय ।
[श्रीमूलसंघ बलास्कारगणके, श्रीपाश्र्धनाथदेवके श्री कुमुदचन्द्र भट्टारकदेवके शिष्य या मनुयायी बाडिगसात्ति-सेट्टि जिनमें मुख्य था ऐसे नगरके (व्यापारी लोगों) द्वारा 'नगरका जिनालय' बनवाया गया।
[IA, X, P. 189, n° 16, t. & tr.]
२४७
ऐहोले-कड़-भन्न [विक्रमादित्य चालुक्यका २६ वाँ वर्ष, शक १०२३-११०१ ई०
(फ्लीट)] [ऐहोले गाँवके दक्षिण-पत्रिम दरवाजेके बाहर ही हनुमन्तकी आधुनिक कालकी बेदी है । इसके सामने 'ध्वजस्तम्म' नामका एक पाषाण है। इस ध्वजस्तम्भके पादुकातलमें एक वीरगल या स्मारक पत्थर बनाया गया है जिसपर पुरानी कर्णाटकभाषामें एक शिकालेख है। इस लेखकी नकल मायः Elliot MS. Collection पृ. ४.. पर दी हुई है।
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दानसालेका लेख
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पत्थरका ऊपरी हिस्सा दृष्टिसे ओझल हो गया है । लेकिन लेखकी तीन पंक्तियां द्रष्टव्य हैं। इनमें सोमवार दिन तथा विषु संवत्सरके, जो कि चालुक्य विक्रम कालका २६ वाँ वर्ष अर्थात्, शक १०२३ ( = ११०१ ई०) होता है, श्रावणमास के शुक्लपक्षकी एकादशीका काल निर्दिष्ट है । पाषाणके दूसरे हिस्से में भगवान् जिनेन्द्रकी मूर्ति है जो कि पद्मासन है और जिसके दोनों तरफ यक्षिणियाँ चँवर ढोर रही हैं । पाषाणका शेष हिस्सा दृष्टिमें नहीं आता है; लेकिन उसमें भय्यावोळे ( ऐहोले ) के पाँचसौ महाजनद्वारा दिये गये दानका उल्लेख है । ]
[ ई०ए०, ९, पृ० ९६, नं० ६९ ]
२४८
दानसाले - संस्कृत तथा कन्नड़ [ शक १०२५ = ई० ११०३ ]
[ दानसाळेमें, दक्षिणकी ओर, बस्तिके पासके एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ||
स्वस्ति समस्त भुवनाश्रयं श्री - पृथ्वी वल्लभं महाजाराधिराजं परमेश्वर - परम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ तिळकं चालुक्याभरणं श्रीमत्-त्रिभुवनमल्लदेवर विजय - राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारं सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि ॥ समधिगत- पश्च महा-शब्द महामण्डलेश्वरनुत्तरमधुराधीश्वर पट्टि पोम्बुपुर- वरेश्वरम् महोग्र- वंशललामं पद्मावतीलब्ध-वर-प्रसादासादित- विपुळ-तुळा-पुरुष-महादान - हिरण्यगर्भ-त्रयाधिकदान वानर-ध्वज मृगराज- लाञ्छन- विराजितान्वयोत्पन्न बहु-कळा - सम्पन्न शान्तर-कुल-कुमुदिनी - शशाङ्क - मयूखाङ्कुर रिपु- मण्डलिक- पतंग - दीपाङ्कुरं तोण्ड- मण्डळिक-कुळाचळ-वज्रदण्डं बिरुद मेरुण्ड कन्दुकाचार्य्यं मन्दर-धैर्य कीर्ति - नारायणं शौर्य्य-पारायणं जिन - पादाराधकं परबळ
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दावनगेरेका लेख
३७३
षण्मुख' था ऐसे जगदेकमल्ल वादिराज देव हुए । उनके बाद ओडेय देव, उनके बाद श्रेयांस- पण्डित, और उनके बाद परचक्र विजेता भजित सेनमुनीन्द्र हुए। अद्वितीय कुमारसेन प्रतिप निर्विवाद रूपसे आधुनिक गणधर रूप में प्रसिद्ध थे ।
तार्किक चक्रवर्ती अजित सेन- पण्डित देवके एक गृहस्थ शिष्य राजा तैलुग थे। उनकी प्रशंसा । उनका लघु भ्राता गोविन्द था। उनसे छोटा भाई बोपुग था ।
इन राजाओंने (तैलुग, गोविन्द, बोयुगने ) मिलकर, ( उक्त मिति को) चन्द्रग्रहण के समय, बसदिकी स्थापना की, और उसकी मरम्मत, ऋषिवर्गके आहार, तथा देवकी अष्टविध पूजा के लिये ( उक्त ) दान दिये । वे ही अन्तिम श्लोक 1 ]
[ EC, VIII, Tirthahalli tl, n° 192 j २४९ दावनगेरे (मैसूर) कचड़
[वि० चा० का ३३ वाँ वर्ष = ११०८ ई० ] निम्नलिखित श्लोक मूल लेखकी २१ वीं पंक्ति है:कोळि नाडोळाद कदम्ब दिसायरदागरङ्गळोळ् देगुलकं जिना (य) लयकवारवेगं केरे बावि सत्रकम् । रागदे तन्न पन्नयद सुदोळं दशवन्नवित्तनि
न्तागरमुठ्ठिनं नेगर्द (ब्द) बम्मरसं गुण - रत्नदागरम् ॥ अनुवाद:- "कदम्बके सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि स्थानोंमें अग्रगण्य कोगळिदेशमें, प्रसिद्ध, बम्मरसने, एक जैनमन्दिर, एक जिनकी वेदी, एक बगीचे, एक तलाव, एक कुआँ ( वापी ) तथा एक दानशाला (सत्रक) के लिए, - 'पद्मय' की, तबतकके लिये जबतक कि वह कर जारी रहे,— arat तमाम चुङ्गीपर 'दशवा" खुशी से दिये ।"
[IA, XXX, p. 107, t. & tr.].
१ 'दशवन्न' से मतलब आधुनिक 'दसवन्द' या 'दशवन्द' से है, जिसका अर्थ मि० राइसने यह किया है कि "जो व्यक्ति किसी तालाबकी मरम्मत या उसका
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जैन शिलालेख संग्रह
२५०
होन्नूर-कन्नड़ [लगभग शक १०३०=११०८ ई० (फ्लीट)।] [कोल्हापुरके पास कागलसे दक्षिण-पश्चिमकी ओर दो मील दूरपर होनूरमें जैनमन्दिरके भीतर एक प्रतिमाके अभिवक-स्थल (पाण्डुक शिला) के सामने यह प्राचीन काड़का लेख है । प्रतिमा खड्गासनस्थ सिरपर सर्पके सप्तफगाधारी छत्रसे मण्डित पार्श्वनाथस्वामीकी है । इसके दोनों कोनोंमें एक-एक झुकता हुभा या बैठा हुमा भाकार (मूर्ति) है । लेख १४ इञ्च ऊँची तथा २ फुट ७ इञ्च चौड़ी जगहको घेरे हुए है। यह कोल्हापुरके शिलाहारोंमेंसे बल्लाळ और गण्डरादित्यके समयका है, अर्थात् लगभग शक १०३० (११०४-९ ई.) के समीपवर्ती है।]
लेख खस्ति श्रीमूलसंघद पो(पु)नागवृक्षमूलगणद रात्रिमतिकन्तियर गुई बम्मगावुण्डं माडिसिद बसदिगे श्रीमन्महामण्डलेश्वरं बल्लाळदेवर्नु गण्डरादित्यदेवन्म(नुम्) आहारदानक्के बिट्ट कम्मविन्नूरकं अगायि मने................................................
[स्वस्ति । श्रीमन्महामण्डलेश्वर बल्लालदेव और गण्डरादित्यदेवने श्रीमूल संघके (भेद) पुनागवृक्षमूलगणके रात्रिमतिकन्तिके गुड्ड (शिष्य या अनुयायी) बम्मगावुण्डके द्वारा निर्मापित बसदिके लिये, (तपस्वियोंको) आहारदान के लाभार्थ २०० 'कम्म' एवं छः हाथ या ३ गजका एक भवन दानमें दिया।]
[IA, XII, p. 102, n° 6, t. & tr.] निर्माण करता था उसको कुछ भूमि भेटमें दी जाती थी; इसके सिवाय उस तालाबसे फायदा उठानेवालोंसे तालाबके निर्माण करनेवालेको उत्पन्न (फसल) का १० वाँ हिस्सा या और कोई छोटा हिस्सा मिलता था। इसीका नाम 'दशवन' था।
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हेष्वण्डेका लेख
२५१
हेब्बण्डे - संस्कृत तथा कन्नड़-भन्न [ वर्ष ३५ चालुक्य - विक्रम = १११० ई० ] [ हेब्बण्डेमें, तालाब के दक्षिण नष्ट हुए बाँधके पास के पाषाण पर ] श्रीमत्-परम••••॥
.......'-चाळुक्याभरणं श्रीमत- त्रिभुवनमल्लदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रबर्द्धमानम्माचन्द्रार्क - तारं सलुत्तमिरे || आतन मगं एरेय ( ४ पंक्तियाँ नष्ट हो गई हैं ) विष्णुवर्द्धन - म केतवेर्गडे ( ६ पंक्तियाँ नष्ट हो गई हैं ) श्री शुभचन्द्र देव " ......... तुण्डरुं वादि - कोळाहळ
...
કાળ
...
....
" एनिसि
"ख-समय-रक्षण- पक्षपाति ..... एनिसिद कनक'' त्रैविद्यसिद्धान्त देवर शिष्यरप्प मुनिचन्द्र - सिद्धान्त - देवर गुड्डि केतव्वे...... .....विट्टि देवनं भुजबळ - गंग-पेमडियं बम्म- गावुण्डनु नाळ्-प्रभु चालुक्यविक्रम कालद ३५ नेय विकृत- संवत्सरद फाल्गुन मासद शुद्धपञ्चमी बृहवारदन्दु मुख्य स्थानवागि चन्द्रशेखर-वेडे कट्टि - सिद केरेय केळगे गळ्दे कम्म मूवोत्तु आ-केरेय तेङ्कण- कोडियल्लु बेदले मत्तरोन्दु मने आरु गाण वोन्दु ( हमेशाका अन्तिम श्लोक ) श्रीमत् कनकनन्दित्रैविद्य-देवर गुढं सेनबोव-योग- देवन बरह || श्री
.......
[ जिनशासनकी प्रशंसा । जब ( अपनी उपाधियों सहित ) चालुक्य त्रिभुवनमल्लका विजयराज्य चारों ओर प्रवर्द्धमान था । ( इस स्थानपर होय्सलोंके विवरण हैं, जो कि बहुत घिस गये हैं ।) शुभचन्द्र देव ( से परम्परागत आये हुए) कनकनन्दित्रैविद्य देवके शिष्य, मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेवके गृहस्थ शिष्य केवब्वेकी प्रशंसा ।
बिहिदेव, भुजबळ-गंग-पेम्र्माडि, बम्म गावुण्ड (? तथा ) नाळ- प्रभुने, चालुक्य विक्रम कालके ३५ वें वर्ष में, जो कि विकृत वर्ष था, ६ मकान और
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३७६
जैन-शिलालेख संग्रह १ तेलकी चक्कीके साथ, (उक्त) भूमिका दान किया। हमेशाके अन्तिम शोक । यह लेख कनकनन्दि-त्रैविद्य-देवके गृहस्थ-शिष्य, सेनबोव बोग-देवके द्वारा रचा गया।]
[EC, VII, Shimoga tl., n° 89]
. महोबा*-संस्कृत [संवत् १९६९, फाल्गुन सुदि ० (१११२ ई.)] यह लेख संभवतः जयवर्मदेवके कालका होना चहिये, जो, जैसा कि इतिहास कहता है, सिर्फ ४ साल बाद, सं० ११७३ में शासन कर रहा था। [A. Canningham, Reports, XXI, p. 73, a ]
२५३ आलहळ्ळि -संस्कृत तथा कन्नड़-भग्न
[वर्ष ३७ चालुक्य विक्रम १११२ ई.] [मालहळ्ळि (होळलर परगना)में, तलवारके खेतमें पाषाणपर]
श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ॥
जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ खस्ति समस्त-भुवनाश्रयं श्री-पृथ्वी-बल्लभं महाराजाधिराज परमेश्वरं परम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ-तिळकं चालुक्याभरणं श्रीमत्-त्रिभुवनमल्लदेवर विजय राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रबर्द्धमानमा चन्द्रार्क-तारम्बरं सलुत्तमिरे कल्याणपुरद-नेलेवीडिनोळ सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेय्युत्तिरे तत्पादपद्मोपजीवि । .
* महोबाके ये (नं० २५२, ३२५, ३३७, ३४१, ३६०, ३६१, ३६५) अतिसंक्षिप्त शिलालेख ए. कनिंघमको भन्न जैन मूर्तियोंके चरण-पाषाणपर मिले थे। इनमेंके कुछ शिलालेख बहुत कामके हैं, क्योंकि उनमें जिस समय मूर्तिका निमोण या प्रतिष्ठा हुई थी उसका काल तथा उस समय शासन करनेवाले राजाका नाम, ये दोनों चीजें दी हुई हैं । कुछमें शासक-राजा का नाम नहीं मिलता, पर कालका उल्लेख मिलता है, कुछमें वह भी नहीं मिलता।
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आलहळ्ळिका लेख
स्वस्ति समस्त वस्तु-गुण-भूषणनब्धि परीत-भूतळ- । प्रस्तुत - कीर्त्ति भावभव - मूर्त्तिं जया वनिता-प्रपूर्ण-वृ- । त्त-स्तन-हार वाञ्छित - कल्प - कुजानुसारन - 1 म्यस्त-कळागम-ज्ञनेने गङ्गरसं सरसं धरित्रियोळ् || विनयाधारमुदारमुन्नति कुलङ्ग् “श्वर्यमेम्व् । इतुं शोभसे शोभे - वेत्तनेतुं धात्री तळं कर्तु की । - गेणुं जयदुत्तरंगननशेष - श्री. वर्द्ध-प्रसं । गन्........ वितरण व्यासङ्गनं गङ्गनम् ॥ अन्तेनिसि नेगई नीतिवाक्य- कोङ्गणिव धर्म्म- महाराजाधिराज परमेश्वरं कुवळाळपुरवराधीश्वरं नन्दगिरि-नार्थ सकळ - गुण - सनार्थ मदगजेन्द्र लाञ्छनं परिपूर्णीकृत - विबुध-जन-मनोत्राञ्छनं पद्मावती-लब्धवरप्रसादम् मृगमदामोदम् गङ्गकुळ- कुवळय- शरच्चन्द्रं मण्डळिक द्रं दर्पोद्धताराति-मण्डळिक-वनज-वन-वेदण्ड दुर्द्धर गण्ड नामादि- समस्त - प्रशस्ति-सहितं श्रीमन्महामण्डलेश्वरं त्रिभुवनमल भुजबळ-गंग-पेम्र्म्माडिदेवर पट्टमहादेवी ॥
...
पुट्टिद अनुजं । पट्टिग- देवने गङ्गवाडिगे तळेदऴ् ।
पट्टमनेसेदिरे गङ्गन । पट्ट - महादेवियन्तु नोन्तरुमोळरे ॥
परिवार-सुरभिगन्तर्- । पुर- मुख्य-मण्डनेगे गङ्ग-मादेविगे नायकि । यरनद्''''ओडं सति । दोरे नृप पडेये ॥
..
...
अव ॥ गङ्ग-कुळ-तिळकरेनिसिद । गङ्ग- नृपं मारसिंग- नृप गोग्ग-नृपं । तुङ्ग-यशनेनिसिदं कलिय् । अङ्ग नृपं नेगर्दरेळेगे कुमाराप्रणिगळ् ॥ कोळालपुर-वरेश-नृ-पाळ-सुतद्-गजेन्द्र लाञ्छनररि-भूपाळ- कुळ- वनज-वन-शुण्डाळर्नेगर्दइ स्समस्त-सु-भटाग्रणिगळ् ॥
જ્ઞાન
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३७८
जैन-शिलालेख संग्रह अन्तेनिसि नेगर्दग अ-पेाडि-देवरु गङ्ग-महादेवियरुं कुमार-वर्ग, मण्डळि-सासिरदोळगणेडेहल्लिय वीडिनोळ् सुख-संकया-विनोददि राज्य गेय्युत्तमिरला-महा-मण्डलेश्वरनाङ्ग-लक्ष्मि ॥ श्री-वधु जय-वधु कीर्ति- । श्री-वधु वाग्वधुवेनिप्प वधु गङ्ग-नृप । ई-वधुवेनिसिद बाचल-देवियोळेणेयेन् बेनुळिद नृप-वनितेयरम् ॥ ई-चतुरम्बुधि-वेष्टित-भू-चक्रद सतियरेन्नलादडवेनो। बाचल-देविगे समन्....।-च-मणि-प्रतति दोरेये चिन्तामणियोळ् ॥ काम-मदेभ-गामिनिगे.."नमे पूज्यमेनिप्प पेम्पिनिन्छ । ईवमं तणुपि कल्प-कुजक्केणे...... दू"..."र-दान-गुण-भूषणे दान-विनोदे दान-चिन्। तामणि दान-कल्प-लतेयेम्बिदु बाचल-देविगोप्पदे ॥ एरगदराति-भूभुजरनाजियोळञ्जिसि.."निजाङ्गिळ्ग् । एरगिसुतिर्प दर्पद पोड......."गण्डनप्प त-। नरेयन"...."तनगे गङ्ग-महीभुजनं विलासदिन्द् । एरगिसि' 'भाग्य-भरदुन्नति बाचल-देविगोप्पुगुम् ॥ अन्तुमल्लदे ॥ अर-बिरुद-पात्र-जगदळ । धरेगेल्लं नीने राय जगदळे नानी-। धरेगेल्लमेन्दु पिरिदा-। दरदिन्द::....सि पात्र-जगदळे-वेसरम् ॥ कुडे राय जगदळे-पेसर- । वडेद..... 'डेय कडेय बडवुगळीयल् । पडेद रायरोळप्पं कुडे बाचल-देवि पात्र-जगदळे-वेसरम् ॥ मत्तम् ॥ ............. मेवुदे-नडे-तन्न महत्त्व-वृत्तियं । बेडदे नोडिरे नेगळ्द बाचल-देविय कीर्ति.....।
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आलहळ्ळिका लेख
आडि दिगङ्गना - नटियरोळ् तणिविलदे मत्तविन्तु ।
• बीर... पात्र
•• मेले पात्रमुम् ॥
मत्तं स्वस्त्यनवरत-परम-कल्याणाभ्युदय - सहस्र- फळ- भोग- भागिनि ललित-करण-गृहीत-भाव- प्रयोगिनि भुजबळ - गंग-भूपाळ-विशाळ -वक्षस्थळनिवासिनि । नृत्य-विद्या-प्रभाव - प्रभूत-निर्मळ - यशो- विभासिनि स्थानपात्र - मुख मण्डने । प्रतिपक्ष - गायिका - गान-मान-परिखण्डने । अनवरत - दान - जनित विबुध-जन-हर्षे । देवान सतर्षे । चतुरविद्या- विनोदे । कस्तूरिकामोदे । अरि-बिरुद - पात्र - जगदळे | जिन-गन्धोदक- पवित्रीकृतविनीळ - नीळ - कुन्तळे | निखिळ कुळ-पाळिका गीयमान- विशद-यशो - गीति... स्थान.... जिन शासन- साम्राज्य-यशर-पताके । परोपकार- कमळाकरचक्रवाके । सौभाग्य-सची - देवि श्रीमद्-चाचल-देवियर चण्णिकेरेय त्रिभोगाभ्यन्तर - सिद्धिविन्द सुरवदिनिरप्प |
1
.........
.........
जन-नुते बाचल- देविय...।
जननिगे सरि दोरे समानमेनल्के केळ - 1
वनियोळ पडवळति... |
जननिय
जननियरेणेये ॥
पडेदो मे दान-धर्म | कोडलु विशेष तक्किवेने नेगळ्द जसं । बडेदडव्‘''मतिगे ।'................वसुधा तळदोळ् ॥
आ-महानुभावेयोडपुट्टिदम् ॥
1
जिन पदाम्बुज भृङ्गं । जिन - समय सरोजिनी - मार्ता । ......प्रभ । वेने नेगर्द बाहुबलि धरा-मण्डलदोळ् । एळेयं मुरडियं कोट्टू । अळिपदनब्जो.... ............ दिन्द् । इळिसिदपं नम्म बाहुबलिया - बलियम् ॥
I
...
૨૦૨
***********....
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३८७
चामराजनगरका लेख चोलके अधीनस्थ अम्य तमाम विपक्षी शासकोंको भगा दिया और नाड देशको एक छत्रके नीचे लाकर विष्णुवर्धनको सौंप दिया, जिसपर उसने गणराजसे अपनी इच्छाके माफिक कोई वर माँगनेको कहा । उत्तरमें गङ्गराजने तिप्पूर माँगा।
इस प्रकार इच्छानुसार माँगे हुए और दिये हुए तिप्पूका, जो कि गाजलूरु और गौडमेरीके बीचमें है, मूलसंघ, काणूर गण और तिनिणिकगम्छके मेधचन्द्र-सिद्धान्त-देवको दान कर दिया।]
२६४ चामराजनगर-संस्कृत तथा काढ़
. [शक १०३९=१११७ ई.] [चामराजनगरमें, पार्श्वनाथस्वामीकी बस्तीके एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्दमहामण्डलेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरद्युमणि सम्यक्त्व-चूडामणि मलेपरोळगण्डाद्यनेकनामावलीसमलंकृतरप्प श्रीमद्भुजबल वीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन बिट्टिग-होय्सल-देवरु गङ्गवाडि-तोम्भत्तरु-सासिर कोङ्गोळगागि एकच्छत्रछयेयिं तलेकाडलु कोळाल-पुरदलु सुख-सङ्कथा-विनोददिं राज्यं गेय्युत्तमिरे ।
श्रीमत्खामिसमन्तभद्रमुनिपो देवाकलङ्कस्तुतः श्रीपूज्याविरुदात्तवृत्तनिलयो श्री-वादिराजाम्बुधौ । आचार्यो द्रविडान्वयो जिनमुनिश्श्रीमलिषण-व्रती श्रीपालः परिपालिताखिलमुनिस्सोऽनन्तवीर्यक्रमः ॥ जिननिष्ट-दैवमजितं । मुनिपति गुरु पोयसळेशनाब्दनेनल् सद् विनुतं माडिसिदं श्री-। जिनगृहमं पुणस-राज-दण्डाधीशं ॥
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जैन-शिलालेख संग्रह मित्र-कुलाब्धि-वर्द्धन-सुधांशु विरोधि-बलान्तकं महामात्य कुलोद्भवं सकळशासनवाचकचक्रवर्ति लोकत्रयवर्तिकीर्ति पुणिसम्म-चमूपनवङ्गे शुद्ध-चारित्रे पवित्रे पोचले मनः-प्रिय-वल्लभे तत्तनूभवर ।। चावणनाश्रितामर-महीरहनुद्धतमब्रिएलविद्रावणनातनि किरिय कोरपनन्वितसत्कळा-कळा- । पावृत-बोधनातननुजं सुजनाप्रणि नागदेवनाज्ञावनतान्य-मन्त्रि-निचयं कवितागुण-पङ्कजासनम् ॥ पुणिस-चमूपनेम्बेसेव शासन-वाचक चक्रवर्तिगेन्तेणिसलोडं पोगर्ते तनगागिरे पुट्टिद चामराज नाकण कुमरय्यनेम्ब रतुन त्रय-मूर्तिय पुत्रनोप्पिदं । पुणिसम-दण्डनाथनुदितोदित-चाम-चमूप सम्भवम् ।। अवरोळगे पिरिय चावन । युवतियरप्परसिकब्बेग चौण्डलेगं । भुवन-प्रसिद्धरात्मोद्- । भव (रादर् ] पुणिसमय्यर्नु बिटिगर्नु कोळनेन्तम्भोजमुण्मल नलिदु महिमे वेत्तिप्पुवन्तागळु श्री-। निळयं विख्यातवृत्तं पुणिसेगनवनिं बिटिगं पुढे मित्रर्गगळिगेल्लं सम्प""उद्भविसितखिळ-भव्य-व्रज नाडेयु निश्चळ-चेतोजातरादर्द्धरेयोळेसेदुदन्ता-महामात्य-गोत्रम् ॥ चावङ्गं सत्प्रियदि । भावकियेनिपरसिकब्बेग सुतनोगेदं । केवळमे नेगई पोय्सल- । भू-वनितेश्वरन सन्धिविग्रहि पुणिसं ॥ तोदवनदिपि कोङ्गरनडङ्गिसि पोलुवरं पोरब्चि मा-। णदे मलेयाळरम्मडिपि काळ नृपालन तोळ बिकमम् । बेदरसि पोकु नील-सिळेय जयलक्ष्मिगे कीति[...] मा
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चामराजनगरका लेखा डिद विभु बिट्टि-देवन महा-सचिवं पुणिसं बळाधिकम् ॥ अदटिं पोयसळ-भूपनोर्मे बेस... नीळाद्रियं कोण्डु तन्। ओदविन्दं मलेयाळरं कदनदोळ बेडोण्डु तत्साहसा- । भ्युदयं कैकोळे केरळाधिपतियागिर्दैम् बयल्-नाडनं । पदपि काणिसि कोण्डनिन्तु, पुणिस-श्री-दण्डनाथाधिप । के नियोगि बिदु मोदलिल्लदे बन्द कृषीवलं मोदल् । गेट्ट किरातनोलगिसलारदे सेवकनागे गेहृदम् । कोट्ठ निरन्तरं जगमनिन्तभिरक्षिसुतिर्प पेम्पोडम्बहिरे दण्डनाथ-पुणिसं नेगळ्दं भुवनान्तराळदोळ् ।। दरमिर ""लीयदे गं- । गर परियिं गङ्गवाडि-तोम्भत्तर-सासिरद बसदिगळनाळङ्करिसिदपं पुणिस-राज-दण्डाधीशम् ॥
खस्ति श्रीमतु सक-वरूष १०३९ नेय दुर्मुखी-संवत्सरद जेष्ठबहुळ १ व मूलार्कवारदन्दु तुलारासिय बृहस्पति-लग्नदल एण्णेनाड अरकोत्तारदल श्री-सन्धि-विग्रहि दण्डनायकपुणिसमय्य माडिसिद त्रिकूटद-बसदियोळगागि बसदिगळ्गे बिट्ट गद्दे आ-ऊर हडुवलु अण्णमारेय-गेरेय केळगे....."खण्डुग हट्टक्के गुळि १००० आ-ऊर तेङ्कण हेग्गेरेय कीळेरियल गद्दे खण्डुग ऐदक्के गुळि ५०० बेद्दले........ हरदरि खण्डुग एरडक्के ९ गुळि ४००० आ-ऊर हलि सहित जकिकोळग धर्म-गोळ दान-गोळग कळदु"...""गुळि ओन्दुः होर गाणदलोम्मान एण्णे तोण्टद गुळि १०० आ-ऊर बडगण कोडेयनहल्लि सहित......"पुणिस-जिनालयक्के धारा-पूर्वक माडि बिट्ट दत्ति (रीतिक अनुसार मन्तिम श्लोक)
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३९०
जैन - शिलालेख संग्रह
बस दिगे बिट्टी- धर्म्मम । न् ओसेदु करं सलिसदिर्दडं.... | ....... ब्राह्मणन कोन्द गति समनिसुगुं ॥
B.........
[ जिनशासनकी प्रशंसा या स्तुति । इस समय अनेक पदले अलङ्कृत वीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन बिट्टिग होय्सलदेव कोड तककी गङ्गवाडि ९६००० की जमीन के ऊपर तलकाड और कोळाल-पुरमें सुखसकथा -विनोदसे राज्य कर रहे थे ।
समन्तभद्र, देवाकलङ्क, पूज्यपाद, वादिराज, द्रविड़ान्वयके मल्लिषेण, श्रीपाल, और अनन्तवीर्य ( इनका वर्णन किया गया है) । पुणस-राज- दण्डाधीरा देव जिन थे, गुरु अजित मुनिपति थे, और पोयसळ राजा उनका शासकथा | उन्होंने एक जिनमन्दिर बनवाया । पुणिसम्मकी पत्नी पोचले थी । उनके पुत्र चावण, कोरप, और नागदेव थे । उनको क्रमसे चामराज, नाकण, और कुमरय्य भी कहते थे । वे रत्नत्रयमूर्तिके समान थे । उनके ज्येष्ठ पुत्र चावण तथा उनकी पत्नियों अरसिकब्बे और चौण्डलेसे पुणिसमय्य और बिट्टिग उत्पन्न हुए । चावन और अरसिकब्बेका पुत्र पोयसळ राजाका सान्धिविग्रहिक मन्त्री पुणिस हुआ । बिट्टिदेवका महा सचित्र पुणिस था । बिट्टिदेवने तोद लोगोंको डरा रक्खा, कोङ्ग लोगोंको भूगर्भ में भगा दिया, पोलुव लोगों को कत्ल कर डाला, मळेपाळ लोगों को मार डाला, काल नृपतिको भयभीत कर दिया और नील पर्वतपर जाकर उसकी चोटीको जयलक्ष्मीके स्वायत्त कर दिया । पुणिस दण्डनाथाधिपने एकवार पोय्सल राजाकी आज्ञा मिलनेपर नीलाद्विपर कब्जा कर लिया और मळेयाल लोगों का पीछाकर उनकी सेनाको कैदी बना लिया और इस तरह वह केरलाधिपति बन गया और इसके बाद फिर खुले मैदान में आ गया। जो व्यापारी बिगड़ गये थे, जिन किसानोंके पास बोनेके लिए बीज नहीं था, जिन हारे गये किरात सरदारोंके पास कुछ भी अधिकार नहीं रह गया था और जो उसके नौकर हो गये थे, तथा सबको जिसका जो-जो नष्ट हो गया था वह सब उसने दिया और उनके पालनपोषण में मदद की । विना किसी भय सञ्चारक, गनोंकी ही तरह, उसने गङ्गवाडि ९६००० की बसदियोंको शोभासे सज्जित किया ।
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एण्णे-माके अरकोष्टारमें अपने दास बनवाई गई त्रिकूट बसदिकी बसदियों के लिये उसने भू-दान किया ।]
[ EC, IV, Chamarajnagar tl., n° 83.]
२६५
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मुगुलूर-कड़ [वर्ष हेमलम्बी [१११७ ई० १ (लू० राइस)] (इस लेखकी पहली १४ पंक्तियाँ इसी नामके तालुकेके ३८० में लेखकी पंक्तियोंसे मिलनी हैं)
..........."पुष्पसेन-सिद्धान्त-देवरु अवर शिष्यरु वासुपूज्य-देवरु हेमलम्बि-संवत्सरद वैशाख-बहुल त्रयोदशी-बुधवारदन्दु सल्लेखन-समाधि-मरणदिं मुडिपि स्वर्गक्के सन्दर मंगलमहा श्री श्री श्री
[दमिल संघान्तर्गत नन्दिसंघके अरुङ्गळान्वयकी प्रशंसा । पुष्पसेनसिद्धान्त-देवके शिष्य वासुपूज्य-देवने (उक्त मितिको), सल्लेखना धारण करके, देहत्याग किया और स्वर्गको पहुँचे।]
[EC, V, Hasan tl., n° 131.]
२६६ हळेबीड-संस्कृत कमड़-भम
[काल लुस, लगभग १९१७ ई.] [इसका लेख नहीं है, मात्र Mysore ins. Translated' में नं० ११७ के शिलाशासनमें लुई राइसके द्वारा अनुवाद दिया हुमा है]
[लेखमें सर्वप्रथम जिनेश्वर पार्श्वनाथको लक्ष्य करके मङ्गलाचरण है। पश्चात् राजा विष्णुवर्द्धन और उसके मन्त्री गङ्गराजकी प्रशंसा है।]
[Mysore ins, translated, no 117, tr.'1 १ अनुवाद लम्बा होनेसे मूल लेख भी लम्बा मालूम पड़ता है।
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जैन-शिलालेख संग्रह
२६७
निदिगि- संस्कृत तथा कन्नड़-भन्न [ वर्ष ४२ वि. चा० = १११७ ई० ]
[ निदिगि ( बिदुरे परगनां ) में, दोड्डुमने नविरूष्प-गौडके खेत में एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम्
R
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ-तिलकं चालुक्याभरणं श्रीमत् - त्रिभुवनविजय- राज्यमु .... त्तराभिवृद्धि - प्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारं बरं
मल्लदेवर
सलुत्तमिरे । तत्पादपद्मोपजीवि ।
..... तोम्- |
उत्तममप्प...
...
भत्तरु- सासिरं विषयमाप्तननिन्द्य - जिनेन्द्रनाजि-रन् । गात्त-जयं जयं जिनमतं मतमागिरे सन्ततं निजो- । दात्ततेयिन्दमा-दडिग-माधव-भूभुजराळ्दरुवियम् ॥ उत्तर- दिक्-तटावधिगे तागे म... मूड तोण्डे-ना- | उत्तपराशेगम्बुनिधि चेर्वोळेयिप्प को म- । त्तित्तोळगुळ वैरिगळनिक्कि परावृत - गङ्गवाडि- तोम् । बत्तर - सासिरं-दले माडिदरिन्तुटु गङ्गरुज्जुगम् ॥ .... गंगनिं भय । मिल्लद हरिवर्म्म विष्णु नृपर्नि निजदिं । बल्ले तडङ्गाल - माधव- । नल्लिं बळि चुच्चुवाय्द गङ्ग-नृपाळं ॥ श्रीपुरुषं शिवमारं । भूपाळ कृतान्त भूपना-सयिगोट्टम् । द्वीपाधिपरोळरि नृप । कोपानल- शिखेयेनिप्प विजयादित्यम् ॥
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विदिगिका लेख , म-येरिद मारसिङ्गाना- । कुरुळ-राजिगं पेसर्वेत्ता-। मरुळं तन्नृप-तिळकन । पिरियमगं सत्यवाक्यनचळितसौर्य्यम् ॥ गज़द-गं""वसुधेयो- । ळोवने कलि चागि शौचि गुत्तियगाम दोविक्रमाभिरामन- । गुबिन कलि राचमल-भू-नृप-तिलकम् ।। तेचं मु"हसिय कौ- । वुङ्ग पिडिदडसि कीळ्वना-मद-करियं पिङ्गद निलिसुव साहस-। तुंगं केवळमे नेगळ्द रकस-गङ्गम् ।। इन्तेनिसि नेगळ्द गङ्ग-वंशोद्भवरोळा-दडिगन मगं चुर्चुवायद-गङ्ग नातन सुतं दुविनीतनातन तनेयं श्रीविक्रमनातन पुत्रं भूविक्रम । तत्सूनु श्रीपुरुष-महाराजम् । तत्-तनेयं सिवमार-देवम् । तत्-तनूभवनेरेय""तत्पुत्रं बूतुगवेम्मोडि । तदात्मज मरुळ-देवं । तदनुज गुत्तिय-गङ्गनातन मम मारसिंग-देवनातन...गं क..."गदेवनातनमगं बर्म-देवनिन्तु गंग-वंशोद्भवरु राज्यं गेय्ये । दक्षिण-देश-निवासी गङ्ग-मही-मण्डलिक कुल-संधरणः । श्री-मूलसंघ-नाथो नाम्ना श्री-सिंहनन्दि-मुनिः॥ श्री-मूलसंघ-वियदम- । तामळ-रुचि-रुचिर-कोण्डकुन्दान्वय-ल-। क्ष्मी-महितं जिन-धर्म-ल- । लामं क्राणूरग्रगणं जनानन्द करम् ।। आ-गणदन्वयदोळु।
मणिरिव वनराशौ मालिकेवामराद्रौ तिळकमिव ललाटे चन्द्रिकेवामृतांशौ । इव सरसि सरोजे मत्त-भृङ्गी-निकायः
समजनि जिनधर्मो निर्मलो बाळचन्द्रः॥ अवर शिष्यरु। विमल-श्री-जैनधर्माम्बर-हिमकरनुद्यत्-तपोराज्य लक्ष्मी-।
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काबदहल्लिका लेख सरस्व-गण-गीर्वाण-मार्गमालम्बतेऽधुना। ... दान-प्रभा-प्रकाशोऽयं पल्ल पण्डित-चन्द्रमाः ।। दान-वारि-परिपूरित-सिन्धुनष्टमोहतिमिरो गुण-बन्धुः । भव्यलोककुमुदाकरचन्द्रः पल्लपण्डितमुनिहततन्द्रः ॥ नानादेशसमागतेन गुणिना लोकेन संसेवितो जीर्णेनाभिनवेन नूतन-तनु-श्री-लक्षणैर्लक्षितः। शुम्भद्भरिगुणालयो मतिमतां अग्रेसरो राजते देशेऽसिन्नभिमानदानिकमुनिस्सर्वार्थ-चिन्तामणिः ॥ विद्वज्जनानन्दनकारणेन दानेन भक्त्या मुनि-पुङ्गवेषु ।
दिगन्तविश्रान्तयशोनिधानं विराजते पण्डित-पुण्डरीकः ॥ (उत्तरमुख ) नानाभिमानिजन-दान-विधान-धीतो
धीमानशेषजनता-मनसोऽभिरामः । जातोऽभिमानि-पद-पूर्वक-दानि-नाम्ना ख्यातः खलीकृत-महा-कळि-काळ-दोषः ।। साभिमाने जनेऽभीष्टमभिमानमखण्डयन्
जातोऽभिमानदानीह यथार्थः पल्लपण्डितः॥ . अतिसयमागे दानदोळे बेरिदोळ्पुनयोक्तियेम्ब सन्मतियोळे पुष्टि शास्त्रदोळे दाङ्गुडियोगि विशेषमप्प सन्नुत-गुणदोलियिन्दे मडलागि दिगन्तमनेपदे पल्ल-पण"डितर विलास-कीर्ति-लते पविदुदुर्बिगे चोधमप्पिनम् ।। .
सुर-करिय काम-धेनुव । सरदभ्रद कान्तियं पुदुङ्गोळिसुत्त । शरदमळचन्द्रबिम्बद । दोरेगे मिगिल् पाल्यकीर्ति देवरकीर्ति ॥ दानमपरिमितमोळ्पभि- । मानं सत्कविते शास्त्रनिपुणते कीर्ति
दि० २६
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शिलालेख संग्रह स्थानमेने सन्दरीगळ् । दानिगळभिमानदानिगळ वसुमतियोळ् ।। बननिधि-वेष्टित-धात्रियोन ळनवरत नेरेद दीन-जनारङ्गलम् । धन कनकं माळ्परस्सन्। मनदिन्दं पाल्यकीर्ति-पण्डित-देवर् ।। ए-योगब्वुदण्ण विभुध-ज-1 नावळिगं बेडिदwि-जनकग्निश्चन् ।
देवतरु कुडुव तेरैदन्। तीवर्सले पल्लप्पण्डितर वसुमतियोळ् । (पश्चिममुख) पुडवियोळागळलेगळ्द दानिगळिन्निवरत्नरारो पेळ् ।
नुडियदिरारुमं मरुळे कल्प-महीजद कोडिनन्ते कोड् । उडुगदे नन-भग्न-नट-गायक-दीन-जनके सन्तोसं
बडे कुडुतिर्ण पेम्पिनळवच्चरिपाप्तभिमानदानियोळ् । खस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वरं त्रिभुवनमल्ल तलेकाडु-गोण्ड भुजबळ वीरगङ्ग होयसळ-देवरु सुखसंकयाविनोददि राज्यं गेयुत्तमिरे तत्पाद परोपिजीवि महासमन्ताधिपति श्रीन्महाप्रधानि द्रोह-घरट्ट पिरिय-दण्डनायक गणराज तलेकार्ड कोळुवल्लि मुझोळ बेडि-कोण्डु गेल्दडे मेचिदेम् बेडिकोकेने श्री-विण्डिगनविलेयतीर्थरके तळ-वित्तियम्बेडे श्रीविष्णुवर्धन-होयसळ-देवरु कारुण्यं गेम्दु कोडे कोण्डु शक-चरिस *१०४६ विलम्बि सम्वत्-सरद श्रीमूलसंघद देसिंग-गणद पुस्तकगच्छद कोण्डकुन्दान्वयद शुभचन्द्र-सिद्धान्त-देवर कालं कर्चि धारापूर्वकम्माडि बिट्ट दत्ति पिरिय-केरॆय बिन बडगण हळदि तेङ्कक् कौङ्गिन तोण्ट ओळगागि बिट्ट गद्दे सलिगे मूवत्तु हळियमुन्दण लकसमु............म्म गट्टमुं अन्दूर-कि [रि ] योरेंयुं पक्षोपवासि....... बसदिय हडवण-देसे वर । ई-धर्ममनळिदव गङ्गेय तडिय हदिनेण्टुसासिर कविले कोन्द दोसदल होद.॥ १ लेकिन शक १०४६ कोधि; विलम्बि-१०४० ।
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[जिनशासनकी समृद्धि-कामना । अनन्वदीर्य सूरस्वगण उत्पच हुए। उनके शिष्य वाचन्द्र मुनि उनके पुत्र प्रभाचन्द्र, उनके ि उनके पुत्र अष्टोपवासी मुनि उनके शिष्य हेमनन्दि मुने । इनके एक बिनयनन्दि नामक यति थे जिनके विषयमें नाइ-देशमें यह प्रसाद का कि वे शहरोंमें भाविकानोंके पास जाते हैं; लेकिन यह प्रवाद सही नहीं था । विद्वानो, इस बातको सुनो कि इस विषय में स्वयं तुम्हीं लोग साक्षी हो कि वे अपने पिताकी पत्नी ( अर्थात् अपनी माँ) से जैसा वर्त्तन करते थे वैसा ही बर्ताव बी-समुदायसे करते थे । उन अनन्तवीर्धका पुत्र एकवीर था जो अपने गुणोंसे 'अक्रम तीर्थ' कहलाता था । उसका छोटा बाई पल-पण्डित था । जैसे पूर्वकालमें पाक्यकीर्ति व्याकरणमें प्रसिद्ध था वैसे ही दान देनेमें यह प्रसिद्ध था। आगे उसके दानोंकी प्रशंसा की गई है, उसको नाम भी 'भानदानी' और 'पाश्यकीर्त्तिदेव' दिये गये हैं।
जिस समय वीर-गन-होय्पल देव शान्ति और बुद्धिमताले अपना राज्य चला रहे ये तत्पादपद्मोपजीवी गङ्गराज महाप्रधानको, तळेकादुपर कम्बा करनेसे पहिले, उन्होंने कोई एक वर माँगनेको कहा। उत्तरमें माराने बिण्डिगन जिलेके लिये भूमि दान मांगा और विष्णुवर्द्धन होय्सल-देवने उसको वह दिया। गङ्गराजने भी उक्त भूमि पाकर शुभचन्द्र-सिद्धाम्यदेवके पादप्रक्षालन कर उन्हें सौंप दी। शुभचन्द्र- सिद्धान्तदेव मूलसंघ, देसिंग-गण, पुस्तक- गच्छ तथा कोन्द· कुन्दान्वयके थे । शाप ।
[EC, IV, Nagamangala tl., n° 19] २७०, २७१ श्रवणबेलगोला - संस्कृत तथा कार [ क्रमशः शक १०४१ = १११९ ई० और शक १०४२ = ११२० ई० ]
(जै० शि० सं० प्र० भा० )
२७२
बकापुर-कढ़
[वि० पा० का ४५ व वर्ष ( शक १०१२ । १२० ई० [ फ्लीट ] |
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ધાર
जैन - शिलालेख संग्रह
[ बायें हाथकी ओरके शिलालेखमें करीब १७-१७ अक्षरोंवाली ३७ पंक्तियाँ हैं। इसमें एक दानका उल्लेख है जो मादिगवुण्ड और दूसरे गाँव-प्रमुखों द्वारा शुभकृत् संवत्सरमें, चालुक्य विक्रमके ४५ वें वर्ष, किरिय बक्कापुरके जिनमन्दिरको किया गया था । ]
[ IA, IV, 205, n° 7, & ]
२७३
मत्तावार - कन्नड़
[ बिना कालनिर्देशका पर संभवतः लगभग ११२० ई०] [ मत्तावार में, पार्श्वनाथ-बस्तिके प्राङ्गणमें एक पाषाणपर ] मरुळहळि -जकवे हट्टिदेडे गे....गन्ति मत्त्वूरद बसदि तपसु माडि सिद्धियादळु अब्बेय माजकन मग मारे[य] कल निल्लिसिद
[ मरुळहळळिके जकन्येके द्वारा प्रेषित गे...गन्तिने मत्तबूरकी बसदिमें तपश्चरण करके सिद्धि प्राप्त की । अब्बेय माजकके पुत्र मारेपने मह पाषाण स्थापित किया । ]
[EC, VI, Chikmagalur tl. n° 52]
२७४
सुकदरे - संस्कृत तथा कन्नड़ भन्न [ काल लुप्त, पर लगभग ११२० ई० ] [ सुकदरे ( होणकेरी परगना ), लक्ष्म्म मन्दिरके सामने पड़े हुए
पाषाणपर ]
********
.......
"कल्पवृक्ष -सदृशं कीर्त्त्यङ्गनावल्लभम्
"पुण्याकरम् ॥
.....
....... 1
श्री" श्रीमत्परम गंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
........
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सुकदरेका लेख
४०५ नमोऽस्तु || खस्ति समधिगतपश्चमहाशब्द महामण्डलेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरधुमणि सम्यक्त्वचूडामणि मलपरोळु गण्ड श्रीमत्रिभुवनमल्ल तलकाडु गोण्ड भुजबल......."वर्द्धन पोयसळ-देवरु सुख-संकथा-विनोददिं राज्यं गेय्युत्तमिरे..........."व ।
जिननिष्टदेवमजितं । मुनिपति गुरु पोयसळेश.......... एचले तायेनेल्केनेसे-। दनो तां जकि सेट्टि यात्रेय गोत्रपवित्र । ......"नेगळ्द जक्कि सेट्टिय गुरु-कुलमदेन्तेन्दडे । श्रीमद्राविडसंघ........."वळि-लीलेयिम् । श्रीमत्स्वामि-समन्तभद्ररवरि भट्टाकलङ्काख्य। ............."हेमसेनरवरिं श्रीवादिराजाङ्करन्त् आमाहात्म्यविशिष्टरिन्दजितसेन ..........॥ ..."परम-मुनिय शिष्यर् । पापहरमल्लिषेण-मलधारि...1
..................." | ब्भूपालस्तुत्यरेसेदरवनीतळदोळ् । धनदोळ् धनदं वि....। साहसदिं चारुदत्तं चागदोळे जीमूत जकि-सेट्टि........ । ......दानि विद्वज्- । जनविनुतं धर्मजलधिवर्द्धितचन्द्रम् । मनु-नीति-मार्ग.... | .........""जकि-सेट्टि गोत्र-पवित्रम् ।। ___ अन्तप्प जकि सेट्टि तम्मूर सुकु.........."माडिसियदक्के । बिट्ट दत्ति आवर यीसान्यद केरेयं कट्टिसि.... केरेयुं बसदियिं बडगलं बेद्दले बेदे खण्डुग एरडु मत्त...."वायाव्यद किरकरे सहितवाग्गियु आ-ऊर देव-गोळग धर्म होरे-तिप्पे-सुङ्क गाणदलवानेण्णे इन्तिवुम शकचर्ष......."संवत्सरद ज्येष्ठ शु० १२ वहुवार खातिनक्षत्रदन्दु
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जैन जिलावा वह बसदि....."करणकवाहारदानकं दयापाल-देवर्गे धारापूर्वक........ (सदाका अन्तिम श्लोक) मङ्गलमहा श्री. श्री नमोऽईत्पा...........।
..........."तन्नार्पिनि । मनमं तन्न वसक्के तन्दु बळियं सत्-क्षान्तिय""न् । अनेक-पुष्प-वरिष-प्रभावदि मावदि............।
....
...
..
...
.."सुर-दुन्दुभिगळेसेये सूर-गणिकेय..........."पोगब्विनेगं ॥
जकि-सेट्टिय तम्म......... [जिनशासनकी प्रशंसा । जिस समय (अपनी हमेशाकी उपाधियों सहित), विष्णुवर्द्धन पोयसळदेव शान्ति और बुद्धिमत्तासे अपने राज्यका शासन कर रहे थे:
मात्रेय गोत्रको पवित्र करनेवाले जकि सेष्टिके 'जिन' इदेव थे, जितमुनिपति गुरु थे, पोमसरू राजा थे और एचल माता थी।
उस प्रसिद्ध ज-िसेडिकी गुर्वावली निन्न माँति है। दाबिक (1) में..........."स्वामी समन्तभद्र हुए,-उनके बाद महाकल.."हेमसेन, उनके बाद वादिराजा..... जितसेन, परममुनिके शिष्य, पापहर महिपेण माधारी।
पाधि सेटिकी भौर भी प्रसंसा । इस अकि सेटिने अपने गाँव सुकदरेमें एक 'बसदि और उसके दक्षिण-पूर्वमें एक तालाब बनवाया। 'बसदि' और सरोवरके खर्चके लिये (लेखमें वर्णित) भूमिका दान दिया । साथमें दक्षिण-पश्चिममें स्थित एक छोटासा नाकाब, देवका कोलग' बोगोंका बर्ष और खादके गडे, और तेलके कोष्भोंसे भाषा मन तेल, ये सब चीजें उरसवों और माहारदानके लिये दी। ये सब चीजें दयापास-देवमेसोपही। अपि सेष्टि और उसके छोटे भाईकी प्रशंसा।
[EC, IV, Nagamaagad tl, no 1031
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-सुका
सुचि - कचड़
[ विना कालनिर्देशका बहुत करके लगभग ११२० ई० ]
[ माधवराय मन्दिरके नवरंग मण्डपके चार सम्भोंपर ]
( दक्षिण-पश्चिमी खम्भा ) खस्ति समधिगत- पश्च महा-शब्द महामण्डलेश्वर द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरधुम (उत्तर-पश्चिमी) णि सम्यक्त्वचूडामणि तळेकाडु-गोण्ड भुजबळ वीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन-पोसळदेवरु विनयादित्य- दण्ड- (दक्षिण-पूर्व खम्भा ) नायक माडिसिद होयसळ- जिनालयक्के बिट्ट दत्ति श्री-मूलसंघ देशिय गणद पो (पु) स्तक गच्छद कोण्डकुन्दान्वयद श्रीमन्मेषचन्द्र - त्रैविद्य- देवर शिष्यरु (उत्तर-पूर्वी खम्भा ) श्री- प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त - देवर्गे संक्रान्तिव्यतीपातदन्दु कालं क ि धारा- पूर्वकं माडि बिट्ट दत्ति हिरिय-केर्रेय केळगे मोदलेरिय गद्दे हचु-सलिगेयदुं ओन्दु सलगे तोण्टेयदुं बसदिय मुन्तन इम्मडलु बेदलेयुमं बलिगट्टमुमं बसदिय बडगण.. (दक्षिण-पूर्वी खम्भा ) विनयादित्यालय
....
[ ( अपने उन्हीं पदों सहित) विष्णुवर्द्धन- पोसळ-देवने (उक्त ) भूमिका दाम श्री - मूलसंघ, देशीय-गण, पुस्तक-गच्छ तथा कुन्दकुन्दान्वयके मेrचन्द्र-वि-देवके शिष्य प्रभाचन्द्र- सिद्धान्त-देवको विनयादित्य- दण्डनायकके द्वारा बनवाये गये होय्सल-जिनाकपके लिये किया । ]
[EC, V, Hassanth, n° 112]
२७६
कोन्नूर (जि. बेळगांव) - कड़-भत
[ विक्रमादित्य चालुक्यका ४६ वाँ वर्ष ११२१ ई० ]
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१०८
जैन-शिलालेखसंग्रह
परिचय इस लेखमें रायणग्य नायक, मारथ्य नायक, तथा कोण्डनूरुके दूसरे नायकोंके द्वारा किये गये दान का उल्लेख है । ये दान महातीर्थ तटेश्वरदेवके मन्दिरकी तरफसे किये गये थे। उस समय कुण्डी ३००० में महासामन्त राजा कार्तवीर्य राज्य कर रहे थे। इनकी उपाधियोंमें रह-वंश बतलाया गया है। पूर्ववर्ती रट्ट शिलालेखोंकी अपेक्षा इनकी उपाधियाँ कलहोळी शिलालेखकी उपाधियोंसे ज्यादा मिलती हैं । इस लेखकी ४३ वीं पंक्तिमें उनका नाम 'कत्समदेव' दिया हुभा है, और ये संभवतः कार्तवीर्य तृतीय हैं, जैसा कि भागेकी वंशावलीसे प्रकट होगा। कालकी पंकि घिस गई है। . [JB, X. p. 181-182, p. p. 287-292, t.; p. 293-298,
tr.; ins. n° 8, II part.]
कल्लूरगुह-संस्कृत तथा कार्ड
[शक १०४३%११२१ ई.] [कल्लूरगुड्ड (शिमोगा परगना)में, सिद्धेश्वर मन्दिरकी पूर्वदिशामें पड़े
हुए पाषाणपर] १ इस शिलालेखका लेख वही है जो शिलालेख नं. २२७ का अन्तिम भाग है। केवल अंश मेद है। २२७ नं. का अंश पहिला है और इस लेखका अंश दूसरा है । पर यह अंश-भेद सूक्ष्मरीतिसे अवलोकन करने पर भी, सिवाय तिथि (काल)-मेदके, ठीक-ठीक नहीं मालूम पड़ता । अतः लेख (जो २२७ वें शिलालेखका द्वितीयांश है) यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पाठक अपनी बुद्धिसे ही उसे निश्चित करें, क्योंकि हमको उक्त ( २२७) लेखमें 'रायणय्य नायक' तथा 'मारय्य नायक' ये दो नाम (जिनके दानका उल्लेख इस लेखमें है) कतई नहीं मिले हैं । 'कोण्डनूर' का नाम अवश्य पाया जाता है, पर उसके अन्य 'नायकों का कुछ भी पता नहीं। अतः हमें सन्देह है कि २२७ वें नं० के शिलालेखसे भिन्न कोई दूसरा लेख इस २७६ वें नं० का होना चाहिये । संभव है वह गल्तीसे लिखे जानेसे रह गया हो, या मूल 'JBA' पत्रिकामें ही छूट गया हो । सम्पादक.
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श्रीमत्परमगमीरस्याद्वादामोपलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ खस्ति समस्त-भुवनाश्रयं श्री-पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय-कुळ-तिळक चालुक्याभरणं श्रीमत् त्रैलोक्यमल्ल. देवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रवर्द्धमानमाचन्द्रावतारं-बरं सलुत्तमिरे । गङ्गान्वयावतारमेन्तेन्दोडे ।
सले वृषभ-तीर्थ-कालं । सुललितमेने सकळ-भव्य-चित्तानन्दम् । कलि-काल-निर्जितं श्री- । ललना-लावण्य-वर्द्धनं क्रमदिन्दम् ॥ सोगयिसुव-कालदोळ् की- । तिगे मूल-स्तंभमेनिपयोध्या-पुरदोळ् । जगदधिनाथं पुट्टिद- । नगण्यनिक्ष्वाकु वंश-चूडारत्नम् ॥ धरेगे हरिश्चन्द्र-नृपे- । श्वरनोबने कान्तनागि दोर्बलदिन्दम् । बिरुदरनदिपिं विद्या-। परिणतिथि नेरेदु सुखदिनिरे पलकालम् ॥ वृ० ॥ आतन पुत्रनिन्दु-हर-हास-निभोञ्चल-कीर्ति सद्गुणो-।
पेतनुदात्त-वैरि-कुल-भेदनकारि कला-प्रवीणनुद्-। धूत-मल सुरेन्द्र-सदृशं भरतं कवि-राज-पूजितम् ।।
ख्यातनतळपुण्यनिलयं सु-जनाग्रणि विश्रुतान्वयम् ॥ ऋजु-शील-युक्तयेनिसिद । विजय-महादेवी तनगे सतियेने विबुधव्रज-पूज्यं भरतं भा- । वज-सदृशं ताने सकळ-धात्री-तळदोळ् ॥ आ-विजय-महादेविगे गर्भ-दोहलं नेगळे।।
तरल-तरंग-भंगुर-समन्वितेयं झष-चक्रवाक-भा-। सुर-कळहंस-पूरितेयनुध-लताङ्कित-गात्रेय मनो। हर-नव-शैल्य-मान्ध-शुभ-गन्ध-समीर-निवासेयं तळो। दरि नेरे गाय नलिदु मीवमिवञ्च्छेयनेय्दे तान्दिदळ् ॥
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सनयं श्री-मारसिंहंगनुपषित-जगतुंगनाद जगत्-पान बन-लक्ष्मी-बल्लमकिनुदियिसि नेगळ्द राचमलावनीशम् । मनु-मागे गायूडामणि जय-अनिताचीश-भूवल्लमेशम् । जिनधर्माम्बोषि- चन्दं गुण-गण-निळयं राज-विधाघरेन्दम् ।। अन्तातन मर्मन्दिर मरुळय्यं वृतुग-पेम्माडि तदपत्यनेरेप तत्सुत-वीरवेडानेम्बङ्गे।
उदयं गेग्दै विद्या-। सुदतीशं मार-रूपनुचित-विळासम् । विदित-सकलार्थ-शास्त्रं । मृदु-वाक्यं राचमल्लनहितर-मल्लम् ।। अन्ताराचमल्लनिन्देरेयङ्गनातन मगं बूतुगनातन मग मरुळ-देवनातनात्मज गुत्तिय-गगनातनिन्दं मरेयेरिद मारसिंगनातन सुतं गोविन्दरनातन पुत्रं सैगोट्ट-विजयादित्यनातनिन्दं राचमल्लनातनि मारसिंगनातन सुतं कुरुळराजिगनातनिन्दं गचंद गङ्गं गोविन्दरन तम्मन मगनप्प मम्म-गोविन्दरम् ।।
तेङ्गनुडिदडर्दु किन्तं । कौङ्ग मिडुकदिरलेडद-कम्योळ् मद-मा
तङ्गमने पिडिदु निलिसिद । गङ्गं सामान्य-नृपने रकस-गङ्ग। तदनुजं कलियङ्गनातनिन्दुत्तरोत्तरं गङ्गान्वयं सलत्तमिरे क्राणूरगणदाचार्यावतारवेन्तेन्दोडे । । दक्षिण-देश-निवासी गङ्ग-मही-मण्डलिक कुळ-समुद्धरणः ।
श्री-मूल-संघ-नायो नाम्ना श्री-सिंहनन्दि मुनिः ॥ अवर तदनन्तरं अहंदल्याचार्य वेद-दामनन्दि-महारकर बाळचन्द्र-महारकर मेषचन्द्र विध-देवरं । गुणचन्द्र-पण्डित-देवरवरिन्द ।
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जैन-शिलालेख-संह एळेगे गुण-रुचियिनोळ्पग्- गळिसिरे गुण-रुचि-विकाश-वाग्-रश्मियिनुच्।
चळिसे वदनेन्दु पेम्पम् । तळेदं गुणनन्दि-देव-शब्द-ब्रह्म । अवरि बळिकमकलंक-सिंहासनमनलंकरिसि नेगई तार्किक चक्रे श्वरलं । वादीम-सिंहीं । पर-वादि-कुल-कमल-वन-मद-मातंगरुम् । बौद्ध-वादि-तिमिर-पतङ्गरम् । सांख्य-वादि-कुळाद्रि-वज्रधररुम् । नैयायिकाचार्य-भूजात-कुठाररुम् । मीमांसक-मत-घनाघन-प्रचण्ड-पवनरुम् । सिद्धान्त-वार्धि-वर्द्धन-सुधाकररुम् । सकळ-साहित्य प्रवीणरुम् । मनोमवभय-रहितरं । जिन-समयाम्बर-दिवाकररुम् । अप्प श्री-मूल-संघद कोण्डकुन्दान्वयद क्राणूर-गण मेषपाषाण-गच्छद श्रीमत्प्रभाचन्द्र-सिद्धान्तदेवरवर शिष्यरु।
अनवद्याचारर म्मा-1 धनन्दि-सिद्धान्त-देवरधिकृत-जिन-शा-।
सन-संरक्षकरेसेदर् । जिनमतसद्धर्म-सम्पदं नेगळ्-विनेगम् ॥ अवर शिष्यरु ।
चतुरास्यं चतुरोक्तियिं प्रभुतेयिन्दीशं गुण-व्यापक। स्थितियिं विष्णु सु-बुद्धि-विस्तरणेयिं बौद्धं दली-जैन-पद्। धतियिन्दि?मिदेम् विचित्रतरमो चातुर्य्यमादी-समुन्।
नत-सिद्धान्त-विभूषणनेनिसिदं श्रीमत्प्रभाचन्द्रमम् ॥ अवर सधर्मरु ।
नुत-सिद्धान्तमनन्तवीर्य-मुनिगं शुद्धाक्षराकारदिम् । सततं श्री-मुनिचन्द्र-दिव्य-मुनिगं संवर्तिसुत्तिर्वामप्रतिम तानेने पेम्पु-वेत्तर दितोदान्तर जगद्-बन्यरूर-। जितरुयोतित-विश्वरप्रतिहत प्रज्ञर् म्मही-भागदोळ् ।
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कल्लूरगुड्डका लेख
४१७
अवर शिष्यरु ।
वादि-न-दहन - हुतवह । वादि-मनोभव- विशाळ -हर-निटिलाक्षं वादि-मद- रदनि-बिदुवं । मेदिप मृगराज जयतु श्रुतकीर्त्ति बुधम् ॥ कवि-गमकि-यादिवाग्मिंगळ अवन्दिरं गेल्दु कनकनन्दि त्रैवि-विलासं त्रिभुवन - वादिराजं दलेनिसिदं नृप समेयोळ् ॥ अवर सरु |
चारित्र - चक्रि संयम | धारि काणूरुग्गणाप्रगण्यं सदयम् । श्री-रमणं सिद्धान्त-वि | शारदनति - विशद - कीर्त्ति माधवचन्द्रम् ॥ अवर शिष्यरु |
वर-शास्त्राम्बुधि-बर्द्धन | हरिणा बिरुद वादि-मद-विस्फाळम् । निरुतं तानेनलेसेदं । धरेयोळ त्रैविद्य- बालचन्द्र यतीन्द्रम् ॥ श्री प्रभाचन्द्र - सिद्धान्त - देवर शिष्यरु ।
वसुमतिगोळप-वेत्त धवलातपवारणवागि कीर्त्ति नतिम् वेत्त महिमोन्नति मेरुगे मण्डपन् दला- । गेसेदु सद्-गुण- प्रति मौक्तिक-मालय लीलेयं समर-1 थिसुवुदु सज्जन के सहजातमेन बुधचन्द्र देवर || करवं वारुणिगेन्दु नीडि पिरिढुं निस्तेजमेय्दिर्द तन्- | निरवं नोड दे सत्पद-प्रभुतेयं ताकिदर्प दोषाकरम् । दोरेये पेळेनुतं कळङ्क-रहितं सदू - वृत्तदिदं तिरस्- | कपिं चन्द्रननोळy-वेत्त बुधचन्द्रं सन्ततोत्सादिम् ॥ नुडिगळ सत्य- सुवर्ण- भूषण-गणं चित्तं सु-रत्नम् । गिट्टि करण्डकं तनु तपश्श्री - भामिनी - भासियेन् । शि० २७
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ટ
जैन- शिलालेख संग्रह
दडे दुष्कीर्त्तियनान्त मत्तिन शठर् दुब्र्बोधरस्पृश्यरेम् । पडिये सद-बुध-सेव्यनप्प बुधचन्द्र- ख्यात- योगीन्द्रनोऴ् ॥ सुर-धेनु व्रति रूपमं तळेदुदो गीर्वाण भूजातवी | धरेयोळ् तापस-रूपदिं नेलसितो पेळेम्बिनम् बर्षुदम् । करेदथि प्रकरके को विपुळ - श्री - कीर्त्तियं तादिदम् । निरुतं श्री बुधचन्द्र-देव- मुनिपं वात्सल्य - रत्नाकरम् ॥ इन्तेनिसि नेगळ्दाचार्य - परमेष्ठिगळन्वय-तिळकरूं जिनसद्म-निर्माणroar बुधचन्द्र पण्डित - देवरु प्रवर्त्तिसुत्तिरे । प्रभाचन्द्र- सिद्धान्तदेवर गुड्ड |
जय-जया-वल्लभनन्। वय-वार्धि सीतरोचि भुवन - स्तुत्यम् । प्रिय-मूर्त्ति जिन पदाब्ज | द्वय-भृङ्गं बर्मदेव भुजबळ - गङ्गम् ॥ अन्तेनिसि गई बर्म्मदेव भुजबळ - गङ्ग-पेम्र्म्माडि देवं मण्डलिय बेहद मेले मुनं दडिग-माधवर म्माडिसिद बसदियं तम्म गंगान्वयदवर् प्पडि सलिमुत्तुं बरलु तदनन्तरं मर - वेसनागि माडिसि मण्डलि - सासिरवेडदोरे - एप्पत्तर बसदिगनिष्पुत्र मुन्नादुवक्कुं पट्टद-बसदिय प्रतिबद्ध - वागि समादेय म्मुख्यवागि बि दत्ति तट्टेकरे सर्व्व-बाधापरिहार मत्तं बसदियि तेङ्कण केरेय केळगे तळ-वृत्ति गद्दे गळेय मत्तलु मूरु बेले गळेय मत्तलारुमिन्तु पट्टद तीर्थद बसदिगे सलुत्तमिरे आतन तनूभवरु |
जय- लक्ष्मी- पति मारसिंगननुजं सत्य- प्रियं सन्द नन् । निय गङ्ग-क्षितिपाळकं तदनुजं तेजखि विक्रान्त च । क-युतं रकस - गंगनातननुजं वीराग्रगण्यं तद न्वय-लक्ष्मी-गृह- दीपकं भुजबळ श्री गङ्ग-भूपाकम् ॥
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कल्लूर गुडुका लेख
1
आ-मारसिंग- देवं आद्रेबलियेम्बूरुमं बसदियाग्नेय कोणरेयिम्मूडलु गद्दे गळेय मत्तलोन्दु बेद्दले मत्तलेरडुमं बिट्टम् । माघनन्दि सिद्धान्तदेवर गुडं मारसिंग- देवं मत्तवातन तम्म प्रभाचन्द्रसिद्धान्त - देवर गुड ननिय गङ्ग-देवम् सिरियुरगे येम्बूरुममागदेयिं तेङ्कण कोळद केळगे गळेय मत्तलोन्दु बेदले मत्तलेरडुमं बिट्टम् । बर्म्म -देव सक मारसिंग नन्निय- गङ्ग ९७६ विज [य]९८७ [ विश्वाव ] सु ९९२ सौम्य । अनन्तवीर्य्य-सिद्धान्त - देवर गुडुं रकस-गंगं नन्निय-गङ्गं बिट्ट गद्देि तेङ्कल हरकेरिय सीमेवरं विट्ट गद्दे गळेय मत्तलोन्दु बेद्दले गळेय मत्तलेडुं इन्ती-वृत्ति मण्डलिय होलद भूमियिन्ती - हनेरडु मत्तल बेदलेय सीमे मूडण देसे तळवृत्तिय गद्दे । तेङ्क हरकेरिय सीमेय नट्ट कलुगळु हड्डुवल्लु पिरिवळ बडग मोरसर - कोळ मत्तं कटकद गोवं रक्स-गङ्ग हूलि - यकेरेय गद्देयुमदर सुत्तण बेदलेयुमं बिट्टनदर सीमे मूडलु चिक्कवणजिगनकेरे तेल केरेय गुड्डेय बडगद... नीर्व्वरि हडुवलु नट्ट कल्लिं बरलु गुड्डेय मूडण नीर्व्वरि बडगलु बडगण दिम्बिन नीरि चिक्कनिकेरे बडगण कोडि ॥
४१९
मुनिचन्द्र - सिद्धान्त - देवर गुड्डम् ।
भुज-बळदिं शत्रु मही । भुज- कुजमं कित्तु मुत्ति कोण्डेगळं कोण - । डजित - बळनेनिसि गर्दै । भुजबळ - गङ्ग- क्षितीशनवनिप-तिलकं ॥ इन्तेनिसि गई भुजबळ - गंग-पेम्मडि- देवं सक-वर्ष १०२७ नेय सर्व्वजितु - फाल्गुण - मासद १ शुक्रवारदन्दु मण्डलिय पट्टद - तीर्थद बसदिय नित्य-निवेद्य-पूजेगं ऋषियग्गहार-दानकं बिट्ट दत्ति हेग्गणगिले येम्बूरं सर्व्व- बाधा - परिहारं माडि बिट्टन् ( आगेकी ३ पंक्तियों में
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४२०
जैन-शिलालेख संग्रह सीमाकी चर्चा है) प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त-देवर गुड ननियगंगपेाडि-देव ।
आ-भुजबळगङ्ग-.... । .......... 'वन-भ्राजित मग-बुट्टिद""। ......."दिक्-तटं रा-। ज्याभिषवाधिपतियेनिप नबिय-गङ्गम् ।।
देसेगळनेय्दे पम्बिद नेलक्किदे तां लगट्टेनिप्प बल्. । पेसेवुदु' तोळोळेण-देसेय गण्डर मीसेय मेले मेले वर- । त्तिसुबुदु गण्ड-गर्वद जसं बडवाग्मिय बायनेय्दे बत् । तिसुवुदु तेजमेनधिकनादनो ननिय-गङ्ग-भूभुजम् ॥ पद-नखदोळ् दशाननते नम्र-नृपालि-मुखाङ्कदिं जया- 1 स्पद-भुजदल्लि षण्मुखते दुर्जय-शक्ति-धरत्वदि चतुर- ।
वंदनते वक्त्रदोळ् चतुर-वाणियिनोप्पिरलेन्तु नोपडा-। भ्युदयमनेरिददत्तु पलवू मुखदि तवे कीर्ति गङ्गनोळ् ॥ दिगिभमनोत्ति कीलिडिपनग्गद केसरिवोले वायदडम् । सुगिये तळ प्रहारदोळे मग्गिपनुङ्गुटदिन्दे मीण्टुवम् । नगमनिवं कवुङ्गुडिव तेङ्गुडियन्नने सम्बुशैलमम् ।
नेगपिद पन्ति-दोळवननेळिपनेम्बुदु मारसिङ्गन ॥ खस्ति सत्यवाक्य-कोङ्गुणि-चर्म धर्म-महाराजाधिराजम् परमेश्वरम् । कोळालपुर-वरेश्वरम् । नन्दगिरि-नाथ मद-गजेन्द्र-लाञ्छनम् चतुर-विरिश्चनं पद्मावती-देवी-लब्ध-वर-प्रसादम् विचकिळामोदं ननियगङ्ग। जयदुरत्तङ्गम्। गङ्ग-कुल-कुवळय-शरच्चन्द्रम्। मण्डलिक-देवेन्द्रम् । दर्पोद्धताराति-वनज-वन-वेदण्डम् । कुसुमकोदण्डम् । गण्डरगण्डम् । दुट्टरगण्डम् । नामादि-समस्त प्रशस्ति-सहितम् । श्रीमन्न
१ यहां 'मारसिंग' ननिय-गंगका ही दूसरा नाम मालूम पड़ता है।
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कल्लूरगुडका लेख
४२१ निय-गङ्ग-पेाडि-देवम् तम्मज्ज बर्म-देवं माडिसिद मण्डलिय पट्टद-तीर्थद बसदियं कल्लु-वेसनागि माडिसिद पट्टद-बसदिगे सकवर्ष १०४३ नेय शुभकत्-संवत्सरद भाद्रपद-मासद शुद्ध ५ बृहस्पति चारदन्दु कुरुळिय-बसदियादियागि पञ्चविशति-चैत्यालयमं धर्मप्रभावनेयिन्द माडिसिद प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त-देवर शिष्यर् मुख्यवागि बिट्ट वृत्ति बसदिय मुन्दे गद्देगळेय मत्तरोन्दु बेद्दलेगळेय मत्तरेरडु बसदियहल्लिय सुङ्कमुमं बिट्टरु मत्तं ननिय-गङ्ग-देवतुं पट्ट-महा-देवि कञ्चल-देवियरुं पद्मावती-देविगे हरसि हेाडि-देवनं हडेदु काणिकेयं तन्नाळ्व नाडूर्गळोळु शर-मित-पणवं कोट्टरा-चन्द्रार्क-तारं-बरं । बुधचन्द्र-पण्डित-देवर गुडम् ।
मुनिसिं दिग्दन्ति-दन्तङ्गळनवयवदिन्दोत्ति वेगं छळल्लेम् । बिनेगं कित्तेत्तने तारगेगळनदटिन्दालिकल्लन्ददि सू-। सने वार्द्धि-बातमं सुरेने तवुविनेगं पीरने कोपदिं पोय- ।
यने बेटं पिट्ट-पिट्टागिरे समरदोळी-वीर-पेाडि-देवम् ॥ (हमेशाका अन्तिम श्लोक)
[इस समय त्रलोक्यमल्ल-देवका विजयराज्य प्रवर्द्धमान है । गङ्गान्वय (वंश) का अवतार इस प्रकार हुमाः
वृषभ-तीर्थ-कालमें जब कि अयोध्यामें इक्ष्वाकु-वंशमें राजा हरिश्चन्द्रको राज्य करते हुए बहुत समय हो गया था, उसका पुत्र भरत हुमा । उसकी पत्नी विजय-महादेवी थी। जब उसको गर्भ-दोहद हुमा तो उसे जोरसे नृत्य करनेवाली लहरोंसे ओतप्रोत, मत्स्य, चक्रवाक पक्षी तथा चमकीले हंसोंसे परित गङ्गामें नहानेकी इच्छा हुई । अपनी इस इच्छाको पूरा करनेके बाद, नौ महीने पूरे होनेपर उसे एक लड़का हुमा । उस लड़केका नाम, चूंकि गङ्गामें नहानेके बाद वह उत्पन हुआ था मतः गादत्त रक्खा गया। गादत्तका पुत्र भरत हुआ और उसका पुत्र गादत्त हुमा । इस गादत्रकी
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तेर्दाळका लेख व ॥ अन्तु समस्तधात्रीवल्लभेगे वल्लभनादाहवमल्लदेवन
प्रियतनूजन् । घन-दोर्-विक्रान्तदिं गूर्जरनृपबळम गेल्दु मारान्त चोळावनिपनाभीळकाळानळमनोसेदुः सझामदोळ् तोरि भीतावनि पातङ्कम पुट्टिसदनुनयदि विश्वभूचक्रम सज्जनवागलु रायकोळाहळनेने
तळेदं राय पेाडिरायम् ॥ व ॥ अन्तु कुन्तळमहीतळकान्ताकान्तनेनिसिद वीर-पांडि
रायन कट्टिदलगेनिसिद तेरिदाळद वीर-गोङ्क-क्षितीश्वरनन्वयदोळेनेबरानुं सले निज-जननिगं जनकगर्गे पूर्वपुण्यवेम्ब कम्पावनिजके फलवुदयिसुर्वते पुट्टि ॥ कलिगं बेत्तिद वीरवान्तहितरं गेल्दुक विद्विष्टमण्डलमं चक्रिगे साधिसित्तळवदेक च्छत्रवागलके निर्मळकीर्त्यङ्गनेगार्जु कूर्त कुडतुं श्रीतेरिदाळावनीतळनाथं नेगळ्दं नृपाळतिळक
लोकं महीलोकदोळ् ॥ वृ॥ आतन नन्दनं च(ब)ळदोळा रघुनन्दननेक-वाक्य-विख्यातियोळकनन्दनननिन्दितशौर्य्यदोलिन्द्रनन्दनं नीतियोळब्जनन्दननेनिप्प महत्त्वमनप्पुकेय्दनुर्वीतळदोळ् बुधपोगळ
लिन्तेरगुविवरम् निरन्तरम् ॥ व ॥ तन्नृपोत्तमप्रियपुत्रन् ॥ वृ ॥ बल्लिदरागि पोगदिदिरान्तरिमन्नयरन्नेयर्कळं बल्लहनो
ल्दु' नोडे रणरङ्गदोळोडिसि तेरिदाळदोळ् वल्लभनागि निन्द
जयवल्लभनं सितकीर्तिकामिनीवल्लभनेन्दु' बण्णिसदनावनो मन्नेय मल्लिदेवननु ॥ क॥
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४३०
जैन - शिलालेख संग्रह
आ वीर-मल्लिदेव महीवल्लभनर्धनारि गुणमणिगणदिं भू-वधुगेणेयेने बाचलदेवि महीन्द्रजेगे सीतेगोरे दोरेयल्ते ॥ त्रि ( बृ ) ॥
अवरिवर्गनुरागर्दि सिरिगवा कञ्जोदरंगं मनोभवनद्विप्रियपुत्रिगं शशिधरंगं षण्मुखं बन्दु पुडुववोल पुट्टि विरोधि - मन्नेयघरट्टे तेरिदाळक्षितीश-विळासं परिरञ्जिपं भुवनदोळ् निश्शयिं गोङ्कर्मन् ॥
त्रि ( वृ ) ॥ कन्तु -विकास- लक्ष्मियेनिपग्गद बाचळदेवि माते विक्रान्त-विभासि-मल्ल-महीपं जनकं मुनि माघणन्दिसैद्धान्तिक चक्रवर्त्ति गुरु मिजिनं मनदिष्ट-देववोरंतेने तेरिदाळद नृपाग्रणि गोकनिदें कृतार्थनो || अडसुव कुत्तवोत्तरिप मृत्यु कडंगुव मारि कोय्विनिं तोडर्व विरोधि पात्र पुलि पो सिडिल पिडिवुग्र पन्नगं सुडुव दवाग्नित्राघे कडेगंचुवुदेन्ददे तेरिदाळदी कड़गलि गोङ्क-भूपतिय भव्यते केवळवे निरीक्षिसल || पसिद सिताहि सोङ्किदोडे संकिसि मन्द तंत्रदासेयिन्दसुवरेयागि बिहिरदे पञ्च-पदङ्गळनोदि तद्विषप्रसरमनेय्दे पिजिसि जिनव्रतदोळु दृढ़नाद तन्न पेम्पेसेदिरे तेरिदाळदरसं नेगळ्दं कलि गोङ्कभूभुजन् ॥ येत्तिसि तेरिदाळदोळगोप्पे जिनेश्वरसद्ममं समन्तेत्तिसिदं जयध्वजमनुचिंगे दिग्-मुख- दन्ति-दन्तदोळ तेत्तिसिदं निजाङ्क - महिमा - क्षरमाळिकेयं गडुन्दडेनुत्तमभव्यनो जिनमताग्रणि सद्गुणि गोडभूभुजन् ॥ सततं कीर्त्तिसदिपपैरार्भुवनदो भव्यर्जगत्सेव्यनं जित-काळेय कळङ्क-पङ्क-पटह-ध्वान्ताङ्कनं गोङ्कनम् प्रतिपक्ष-क्षितिनाथ-हृत्-सरसिजोद्यातङ्कनं गोङ्कनम् क्षितियोळ् रञ्जिप तेरिदाळदेसवी निश्शंकनं गोङ्कनम् ॥
१ 'म' अक्षर छन्दपूर्ति के लिये है, वैसे इसकी कोई जरूरत नहीं है । २ यह दूसरा 'प' गलत है ।
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तेर्दाळका लेख
४३१ अन्तेनिसिद गोङ्कमहीकान्त श्री-माधणन्दि-सिद्धान्तिकरं भ्रान्तेन्तो कोल्लगिरदि [दं ] तरिसि समस्त-भव्यरभिवणिपिनम् ॥ तदाचार्य्यप्रभाववेन्तेन्दडे ॥ धरे दुग्धाब्धियिनन्धि चन्द्रनिनिनं तेजोग्नियिन्देन्त [ म ]न्तिरली पोस्तक-गच्छ-देसिग-गणं श्री-कोण्डकुन्दान्वयम् निरुतं श्री-कुळचन्द्रदेव-यतिपोधच्छिष्यारं सद्गुणा
कर-राद्धान्तिक-माघणन्दि-मुनियिं कण्गोपुगुं धात्रियोळ् ॥ क॥ अगणित-गुण-जळधिगळेने नगधैर्याधणन्दि-सैद्धान्तिकरावगमेसेवर्सन्-मतियिं जगदोळ् सामन्त-निम्बदेवन गुरुगळ् ॥ __ वृ॥ सन्ततवन्य-चिन्तेगळनोक्कु जिनास्यविनिर्गतागमार्थान्तरचिन्तेयोळ् नेरेदु निल्लदे सिद्धर सद्गुणंगळं चिन्तिसुतिर्प कोल्लगिरदग्गद सन्मुनि माघणन्दिसैद्धान्तिक-चक्रवर्ति जित-मन्मथ-चक्रियेनिप्पनुवियोळ् । ___ वृ ॥ अन्तरिसिई जैन-समयकोगेदं जिननीगळोवनेम्बन्ते जिनव्रतङ्गळनशेषजनक्कुपदेशमित्तु सामन्तनेनिप्प निम्बनेरगल नेगळ्दोप्पुव माघणन्दि सैद्धान्तिक-चक्रवर्ति जिन-धर्म-सुधाब्धि-सुधांशुवागने ॥ अवरप्रशिष्यरु ॥ ___ कवादि-विषोरग-तार्य-कर्बादि महा-गहन-दावदहन (ब) लवद्-वादीभसिंहरेसेदर्मेदिनीयोळ् कनकणंदिपण्डित-देवर ॥ तत्परवादीभ-पञ्चाननर स-धर्मर् ॥ श्रुतकीर्ति विद्य-त्र (ब )तिपर्षट्-तर्ककर्कशर
पर-वादि-प्रतिभा प्रदीप प्रवन जिंतदोषर् नगळ्दरखिळभुवनान्तरदोळ् ॥ तत्परवादि-शिखरि-शिखर-निर्भेदनोच्चण्डपवि-दण्डर सधर्मर् ॥
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४३२
जैन - शिलालेख संग्रह
वृ ॥ जित - कुसुमायुधास्ररननिन्दितजैनमतप्रसिद्ध साधित हितशास्त्ररं विदळितोन्मद-मान- विमोह-लोभ- भूभृत् कुळिशाखरं पदपिनिं पोगळगुं धरे चंद्रकीर्त्ति - पण्डितरनतर्क्स - तार्किक चतुर्मुखरं परवादिशूलरन् ॥ तत्परवादिमस्तकशूलर सधर्म्मर ॥
वृ ॥ धृति भूभृत्पतियं गभीरवमृताम्भोराशियं 'साले सन्मति वाचस्पतियं पळंचलेविनम्मेवेत्त सन्मार्ग-सन्ततियिन्दं नेगळिद्द देशिंग -गणाata-प्रभा चन्द्र पण्डितदेवोज्वळकीर्त्तिमूर्त्ति वडेदादं वर्त्तिकुं धात्रियोळ् ॥ तन्मुनीश्वर धर्म्मर ||
परवादिप्रकर- प्रताप-महिभृत् प्राग्रोग्र-वज्रर्गुणाभरण श्रीवसुधैकबान्धवजिनेन्द्राधीश्वरोत्तमं दिराचार्य नगेन्द्र चंद्र-निभ-धैर्य्यवर्द्धमान व्रतीश्वररिन्ती धरेयोळ् नेगळ्ते - वडेदं त्रैविद्य - विद्याधरर् || यिन्तु नेगळ्तेगं पोगळतेग मधीश्वरराद वर्धमान त्रैविद्यदेवरज्जगुरुगप्प श्री - माघणन्दि-सैद्धान्तिक - देवरदिव्य श्रीपादपद्मगळम् ॥
स्वस्ति समस्तभुवनाश्रयं श्रीपृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराजं परमेश्वरं परमभट्टारकं सत्याश्रयकुळतिळकं चालुक्याभरणं श्रीमद् - विक्रम चक्रवर्तित्रिभुवनमल्लदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारम्बरम् कल्याणपुरद नेलेवीडिनोळ् सुख-संकथा - विनोददिं राज्यं गेथ्युत्तमिरे तत्पादपद्मवजीवि ॥ स्वस्ति समधिगतपश्च महाशब्द- महामण्डलेश्वरं लत्तनूरपुरवराधीश्वरं त्रिवलि-परेघोषणं रहकुलभूषणं सुवर्ण- गरुडध्वजं सिन्धूर लाञ्छनं विवेक - विरिश्वनं गण्डमण्डलिक- गण्डस्थळ-प्रहारि देसकार - देव मूरु-रायरा स्थान कलि- बिरुदर - गण्ड नुडिदन्ते - गण्ड साहसोत्तुंग सेननसिंह नामादि समस्तप्रशस्तिसहितं श्रीमन्महामण्डलेश्वरं
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तेलका लेख:
४॥ कार्यवीर्य देवरसह सुख-संकथा-विनोददि राज्य गेव्युत्तमिरल् तदाझेयिम् ॥ खस्ति समस्तप्रशस्तिसंहितं श्रीमन्मण्डलिक परवळसाधकं जीमूतवाहनान्वयप्रसूतं शौर्य-पुंजातं समर-जयोत्यु(तु) रणबसिन मयूर-पिच्छ-चञ्चद्-ध्वज रूप-मकरध्वज पद्मावतीदेवीलब्धवरप्रसाद जिनधर्म-केलि-विनोद भावनं ककार मण्डलिक-केदार नामादिसमस्तप्रशखिसहितं श्रीमत् गोवि-देवरसर निज राजधानियप्प तेरिदाळद मध्यप्रदेशदोळ् गोङ्क-जिनालयमं निम्मिसि श्री नेमि-जिननाथ-प्रतिष्ठेयं राष्ट्रकूटान्वय-शिरः-शिखामणि काचैवीर्य-महामण्डलेश्वरं मुख्यवागि सद्भक्तियिं शुभदिनमुहूर्तदोळ् माडि तजिनमुनि-प्रधानरप्प देसिग-गण-पोस्तकगच्छद श्रीकोण्डकुन्दाचार्यान्वयद.कोल्लापुरद श्री-रूपनारायणन बसदियाचार्यरुं मण्डलाचार्यरु मेनिप्प श्रीमाषणन्दि-सैद्धान्तिक-देवरं बरिसि शक-वर्ष १०४५ नेय शुभकृत्-संवत्सरद वैशाखद पुण्णमि बृहस्पतिवारदल गोङ्क-जिनालयक्के पनिवर्गाकुण्डुगळुमं समस्तपरीवारप्रजेगळुमं आ स्थळद सेटि-गुत्त मुख्य समस्त-नकरङ्गलुमं बरिसि नेमि-तीर्थेश्वरन बसदिय ऋषियराहारदानकं देवरष्टविधार्चने गं खण्डस्फुटितजीर्णोद्धारक पेसर-गोण्डु तन्मुनीश्वर दिव्य-श्री-पाद-प-- गळं दिव्य-तीर्थ-जळङ्गळि तोळेदु शातकुम्भ-कुम्भ-संभृत-जळङ्गळि धारापूर्वकं माडि तेरिदाळद पश्चिम-भागदोळ् हारुनगेरिय बटेयिं बडगल् यिप्पत्तनाल्गेण-कोलल् कोड मत्तरेप्पत्तेरडु देवियण-बावियिं तेङ्कला कोलल् कोट्ट तोण्ट मत्तरोन्दु अन्तु मत्तर ७२ तोण्ट मत्तर १ अल्लिय पनिवग्र्गावुण्डुगळुमरुवत्तोकळु हनि-धान्यक्क रासिगोळगे वं बिट्टर अल्लिय सेट्टिगुत्त-मुख्य-नगरगल् तावु मार-कोण्ड भण्ड माणिकपट्ट-सूत्रवादडं होगे वीस लाभायद अडके होगे हनोन्दु तावु तेगेद
शि० २८
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जैन-शिलालेख संग्रह योय हेरिंग अग(:)द (न्तर बतिगरु तेगेद हेखि नरेलेवित्तिनितुर्व बिटर तेल्लिगर मान्य-सान्यवेनदे देवर संजे सोडरिंग धूपारितेर्ग माणके सोल्लगे होरगणिं बन्द एण्णेय कोडक्के सोल्लगे यिन्त बिर गण-कुम्भाररु देवर अष्टविधार्थने आहारदान नडवन्तागि दानशालेगे आवगेगळन बिट्टर् हलसिगे-हनि सिरद हेब्बट्टेयल नडेव गात्रिगर देवरिगे अष्टविधार्थने नडवन्तागि हेरिने नूर वोलेय बिट्टर ॥
[IA, XIV, p. 14- 26 (lines 1-56), t & tr.]
२८१-८२-८३ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कन्नड़ [शक १०४५=११२३ ई.]
(जै० शि० सं० प्र० भा०)
२८४ होसहोळलु-संस्कृत और कड़ [विना कालनिर्देशका, पर संभवतः लगभग ११२५ ई. का] [ होसहोळलु (कृष्णराजपेट परगना )में, पार्श्वनाथ बस्तिके दक्षिणकी
ओरके पाषाणपर] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ भदमस्तु जिनशासनाय । खस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वर-द्वारावतीपुरवराधीश्वर-यादवकुलाम्बरद्युमणिसम्यक्त्वचूडामणि मलेपरोळु गण्डाद्यनेकनामालङ्कत.........त्रिभुवनमल्ल तळकाडुगोण्ड मुजबळ वीरगङ्ग होयसळ-देव पृथिवि-यराज्य उत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रकीमानमाचन्द्रार्कतारम्बरं सल्लुत्तमिरे गङ्गवाडि-तोम्भतरु सासिरमनेकछत्रच्छायदि पृथ्वी राज्यं गेयुत्तिरलु तत्पादपोपजीवि । खस्ति समस्त
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মানুজো উক্ত
४४३ गईयुं अदर बळसि बेदलेयुम्........... में प्रतिपा (शेष पढ़े जानेके योग्य नहीं है)।
[EO, XI, Davangere tl., n° 90] [जिनशासनकी प्रशंसा । स्वस्ति । जब, (उन्ही चालुक्य उपाधियों सहित), त्रिभुवनमल्ल-पेाडि-देवका विजयी राज्य प्रवईमान था तब तत्पादपमोपजीवी राजा पाण्ड्य था । पृथ्वीपर उसका सामना करनेवाला कोई भी न था। उसने शिव (त्रिपुर), शक, गरुड, भर्जुन (फाल्गुन), राम, सहस्रार्जुन, कृष्ण, भीम, इन सबको जीता था।
उसका दण्डाधिप सूर्य यादव-वंशका सूर्य और राजिग-चोळके प्रयनोंका विफल करनेवाला था। उसकी पत्नी कालियके थी। जो धन चोरों, सगेसम्बन्धियों, लोभियों, राजाओं, या अमिसे नष्ट किया जा सकता है, उसकी प्रातिमें क्या स्थिरता है, इसलिए उसने उसकी स्थिरताके लिये सेम्वनूरमें जिनपतिका एक उत्तम मन्दिर बनवाया। उसकी प्रशंसा। कालियकेके पिता मालवा , माँ जकन्वे,.... कलि-देव थे। सूर्य-चमूपका छोटा भाई मादित्य-दण्डाधिनाथ था। उसकी प्रशंसा ।
द्रविण-संघके नन्दि-संघमें अरुङ्गळान्यय चमकता है। उसमें समन्तभद्र, वादिराज, उनके शिष्य अजितेश (मजितसेन-मट्टारक) उनके ज्येष्ठ शिष्य मल्लिषेण-मलधारी, उनके शिष्य श्रीपाल-विद्य-देव हुए । प्रत्येकका एक. एक श्लोक में गुणवर्णन।
(उक्त मितिको), सेम्बनूरके मन्दिर-पुरोहित शान्तीशयन-पण्डितके हायोंमें, ज्येष्ठ दण्डनायकिति कालियकम्वेने जलधारापूर्वक पार्थदेव
और उनकी पूजा तथा पुजारीकी आजीविकाके लिये (उक) भूमिदान किया। कल्याणकामना और शाप]
२८९-९० श्रवणबेल्गोला-संस्कृत तथा कार [शक १०५०-११२९ ई. (कीलहॉर्न)]
(जै०शि० सं०, प्र. भा०)
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जैन-शिलालेख संग्रह
ऊद्रि-कबड़ [विक्रम वर्ष कीलक ११२९ ई० (लु. राइस)।]
[अनिमें चौथे पाषाणपर] खस्ति श्रीमद्-विक्रम वर्षद कीलक संवत्सरद माग (घ) शुद्ध १३ श्रीमन्महामण्डलेश्वरं एकलरस-देवरुद्धरेयोळ् सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेय्युत्तिरे ॥
परम-जिनेश्वरं तनगधीश्वरनुलसच्चरित्र। गुरु हरिण[न्दिादेव-मुनिपोत्तमनग्गद दण्डनायकम् । वर-गुणि-बोप्पणं जनकनुनत-शीलद नागियक्क मातरेयेनलेम् कृतार्थनो धरित्रिगे सिंगण-दण्डनायकम् ।। गुणद कणि जैन-चूडा। मणि वैरि-बलक्के समर-मुखदोळ् सुभटाप्रणि जिन-पदङ्गळं सिड्।
गण-दण्डाधिपति नेनेदु सद्-गति-वेत्तम् ॥ [स्वस्ति । ( उक्त मितिको), जिस समय महा-मण्डलेश्वर एकलरस-देव, शान्ति और बुद्धिमत्तासे राज्य करते हुए उद्धरेमें विराजमान थे उस समय सिंगण दण्डनायक था। वह बड़ा भाग्यशाली था, क्योंकि उसके परम-जिनेश्वर अधीश्वर (इष्ट देव) थे, हरिनन्दि-देव-मुनि उसके गुरु, महान् दण्डनायक बोप्पण उसके पिता, और नागियक उसकी माता थी । यह दण्डनायक अपने समयका जैन-चूडामणि था, समरमें सामना करनेवाले सुभटोंमें अग्रणी था, जिनपदोंका ध्यान करते हुए उसको सद्गति मिली थी।
[ EC, VIII, Sorab tl, n° 149 ]
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नशीकट्टिका लेख
२९२
हूनशीकट्टि (जिला बेलगाँव ) - कचड़ [ शक १०५२ = ११३० ई० ( प्लीट ) ]
[१] स्वस्ति श्रीमद्-भूलोकमल्लदेवर वर्ष ६ नेय सावा
( धा) रण संव
[२] सरद फाल्गुन शु ५ आदिवारदन्दु श्रीमन्महामं[ ३ ] डलेश्वरं मारसिंहदेवरसरु अग्रहारं कोडन- पूर्व[ ४ ] दवल्लिय माणिक्यदेवर बसदिय सम्बन्धियेकसा[५] लेय- पार्श्वनाथदेवर विविधपूजाविधान के बिह [ ६ ] गद्देय सीमेय गुड्डे [ ॥ ] मङ्गलश्री [ ॥ ]
[ मंगल हो । रविवार, साधारण 'संवत्सर' जो कि श्रीमान् भूलोकमलदेवका छठा साल था, फाल्गुन शुक्ला पञ्चमीको, - महामण्डलेश्वर मारसिंहदेवरसने कोडनपूर्वदवल्लि (गाँव) के माणिक्यदेव (देवता) की बसदि (मन्दिर) के एकसालेय पार्श्वनाथदेव ( भगवन्त ) की अनेकविध रीतियोंकी पूर्ति के लिये धान्य ( चावल ) के बहुतसे क्षेत्र दिये । ]
[ इ० ए०, १०, पृ० १३१-१३२, नं० ९८
]
२९३
हन्तूरु- संस्कृत तथा कन्नड़
[ शक १०५२ = ११३० ई० ]
[ हन्तूरु ( गोणी बीड परगना ) में, ध्वस्त जैन-बस्तिके पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
१ भूलोकमल्लका दूसरा नाम सोमेश्वर तृतीय भी है । यह राजा पश्चिमी चालुक्य वंशका है।
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जैन-शिलालेख संग्रह जयति सकळविद्यादेवतारनपीठम् हृदयमनुपलेपं यस्य दीर्घ स देवः । जयति तदनु शास्त्रं तस्य यत् सव्व-मिथ्या-।
समय-तिमिर-घाति ज्योतिरेकं नराणाम् ।। खस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महामण्डलेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यदु-कुळ-कळश-कळित-नृप-धर्म-हर्यमूळ-स्तम्भन् । अप्रतिहत-प्रताप-विदित-विजयारम्भ । शशकपुर-निवास-वासन्तिका-देवीलब्ध-वर-प्रसाद । श्रीमन्मुकुन्द-पादारविन्द-वन्दन-विनोदनित्यादि-नामावळीसमन्वितरप्प श्रीमत्-त्रिभुवनमल्ल तळकाडु-गोण्ड भुजबळ बीर-गङ्गविष्णुवर्द्धन-होयसळ-देवरु मूडल नंगलियघट्ट तेङ्कल कोङ्गु चेरमनमले हडुवलु बारकनूर घट्ट बडगल साविमलेयिनोळगाद भूमियं भुज-बळावष्टम्भदि परिपाळिसुत्तुं दोरसमुद्रद नेलेवीडिनो सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेय्युत्तमिरे । वृत्तं ॥ प्रकटाटोपद चक्रगोट्टदोडेयं सोमेश्वरं वल्के त-।
न कराळासिय कूर्पनेम्मेरदनो गौडान्धकार-प्रचरण- । डकरं माळव-मेव-जाळ-पवनं चोळोगकाळानळम् ।
त्रि कलिङ्ग-त्रिपुर-त्रिणेत्रनदटं श्री-विष्णु-भूपालकम् ॥ इन्तेनिसि नेगर्द श्री-विष्णुवर्द्धन-अग्र-तनूज निज-वंशाम्बर-धमणि । वन्दि-जन-चिन्तामणि । सत्य-शौचाचार-सम्पन्न । बुध-जन-मनःप्रसनन् । आळिम्मुन्निरिव सौर्यमं मेरेव । श्रीमत्-त्रिभुवनमल्ल कुमारबल्लाळ-देवननवरत-मनोरथावाप्तियिं राज्यं गेग्युत्तमिरे । क ॥ कळके बयलगेक्क तुळक् । एळेयोळ् माराम्परिलदा-दिगधि-परम् ।
शेळदु नेलक्किक्कल कौ- । वळिपुदु रिपु-नृप-कुमार-भैरवन मन ॥
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हन्तूरुका लेख आवङ्गमाव-धनमुम- । नीव महा-दानि युद्ध-विजयमना-मा-।
देवङ्गमीयददटर । देवं बल्लाळ देवनप्रतिम-बल ॥ अन्तेनिसि नेगर्द श्रीमत्कुमार बल्लाळ-देवनग्रानुजे हरियब्बरसियेन्तप्पळेन्दडे सरस्वतियेन्ते सत्-कळान्विते । सीतेयन्ते विनीते । सुसीमादेवियन्ते सुशीले रुग्मिणियन्ते गुणाग्रणि । अनल्प-कल्प-शाखानीकदन्तनून-दान-जनित-जन-मनःपुळकेयु। भगवदर्हत्-परमेश्वर-चरण-नख-मयूख-लेखा-विळसित-ललाट-पळकेयुम् । चातुर्वर्ण-वर्णिणतागण्य-पुण्यजन-शिखा-मणियुम् । सम्यक्त्व-चूडामणियुमेनिसि । वृत्त ।। धरेयोळनन्त-दिव्य-यति-सन्ततिगन्नमनाद-भीतियिम् ।
बरे पलरञ्जलेम्बभय-वाक्यमनातुररागि बेर्पवर्ग । इरदे शरीर-रक्षणमनोदलू शास्त्रमनीव पेम्पिनिम् । हरियवे ताळ्दिदळ पर-हितोक्त-चतुविध-दान-शक्तियम् ।।
पर-बळ-दानव-संहा- । रारुण जळ-लिप्त-खर्गनुन्नततेजम् । वर-विबुध-विभव-विभवं । हरि- कान्ता- कान्तनेसदपं विभुसिंग ।। हरि-कान्तेयुमी-कान्तेय । दोरेगे वरल् कोरळेम्ब निम्मदद गुणोत्करमनोळकोण्डु हरियबे । पर-हितदिं धरेयोऊदे जसमं तळेदम् ।।
अन्तेनिसि नेगर्द श्रीमतु हरियल देवियर गुरुगळेन्तप्परेन्दडे श्रीमूलसंघद कोण्डकुन्दान्वयद देसिग-गणद पुस्तक-गच्छद श्री माघणन्दि-सिद्धान्त-देवर शिष्यरु । वृ ॥ मोहान्धकार-रिपु-शाक्य नवोत्पळारिश् ।
चार्वाक-चन्द्र-किरण-प्रतिनाश-हेतुस् । सद्-भव्य-वारिज-महोत्सव तेज-राजिर । उज्जृम्भितो जगति गण्डविमुक्त-भानुः ।।
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जैन - शिलालेख संग्रह
अन्तु जगद्विख्यातरप्प श्रीमत् गण्ड विमुक्त-सिद्धान्त-देवर गुड्डि हरियम्बर सियरु कोडङ्गिनाड मलेवडिय हन्तियूरलनेक-रत्नखचित-रुचिर-मणि-कळश- कळित कूट-कोटि-घटितमप्प उत्तुंगचैत्यालयमं माडिसि खण्ड-स्फुटित - जीर्णोद्धरणक्क नित्य-पूजेगं ऋषियरज्जियकळाहारदानक्कं सित- परिहारक्कं श्रीमत् - त्रिभुवनमल्ल - होयसळ - देवर कम्यळु सर्व्वबाधा - परिहार वागि गुत्तिय चिण्णन दीवर बम्मनन्तिर्व्वरय्दु हणविन मण्णु बिडिसिकोडु शकवर्षद १०५२ नेय सौम्य-संवत्सर दुत्तरायण संक्रान्तियन्दु तम्म गुरुगळप्प गण्डविमुक्त-सिद्धान्तदेवर कालं क िधारा - पूर्वकं माडि कोहरु || ( हमेशा के अन्तिम श्लोक )
श्रीमन्- मल्लिनाथं विरुद - लेखक-मदन- महेश्वरं बरेदम् । नागरादिनागरिक दविळ-समुद्धरणनप्प माणिमोजन मंग बिरुदरूवारि वेश्या - भुजङ्ग बलकोज कण्डरिसिदं मङ्गलम् ॥
[ जिनशासनकी प्रशंसा । ( अपने पदों सहित ) विष्णुवर्द्धन - होयसळ - देव अपने निवासस्थान दोरसमुद्रमें विराजमान थे । राजा विष्णुने चक्रगोटके स्वामी सोमेश्वर को अपनी तलवारकी धारसे डराया । वह गौड, मालव, चोळ, त्रिपुट, त्रि-कलिंग सबके लिये भयावह था । जब विष्णुवर्द्धनका ज्येष्ठ पुत्र श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल कुमार बल्लालदेव राज्य कर रहा था:( उसकी शूरवीरता और औदार्यकी प्रंशसा करते हुए उसकी स्तुति ) । कुमार- बल्लाल देवकी बहिनों में सबसे बड़ी हरियम्बरसि थी । उसका वर्णन:- (जैन रूपमें उसकी भक्तिका प्रदर्शन, उसकी प्रशंसा ) । उसका पति सिंग था; ( उसकी प्रशंसा ) |
उस हरियब्ब देवीके गुरु श्री-मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, देसिंग- गण तथा पुस्तक- गच्छके माघनन्दि - सिद्धान्तदेवके शिष्य गण्डविमुक्त-सिद्धान्तदेव थे; ( उनकी प्रशंसा )
जगद्विख्यात गण्डविमुक्त-सिद्धान्त- देवकी गृहस्थ-शिष्या हरियब्बरसिने, कोड-नाइके मलेवटिके हन्तियूरमें, गोपुरों या शिखरोंसे - जिनमें रत्नोंसे
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कम्बदल्लिका लेख
जड़ित चोटियाँ थीं—समन्वित एक विशाल चैत्यालय, तथा मन्दिरकी मरम्मत करने, पूजाका प्रबन्ध करने, ऋषि और वृद्ध स्त्रियोंको माहारदान देने, तथा शीतले रक्षा करनेके लिये - त्रिभुवनमल होयसल देवके हाथोंसे तमाम सुट्टियों व करोंसे मुक्त भूमि गुतिके चित्र और बम्म मनुएसे ५ हणके किराये से लेकर ( उक्त मितिको ), अपने गुरु गण्डविमुक्त-सिद्धान्तदेवके पैरोंका प्रक्षालन करके उन्हें दी । (हमेशाके अन्तिम श्लोक ) मल्लिनाथने इसे लिखा और माणिमोजके पुत्र बलकोजने उत्कीर्ण किया । ]
[EC, VI, Mudgere tl., n° 22]
२९४
कम्बदहल्लि - कड़- भन्न
--
स्वस्ति
[ विना काल-निर्देशका, पर सम्भवतः लगभग ११३० ई० ] [ कम्बदहल्लिमें, जैन बस्तिके सामनेके पाषाणपर ] यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यान-धारण- मौनानुष्ठान-जप- समाधिशील-गुण-सम्पन्नरप्प श्री - मूलसंघद कोण्डकुन्दान्वयद देशिय - गणद पुस्तक - गच्छद श्री प्रभाचन्द्र सैद्धान्तिकर शिष्यतियरप्प .... ........ कय रुकमव्वे जकवे कन्तियों तव ...निसिधियं माडिसि ..... स्वर्गस्थर .....
*****.***...*.
शि० २९
.......
[ ( सर्वसाधुगुणसम्पत्र) प्रभाचन्द्र-सैद्धान्तिककी शिष्याएँ रुकमध्ये और जकम् - कान्तियर की स्मृतिमें • स्मारक बनवाया । ]
.......
[EC, IV, Nagamangala tl., no 21]
२९५
तगदुरा- कबड़े
[ बिना कालनिर्देशका ]
(जै० शि० सं०, प्र० मा?
(2)
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पुरलेका लेख कलिकालनिर्जितं श्री-। ललना-लावण्य-बर्द्धन-क्रमदिन्दम् ।। सोगेयिसुव-काळदोल की । तिगे मूल-स्तम्भयेनिषयोध्या-पुर-दोळ् । जगदधिनायं पुट्टिद- । नगण्यनिक्ष्वाकु वंश-चूडारनम् ॥ धरेगे हरिश्चन्द्र-नृपे- । श्वर नोचने कान्तनागि दोवळदिन्दम् । बिरुदरनदिर्षि विद्या- । परिणतिथि नेरेदु सुखदिनिरे पल-कालम् ॥ वृ॥ आतन पुत्रनिन्दु-दर-हास-निभोज्वळ-कीर्ति सद्-गुणो-। पेतनुदात्त-वैरि-कुळ-भेदन-कारि कला-प्रवीणनुद्-। धूत-माळं सुरेन्द्र-सदृशं भरतं कवि-राज-पूजितम् । ख्यातनतर्व्य-पुण्य-निळ्यं सु-जनाप्रणि विश्रुतान्वयम् ।। ऋजु-शील-युक्तेयेनिसिद । विजय-महादेवि तनगे सतियेने विभुष
व्रज-पूज्यं भरतं भा-। वज-सदृशं नेगळे सकळ-धात्री-तळदोळ् ।। वचन ॥ आ-विजय-महादेविगे गर्भ-दोहळं नेगळे ।
॥ तरळ-तरंग-भङ्गुर-समन्वितेयं क्र(झ)प-चक्रवाक-भा-। सुर-कळ-हंस-पूरितेयनुद्ध-लताङ्कित-गात्रेयं मनो-। हर-नव-शैत्य-मान्ध-शुभ-गन्ध-समीर-निभास्येयं तव्ये-। दरि नेरे गङ्गेयं नलिदु मीवभिलाञ्छेयनेय्दे तान्दिदळ् ।। कल-हंस-याने पललं । केळदियरोड वागि पूर्णगङ्गा-नदियम् । विळसितमं पोक्कु निरा-। कुळदिन्दोलाडि पाडि गाडियनान्तऴ् ॥ अन्तु मनदलम्पु पोम्पुत्रि-वोगे गङ्गा-नदियोळोळाडि निज-गृहके वन्दु नव-मासं नेरेदु पुत्रनं पडेदातङ्गे ।
गङ्गा-नदियोळु मिन्दु ल-1 ताङ्गि मगं बडेदळप्प कारणदिन्दम् । माङ्गल्य-नाममादुदि-। ळाङ्गनेगधिपतिगे गडदचाख्यानम् ॥
व ॥ आ-गणदत्ताङ्गे भरतेनम्ब मगं पुट्टिदनातङ्गे गडदचनेम्ब मगं पुट्टिदम् ।
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४५८
जैन शिलालेख संग्रह कं ॥ गुण-निधिगे गङ्गदत्तं-गणुगिन पुत्रं विवेक-निधि पुष्टि दया-।
प्रणियागि हरिबन्द्र- । प्रणुत-नृपेन्दं धरित्रियोळ् शोभिसिदम् ॥ मत्तमा नृपोत्तमाङ्ग भरतनेम्ब सुतं पुट्टिदनातङ्गे गादत्तनेम्ब मगनागिन्तु गङ्गान्वयं सलुत्तमिरे ।
कं ।। हरि-वंश-केतु नेमी-1श्वर-तीय वर्तिसुत्तमिरे गङ्ग-कुळा-। ___ बर-भानु पुट्टिदं भा-। सुर-तेजं विष्णुगुप्तनेम्ब नरेन्द्रम् ।।
व ॥ आ-धराधिनाथं साम्राज्य-पदवियं कय्कोण्डु अहिच्छत्र-पुरदोळु सुखमिर्दु ।
व ॥ नेमि-तीर्थकर परम-देवर निर्वाण-कालदोलैन्द्र-ध्वजमेम्ब पूजेयं माडे देवेन्द्रनोसेदु । कं ॥ अनुपमदैरावतमं । मानोनुरागदोळे विष्णुगुप्ताङ्गित्तम् ।
जिन-पूजेयिन्दे मुक्तिय-। ननय॑मं पडेगुमेन्दोडुळिदुदु पिरिडे ॥ व ॥ आ-विष्णुगुप्त-महाराजङ्गं पृथ्वीमति-महादेविगं भगदत्तं श्रीदत्तनेम्ब तनयरागे।
व ॥ भगदत्ताङ्गे कलिङ्ग-देशमं कुडलातर्नु कलिङ्ग-देशमनाडु कलिङ्ग-गङ्गानागि सुखदिनिरे।
(य) इत्तलुदात्त-यशो-निधि । मत्त-द्विपमं समस्त-राज्यमुमं ।
श्रीदत्त-नृपाङ्गित्तं भू-। पोत्तमनेनिसिई विष्णुगुप्त-नरेन्द्रम् ।। अन्तु श्रीदत्तनिन्दित्तलानेयुण्डिगे सलुत्तमिरे । प्रियबन्धु-वर्मनुदयिसि । नयदिन्दं सकळ-धात्रियं पालिसिदम् ।
भय-लोभ-दुर्लभं ल- । क्ष्मी-युवति-मुखाब्ज-षण्ड-मण्डित-हासम् ॥ • अन्ता-प्रियबन्धु सुखदिं राज्यं गेय्युत्तमिरे तत्-समयदोळु पार्श्व-मट्टार कग्र्गे केवळज्ञानोत्पत्तियागे सौधर्मेन्द्र बन्दु केवळि-पूजेयं माडे प्रिय
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पुरलेका लेख
BL बन्धुवं तानुं भक्ति िबन्दु पूजेयं माडलातन भक्तिमिन्द्रं मेचि दिव्यमयदुं तुडुगे -गळं को निम्मन्त्रयदोळु मिथ्यादृष्टिगळागलोडं अदृश्यङ्गळकुमेन्दु पेदु विजयपुरक्क हिच्छत्रमेन्दु पेसरनिट्टु दिविजेन्द्रं पोपुदित्तल गङ्गान्वयं संपूर्ण चन्द्रन्ते पेचि वर्त्तित्तमिरे तदन्वयदोळु कम्प-महीपतिगे पद्मनाभनेम्ब मगं पुट्टि ।
1
कं ॥ तनगे तनूभवरिल्लदे । मनदोळ् चिन्तिसुतमिर्दु पद्मप्रभना । पिन कणि सासन - देवते । यने पूजिसि दिव्य मन्त्रदिं साधिसिद व ॥ अन्तु साधिसि (दि ) शाधित - विद्यनागि पुत्ररिबरं पडेदु राम-लक्ष्मणरेन्दु पेसरनिद्दु ।
वृ ॥ परम-स्नेहदोळिबरं नडपि लीला - मन्त्रदिं चन्द्रनन्- । तिरे संपूर्ण कळाङ्गरागि बेळेयल् विद्या बलोद्योगमुर्र्व्वरेयोळ् चोद्यमेनलू सलुत्तमिरे कीर्त्ति - श्री दिशा - भागदोळ् । पेरेदाशा - गजमं पळञ्चलेये लक्ष्मी - भारदिन्दोप्पिदर् ॥
व ॥ अन्तु सुखदिमिदु मत्तलुजेनिय - पुराधिपति - महीपांळनातुडुगेगळं बेडियट्टि पडे पद्मनाभं कृतान्तनन्ते रौद्र-वेशमं कैकोण्डु | क ॥ येमगदनदृलिकागदु । तमगे तुडल योग्यमल्तु सन्तमिरल् वेळ् । समर्के वन्दनप्पडे । निमिषदोळान्तिरिदु वीर रसमं मेरेवेम् ॥
1
व || अन्तु नुडिदट्टि मन्त्रि-वर्ग डोळाळोचिसि तन तज्ञेयाळब्बेयु नाव बरातरप्प विप्र - सन्तानमं बेरसि कळिपिदडवईक्षिणाभिमुखरागि बरुत्तं राम-लक्ष्मण दडिग - माधवरेन्दु पेसरनिद्रु निश्च-वयणर्दि वरुत्तमिरे ।
|| बन्दवर्गळ चित-पदमन- । गुण्डेलेयिं कण्डरमळ - लक्ष्मी-चित्ता । नन्दनमं- पेरूरं । मन्दार-नमेरु-पुष्प - गन्धाद्रियुमम् ॥
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′′
जैन - शिलालेख संग्रह
|| अन्तु गङ्ग-हेरूरं कण्डल्लिय तटाक-तीरदोळु बीडं बिट्टू या - लयमै कण्डु निर्भर - भक्तियिं त्रि-प्रदक्षिणं गेन्दु स्तुतियिसि समस्त - विद्या- पारावार - पारगरुं जिन - समय-सुधाम्भोधि- संपूर्ण चन्द्ररुमुत्तमक्षमादि- दश- कुशळ-धर्म्म-निरतरुं चारित्र-चक्र-धररं विनेय जनानन्दरं चतुस्समुद्र-मुद्रित-यशः- प्रकाशरं सकळ - सावध-दूररं क्राणूर-ग्गणाम्बरसहस्र-किरणरं द्वादश-विधतपोनुष्ठा[न] निष्ठितरं गङ्गराज्य-समुद्धरणरं श्रीसिंहनन्द्याचार्यरं कण्डु गुरु-भक्ति-पूर्वेकम् बन्दिसि तम्म बन्दभिप्रायमेल्लमं तिळिय पेळे कयूकोण्डवर्गे समस्त विद्याभिमुखम्र्म्माड केलवानु दिवसदिं पद्मावती - देवियं विधि- पूर्व्वक माहानं गेय्दु वरं बडेदु खळगमुमं समस्त राज्यमनव माडे ।
क || मुनि-पति नोडल विद्व- । ज्जन-पूज्यं माधवं शिलास्तम्भमना । ६नुगेदु पोय्यदु पु- । मेने मुरिदुदु वीर पुरुषरेनं माडर ॥
च ॥ आ-साहसमं कण्डु |
वृ ॥ मुनि पति कणिकारदेसळोळ नेरे पट्टमनेध्दे कट्टि स- । ज्जन- जन-वन्धरं परसि सेसेपनिक्कि समस्त धात्रियम् । मनमोसेदित्तु कुश्च मनगुबिन केतनमागि माडि बे- ।
नितु परिग्रहं गज-तुरङ्गमुमं निजमागे माडिदर || व || अन्तु समस्त-राज्यमं माडि बुद्धियनिवग्गिन्तेन्दु बेससिदरु | वृ || नुडिदुदनारोळं नुडिदु तप्पिदडं जिन - शासनक्कोडम्- । बडदडमन्य-नारिगेरेदट्टिदडम्मधु-मांस सेवे गे । दडमकुलीनवर कोळ्कोडेयादडमथिंगर्त्यमम् । कुडदडमाहवङ्गणदोलोडिदडं किड्डुगुं कुल-क्रमम् ॥
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पुरलेका लेख ॥ उत्तममप्प नन्दगिरि कोटे पोळल् कुवळालमाळ्के तोम् । भत्तरु-सासिरं विषयमाप्तननिन्ध-जिनेन्द्रनाजि-रं। गात्त-जयं जयं जिन-मतं मतमागिरे सन्ततं निजो-। दात्ततेयिन्दमा-दडिग-माधव-भूभुजराब्दरुवियम् ॥ उत्तर-दिक्-तटावधिगे तागे मोद [क] ले मूड तोण्डे-ना-। डत्तपराशेगम्बुनिधि चेरोडेयिर्प तेङ्क कोड म-। त्तित्तोळगुल्ल वैरिगळनिक्कि परावृत-गणवाडिन्तोम्- ।
भत्तरु-सासिरं दळेले माडिदनिन्तुटु गङ्गनुगम् ॥ अन्तु शत-जीवियेम्बुदा-शब्दमं केन्दु ।
भरदिन्द चुर्चुवायद होगळे बुध-जन बन्दु कावेरियोळ् मी-1 करमागल् वीर-लक्ष्मी-नयन-कुमुदिनी-चन्द्रमं निन्दु नोडल् । परिवारं तन्न कीर्ति-प्रमे वळसे दिशा-आगमं चोधमागल् ।
परम-श्री-जैन-पादं नेलसे हृदयदोळ् मेरु-शैलोपमानम् ।। क ॥ कर अरिद गङ्गनिं भय-। मिल्लद हरिवने विष्णुभूपनि निजदिं ।
बल्ले तडङ्गाळ्-माधव- । नल्लिं बळि चुर्चुवायद-गङ्ग नृपाळम् । श्रीपुरुषं शिवमारं ।..•ळं कृतान्त-भूपना-सयिगोट्टम् । द्वीपाधिपरोळरि-नृप-1 कोपानळ-शिखेयेनिप्प विजयादित्यम्।। ""रे येरिद मारसिंगना- । कुरुळ-राजिगं पेसर-व्वेत्ता-॥ मरुळं तन्नुप-तिळकन । पिरिय मगं सत्य-वाक्यनचलित-शौर्य गवद-गङ्गं वसुधेयो- । ळोवने कलि चागि शौचि गुत्तिय-गंग। दोविक्रमाभिरामन- । गुलिन कलि राचमल्ल-भूभृ....... || तेनं मुरिवं हसिय क- । अङ्गं पिडिदडसि कीब्वना-मद-करियम् ।
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जैन - शिलालेख संग्रह
पिङ्गदे निलिसुत्र साहस - | तु केवळ नेगळ्द रकस-गङ्गम् ॥ अत्रयवादिन्दे साधिसिद माळत्रमेकुपने दे मङ्ग-मा- |
मेनकरं बरेदु कल निरिमुत्ते कळल्चि चित्रकूट । मनुरे कामज्जेय- नृपानुजनं जयकेसियं महा ।
दोळे मारसिंग नृपनिक्कि निमिचिदनात्म-शौर्व्यमम् ॥ तनयं श्री - मारसिंहङ्गनुपम-जगदुत्तुंगनादं जगत्-पा- । वन-लक्ष्मी - भङ्गिन्तुदयिसि नेगब्दं राचमल्लावनीशम् । मनु-मार्ग गङ्ग-चूडामणि जय-वनिताधीश भूवल्लभेशम् । जिन - धर्माम्भोधि-चन्द्रं गुण-गण-निळयं राज-विद्या-धरेन्द्रम् ॥ इन्तेनिसि नेगळ्द गङ्ग-वंशोद्भवरा-दडिगन मगं चुर्धुवाद - गङ्गनातन सुतं दुर्विनीतनातन तनयं श्री...नु श्री पुरुष महाराजं तत्-तनयं देव तत्-तनूभवनेरेयङ्ग-हेम्माडि तत्पुत्रं ब्रूतुग- हेम्माडि तदात्मजह... देव तदनुज गुत्तिय - गंगनातन मोम्म मारसिंग- देवनातन मगं कलियङ्गदेवनातन मग बर्म्म- देवनिना-गम-शोद्भवरु राज्यं गेय्ये |
ર
दक्षिणदेशनिवासी । गङ्ग-मही- मण्डलिक- कुळ- संधरणः । श्री-मूल- संघ-नाथो । नाम्ना श्री सिंहनन्दि मुनिः ॥
श्री-मूल-संघ वियदमृ । तामळ - रुचि रुचिर.... जय-छ- । क्ष्मी-महितं जिन-धर्म्म-ल-। लाम काणूर-गण-जना ंकरम् ॥
आ-गणद अन्वयदोळु ।
मणिरिव वनराशौ माळिकेवामराद्रौ तिळकमित्र ललाटे चन्द्रिकेवामृतांशौ । इव सरसि सरोजे मत्त भृङ्गी निकामम् समजनि जिनधर्म्मा निर्मळो बालचन्द्रः ॥
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चलिका लेख
३०० चत्रदहळ्ळि - कन्नड़ [ विक्रम वर्ष ५८ = ११३३ ई० ]
[चत्रदहकिकमें, अमृतेश्वर मन्दिरके सामनेके वीरफलके ऊपर ] स्वस्ति श्रीमतु विक्रम संवत्सरद ५८ परिधावि-संवत्सरदाखयिज-च ५....... श्रीमतु मूलसंघद देसिंग- गणद श्री - माघणन्दिभट्टारक- देवर गुडं गङ्गवलिय दास- गावुण्डन मगं बोप्पयं समाधिविधियि मुडिपि स्वर्गस्थनादनु ॥
४७९
[ स्वस्ति । ( उक्त मितिको ), मूलसंघ और देसिंग- गणके माधनन्दिभट्टारक- देवके एक गृहस्थ- शिष्य, - गङ्गवल्लिय दास गावुण्डके पुत्र बोप्पय, समाधि-विधि मरण कर, स्वर्गको गये । ]
[EC, VIII, Sorab tl., n° 97.] ३०१ हळेबीड -- संस्कृत और कपड़
[ वर्ष प्रमादिन्, ११३३ ई० (लू० राइस ) ]
[ हळेबीडसे लगी हुई बस्तिद्दळ्ळि में, पार्श्वनाथ बस्तिके बाहरकी दीवालमें एक पाषाणपर ]
श्रीमत्परम गंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ जयतु जगति नित्यं जैनसंधोदयार्कः प्रभवतु जिनयोगीवातपद्माकर श्रीः । समुदयतु च सम्यग्दर्शन -ज्ञान-वृत्तप्रकटित-गुण- भास्वद्-भव्य-चक्रानुरागः ॥ जगचितयवल्लभः श्रियमपण्यवाग्दुर्लभः ।
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जैन-शिलालेख संग्रह सितातपनिवारणत्रितयचामरोद्भासनः । ददातु यदधान्तकः पदविनम्रजम्भान्तकः
स नस्सकल-धीश्वरो विजय-पार्श्वतीर्थेश्वरः ॥ सिद्धं नमः ॥
श्रीमन्नतेन्द्रमणिमौलिमरीचिमाळा- १ माळार्चिताय भुवनत्रयधर्मनेत्रे । कामान्तकाय जितजन्मजरान्तकाय भक्त्या नमो विजय-पार्श्व-जिनेश्वराय ॥ होयसळोव्वाश-वंशाय स्वस्ति वैरि-महीभृताम् ।।
खण्डने मण्डलाग्राय शतधारामजन्मने ॥ तदन्वयावतारम् ॥
नेगळ्दा-ब्रह्मनिनत्रि सोमनेसेवा-श्री-सोमजं भूतलं पोगळुत्तिर्प-पुरूरवोझैपति सन्दायु-महीवल्लभं । सोगयिप्पा-नहुषं ययाति यदुवेम्बुज़श-सन्तानदोळ । नेगळ्दं श्री-सळनानतान्य-निकरं सम्यक्त्व-रत्नाकरम् ॥ आ-सळ नृपतिय राज्यश्री-संवर्द्धनमनेय्दे माडुव बगेयिं । वासव-वन्दित-जिन-पूजा-सहितं सकल-मंत्र-विद्या-कुशलम् ॥ मुददि जैन-व्रतीशं शशकपुरद पद्मावती-देवियं मं- । त्रदिनादं साधिसल विक्रियेयोळे पुलि मेल पाये योगीश्वरं कुंचद-काविन्दान्तदं पोयसळ एनलभयं पोवुदुं पोयसळाङ्कम् । यदु-भूपग्र्गादुदन्दिन्देसेदुदु सेळेयिं लोळ-शार्दूळ-चिहम् ॥ आ-सन्द-यक्षी-वरदोळ् वसन्तं । लेसागे तात्कालिक-नामदिन्दं । वासन्तिका-देवतेयेन्दुः पूजा- । व्यासङ्ग वं माडिदना-नृपाळम् ॥
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हलेबीडका लेख
कय-सार्दिरे पुलि युण्डिगे । कय-सार्दिरे वीर-लक्ष्मी रिपु- नृप राज्यम् ।
क- साहिरे पलरादर । पोयसळ - नामदोळे यादवोर्वी पतिगळ् || सत्कुल दोळगिन्दु माही - |
भृत्-कुळदोळगचळ-नाथनेसेवन्तेसेदं । तत्कुलदोळ् विजितारि-कु- । भृकुळनादित्य- मूर्त्ति विनयादित्यम् ॥ तदपत्यं रिपु- नृप - भुज- ।
मद-मर्द्दन खिळ- विबुध- जनता - सौख्य- । प्रदनुदितोदित-महिमा |
स्पदनेनिपेरेयङ्ग-भूपनङ्गज-रूपम् ॥
एरेयङ्गन कूरसि तले- 1
गेरगदे मुनरिदु बन्दु पदकेरगदवर ।
परिये तले मुरिये निव् ।
ओरदुगे बिसु नेत्तरेरगदिरे धुरदोळ् ॥ ई - पोळलेचल - |
देविगवेरेयङ्ग नृपतिगं - पुरुषर् । तावेनला दबल्ला |
ळावनिपति विष्णु नृपतियुदयादित्य ॥ अन्तवरो विष्णु मही- ।
कान्तं निमिर्देसेये कुर्पुमा जसमा - ।
४७३
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४७४
जैन-शिलालेख संग्रह दन्तोळगि बेळगे पेर्मेय-। नान्तं नळ-नहुष-भरत-चरित-प्रतिमम् ॥ स्थिरमागि विष्णुवर्द्धन। धरणीपाळंगे पट्टमागलोडं सा-। गरदन्तनहित-धरणी। श्वररोडनेग्दित्तु विशदकीर्तिप्रसरम् ॥ पोडरदे साध्यमायतु मलेयेल्लमुना-तुल्लु-देशवेल्लमुं । नडेये कुमार-नाडु-तळकाडुगळेम्बिवु कय्गे सार्द्धव- । त्तडियिडे मुश्चि कश्चि बेसकेय्दुदु विष्णु-नृपं कृपाणमं । जडियदे मुन्ने कोङ्ग नृपरित्तरिभङ्गळनेम् प्रतापियो । चोळ-नृपाळ-पाण्ड्य-नृप-केरळ-भूप-मुजावलेप-वि- । स्फाळननन्ध्र-गन्ध-गज-केसरी लाट-वराट-धारिणी- । पाळ-धनानिळं कदन-सूर-कदम्ब-वनाग्नि विष्णु-भू.।
पाळनवार्य-शौर्य-निधियातन शौर्य्यमनारो कीर्तिपर ॥ श्रीमन्महामण्डलेश्वरं । द्वारावतीपुरवराधीश्वरं । यादवकुलाम्बरधुमणि मण्डलिक-चूडामणि शशकपुर-वसन्तिका-देवी-लब्धवर-प्रसादम् । दरदळन्-मल्लिकामोदम् । परिहसित-शरदुदित-तुहिनकर-कर-निकर-हरहसन-सु-रुचिर-विशद-यशश्चन्द्रिका-श्री-विलासम् । निरतिशय-निखिलविद्या-विलासम् । विनमदहित-महिप-चूडालीढ-नून-रन-रस्मि-जालजटिलित-चरण-नख-किरणम् । चतुस्समय-समुद्धरणम् । कर-कराळकरवाल-प्रभा-प्रचलित-दिशा-मण्डलम् । वीर-लक्ष्मी रत्नकुण्डलम् । हिरण्यगर्भ-तुळापुरुषाश्व-रथ-विश्वचक्र-कल्पवृक्ष-प्रमुख-मख-शतमखम् । राजविद्या-विलासिनीसख । स्थिरीकृत-यादव-समुद्र-विष्णुसमुद्रोत्तंग-रगद्
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हळेबीडका लेख बहळतर-तरगौघाच्छादित-दिशा-कुखरम् । शरणागतवन-पचरम् । आमछक-फळ-तुळित-मुक्ता-लता-लक्ष्मी-लक्षित-वक्षम् । विबुध-जन-कल्पवृक्षम् । विजयगज-घटोत्तरळ-कदलिका-कदम्ब-चुम्बिताम्बुदम् । प्रतिदिन-प्रवर्द्धमान-सम्पदम्। रिपु-नृप-लय-समय-क्षुभित-वार्द्धि-वीचि-चयोच्चळित-जात्यश्व-हेषा-वपरित-दिशा-कुञ्जम् । शस्तोदात्त-पुण्य-पुखम् । इन्दुमन्दाकिनी-निश्चळोदात्त-गुण-यूथम् । गण्डगिरि-नाथम् । चण्ड-पाण्ड्यवेदण्ड-कूट-पाकलम् । जगद्देव-बळ-कळकळं । चक्रकूटाधीश्वर-सोमेश्वरमदमर्दनम् । तुल-नृपासुर-जनाईनम् । कळपाळ-तारक-मयूर-वाहनम् । नरसिंह-ब्रह्मसम्मोहनम् । इरुङ्गोळ-बळ-जळधि-कुम्भ-सम्मवम् । हत-महाराज-वैभवम् । दलितादियम-राज्य-प्रभावम् । कदम्बवन-दावम् । चेगिरि-वळ-काळानळम् । जयकेशी-मेघानिळनेन्दिवु मोदलागे समस्तप्रशस्ति-सहितम् । तळकाडु-कोङ्गु-नङ्गलि-गङ्गवाडि-नोळम्बवाडिमासवाडि-हुलिगेरे-हलसिगे-बनवसे-हानुङ्गल्लु-नाडु-गोण्ड त्रिभुवनमल्ल भुजबळ वीर-गङ्ग होयसळदेवम् ॥
निरुपमितानियं रुचिर-कुन्तळेयं नुत-मध्येयं मनो। हरतर-काश्चियं धृतसरस्वतियं विलसद्विनीतेयम् । स्फुरदुरु-कीर्तिमन्मधुरेयं स्थिरवागिरे तन तोमोळोल्द् ।
इरिसिदनुवराङ्गनेयनप्रतिम विभु-विष्णु-भूभुजम् ॥ तदीय-पाद-पद्मोपजीवि । निरन्तर-भोगानुभावि । जिनराज-राजत्पूजा-पुरन्दरम् । स्थैर्य-मन्दिरम् । कौण्डिन्यगोत्र-पवित्रम् । एचिराजप्रिय-पुत्रम् । पोचाम्बिकोदारोदन्वत्-पारिजातम् । शुद्धोभयान्वयसञ्जातम् । कर्णाटधरामरोत्तंसं । दानश्रेयांसम् । कुन्देन्दु-मन्दाकिनीविशद-यशःप्रकाश । मन्त्र-विद्या-विकाशम् । जिन-मुख-चन्द्र-वाकूर
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४७६
जैन - शिलालेख संग्रह
चन्द्रिका चरम् । चारित्र - लक्ष्मी - कर्णपूरम् । धृतसत्य-वाक्यम् । मन्त्रि- माणिक्यम् । जिन - शासन - रक्षामणि । सम्यक्त्व-चूडामणि । विष्णुवर्द्धन - नृप -राज्य त्रार्द्धि-संवर्द्धन - सुधाकरम् । विशुद्ध-रत्नत्रयाकरम् । चतुर्विधानूनदानविनोदम् । पद्मावती देवी - लब्ध- वर प्रसादम् । भयलोभदुर्लभम् । जयाङ्गना-वल्लभम् । वीर भट - ललाट-पट्टम् । द्रोह - घरट्टम् । विबुध-जन- फळ-प्रदायकम् । हिरिय-दण्डनायकं । अप्रतिमतेजम् । गङ्ग राजम् ।
मत्तिन मातवन्तिरलि जीर्ण-जिनालय - कोटियं क्रम- । बेत्तिरे मुन्निनन्ते पल - मार्गदोळं नेरे माडित्तवत्य्- । उत्तम पात्र - दानदोदवं मेखुत्तिरे गङ्गवाडि तोम्- । बत्तरु - सासिरं कोपणवादुदु गङ्गण-दण्डनाथनिम् || नुडि तोळा दोडोन्दु पोणर्दञ्जि दोडन्तेरडन्य-नारियो । गुडिगेडेयागे मूरु मरे - वोक्करनोप्पिसे नाकु बेडिदम् । पडे दोडय्दु कूडिदेडेगोगदोडारधिपङ्गे तप्पि ब - । ईडे गडिवेळवेळु - नरकङ्गवेिन्द पनल्ते गङ्गणम् ॥ आ-गङ्ग-चमूपतिगं ।
नागल - देवीगमवीत - शास्त्रं पुत्रम् ।
चागद बीरद निधिम् ।
भोग- पुरन्दरनुमप्प बोप्प - चमूपम् ॥
परमार्थं विद्वदर्थं तविसदनधनं व्यर्थवेन्दत्र्थिसार्थम् । निरवद्यं ज्ञातविधं दळित रिपु-मनोद्यं तिरस्कारिताद्यं । धरे तनं कीर्त्तिपनं विबुध-ततिगे पोनं विपश्चित्प्रसन्नं करेदीवं बोप्प - देवं समर-मुख दशग्रीवनुद्यत्प्रभावम् ॥
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हळेबीडका लेख
समरायाताहित-क्षोणिमृदतुळबळोद्यानदोळ् पावकानु- । क्रमदिन्दं क्रीडितं रिपु- नृपति- शिरः कन्दुकक्रीडितं तत्समयोद्भूतारुणाम्भो-भरित- समर-धात्री - सरो-मध्यदोळ् चि- । क्रम- लक्ष्मी-लोलनोला डुवनेरेद-बुधप्प दण्डेश-चोप्पम् ॥ लोभिगळं पोलिपुदे य- । शो-भाजननप बोप्प - दण्डेशनोटिन् ।
ई-भू-भुवनदोळाहा ।
रामय- मैज्य-शास्त्र- दानोन्नतियिम् ॥
४७७
तदीय-गुरु-कुलम् ॥
गौतम गणधर रिन्दा-यात- परम्परेय कोण्ड कुन्दान्त्रय-वि-ख्यातमलधारि- देवर । त- तपोनिधिगळा - मुनीश्वर - शिष्य || श्री राद्धान्तसुधाम्बुधि- पारग - शुभचन्द्र देव - मुनि पविमळा- चार- निधि - गङ्ग-राजन । धीरोदात्ततेयनाळ्द बोप्पन गुरुगळ् ॥ जिन-धर्म्म- वनघि-परिवर्द्धनचन्द्रं गङ्ग-मण्डलाचार्य्यर् - "पावन-चरितरेन्दु पोगळ्वु [दु ] जनं प्रभाचन्द्र देव सैद्धान्तिकरम् ॥ इवबप्प-देवन देवतार्च्चन- गुरुगळू ||
जळजभत्रङ्गविन्तु बरेयल् कडेयल् करुविट्टु गेय्यल- | तळवेनिप्पुदं तोळप बेल्लिय-बेने पोल्वुदं जगत् । तिलक मनी - जिनालय मनेत्तिसिदं विभु चोप्प देवन- । गयि राजधानिगळोळोप्पुव दोरसमुद्र-मध्यदोळ् ॥ गङ्ग - राजङ्गे परोक्षविनयवागि देवर्गे ।
सासिर दैवत्तैन -ला-शकनद्वं प्रमादि- माधव - बहुळ- । श्री-सोमज - पश्चमियो-सेने बोप्पं प्रतिष्ठेयं माडिसिदम् ||
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जैन - शिलालेख संग्रह
प्रतिष्ठाचार्य श्री - नयकीर्त्ति - सिद्धान्त - चक्रवर्सिंगळ् ॥ भ्रान्तिनोळेनो मुनेगळ्द चारण- शोभित कोण्डकुन्देयोळ् । शान्त-रस-प्रवाहवेसेदिपिनविई मुनीन्द्र - कीर्त्तिया - | शान्तवनेदितन्तवर सन्ततियोळ् नयकीर्त्ति देव सै- । द्धान्तिक चक्रवर्त्ति जिन शासनम बेळगल्के पुट्टिदं ॥ श्री-मूलसंघद देशिय गणद पुस्तक-गच्छद कोंडकुन्दान्वयद हनसोगेय बळिय द्रोहघरट्ट - जिनालय [म्]-प्रतिष्ठानन्तर देवर शेषेयनिन्द्रर् कोण्डु-पोगि विष्णुवर्द्धन- देवर्गे बङ्कापुरदोळ् कुडुववसरदोळ् ।
208
कवियेरिंगेन्दु बन्दा - मसणनसम - सैन्यङ्गळं विष्णु-भूपं । तवे कोन्दा प्राज्य - साम्राज्यमनतुळ-भुजं कोळ्वुदु पुट्टिदं भूभुवनकुत्साहमागुत्तिरे बुध-निधि लक्ष्मी -महा-देविगागळ् । रवि - तेजं पुण्य-पुत्रं दशरथ - नहुषाचार - सारं कुमारम् ॥ भूभृत्-पति-मद-करि-हरि - शोभास्पद नचळता- समुत्तुङ्गं श्री - । प्राभवनुदिताखण्डळ - वैभवनेम् गोत्र - तिळकनादनो पुत्रम् ॥
अन्तु विजयोत्सवमं कुमार-जन्मोत्सवमुमागे संतुष्ट - चित्तनागिर्द विष्णुदेवं पार्श्व-देवर प्रतिष्ठेय गन्धोदक-शेषगळं कोण्डु बन्दिद्दिन्दरं कण्डु बरवेदिदिरे पोडेव गन्धोदकमं शेषेयुमं कोण्डेनगी-देवर प्रतिष्ठेय - फलर्दि विजयोत्सवमं कुमार - जन्मोत्सवमुमादुवेन्दु सन्तोष - परम्परेयनेदि देवर्गे श्री- विजय- पार्श्व - देवरेम्ब पेसरुमं कुमारंगे श्री विजय - नारसिंह- देवनेम्ब पेसरुमनिट्टु कुमारंगभ्युदय निमित्तमं सकळ - शान्त्यर्थमुमागि विजयपार्श्वदेवरचतुविशति- तीर्थङ्कर त्रि-काल- पूजार्चनाभिषेककमी- बसदिय खण्डस्फुटित - जीर्णोद्धारणकं जितेन्द्रियरप्प तपोधनराहार-दानकं आसन्दि
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आचार्य भद्र आजीविक आदित्यदण्डाधिनाथ
आनंदूर
आन्ध्र
आन्ध्री
आमीर
आयवती
आरुविनि
आर्दबळि
आर्यसेन
देव
आषाढसेन
आलतूर (नगर)
आलूगु
आदवमल
आहवमलदेव
आळवर
इडिगूर ( विषय )
इडियम
इडियूरि
इतुरैनाडु
इंगिणिय
इन्दगेरी
इन्दिर
आ
- इन्दुगछ इन्देरेया
૧
९१ इन्द्र
१
इन्द्रकीर्ति
२८८
इन्द्रराज
२४८ इरपाडि २१७, १८८ || इरिवबेडेन
૨૦૦ इमोळ २०४ | इरुलकोळु
| इन्देरेयप
५ इला महादेवि
૧૪૪
२७७
१८६
२१३
६७
१२४, २१८
इला (ड) राजर
ईद्रपा (ल)
ईळ
ईळमण्डल
१२१,११२
१२७
२८० उग्गनिहिय
२०४,११३ | उग्र (अन्वय)
२१३ | उग्र-वंश
२६३ | उच्चि
१४४ | उज्जयिनीपुर
१७४ | उज्जेनियपुर
१४२ उझतिका
१२७ उडैयार
१२४,१४३,१४४,१६४
१७४,२१२ | उतरदासक
१२७ | उत्तर -मधुरा
२७७ | उतिरलाङ
२१३
१२७
१३०
ई
१७४
१६६
३०१
१४४
१६७.
१६७
9.
१७४
૧૭૪
उच्चे नागरि १९,२०,२२,२३,३१,३५,
३६,५०,६४,७१
3
૨૪૮
२१३,२४८
१०३
૨૭૭
२९९
દ
१७४
४
१९८,२०३,२४८.
१७४
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________________
४८६
२३७,२७७
१२१
१२१
उदयराज
२२८ एरग उदयादित्य २०७,२६३,२९९,३०१ एरेगित्तर उदयाम्बिका
२४३ एरेनाडूरा उनल्गरु
१२७ एरेय उमुळिदेवा
२१३ एरेया उम्मलियब्बे
२१९ उरनूराहत (आयतन) उवा-तिळक
एरेयपं
२१३,२१८,२७७,२९९
२७७
एरेया
२१
एरेयप्प-रस
१३८
एरेग्य
१०९
१४२
ऋषभ
एळगामुण्ड
एळाचार्य एकदेव
एळे (रे) गङ्गदेव एकवीर
| एळेव-बेडङ्ग एकसन्धि भट्टार . २१३ एकलरस-देव
२९१ ऐरावत एचल देवि १९२,२१८,२६३,२९९,
१६४
ओखा
२१४,२१६,२४८,
२१३,२२६
एचले एचिराज एजलदेवि एडदोरे एडय्य एडेमले एडेहळि एदेदिण्डे (विषय) एरकणं एरकाहिसेट्टि एरकोटि
ओखारिका [ओ] घ
ओडेयदेव | ओहग | ओहमरस
ओइविषय
ओडिटगे २५३ ओद (शाखा) २१८ ओइमरस १२७ / ओहनदि
१७४
१२७
. २१३
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ककसघस्त
ककुभ
ककराज
कंडूर्गण
कङ्कराज
haar
कच्छेयगत
कञ्चरसस्सैंगोट्ट-गङ्ग
कञ्चरिगुण्डु
कचलदेवि
कञ्चि
कटकराज
कटकाभरण ( जिनालय )
कणिष्क
कण्ठिका
कण्णेश्वर
कदम्ब - दिसायर
कदम्मा (म्बा )
कनक (कुल)
'कनकचन्द्र
कनकनन्दि
ઘટવ
५७
९३
कनकसेन
कनकसेन देव कनकसेनपण्डितदेव कनकसेन भट्टारक
१४२
२१३ | करकगिरिय - तीर्थ
१४२ कनकपुर
१८२ | कनियसिका (कुल) ૧૪૪ कनिष्क
२१३,२७७,२९९ ! कन्तियर - नाकय्य
कन्दवर्ममालक्षेत्र
कन्दुकाचार्य
कनकनन्दित्रैविद्य कनकनन्दित्रैविद्य-देव
१२४
१६०
२६३
१४३
१४३
कनकनन्दिपण्डितदेवर
कनकप्रभदेव
कनकप्रभसिद्धान्त देव
कहना
कदम्ब (कुल)
९५,९७,९८,९९,
१००, १०१, १०४, १०५, १०८, ११४
१२१
२४९
१०३
कन्न
२४
कन्नकैर १४३ | कन्नडिगे
१२४ कनपा
२ कन्नमुझे
कन्नर - देव
कन्नरसान्तर
कन्या कुब्ज
कमलदेव
कमळभद्र
१४६
कम्प
२९९ कम्मनाण्डु
२७७ कर
२९९ करण्डिग
२५१ | करदूषण
૨૦૦
२३७
२३७
१३७,१३९
२१४
२१६
२१३
१३९
२१३
७६
१९,२५
२१०
१३७
२१३,२४८
१३०,२०५,२२७, २९९
२३७
१८६
२०४
२७७
१४०
२१३
२१३,२१९
१२८
२१३
२७७
૧૪૩
२१३
१०६
२१३
•
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________________
૪૮૮
• करहाट
१४० १४३,१४४
१७०
१४४
१३८ २१९
१४३
२१३
१८६ / कलिविट्टरसर २०४ कलिविष्णुवर्द्धन १२७ | कलुकरें-नाइ
| कलुचुम्बर्क २०४,३०१
कल्नेके (?) देव १०२ कल्नेके देवर १७२
| कल्बप्पु तीत ११४
कल्याण
कल्याणपुर १०७
कल्पकुरु १४९
कविपरमेष्टिखामि
करशपीय १०८
| कसुथ १४६
कस्तूरि-भधार २२४
कळपाळ २१९
| कळंबूरनगर २६७
कळम्बडि २१९
कळिक १०६,१०८
क्येळेयन्बरसि कळालपुर
७५
ककुंहस्थ कर्णाट कईमपटि कर्नाट कर्पटि कर्पूरसेहि कर्मगलुए कर्मटेश्वर कल कलबुरि कलसराजा कलाचन्द्र-सिद्धान्त-देव कलि-गंग-देव कलि-गा कलिगङ्ग भूपति कलिग कलिंग कलिंगजिन कलिङ्ग कलिङ्ग-देश कलिदेव . कलिया कलिया-देव कलिया-नृप कलियर मनिशेहि कलि रक्कस-गङ्ग
१८३ ३०१
१८६
२०४
१३८
.
२१७,२८८२९९ क्षम
का
९९,१०२
.
२७७ २१७,२२७ काकुस्थराज
२७७ काकुत्सवर्मा २५३,२९९ काकुस्थवर्म
२५३ / काकेयनूरु
२९९ काकोपल २६७,२९९ / काम-धर्म
१२७ १०६
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________________
४८९
काचवे
११४ कात्तिवर्म
२१८ काळोज
२५३ ११४,२४८ काञ्चीनाथ २१४ किणयिग (ग्राम)
१०६ काम्चीपुर १०८,२८८ कित्तवोले
१२७ काश्चीवर
१०१ किमरी (क्षेत्र) काडवमहादेवि २१३ किरणपुर
१४३ काडुवेटि
किविरियय्य काणूरगण २६३,२९९ / किशुधेकूर (प्राम)
१२२ काण्वायन १४,१५,१२१ कात्तिकेय
१०७
कीर्त (ति) नन्याचार्य १२१ कादम्ब (कुळ)
कीर्तिवर्मा
१०८,११४ कादलवालि
कीर्तिदेव
२०९ कारेय
१३०,१८२ कीर्तिनारायण कारेयबागु
कीलवाड
१२७ कार्तवीर्य १३०,२३७,२७५,२७६ कार्तवीर्यदेव
कुकुटासन-मालधारिदेव कार्तवीर्य
२३७
फुकुम्बाळु (ग्राम) कालवा (प्राम)
अनम-महादेवि कालिदास
१०८,२१३ कुडलूरद
१२० काल्क-देवय्सरन् (मन्वय) १४०
कुण्डकुन्द (मन्वय) कावेरि १०८,२७७,२९९,
कुण्डकुन्दाचार्य्यर्
२०९ काश्मीर
कुनुन्गिल (देश)
१२४ २६४ कुन्तलापुर
२९९ काळसेन
कुन्तळ २०४,२०९,२८० कालिदास
२८८ काळिया
२८८ कुन्दद काळिसेहि
२१० कुन्दवैजिनालय काव्यव्ये
२१९ कुन्दशक्ति
२
२८८
२३७
१९८
कुन्तळी
१०९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कुन्दूर (विषय)
१२१ कुरुळि १०३ कुरुळियतीत्थं
२९६ २०९ कुलचंद्र
२४५,२८० १९८ कुलचन्द्रदेवमुनि
२०७ १४४ कुवलालपुर ८२,१३१,१३९,२१९, १४३ न २५३,२६७,२७७,२९९ कुहुण्डि (देश)
२३४ कुहुण्डी ( विषय) १०६ २५३ २४३ [क] केकः
२२८ कूण्डि कूरगन्पाडि (ग्राम)
९९,१०३ २९३ कूविलाचार्य
१२४
१००
१६५
कूचक
कुबेरगिरि कुन्जाविष्णु कुब्जविष्णुवर्द्धन कुमरमित कुमरय्य कुमार-गण-रस कुमारगजकेसरि कुमारदत्त कुमारनन्दि कुंमारपुर (ग्राम) कुमार बल्लाळदेव कुमारभटि कुमारमित्रा कुमारसेनदेव कुमारसेनदेवर कुमारसेन-व्रतिप कुमार-सेनाचार्य कुमारीपवत कुमुदचन्द्र भट्टारकदेव कुम्बयिज कुम्बधिक कुम्बसे-पुर कुम्मुदवाड
४२
४२ कृष्ण
२१४
२१३
कृष्णराज कृष्णवर्म कृष्णवर्म कृष्णवल्लभ
१०५,१४२ १२३,१३०,१४३. ९५,१०५,१२१,१२२
१४२ १३७,१४४
२४
२४६ केत
२१९.
१४:
केञ्चगावुण्ड केतलदेविय
१८६ केतवेदेवि
२१८ केतब्वे
२५१ केतुमद १८२ केदल
१२७ २०४ केरल १०६,१०८,११४,१७४,२०४, २६७,२७७ । २६४,३०१.
कुरुलराजिग
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________________
केशवनन्दि
केसरिय
केसवदेव
कैव्यबसि
केळेयम्बरसि
केळेयन्बे
को [ कु ] न्तिदेवी कोक्विलि
कोळि - नाडोळ
कोकण
को
कोङ्गणि
कोणिवर्म्म
कोङ्गाळव
कोड
कोण
कोgra
कोङ्गोळ
कोछि
को
४९१
१८१| कोडङ्गिनाड
१६७ | कोड
२०८ | कोडनपूर्वदवल्लि (ग्राम) २९९ | कोण्डकुन्द (अन्वय) ९५,१२२,१२३,
२१३
२१९
कोडगाळ
११८
१४३,१४४| कोण्डकुन्दाचार्य्य २४९ कोण्डनूर
१०८,२७७ कोन्दकुन्द ( अन्वय) कोपण-तीर्थ
२६४
९५ कोप्परकेशरिपन्मरान
कोमरचे ( ग्राम )
९४,१३१, १४९, १५४,
१५०,१५८,१६६,१८०,२०४,
२२३,२३२,२३९,२६७,२६९, २७५, २७७,२८०,२८४,२९४,
१८८, १९० | कोमर - वेडेन
२९९,३०१ कोमारसेन- भट्टार
१८२ | कोम्मराज
९०, १४२ कोयतूर
२६४ कोरप
५ कोरिकुन्द (विषय)
कोटिमडुवगण
कोट्टन
कोसे
१२७ कोलनूरात
कोहिय ( गण ) ३५, ५५,५६,५९,६८, कोल्लगिरि
कोल्लविगण्ड
. ७०, ७४,९२,
कोटिया (कुल) १८, १९, २०, २२, २३,
१४३ | कोरूकोलनु १७४ कोलनूर
कोल्लापुर
२५,२९,३०,३१,४२, कोविराज केसरिवर्मन्
कोशलैनाडु
२९३
૧૪
२९२
५४,६० १८४ कोशिकि
३०१.
२१३,२१४
२२७
१२७
२९९
१७४
१०६
१४२
१३८
१८६
२६३,२९९,
२६४
९४
१४४
१२७
१२७
२८०
१४४
२८०
१७१
१७४
७१
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________________ 492 कौण्डिन्य 301 गत कोसल 108 | गङ्गण 301 कोळालपुर 154,207,253,277 गङ्गदत्त 277,299 कोब्ळिप्पाक्कैयु 174 गङ्गदासि-सेहि 242 गङ्ग नृप 219,253 काणूर (गण) 209,219,267, | गङ्गापेम्माडि 149,219 277,299 गङ्गपेर्मनाडि 215 गङ्गमण्डल 122, 142 खबर-कन्दर्प-सेनमार 193 | गङ्ग-महादेवि 219,222,253, खर्ण 267,299 खस 204 गङ्ग-मादेवि खारवेल 2 गङ्गमालव 213,277 19 गहरस 253 खेटयाम 96,100 गङ्ग-राज 263,266,269 [खो] दृमि [त्त] गङ्गवळ्ळिय 300 गङ्गवंश 213 गह [प्र] कि [व] गङ्गवाडि (गंगवादि) 127,182, गंगकूट 143 253,264,265,277,284, गंग-नारायण 142 299,301 गंगमनडि 172 गाहेरूर 277,299 गंगमण्डलेश्वर 172 गङ्ग-हेमांडि-देव गंगर-मीम 219 गङ्गैथि 167 गंगराज (कुल) 95 गजसेलेय गंगवाडि (गङ्गवाडि) 219 गण ( उदार) 123 गा 123,182,204 गणधर 248 गा (कुल) 5,138,213,299 गणपति 127 गङ्गकन्दर्प 149 गणिशेखरमरुपोचुरियन् / गङ्ग-कुमृत्-कुमार 299 गण्ड-नारायण-सेहि 284 गा-कुमार गण्डरादित्य 218 क-गाय 142 गण्डरादित्यदेव 250