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________________ मदनूरका लेख ५५ त्तरायणनिमित्ते मलियपूण्डिनामग्रामटिका सर्वकरपरिहार(म्) मुदक ५६ पूवं कृत्वा दत्ता । अस्य ग्रामस्यावधयः पूर्वतः मुंजुन्यहे। दक्षिणतः यिनिमिलि ॥ पश्चिम]५७ तः कल्वकुरु ॥ उत्तरत[:] धर्मावुरमु ॥ एतद्वामस्य क्षेत्रा वधयः पूर्वतः गोल्लनि५८ गुण्ठ || आग्नेयत[:] रावियपेरिय ० दु । दक्षिणतः स्थापितशिला ॥ नैर्ऋत्यां स्थ[7] पितशिलैव [0 पञ्चम पन्न। ५९ पश्चिमतः मल्कप को 20 बोयुनट[1] कश्च ।। वायव्यतः स्थापितशिलैव । उत्तरतः दुब[चे] es Q []] ६० ऐशान्याम् (0) कल्वकुरि ऐल्चोकचेनि सीमैव सीमा ।। [ चूंकि लेखमें एक जैनमन्दिरके दानका उल्लेख है, अतः इसका प्रारम्भ जैनधर्मके मंगलाचरणसे किया गया है । पंक्ति ३ से लेकर ११ में पूर्वी चालुक्य वंशकी 'समस्तभुवनाश्रय' विजयादित्य (छठे) या अम्मराज (द्वितीय) तक की वंशावली है। वंशावली के भागमें ऐतिहासिक महरबके दो स्थल हैं, पहिला (पं० १३-१६) विजयादित्य तृतीयके राज्यका वर्णन करता है और दूसरे (पं. २२-३२) में चालुक्यभीम द्वितीयका अभिषेक अर्थात् राजतिलक है। शिलालेखमें वर्णित मङ्गि नोलम्बवारिका एक पल्लव राजा और सहित दाहल (या चेदि) का प्राचीन सरदार मालूम पड़ता है । अन्त में इस शासन (लेख) में विजयादित्य तृतीयका एक नया उपनाम परचक्रराम (पं०१४) भाता है। विक्रमादित्य द्वितीयकी मृत्युके बाद बराबर पाँच वर्षतक युद्धमल, राजमार्तण्ड और कण्ठिका-विजयादित्यमें लड़ाई होती रही । मन्दमें राजमीम (या चालुक्यभीम द्वितीय) राजमार्तण्डका वधकर, कण्ठिका १ या सम्भवतः 'मुंजुन्युरु'।
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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