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जैन-शिलालेख संग्रह गया है कि दानके समय गोविन्द-तृतीय मयूरखण्डीके अपने विजयस्कन्धावार (पड़ाव) में ठहरे हुए थे।
पंक्ति ६५-७५ में विमलादित्यकी वंशावलीका उल्लेख हुआ है । उनके पिता राजा यशोवर्मा थे और उनके बावा नरेन्द्र बलवर्मा थे। चालुक्योंसे इस कुलका संबंध था, लेकिन वर्तमानमें चालुक्यवंशी राजाओंमें इन मामोंके राजा नहीं मिलते हैं, इसलिए प्रो. भाण्डारकरने उन्हें एक स्वतन्त्र शाखाका माना है। विमलादित्य कुनुन्गिल देश (ज़िले) का राजा था। विमलादिस्यको चाकिराजकी बहिनका पुत्र बताया गया है। चाकिराजको गङ्गों (अशेष-गङ्गमण्डलाधिराज) के समूचे प्रान्तका शासक कहा गया है । इसीकी प्रार्थनापर दान किया गया था।
पंक्ति ७५-८० में दानपात्रका विशेष वर्णन है। उनका नाम अर्ककीर्ति था, ये कूविल आचार्यके शिष्य विजयकीर्तिके शिष्य थे । यह मुनि श्री यापनीय नन्दिसंघके 'नागवृक्षमूलगणके श्रीकीर्त्याचार्यके अन्वय (परम्परा) के थे । इनका एक विशेषण 'तसमितिगुसिगुप्तमुनिवृन्दवन्दितचरण: है।
लेखके अन्तिम भागका सार उपर दे दिया गया है । लेखके अन्तिम भागमें कुछ साक्षियोंके नाम भी दिये गये हैं जिनके सामने यह दान किया गया था । अन्तके चार वे ही साधारण शापास्मक श्लोक हैं।]
नौसारी-संस्कृत।
[शक ७४३८२१ ईस्वी] यह शिलालेख सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदायका है। [H, H. Dhruva, Zeitschr. d. deut. morg. Gesell., XL,
p. 321, n° VI, a.]
कांगड़ा-संस्कृत। [लौकिक वर्ष ?]=८५४ ई.? (महर)
श्वेताम्बर सम्प्रदायका । [EI, I, I. XVIII (p. 120), t. & tr.]