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दुधकुण्डका लेख
३४७ शिल्पी तिल्हण (पं. ६.) था । इस सारे लेखमें 'ब' 'व' अक्षरसे लिखा गया है।
इस लेखका उद्देश्य एक जैनमन्दिरकी-जिसके कि पास यह शिलालेख मिला है-स्थापनाका उल्लेख करना है। इसकी स्थापना कुछ निजी भादमियोने की थी और इस मन्दिरको कुछ दान महाराजाधिराज विक्रमसिंह (पं. ५४-५८) ने दिया था। इस शिलालेखके लिखनेके समय, विक्रम सं. ११४५ में, वे दुबकुण्डके आसपासके प्रदेशपर शासन करते थे। इस लेखके स्पष्टतः दो विभाग हो जाते हैं: पहले विभागमें (पंक्तियाँ १०-३२) युवराज विक्रमसिंह और उनके पूर्वजोंका वर्णन है। दूसरे में (पंक्तियाँ ३२-५१) मन्दिरके संस्थापकों (या प्रतिष्ठापकों) तथा उनसे सम्बद्ध कुछ मुनियोंका वर्णन है । प्रारम्भके छह श्लोकों (पं. ५-१०) में कवि ऋषभस्वामी, शान्तिनाथ, चन्द्रप्रभ और महावीर इन तीर्थकरोंकी, तथा गणधर गौतम, श्रुतदेवताकी जो पंकजवासिनीके नामसे जगत्में प्रसिद्ध है, स्तुति करते हैं।
युवराज विक्रमसिंहके वर्णन (पं. १०-३२) में ऐतिहासिक तथ्य इस प्रकार है:कच्छपघात (कछवाहा) वंशमें१ पांडु श्रीयुवराज (?) हुए । उनके बाद उनके लड़के२ अर्जुन हुए, जिन्होंने विद्याधरदेवके कार्यसे, युद्ध में राज्यपालको
मारा। उनके पुत्र३ अभिमन्यु हुए, जिनके पराक्रमकी प्रशंसा राजा भोजने की थी।
उनके पुत्र४ विजयपाल हुए; और फिर उनके पुत्र५ विक्रमसिंह हुए, जिनके कालकी तिथि यह शिलालेख संवत् ११४५
भाद्रपद सुदि ३ सोमवार बतलाता है। दूसरे विभागके लेखका सार यह है कि विक्रमसिंहके नगरका नाम चंदोभा था । यह चंदोभा वर्तमान दुबकुण्ड ही होना चाहिये और उस समय यह एक बड़ा भारी व्यापारका केन्द्र रहा होगा। ३२-३९ की पंकियोंके लोकों में उस समयके दो प्रसिद्ध जैन व्यापारियों का नाम-ऋषि और बाहर