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देवगिरिका लेख
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वंशी थे, ऐसा मालूम होता है। यह पत्र उक्त मृगेश्वरवर्माके राज्यके तीसरे वर्ष, पौधे (?) नामके संवत्सरमें, कार्त्तिक कृष्णा दशमीको, जबकि उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र था, लिखा गया है। इसके द्वारा अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भग्नसंस्कार ( मरम्मत ) और महिमा ( प्रभावना ) इन कामोंके लिये कुछ भूमि, जिसका परिमाण दिया है, अरहन्तदेवके निमित्त दान की गयी है । भूमिकी तफसील में एक निवर्तनभूमि खालिस पुष्पोंके लिये निर्दिष्ट की गई है । ग्रामका नाम कुछ स्पष्ट नहीं हुआ, 'बृहत्परलूरे' ऐसा पाठ पढ़ा जाता है । अन्तमें लिखा है कि जो कोई लोभ या अधर्मसे इस दानका अपहरण करेगा वह पंचमहापापोंसे युक्त होगा और जो इसकी रक्षा करेगा वह इस दानके पुण्य-फलका भागी होगा। साथ ही इसके समर्थनमें चार श्लोक भी 'उक्तं' च रूपसे दिये हैं, जिनमेंसे एक श्लोकमें यह बतलाया है कि जो अपनी या दूसरेकी दान की हुई भूमिका अपहरण करता है वह साठ हजार वर्ष तक नरक में पकाया जाता है, अर्थात् कष्ट भोगता है । और दूसरेमें यह सूचित किया है कि स्वयं दान देना आसान है परंतु अन्यके दानार्थका पालन करना कठिन है, अतः दानकी अपेक्षा दानका अनुपालन श्रेष्ठ है इन 'उक्तं च' श्लोकोंके बाद इस पत्रके लेखकका नाम 'दामकीर्ति भोजक' दिया है और उसे परम धार्मिक प्रकट किया है। इस पत्रके शुरू में अर्हन्तकी स्तुतिविषयक एक सुन्दर पद्य भी दिया हुआ है जो दूसरे पत्रोंके शुरू में नहीं है, परंतु तीसरे पत्रके बिल्कुल अन्तमें जरासे परिवर्तनके साथ जरूर पाया जाता है । ]
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देवगिरि (जिला- धारवाड़ ) -- संस्कृत -{[?]—
सिद्धम् || विजयवैजयन्त्याम् स्वामिमहासेनमातृगणानुयाताभिषि
१ साठ संवत्सरोंमें इस नामका कोई संवत्सर नहीं है । सम्भव है कि यह किसी संवत्सरका पर्याय नाम हो या उस समय दूसरे नामोंके भी संवत्सर प्रचलित हों । २ यह और आगेके लेख नं० ९८ और १०५ जैनहितैषी, भाग १४, अङ्क ७–८, पृ० २२८-२२९ से उद्धृत किये हैं ।