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जैन-शिलालेख संग्रह संभोगके थे-की आज्ञासे सब सत्वोंके सुख और कल्याण के लिये, मित्राकी तरफसे "समर्पित की गई । यह मित्रा हग्गु देव (फल्गुदेव) की धर्मपत्नी, लोहेका व्यापार करनेवाले वाधरकी बहू खोट्टमित्रके मानिकर जयमटिकी पुत्री.........। अर्य्यदत्त गणी अर्यपालके श्राद्धचर थे। अर्यपाल अर्य ओषके शिष्य थे और अर्घ्य ओघ महावाचक गणी जयमित्रके शिष्य थे।
[El, l, n XLIII, n" 4]
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मथुरा-प्राकृत-मन्न । [विना कालनिर्देशका है, पूर्ववर्ती शिलालेखसे ही मिलता-जुलता होनेसे इसका भी समय हुविष्क सं. २० है] वाचकस्य दत्तशिष्यस्य सीहस्य नि........
[E), I, p. 383, 160]
मथुरा-प्राकृत।
[हुविष्क सं. २२] १. सिद्ध सब २०.२ मि १ दि स्य पुर्वायं वाचकस्य अर्यमात्रिदिनस्य णि....१
२. सर्तवाहिनिये धर्मसोमाये दानं ।। नमो अरहंतान अनुवाद-सिद्धि प्राप्त हो । [हुविष्कके ] २२ में वर्षकी ग्रीष्मके पहले महीनेक दिन, वाचक अर्य-मात्रिदिन (आर्य-मातृदत्त) के आदेशसे यह धर्मसोमाका दान है । धर्मसोमा एक सार्थवाहकी खी थी । भईन्तोंको नमस्कार हो।
[El, 1, n° XLIV, n° 29] १ 'निर्वर्तना'।