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बेलवतेका लेख
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स्वस्ति श्रीमत् जितं भगवता जिनवर- वृषमेण वृषमेण पुरा कलिअवसर्पिण्यां द्वावरे युगे लोक-स्थितिरक्षार्थं काङ्क्षित मनुष्य जन्मना पुरुषोत्तमेन सूर्य वंश व्योम-सूर्येण महारथेन दाशरथिना राम - स्वामिना प्रतिष्ठापिताय भगवतोर्हतः परमेष्ठिनः सर्व्वज्ञस्य चैत्य-भवनाय पश्चात् पाण्डवजनन्या को ( कु ) न्तिदेव्या पुनर्नवीकृत संस्काराय भूमिदेव्यास्तिलकायमानाय स्वर्गापवर्ग-पदयोस्सोपान-पदवीभूताय धराधर-धरणेन्द्रस्य फणा- मणि-लीलानुकारिणे धराधरवराय जिनेन्द्र- चैत्य-सान्निध्यात् पावनाय परम-तीर्थाय तपश्चरण-परायण महर्षि - गणाध्यासित-कन्दराय श्री कुन्दाख्याय ( यहाँ बन्द हो जाता है)
[ वृषभ-देवको नमस्कार करनेके बाद, -
प्राचीन समय में, कलि-अवसर्पिणीके द्वापर युग में, सूर्यवंशके गगनमें सूर्यके समान, दशरथ के पुत्र महारथ राम-स्वामी ( रामचन्द्रजी ) के द्वारा अर्हन्त परमेष्ठीका यह चैत्य भवन प्रतिष्ठापित किया गया । बादमें, पाण्डवोंकी माता कुन्तीने इसे फिरसे नया बनवा दिया ।
भूमिदेवीको तिलकके समान, , स्वर्ग और अपवर्ग दोनोंके लिये सीढ़ी, सच पर्वतों में उत्तम, जिनेन्द्र- चैत्य ( बिम्ब ) के सान्निध्यसे पवित्रीकृत, परमतीर्थ, जिसमें जगह-जगह तपश्चरण-परायण महर्षिगणों के लिये कन्दराएँ ( गुफायें ) बनी हुई हैं, ऐसा 'श्रीकुन्द' नाम पर्वत ( यहाँ लेख खतम हो जाता है । ' )
[ EC, X, Chik-ballapur tl, no. 29.] ११९ बेलवत्ते- कन्नड़ |
विना काल:- निर्देशका ( संभवत: लगभग ७५० ई० )
[ बेलवत्ते - मैसूर तालुकेमें, बसवेश्वर मन्दिरके पश्चिमकी ओर ] नेरें यदि एर्दनु मुने.....ळलियु प्रभिन्न वाग्वि बिल्लोरु गुर्रि....
१ प्रारम्भके शब्द 'स्वस्ति' को यहाँ अन्त में लगा देनेसे यह लेख संभाव्यरूपसे पूर्ण समझा जा सकता है, क्योंकि 'स्वस्ति' के योगमें चतुर्थी विभक्ति होती है, जो यहाँ है ।