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जैन-शिलालेख संग्रह परिदुदराग्मियं मरेदु तिन्द पेणङ्गळिनादजीर्णादिम् । मरुळ बळाळि वैद्य-मरुळं बेसगोण्डडे दन्ति मद्देनल् । करियने नुङ्गि सूडुकोळे वैद्य-मरुळ नगे वीर-लक्ष्मि नो।
डरि-हर निन्निनास्तिदेने विक्रम-शान्तरनादनोडगम् ॥ अन्तेनिसिद विक्रम-शान्तर-देवर स्स(श)क-वर्ष १००९ नेय प्रभव-संवत्सरद शुद्ध-पाडिवदन्दु पञ्च-बसदिय पूजा-विधान-जीर्णोद्धरणक्कमल्लिर्ण ऋषि-समुदायक्काहार-दानार्थमुमागि ।
सरसति निनगिनितु कला-। परिणति नेगर्दजितसेन-पण्डितरिन्दम् । दोरेवेत्तु देवियादी।
पिरियतनं निन्नदल्तिदवर महत्त्वम् ॥ एनिसिद परवादीभसिंहापर-नामधेय-श्रीमत्-अजितसेन-पण्डितदेवर कालं कर्चि धारा-पूर्वकमा-सम्बन्धद समुदायं मुख्यमागे कोट्ट ग्रामङ्गल (यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा तथा वे ही अन्तिम वाक्यावयव और श्लोक आते हैं) द्रमिळ गणो लसतितरां निरुपम-धी-गुण-महितैः ॥ श्रीमत् सेनवोवं शोभनय्यं दिगम्बर-दासि बरेदम् ॥ [स्वस्ति । वीर-देवके पुत्र विक्रम-शान्तरकी प्रशंसा। उसका मूल नाम ओडग था। उसकी प्रशंसाके श्लोक । ओडग 'विक्रम-शान्तर' हो गया।
विक्रम-शान्तर-देवने (उक्त मितिको) पञ्चवसदिमें पूजाके लिये, मरम्मत तथा ऋषियोंके माहारके लिये, वादीभसिंह इस द्वितीय नामसे प्रसिद्ध अजितसेन-पण्डित-देवके पैरोंके प्रक्षालनपूर्वक (उक) गाँवोंका दान, संपूर्ण करोंसे मुक्ति दिलाकर, किया। वे ही अन्तिम श्लोक ।
मिळ-गणकी अत्यन्त शोभा है । सेनबोव शोभनय्य दिगम्बरदासिने इसे लिखा है।]
[EC, VIII, Nagar tl., n° 40 ( Part II).]