________________
जैन-शिलालेख संग्रह वातापी नगरी प्रविश्य नगरीमेकामिवोर्वीमिमां
चश्चन्नीरधिनीरनीलपरिखां सत्याश्रये शासति ॥३२॥ त्रिंशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः । सप्ताब्दशतयुक्तेषु श (ग) तेष्वब्देषु पञ्चसु (३७३५) ॥३३॥ पञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च (६५६) । समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम् ॥ ३४ ॥ तस्याम्बुधित्रयनिवारितशासनस्य
सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् । शैलं जिनेन्द्रभवनं भवनं महिम्नां
निर्मापितं मतिमता रविकीर्तिनेदम् ॥ ३५ ॥ प्रशस्तेर्वसतेश्चास्या जिनस्य त्रिजगद्गुरोः ।
कर्ता कारयिता चापि रविकीर्तिः कृती स्वयम् ॥३३॥ येनायोजि नवेङ्गमस्थिरमर्थविधी विवेकिना जिनवेश्म । स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः ३७
[प्राचीनलेखमाछा, प्रथमभाग, ले० १६, पृ. ६८-७२, से उद्धृत ] [ यह शिलालेख बीजापुर (पूर्वका कलागी ) जिलेके हुण्ड तालुकाके ऐहोळेके मेगुटि नामक प्राचीन मन्दिरकी पूर्वकी तरफकी दीवालपर है । लेखमें कुल १९ पंक्तियाँ हैं, जिनमेंसे १८ वी पंक्ति पूर्ण और १९ वीं छोटी पंक्ति बादमें किसीकी जोड़ी हुई हैं और जिनमें महत्वपूर्ण कोई बात नहीं है।
समूचा शिलालेख किसी रविकीर्तिका बनाया हुआ है । वे (रविकीर्सि) चालुक्य पुलकेशी सत्याश्रय (अर्थात् पश्चिमी चालुक्य पुलकेशी द्वितीय) के राज्यमें थे । यह राजा उनका संरक्षक या पोषक था । इन्होंने शिलालेखवाले जिनालयमें जिनेन्द्रकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा की । प्रतिष्ठाके समय यह लेख उत्कीर्ण करवाया गया था जिसमें सामान्यरूपसे चालुक्य वंशकी, और विशेषतः पुलकेशी द्वितीय (रविकीर्तिके आश्रयदाता) के