Book Title: Charnanuyog Praveshika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003834/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगवीर-समन्तभद्र-ग्रन्थमाला-८/२ चरणानुयोग-प्रवेशिका लेखक सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री पूर्व प्राचार्य, स्याद्वाद-महाविद्यालय वाराणसी। वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट-प्रकाशन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगवीर ह-समन्तभद्र-ग्रन्थमाला - ८ /६ चरणानुयोग-प्रवेशिका लेखक सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री पूर्व प्राचार्य, स्याद्वाद - महाविद्यालय वाराणसी | Jain Educationa International वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट-प्रकाशन For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थमाला-सम्पादक व नियामक डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य सेवा-निवृत्त रीडर, जैन-बौद्धदर्शन, प्राच्यविद्याधर्मविज्ञान-संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। लेखक : सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र सिदान्तशास्त्री ट्रस्ट-संस्थापक आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' प्रकाशक मंत्री, वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट बी० ३२/१२, जैन निकेतन .. नरिया, पो०-बी० एच० यू० बाराणसी-५ (उ० प्र०) प्रथम संस्करण : १३ नवम्बर, १९७४ द्वितीय संस्करण : १८ दिसम्बर; १९८६ प्रतियाँ : ११०० मूल्य ! आठ रुपया मात्र मुद्रक : सन्तोषकुमार उपाध्याय नया संसार प्रेस भदैनी, वाराणसी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओर से लगभग एक वर्ष पूर्वको बात है। श्रद्धेय श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, सिद्धान्ताचार्य, पूर्व प्राचार्य एवं वर्तमान अधिष्ठाता स्याद्वाद-महाविद्यालयके पास लिखित, किन्तु अप्रकाशित महत्त्वकी विपुल सामग्री देखी। इस सामग्री में उनकी लिखी हई कई मौलिक छोटी-छोटी कृतियाँ थीं। जैनधर्म-परिचय, आरम्भिक जैनधर्म, करणानुयोग-प्रवेशिका, द्रव्यानुयोगप्रवेशिका, चरणानुयोग-प्रवेशिका और भगवान् महावीरका जीवनचरित ये छह रचनाएं उसमें प्राप्त हुईं। इनकी उपयोगिता, महत्ता और मौलिकताको ज्ञातकर श्रद्धेय पण्डितजीसे उन्हें वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्टसे प्रकाशित करनेकी अनुज्ञा मांगी । हमें प्रसन्नता है कि उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। जैनधर्म-परिचय और आरम्भिक जैनधर्म ये दो रचनाएँ छपकर पाठकोंके हाथोंमें पहुंच चुकी हैं। आज करणानुयोग-प्रवेशिका, द्रव्यानुयोग-प्रवेशिका, चरणानुयोग-प्रवेशिका और भगवान् महावीरका जीवन-चरित ये चार कृतियां एक साथ अलग-अलग प्रकाशित हो रही हैं । आशा है पाठक इन्हें बड़े चावसे अपनायेंगे। हम इस महान् ज्ञान-दानके लिए श्रद्धेय पण्डितजोके हृदयसे आभारी हैं। पण्डितजी ट्रस्ट के ट्रस्टी भी हैं, इससे भी हमें आपका सदैव परामर्शादि योगदान सहजमें मिलता रहता है । यह वस्तुतः उनका महान् अनुग्रह है। ट्रस्ट कमेटीका सहकार भी हमें प्राप्त है। उसीके कारण हम ट्रस्टसे लगभग १८ महत्त्वपूर्ण कृतियां प्रकाशित कर सके हैं, अतः उसे भी हम धन्यवाद देते हैं। अस्सी, वाराणसी-५ (डॉ.) दरबारीलाल कोठिया फाल्गुनी अष्टाह्निका-पूर्णिमा, वी० नि० सं० २५०१ २७ मार्च, १९७५ वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट मंत्री Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द बहुत समय पहले मैंने 'जैन सिद्धान्त - प्रवेशिका' के अनुकरण पर 'करणानुयोग - प्रवेशिका', 'चरणानुयोग- प्रवेशिका' और 'द्रव्यानुयोग- प्रवेशिका' प्रश्नोत्तरके रूपमें रची थी । वे तीनों वीर सेवा - मन्दिर ट्रस्टके उत्साही कर्मठ मंत्री डॉ० दरबारीलालजी कोठिया, न्यायाचार्य के सौजन्यवश ट्रस्टकी ओरसे प्रकाशित हो रही हैं। प्रस्तुत चरणानुयोग-प्रवेशिकामें ५६३ पारिभाषिक शब्दोंका, जो चरणानुयोगसे सम्बद्ध हैं, अर्थ दिया गया है । इसी तरह द्रव्यानुयोग- प्रवेशिकामें २६५ शब्दोंकी और करणानुयोग- प्रवेशिकामें ७४४ शब्दों की परिभाषाएँ दी गयी हैं । आशा है इन अनुयोगोंके स्वाध्याय- प्रेमियोंको और विद्वानों को भी इससे सहयोग मिलेगा। यदि ऐसा हुआ तो मैं अपने श्रमको सफल समझँगा । यदि मैं कहीं स्खलित हुआ हूँ तो विद्वान् उसे सुधार लेवें और मुझे भी सूचित करें । मैंने आगम ग्रन्थोंके अनुसार ही प्रत्येक परिभाषा दो है । । कैलाशचन्द्र शास्त्री स्याद्वाद - महाविद्यालय, भदैनी, वाराणसी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय संस्करण का प्रकाशकीय 'चरणानुयोग-प्रवेशिका' का प्रथम संस्करण नवम्बर १६७४ ई० में प्रकाशित हुआ था। पाठकोंने इसे बहुत पसन्द किया। यह कई वर्षसे अलभ्य हो रहा था और हमारे प्रिय पाठकगण उसकी माँग कर रहे थे। अतएव हम उसका यह दूसरा संस्करण प्रकाशित करते हुए हर्ष का अनुभव कर रहे हैं। द्रव्यानुयोग-प्रवेशिका और करणानुयोग-प्रवेशिका ये दोनों प्रतियाँ भी अप्राप्य हो गयीं हैं । अतः उनके भी हम द्वितीय संस्करण प्रकट कर रहे हैं। हमें हर्ष है कि ट्रस्टके इस प्रकाशन कार्यमें डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन, एम० ए०, आचार्यद्वय ( जैन दर्शन, प्राकृत एवं जैनालोजी), संस्कृत विभागाध्यक्ष राजकीय महाविद्यालय, जक्खिनी वाराणसोका सहयोग मिलने लगा है। इसके लिए हम उनके आभारी हैं। बीना, सागर १८ दिसम्बर १६८६ (डॉ०) दरबारीलाल कोठिया मंत्री Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका १. प्र०-चरणानुयोग किसे कहते हैं ? ___ उ०-चरण कहते हैं चारित्रको और अनुयोग कहते हैं शास्त्रको। जिस शास्त्रमें गृहस्थों और मुनियों के सम्यक् चारित्रका कथन होता है उसे चरणानुयोग कहते हैं। २. प्र०-चारित्रमें और सम्यकचारित्रमें क्या अन्तर है ? उ०-चारित्र मिथ्या भी होता है और सम्यक् भी होता है, जैसे ज्ञान सच्चा भी होता है और झूठा भी होता है । ३. प्र०-मिथ्याचारित्र किसे कहते हैं ? उ०-गलत आचरणको मिथ्याचारित्र कहते हैं। यह मिथ्याचारित्र दो प्रकारका है-एक गहस्थोंका मिथ्याचारित्र और दूसरा साधुओंका मिथ्याचारित्र । मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानके साथ इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवृत्ति करना गृहस्थोंका मिथ्याचारित्र है और अपनी नामवरी, रुपये-पैसेका लाभ और अपनी पूजा प्रतिष्ठाकी चाह मनमें रखकर तथा आत्मा और अनात्माके भेदको न जानकर तरह-तरहसे केवल शरीरको कष्ट देना साधुओंका मिथ्याचारित्र है। ४.प्र०-मिथ्यादर्शन किसे कहते हैं ? उ०-कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर श्रद्धा रखना, शरीरके जन्मको अपना जन्म और शरीरके नाशको अपना नाश मानना मिथ्यादर्शन है । ५. प्र०-मिथ्याज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-ऊपर कही हुई मिथ्याश्रद्धाके साथ जो ज्ञान होता है उसीको मिथ्याज्ञान कहते हैं। ६.प्र०-कुदेव किसे कहते हैं ? उ०-रागद्वेष रूपी मलसे जिनकी आत्मा मलिन है तथा जो अपने साथ स्त्री और हाथमें अस्त्र-शस्त्र रखते हैं वे सब देव कुदेव हैं। ७. प्र-कुगुरु किसे कहते हैं ? । उ०-जिनके अन्तरमें राग-द्वेष भरा हुआ है और बाहरमें जिन्हें धन वस्त्र वगैरहसे मोह है ऐसे भेषधारी गुरुओंको कुगुरु कहते हैं। ८.प्र०-कुधर्म किसे कहते हैं ? १. रत्न० श्रा०, श्लो० ४५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०- हिंसा प्रधान धर्मको कुधर्म कहते हैं । ९. प्र० - सम्यक् चारित्र किसे कहते हैं ? उ० – सम्यक्ज्ञान मूलक आचरणको सम्यक् चारित्र कहते हैं । १०. प्र०—– सम्यक् चारित्र किसलिये और कब धारण किया जाता है ? उ० - मोहरूपी अन्धकारके हट जानेपर जब सम्यग्दर्शनके साथ ही साथ सम्यग्ज्ञान की भी प्राप्ति हो जाती है तब राग और द्वेषको दूर करनेके लिये साधु पुरुष सम्यक्चारित्रको धारण करता है । ११. प्र० – सम्यक्चारित्र के कितने भेद हैं ? उ०- दो मूल भेद हैं- देशचारित्र और सकलचारित्र । १२. प्र० – देशचारित्र और सकलचारित्रका कौन पालन करता है ? उ०- समस्त परिग्रहसे रहित साधुओंके सकलचारित्र होता है और परिग्रही गृहस्थों के देशचारित्र होता है । १३. प्र० – देशचारित्र के कितने भेद हैं ? उ०- दो भेद हैं- मूलगुण और उत्तरगुण । १४. प्र० - मूलगुण कितने हैं ? उ०- आठ हैं - मद्यत्याग, मांसत्याग, मधुत्याग और पांच प्रकारके उदुम्बर फलोंका त्याग । सोमदेव सूरिके मतसे ये आठ मूलगुण हैं । स्वामी समन्तभद्राचार्य ने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये पांच पाप और मद्य, मांस, मधुके त्यागको अष्ट मूलगुण कहा है और स्वामी जिनसेनाचार्य ने पांचों पाप, मद्य, मांस और जुआके त्यागको आठ मूलगुण कहा है। १५. प्र० - मूलगुण किसे कहते हैं ? उ०- सबसे प्रथम पालन करने योग्य गुणोंको मूलगुण कहते हैं । १६. प्र० - गृहस्थों के उत्तर गुण कितने हैं ? उ०- बारह हैं - पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । १७. प्र० - व्रती किसे कहते हैं ? उ० - जो निःशल्य होकर देव शास्त्र - गुरु की साक्षी पूर्वक व्रतों को धारण करता है वही व्रती कहा जाता है । १८. प्र० - - शल्य किसे कहते हैं ? १०. रत्न० श्रा०, श्लो० ४७ । i ११, १२. रत्न० श्रा० श्लो० ५० । १६. रत्न० श्रा०, श्लो० ५१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०-शल्य कहते हैं कील कांटे को। कोल कांटेकी तरह जो बातें मनुष्य के मन में पीड़ा देती रहती हों, उन बातों को भी शल्य कहते हैं । १९. प्र०-शल्य कितने हैं ? उ.-शल्य तीन हैं--माया, मिथ्यात्व, निदान । २०. प्र.-निःशल्य किसे कहते हैं ? उ०-जो इन तीनों शल्यको हृदयसे निकाल देता है उसे निःशल्य' कहते हैं । अर्थात् जो मायाचारसे दुनियाको ठगनेके लिये व्रत धारण करता है, या जो मिथ्याश्रद्धान रखते हए व्रत धारण करता है, अथवा जो निदान अर्थात् भविष्यमें भोगोंकी प्राप्तिको इच्छासे प्रेरित होकर व्रत धारण करता है वह व्रतो नहीं है, ढोंगी है। २१. प्र०-अणुव्रत किसे कहते हैं ? उ०-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पांचों पापोंके एक देश त्यागको अणुव्रत कहते हैं। २२. प्र०-हिंसा किसे कहते हैं ? उ०-प्रमादके योगसे प्राणोंके घात करनेको हिंसा कहते हैं। २३. प्र०-प्रमादका योग नहीं होनेपर हिंसा होती है या नहीं ? उ०-जिस मनुष्यके अन्दर प्रमादका योग नहीं है और जो सावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करता है, उससे प्राणोंका घात हो जानेपर भी वहाँ हिंसा नहीं होतो और जिस मनुष्यके अन्दर प्रमादका योग है उससे किसी जोवका घात हो या न हो, वहाँ नियम से हिंसा है। क्योंकि जिस जीबके भावोंमें हिंसा है, वह नियम से हिंसक है । अतः आत्मामें रागादि विकारोंका उत्पन्न होना हो हिंसा है और उनका न होना ही अहिंसा है । २४. प्र-हिंसाके कितने भेद हैं ? उ०-दो भेद हैं-एक संकल्पी हिंसा और दूसरो आरम्भी हिंसा। बिना अपराधके जान बूझकर किसीको हिंसा करनेको संकल्पो हिंसा कहते हैं और कृषि आदि आरम्भसे होनेवालो हिंसाको आरम्भी हिंसा कहते हैं। ___२५. प्र० --हिंसासे जो बचना चाहते हैं उन्हें सबसे प्रथम क्या करना चाहिए? उ०-उन्हें सबसे प्रथम मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलोंका सेवन छोड़ देना चाहिए। २६. प्र०--मद्य-सेवन क्यों बुरा है ? उ०-मद्य (नशा) मनकी विचार-शक्तिको कुंठित कर देता है और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ चरणानुयोग-प्रवेशिका उसके होनेपर मनुष्य कर्तव्य अकर्तव्यको भूल जाता है और उसके भूल जानेपर निःशंक होकर हिंसा करता है तथा मद्य स्वयं भी अनेक जीवोंकी योनि है | अतः मद्य पीनेसे उन सबका घात हो जाता है । २७. प्र० - मांस सेवन क्यों बुरा है ? उ०- बिना किसीको जान लिये मांस तैयार नहीं होता । अतः मांस खाने से हिंसाका होना अनिवार्य है । २८. प्र० - स्वयं मरे हुए जीवका मांस खानेमें तो यह बात नहीं है ? उ०- मांस के टुकड़ों में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होने लगती है । अतः मांसको खाना तो दूर, जो उसे छूता भी है वह असंख्य जीवोंका घातक होता है | २९. प्र०--- मधु सेवन में क्या बुराई है ? उ०- मधु मक्खियों और उनके अण्डोंका घात होता है । नई प्रणालीसे उत्पन्न किया गया मधु भी इस बुराईसे एकदम अछूता नहीं है । ३०. प्र० -- पांच उदुम्बर फलोंके सेवन में क्या बुराई है ? उ०- पीपल, गूलर, पाकर, वट और कठूमरके फलोंमें स्थूल और सूक्ष्म त्रस जीव भरे होते हैं । इसीसे उदुम्बरको जन्तुफल भी कहते हैं । ये फल वृक्षके काष्ठको फोड़कर उसके दूधसे उत्पन्न होते हैं । अतः जो इन फलों को खाता है वह साक्षात् जन्तुओंको हो खाता है | ३१. प्र० -- असत्य किसे कहते हैं ? उ०- प्रमादके योगसे असत् कथन करने को झूठ कहते हैं । ३२. प्र० -- असत्य वचनके कितने भेद हैं ? उ०- चार भेद हैं- वर्तमान वस्तुका निषेध करना पहला असत्य है । जैसे घर में होते हुए भी यह कहना कि देवदत्त यहाँ नहीं है । अवर्तमान वस्तुको मौजूद बतलाना दूसरा असत्य है । कुछका कुछ बतलाना तीसरा असत्य है । जैसे देवदत्तको यज्ञदत्त बतलाना और गर्हित सावद्य और अप्रिय बचन बोलना चौथा असत्य है । ३३. प्र० - गर्हित वचन किसे कहते हैं ? उ० - किसीकी चुगली करना, हँसी उड़ाना, कठोर वचन बोलना आदि ति वचन हैं । ३४. प्र० - सावद्य वचन किसे कहते हैं ? उ०- हिंसा आदिकी प्रेरणा करने वाले वचनों को सावद्य वचन कहते हैं ? ३५. प्र० -अप्रिय वचन किसे कहते हैं ? उ० - जो वचन द्वेष, भय, खेद, वैर, शोक और कलह वगैरहको उत्पन्न करने वाले हों, उन्हें अप्रिय वचन कहते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ३६. प्र० - चोरी किसे कहते हैं ? उ०- प्रमाद के योग से बिना दी हुई वस्तुके ग्रहण करनेको चोरी कहते हैं । - चोरी करनेमें क्या बुराई है ? ३७. प्र० - उ०- धन मनुष्यका बाह्य प्राण है । अतः जो मनुष्य किसीके धनको हरता है वह उसके प्राणोंको हरता है । ३८ प्र० - अब्रह्म किसे कहते हैं ? उ०- रागके वशीभूत होकर मैथुन सेवन करनेको अब्रह्म कहते हैं । ३९. प्र० - परिग्रह किसे कहते हैं ? उ०- मोहके उदयसे उत्पन्न हुए ममत्व भावको ( यह मेरा है, यह मेरा है इस प्रकारके भावको ) परिग्रह कहते हैं । अतः जिसके पास कुछ भी नहीं है किन्तु जिसके मन में दुनिया भर की तृष्णा मौजूद है वह परिग्रही है । ४०. प्र० – तो क्या धन वगैरह परिग्रह नहीं हैं ? उ०- धन जमोन वगैरह भी परिग्रह हैं क्योंकि उनके निमित्तसे हो मनुष्य के मन में परिग्रहकी भावना पैदा होती है । ४१. प्र० - परिग्रह के कितने भेद हैं ? उ०- संक्षेप में परिग्रहके दो भेद हैं- एक अभ्यन्तर और दूसरा बाह्य । ४२. प्र० - अभ्यन्तर परिग्रहके कितने भेद हैं ? उ०- चौदह भेद हैं- मिथ्यात्व स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ( ग्लानि ), क्रोध, मान, माया और लोभ । ४३. प्र० - बाह्य परिग्रहके कितने भेद हैं ? उ०- दस भेद हैं- धन ( गाय, बैल वगैरह ), धान्य ( अनाज ), क्षेत्र (खेत), वस्तु ( मकान), हिरण्य ( चाँदी ), सुवर्ण ( सोना ), कुप्य ( वस्त्र ), भाण्ड ( बरतन ), दास और दासी । ४४. प्र० - अणुव्रत के कितने भेद हैं ? उ०- पाँच भेद हैं- अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाण अणुव्रत । ४५. प्र० -- अहिंसाणुव्रत किसे कहते हैं ? उ०--मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना, इन नौ संकल्पोंसे चलते फिरते जीवोंका घात न करनेको अहिंसाणुव्रत कहते हैं । ४६. प्र० - नौ संकल्प कौनसे हैं ? उ०- 'इस जीव को मैं मारता हूँ' यह कृत है । 'मारो मारो' यह कारित है । 'इसको यह ठीक मार रहा है' यह अनुमोदना है । इन तीनों हो अंगों का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका न मनमें संकल्प करे, न वचनसे ही संकल्प करे और न हाथ वगैरहके संकेतसे ही संकल्प करे। ४७. प्र०-दो प्रकारको हिंसामेंसे गृहस्थको कौन-सी हिसा छोड़ना आवश्यक है ? उ०-गृहस्थाश्रम बिना आरम्भ किये नहीं चलता। और बिना हिंसाके आरम्भ नहीं होता। अतः गृहस्थको संकल्पी हिंसा तो छोड़ ही देनी चाहिए और आरम्भी हिंसामें भी सावधानी बरतनी चाहिए। ४८. प्र०-अहिंसाणुव्रतका पूरी तरहसे पालन कौन कर सकता है ? उ०--जो गृहस्थ सन्तोषी होता है और अल्प आरम्भ करता है और अल्प परिग्रहो होता है वहो अहिंसाणुव्रतका पूरी तरहसे पालन कर सकता है । ४९. प्र०--सत्याणुव्रत किसे कहते हैं ? उ०-स्थूल असत्यका न स्वयं बोलना और न दूसरेसे बुलवाना तथा यदि सत्य बोलनेसे अपने या दूसरेके प्राणोंपर संकट आता हो तो सत्य भी न बोलना इसे सत्याणुव्रत कहते हैं। ५०. प्र०--स्थूल असत्य किसे कहते हैं ? उ०—जिससे घर बरबाद हो जाए या गाँव उजड़ जाए ऐसे असत्यको स्थूल असत्य कहते हैं । सत्याणुव्रतो ऐसा असत्य नहीं बोलता। ५१. प्र०--आपत्ति में सत्य न बोलनेकी छट क्यों है ? उ०-प्रधान व्रत अहिंसा है। बाकीके चार व्रत तो उसीको रक्षाके लिए बाड़के तुल्य हैं। अतः जिस सत्य वचनसे अहिंसाका रक्षण न होकर धात होता हो वह सत्य वचन भी त्याज्य है। ५२. प्र०-तब तो अहिंसाणुव्रती शासक नहीं हो सकता क्या ? __उ०-अहिंसाणुव्रती ही अच्छा शासक हो सकता है क्योंकि वह शत्रु और मित्र दोनोंको अपराधके अनुसार समान रूपसे दण्ड देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है। निरपराधीको दण्ड देना भी उतना हो बुरा है जितना अपराधीको दण्ड न देना । दण्डका उद्देश्य सुधार है पोड़न नहों। ५३. प्र०-अचोर्याणवत किसे कहते हैं ? उ.-रखी हुई, गिरो हुई या भूलो हुई पराई वस्तुको न स्वयं लेना और न उठाकर दूसरेको देना अचौर्याणुव्रत है। ५४. प्र०-ब्रह्मचर्याणवत किसे कहते हैं ? उ.-पापके भयसे पराई स्त्री और वेश्याका न तो स्वयं सेवन करना और न दूसरोंसे सेवन कराना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसका दूसरा नाम स्वदार सन्तोष भी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ५५. प्र.-परिग्रह-परिमाण अणुव्रत किसे कहते हैं ? उ०-अपने जीवन निर्वाहके लिए आवश्यक धन-धान्य वगैरहका परिमाण करके उससे अधिककी चाह नहीं करना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। यह व्रत मनुष्यकी इच्छापर नियंत्रण लगाता है इससे इसे इच्छा परिमाण भी कहते हैं। ५६. प्र०-शील किन्हें कहते हैं ? उ०—जैसे परकोटेसे नगरकी रक्षा होती है वैसे ही जिनसे अणुव्रतोंकी रक्षा आदि हो उन्हें शील कहते हैं। ५७. प्र०-शीलके कितने भेद हैं ? उ०-दो भेद हैं-गुणव्रत और शिक्षाक्त । ५८. प्र०-गुणवत किसे कहते हैं ? उ०-जो अणुव्रतोंका उपकार करें उनमें वृद्धि करें उन्हें गुणव्रत कहते हैं। ५९. प्र०-गुणवतके कितने भेद हैं ? उ०-तीन भेद हैं, दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणवत । ६०. प्र०-दिग्वत किसे कहते हैं ? उ०- दसों दिशाओंको मर्यादा करके मैं जोवन पर्यन्त इससे आगे नहीं जाऊँगा इस प्रकारके संकल्पको दिग्वत कहते हैं। ६१. प्र०-दिग्वतसे क्या लाभ है ? उ०-दिग्वत से अणुव्रतीके गमनागमनका क्षेत्र सीमित हो जाता है । अतः वह जो कुछ भी प्रवृत्ति करता है वह सीमित क्षेत्र में हो करता है, सोमा के बाहर वह किसी भी तरहका पापाचरण नहीं करता। इसलिए गृहस्थ होते हुए भी वह सोमाके बाहरके क्षेत्रकी दष्टिसे मुनिके तुल्य हो जाता है। बाहरके देशोंसे व्यापार न कर सकनेसे लोभमें भी कमी होती है, स्वदेशी कारबारको प्रोत्साहन मिलता है। ६२. प्र०-अनर्थदण्डवत किसे कहते हैं ? । उ०-अनर्थ अर्थात् बिना प्रयोजन 'दण्ड' अर्थात् मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति करनेको अनर्थदण्ड कहते हैं और उसके त्यागको अनर्थदण्डवत कहते हैं। सारांश यह है कि दिशाओंकी मर्यादाके अन्दर भी व्यर्थके पापकार्य न करना अनर्थदण्डवत है। ६३. प्र०-अनर्थदण्ड के कितने भेद हैं ? उ०-पाँच भेद हैं-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमाद चर्या। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ६४. प्र०-पापोपदेश किसे कहते हैं ? उ०-व्यक्तिगत या सामूहिक चर्चा वार्तामें मनुष्यों और पशुओंको क्लेश देनेवाले व्यापारका उपदेश देना, हिंसा और ठगीके उपाय बतलाना पापोपदेश है। ६५. प्र.-हिंसादान किसे कहते हैं ? उ०-जिन चीजोंसे दूसरोंकी हिंसा की जा सकती है ऐसी वस्तुएँ दूसरोंको देना हिंसादान नामका अनर्थदण्ड है। ६६. प्र०-अपध्यान किसे कहते हैं? उ०-दूसरोंका बुरा विचारना अपध्यान नामका अनर्थदण्ड है। ६७. प्र०-दुःश्रुति किसे कहते हैं ? उ०-चित्तको कलुषित करने वाले कामशास्त्र, हिंसाशास्त्र आदिको पढ़ना या सुनना दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड है । ६८. प्र०-प्रमादचर्या किसे कहते हैं ? उ०-बिना जरूरत पृथ्वी खोदना, वृक्ष काटना, पानी बहाना, इधरउधर घूमना प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है। ६९. प्र०-भोगोपभोग-परिमाणवत किसे कहते हैं ? उ०-रागभावको कम करनेके लिये आवश्यक भोग और उपभोगका यम अथवा नियम रूपसे परिमाण करना कि मैं इतने समय तकके लिये इतने भोग और उपभोगका सेवन करूँगा, इससे अधिकका नहीं, इसे भोगोपभोग परिमाणवत कहते हैं। ७०. प्र०-भोग किसे कहते हैं ? उ०-इन्द्रियोंका जो विषय एक बार भोगनेके बाद पुनः नहीं भोगा जा सकता उसे भोग कहते हैं जैसे भोजन । ७१. प्र.-उपभोग किसे कहते हैं ? उ०-जिस विषयको बार-बार भोगा जा सकता है उसे उपभोग कहते हैं, जैसे वस्त्र। ७२. प्र०-यम और नियम किसे कहते हैं ? उ०-जीवन पर्यन्तके लिये त्याग करनेको यम कहते हैं और नियमित काल तकके लिये त्याग करनेको नियम कहते हैं। ७३. प्र.-भोगोपभोग-परिमाणन्नतीको क्या-क्या सेवन नहीं करना चाहिये? उ०-भोग-उपभोगोंको कम कर देनेसे धनकी चाह कम हो जाना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका स्वाभाविक है। अतः इस व्रतीको धनके लोभसे कोई क्रूर काम नहीं करना चाहिये । जिन वस्तुओंके सेवनसे त्रसजीवोंका घात होता हो, जैसे-चमड़ेसे बना सामान या बहुत जोवोंका घात हो या प्रमाद पैदा हो, उनका सेवन नहीं करना चाहिये। अनन्तकाय वालो वनस्पतिको नहीं खाना चाहिये। कच्चे दूध, कच्चे दूधसे बनी दही और मठाके साथ उड़द, मूंग, चना आदि दालको चीजोंको नहीं खाना चाहिये। वर्षा-ऋतुमें साबित उड़द, चना, मंग वगैरह तथा पत्तेको शाक नहीं खाना चाहिये । ७४. प्र०-शिक्षावत किसे कहते हैं ? उ०-जिनमें शिक्षाकी प्रधानता है उन व्रतोंको शिक्षावत कहते हैं। आशय यह है कि इनके पालन करनेसे मुनिधर्मका पालन करनेकी शिक्षा मिलती है। ७५. प्र०-शिक्षावत कितने हैं ? उ०-चार हैं-देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथि संविभाग या वैयावृत्य। ७६. प्र०-देशावकाशिकव्रत किसे कहते हैं ? उ.-दिग्व्रतमें परिणाम किये हुए क्षेत्रके किसी हिस्से में कुछ समय तक सन्तोषपूर्वक रहनेका नियम करना देशावकाशिक व्रत है । ७७. प्र०-सामायिकवत किसे कहते हैं ? उ०-एकान्त स्थानमें मुनिकी तरह अपनी आत्माका ध्यान करनेवाला गृहस्थ जो कुछ समयके लिये हिंसा आदि पापोंका पूरी तरहसे त्याग करता है उसे सामायिकव्रत कहते हैं। ७८. प्र०-सामायिक कब करना चाहिये ? उ०-यों तो आलस्य त्याग कर प्रतिदिन सामायिक करना चाहिये। किन्तु उपवास और एकाशनके दिन तो अवश्य ही करना चाहिये। ७९. प्र०—प्तामायिकसे क्या लाभ है ? उ०-सामायिकमें सब बाह्य व्यापारोंसे मन, वचन, कायको हटाकर अन्तरात्माकी ओर लगाया जाता है उस समय न किसी प्रकारका आरम्भ होता है और न परिग्रहकी भावना ही रहती है। इसलिये गृहस्थ ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी साधके ऊपर किसोने वस्त्र डाल दिये हैं। ८०. प्र०-सामायिकमें क्या विचारना चाहिये ? उ०-जिस संसारमें हम बसते हैं उसके साथ अपने सम्बन्धोंका विचार करते हुए अपने मनमें समायी हुई मोहको गांठको ही खोलनेका प्रयत्न करना चाहिये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० चरणानुयोग-प्रवेशिका ८१. प्र०—प्रोषधोपवासवत किसे कहते हैं ? उ०-प्रत्येक अष्टमी और चतुदर्शीको स्वेच्छापूर्वक चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवासवत है। ८२. प्र.-प्रोषधोपवासवतकी क्या विधि है ? उ०—सप्तमी और तेरसके दिन मध्याह्नकालमें अतिथियोंको भोजन करानेके बाद स्वयं भोजन करके गृहस्थको उपवासकी प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये और एकान्त स्थानमें ठहरकर धर्मध्यान पूर्वक अपना समय बिताना चाहिये । अधिकतर स्वाध्याय करना चाहिये । यदि पूजन करना हो तो भावपूजा हो करना चाहिये। यदि द्रव्यपूजा करना चाहे तो प्रासुक-द्रव्यसे पूजा करनी चाहिये और रागके कारणोंसे बचना चाहिये। इस प्रकार सोलह पहर बिताकर नौमी या पन्द्रसके दिन मध्याह्नकालमें अतिथियोंको भोजन करानेके बाद अनासक्त होकर एकबार भोजन करना चाहिये। ८३. प्र०-प्रोषधोपवास शब्दका क्या अर्थ है ? उ०-एकबार भोजन करनेको प्रोषध कहते हैं और चारों प्रकारके आहारका त्याग करनेको उपवास कहते हैं ? अतः प्रोषध पूर्वक उपवास करनेको प्रोषधोपवास कहते हैं। ८४. प्र०-उपवासके दिन क्या-क्या नहीं करना चाहिए? उ०-उपवासके दिन पांच पापोंमेंसे किसी भी पापका विचार तक नहीं करना चाहिये। किसी तरहका कोई आरम्भ नहीं करना चाहिये । आभूषण, पुष्पमाला वगैरह नहीं पहनना चाहिये। अंजन नहीं लगाना चाहिये, नास नहीं लेनी चाहिये और हो सके तो स्नान भी नहीं करना चाहिये। ८५. प्र०-अतिथिसंविभागवत किसे कहते हैं ? उ०-शरीरको धर्मका साधन मानकर उसको बनाये रखनेके उद्देश्यसे जो भिक्षाके लिये सावधानतापूर्वक बिना बुलाये हुए श्रावकके घर जाता है उस पात्रको अतिथि कहते हैं और प्रतिदिन श्रावक अपने लिये बनाये हुए भोजनमेंसे श्रद्धा, भक्ति और सन्तोषके साथ ऐसे अतिथिको विधिपूर्वक जो दान देता है उसे अतिथिसंविभागवत कहते हैं। आचार्य समन्तभद्रने इस व्रतको वैयावृत्य नाम दिया है। ८६. प्र०-वैयावृत्य किसे कहते हैं ? । उ०-गुणानुरागवश संयमो पुरुषोंके कष्टोंको दूर करना, उनकी सेवा करना, उन्हें दान देना, ये सब वैयावृत्य हैं । ८७. प्र०-पात्र किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका उ.---जहाजकी तरह जो अपने आश्रितोंको संसाररूपी समुद्रसे पार करता है उसे पात्र कहते हैं। ८८. प्र०-पात्र कितने प्रकारके होते हैं ? उ०-पात्र तीन प्रकारके होते हैं- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । महाव्रती साधु उत्तमपात्र हैं। देशवती श्रावक मध्यमपात्र हैं और व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। ८९. प्र०-दान देनेको क्या विधि है ? उ०-साधको आहारदान देनेकी विधिके नौ प्रकार हैं-जब साधु अपने द्वारपर आवे तब भक्तिपूर्वक प्रार्थना करे - नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, टहरिये, ठहरिये, ठहरिये। इसे प्रतिग्रह या पड़गाहना कहते हैं। जब वह मौनपूर्वक प्रार्थना स्वीकार कर ले तब उन्हें घरके भीतर ले जाकर ऊँचे आसन पर बैठा दे। फिर उनके चरण पखारे । फिर उनकी पूजा करे। फिर पंचांग नमस्कार करे। आहार देते समय मन, वचन और कायको निर्मल रक्खे । इसे मनशद्धि, वचनशद्धि और कायशद्धि कहते हैं । नौवीं विधि अन्नशुद्धि है। बलपूर्वक शोधकर बनाये गये दोषोंसे रहित आहारका नाम अन्नशुद्धि है। इस प्रकार प्रतिग्रह आदि ५, मन, वचन और कायकी शुद्धता ३ और अन्नशुद्धि १ ये नौ आहार देनेकी विधियाँ हैं। ९०. प्र०-दानके कितने प्रकार हैं ? उ०-दानके चार प्रकार हैं-पात्रदत्ति, समक्रियादत्ति, अन्वयदत्ति अथवा सकलदत्ति और दयादत्ति । ९१. प्र०-पात्रदत्त किसे कहते हैं ? उ०-पात्रको दान देनेका नाम पात्रदत्ति है। ९२. प्र०-पात्रदानके कितने भेद हैं ? उ०-पात्रदानके चार भेद हैं-आहारदान, उपकरणदान, औषधदान और आश्रयदान । मोक्षके लिये प्रयत्नशील संयमो-मुनिको शुद्ध मनसे निर्दोष भिक्षा देना आहार दान है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको बढ़ानेवाले शास्त्र, पीछी कमण्डल वगैरह धर्म के उपकरण देना उपकरण दान है । योग्य औषध देना औषधदान है और उनके निवासके लिये श्रद्धापूर्वक वासस्थान देना आश्रयदान है । ९३. प्र०–समक्रियादत्ति किसे कहते हैं ? उ.-जो व्रत आदि क्रियाओंमें अपने समान है ऐसे सधर्मी भाईको श्रद्धापूर्वक कन्या, भूमि, सुवर्ण आदि देना समक्रिया या समानदत्ति है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ९४. प्र०- - अन्वयदत्ति अथवा सकलदत्ति किसे कहते हैं ? उ०- अपने वंशको कायम रखनेके लिये अपने औरस या दत्तक पुत्रको धर्म और धनके साथ अपने कुटुम्बका सम्पूर्ण भार सौंपना अन्वयदत्ति अथवा सकलदत्ति है । १२ ९५. प्र० - दयादत्ति किसे कहते हैं ? - दीन-दुःखी प्राणियोंका दुःख दूर करनेकी भावनासे उनके लिए भोजन औषध आदिकी व्यवस्था करना दयादत्ति है । 2-02 ९६. प्र० - दान किसे कहते हैं ? उ०- कल्याणकी भावनासे अपने द्रव्यके देने को दान कहते हैं । ९७. प्र० – अतिथिदानसे क्या लाभ है ? उ० – जैसे पानी खूनके दागको धो देता है वैसे ही संसारसे विरक्त अतिथियोंको आदर पूर्वक दिया हुआ दान घरके कार्योंसे सञ्चित पापको भी धो देता है । ९८. प्र० - सल्लेखना किसे कहते है ? - सम्यक् प्रकार से शरीर और कषायोंके कृश करनेको सल्लेखना उ० कहते हैं । ९९. प्र० - सल्लेखना कब की जाती है ? उ०- जब कोई ऐसा उपसर्ग आ जाये, दुर्भिक्ष पड़ जाये, या रोग हो जाये जिसका कोई प्रतीकार न हो अथवा बुढ़ापा आ जाये तब धर्मको रक्षाके लिये शरीरका उत्सर्ग किया जाता है इसोका नाम सल्लेखना है । १००. प्र० --- सल्लेखना में और समाधिमरणमें क्या अन्तर है ? उ०- सल्लेखनापूर्वक मरणका नाम ही समाधिमरण है । १०१. प्र० - सल्लेखना करनेवाला आत्मघाती क्यों नहीं है ? उ०- धर्मनाशके कारण उपस्थित होनेपर शरीरकी परवाह न करनेवाला आत्मघाती नहीं हैं; क्योंकि क्रोध आदि कषायोंके आवेश में आकर जो विष आदिके द्वारा अपने प्राणोंका घात करता है वहो आत्मघाती कहा जाता है । १०२. प्र० - क्या शरीरकी रक्षा नहीं करना चाहिये ? - शरीर धर्मका साधन है इसलिये उसकी रक्षा करना जरूरी है । किन्तु धर्मं खोकर शरीरको बचाना ठीक नहीं है । १०३. प्र० - समाधिमरणको क्या विधि है ? उ०- राग, द्वेष, परिग्रह वगैरहको छोड़कर शुद्ध मनसे सबसे क्षमा माँगे 111 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका और सबको क्षमा कर दे। फिर स्वयं किये हुए, दूसरोंसे कराये हुए और अनुमोदनसे किये हुए सब पापोंको आलोचना करके जीवन पर्यन्तके लिये महाव्रत धारण कर ले और शोक, भय, खेद वगैरहको छोड़कर तथा अपने में उत्साह भरकर अमृतके तुल्य उपदेशोंमें अपने मनको लगावे। तथा धीरे-धीरे आहार छोड़कर दूध वगैरह ले। फिर दूध वगैरहको भी छोड़कर केवल शुद्ध जल ले और यदि शक्ति हो तो उपवास करे। अन्त समय पानी भी छोड़ दे और मनमें पञ्च नमस्कारका ध्यान करते हुए शरीर छोड़े। १०४. प्र०-अतिक्रम किसे कहते हैं ? उ०-लिये हुए व्रतके प्रति मानसिक शुद्धि में कमीका होना अर्थात् विषयकी इच्छाका होना अतिक्रम है। १०५. प्र०-व्यतिक्रम किसे कहते हैं ? उ०-व्रतकी मर्यादाका उल्लंघन करना अर्थात् विषयकी सहायक सामग्रीका लुटाना व्यतिक्रम है। १०६. प्र०-अतिचार किसे कहते हैं ? उ०-व्रतकी अपेक्षा रखते हुए भी विषयोंमें प्रवृत्ति होना अतिचार है । १०७. प्र०-अनाचार किसे कहते हैं ? उ०-स्वेच्छाचारी बनकर विषयोंमें अत्यन्त असक्त हो जाना अर्थात् व्रतको भंग कर देना अनाचार है। १०८. प्र०-अहिंसाणुव्रतके अतिचार कौनसे हैं ? । उ० -दुर्भावसे मनुष्य या पशुका छेदन ( कान नाक आदि अवयवोंको छेदना ), बन्धन ( बांधकर डाल देना), पीडन ( कष्ट देना), अतिभार आरोपण ( शक्ति से अधिक बोझ लादना या शक्तिसे अधिक काम लेना), आहारवारणा या अन्नपाननिरोध ( खाना पीना या उचित मजदूरी न देना ये पांच अतिचार अहिंसाणुव्रतके हैं। १०९. प्र०-सत्याणुव्रतके अतिचार कौनसे हैं ? उ.-मिथ्या उपदेश ( गलत सलाह देना ), रहोऽभ्याख्या (किसीके रहस्यको ( गुप्तबातको) दूसरोंपर प्रकट कर देना ), कूटलेखक्रिया ( झूठ बातके सूचक शब्द लिखना ), न्यासापहार (धरोहर रख जानेवाला भूलसे कम मांगे तो उसे उतनी ही दे देना ), साकारमन्त्रभेद ( संकेतोंसे दूसरेके अभिप्रायको जानकर बुरी भावनासे प्रकट कर देना ) ये पांच सत्याणुव्रतके अतिचार हैं। १०४-१०६. मूला० ११-११, अमित० द्वा० श्लो०६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ११०.प्र.- कूटलेखक्रिया अतिचार कैसे है ? उ०-जो मूढ़ सत्याणुव्रती 'मैंने झूठ बोलना छोड़ा है झूठ लिखना नहीं छोड़ा' इस भावसे झूठ बात लिखता है उसके लिए यह अतिचार ही है अनाचार नहीं है। १११. प्र०-अचौर्याणुव्रतके अतिचार कौनसे हैं ? उ.- चौरप्रयोग (स्वयं अथवा दूसरेके द्वारा चोरको चोरी करनेकी प्रेरणा करना ), चौरार्थादान ( चोर का माल लेना), विरुद्धराज्यातिक्रम ( राज्य में विप्लव हो जानेपर अथवा बिना विप्लव हुए हो राजके नियमोंका उल्लंघन करना ), प्रतिरूपकव्यवहार ( मूल्यवान वस्तुमें अल्प मूल्यवाली समान वस्तु मिलाकर बेचना जैसे असली घीमें वनस्पति घो मिलाना) हीनाधिकविनिमान (बाँट, तराजू, गज वगैरह कमती बढ़ती रखना-बढ़तीसे खरीदना, कमतोसे बेचना ) ये पाँच अचौर्याणुव्रतके अतिचार हैं। ११२. प्र०-चौर प्रयोग वगैरह अतिचार कैसे हैं ? उ.-मूढ़ बुद्धि अचौर्याणुव्रती यह सोचता है कि मैंने चोरी करनेका हो त्याग किया है तथा प्रतिरूपक व्यवहार वगैरह तो व्यापारकी कला है, चोरी नहीं है, उसकी इस भावनाके कारण इन्हें अतिचार कहा गया है। ११३. प्र०-ब्रह्मचर्याणवतके अतिचार कौनसे हैं ? उ०-परविवाहकरण ( दूसरोंका विवाह कराना ), इत्वरिकागमन ( व्यभिचारिणी स्त्री से सम्पर्क रखना), अनंगक्रीड़ा (स्वस्त्रीके साथ अप्राकृतिक मैथुन करना), विटत्व (अश्लील वचन बोलना और अश्लील चेष्टाएँ करना), कामतोत्र अभिनिवेश (काम सेवनकी तीव्र' लालसा होना) ये पांच ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार हैं। ११४. प्र०-परिग्रहपरिमाण अणुव्रतके अतिचार कौनसे हैं ? उ०-किये हुए धनधान्यके परिमाणका उल्लंघन करना, किए हुए भूमि गृह आदिके परिमाणका उल्लंघन करना, किये हुए सोने चांदोके परिमाणका उल्लंघन करना, किये हुये दास-दासी पशु आदिके परिमाणका उल्लंघन करना और किये हुए अन्य घरेल उपकरणोंके परिमाणका उल्लंघन करना ये पांच अतिचार परिग्रह परिमाण अणुव्रत के हैं। ११५. प्र०-दिग्वत अतिचारके कोनसे हैं ? उ०-दिग्वतके पांच अतिचार हैं-ऊर्ध्वव्यतिक्रम (ऊर्ध्व दिशामें किये हुए जानेके परिमाणका उल्लंघन भरना), अधोव्यतिक्रम (नीचेको दिशामें किये हुए जानेके परिमाणका उल्लंघन करना ), तिर्यग्व्यतिक्रम (तिरछो दिशामें जानेके लिये किये हुए परिमाणका उल्लंघन करना), क्षेत्रवृद्धि (किये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका हुए क्षेत्रके परिमाणको बढ़ा लेना), स्मृत्यन्तराधान ( किये हुए परिमाणको भूल जाना)। ११६. प्र०-अनर्थदण्डव्रतके अतिचार कौनसे हैं ? उ०-कन्दर्प (हास्य मिश्रित अश्लील वचन बोलना), कौत्कुच्य (हास्य मिश्रित अश्लील वचनके साथ शरीरसे भी कुचेष्टा करना), मौखर्य (व्यर्थ बकवाद करना), असमीक्ष्य-अधिकरण (बिना बिचारे प्रयोजनसे अधिक कार्य करना ) और उपभोग-परिभोग-आनर्थक्य ( भोग और उपभोगके साधनोंका प्रयोजनसे अधिक संचय करना ) । ये पांच अतिचार अनर्थदण्डव्रतके हैं। ११७. प्र०-भोग-उपभोग-परिमाणवतके अतिचार कौनसे हैं ? उ.-सचित्त-आहार ( सचित पुष्प-फल आदिका आहार करना ), सचित्त-सम्बन्धाहार (सचित्त वस्तुसे स्पर्श हुए पदार्थका आहार करना ), सचित्त सम्मिश्र-आहार (सचित्त वस्तुसे मिली हुई वस्तुका आहार करना), अभिषव-आहार (कामोत्तेजक वस्तुका आहार करना ) और दुष्पक्व-आहार (भली प्रकार न पके हुए अथवा देरसे पचनेवाले पदार्थोंका आहार करना) ये पांच अतिचार भोगोपभोगपरिमाणवतके तत्त्वार्थसूत्र में कहे हैं और विषयरूपी विषमें आदरभावका होना, भोगे हुए विषयोंका स्मरण करना, वर्तमानमें उपलब्ध विषयोंमें अति लोलुपता होना, भाविभोगोंकी चाह होना और भोग न भोगते हुए भी मनमें भोगोंको भोगने को-सी कल्पना करना ये पांच अतिचार समन्तभद्र स्वामीने रत्नकरंड श्रावकाचारमें कहे हैं। ११८. प्र०-देशवतके अतिचार कौन से हैं ? उ.-आनयन ( मर्यादासे बाहरसे किसी वस्तुको मँगवाना ), प्रेष्यप्रयोग ( मर्यादासे बाहर किसीको भेजना), शब्दानुपात (मर्यादासे बाहर स्वयं न जाकर भी शब्दके द्वारा अपना काम करा लेना ), रूपानुपात ( अपना रूप दिखाकर मर्यादासे बाहर कोई काम कराना ) और पुद्गलक्षेप ( मर्यादासे बाहर ढेला आदि फेंककर अपना काम करा लेना ) ये पांच देशवत के अतिचार हैं। ११९. प्र०-सामायिकवतके अतिचार कौनसे हैं ? उ०-योगदुष्प्रणिधान ( सामायिकके समय मनको चलायमान करना, वचनको चलायमान करना और कायको चलायमान करना ), अनादर ( सामायिक करते हुए भी उत्साहका न होना ) और स्मृत्यनुपस्थापन ( सामायिकके समय आदिको भूल जाना ) ये पांच अतिचार सामायिकव्रतके हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ चरणानुयोग-प्रवेशिका १२० प्र०-प्रोषधोपवासवतके अतिचार कौनसे हैं ? उ०-उपवासके दिन अप्रत्यवेक्षित अप्रमाजित उत्सर्ग ( बिना देखी और बिना साफ की हई भूमिमें मलमूत्र करना ), अप्रत्यवेक्षित-अप्रमाणित आदान ( बिना देखी और बिना प्रतिलेखन किये पूजाके उपकरण अथवा अपने वस्त्र आदिको ग्रहण करना), अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित-संस्तरोपक्रमण (बिना देखे और बिना प्रतिलेखन किये शय्या वगैरह बिछाना ) अनादर (भूखसे पीड़ित होकर आवश्यकोंमें उत्साहका न होना) और स्मृत्यनुपस्थान (चित्तको अस्थिर रखना ) ये पांच प्रोषधोपवासव्रतके अतिचार हैं। १२१. प्र०-अतिथिसंविभागवतके अतिचार कौनसे हैं ? उ.-सचित्तनिक्षेप ( सचित्त कमलके पत्ते आदिमें आहारको रखना ), सचित्तअपिधान (सचित्त कमलके पत्ते आदिसे आहारको ढाकना), परव्यपदेश ( अन्यकी वस्तुको उसकी बिना आज्ञाके अतिथिको अर्पण कर देना), मात्सयं ( अन्य दाताओंसे ईर्ष्या करना अथवा देते हुए भी आदरका न होना) और कालातिक्रम ( दान देनेके कालको उल्लंघन करके अकालमें दान देनेका उपक्रम करना ) ये पांच अतिथिसंविभागवतके अतिचार हैं। १२२. प्र०-सल्लेखनाके अतिचार कौनसे है ? उ०-जीविताशंसा ( समाधिमरण करते हुए जीवित रहने की इच्छा करना ), मरणाशंसा ( दुःख आदिसे छूटनेके लिए शोघ्र मरनेको इच्छा करना ), मित्रानुराग ( मित्रोंके स्नेहका स्मरण करना ), सुखानुबन्ध ( भोगे हुए सुखोंको स्मरण करना ), और निदान ( मरनेके पश्चात् देवलोक आदिके सुखोंकी इच्छा करना ), ये पांच सल्लेखना के अतिचार हैं। १२३. प्र० --श्रावक किसे कहते हैं ? उ०-जो सम्यग्दृष्टि पुरुष पांच उदुम्बर तथा तीन मकार ( मद्य, मांस, और मधु ) के त्याग रूप आठ मूलगुणोंको और पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षावत रूप बारह उत्तर गुणोंको पालन करता है, पांचों परमेष्ठियोंके चरणोंको ही शरण समझता है, दान और पूजाओंको प्रधान रूपसे करता है उसे श्रावक कहते हैं। १२४. प्र०-श्रावक कौन हो सकता है ? उ०-ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य तो श्रावक हो हो सकते हैं। जिनका रहन-सहन स्वच्छ है, जो मद्य आदिका सेवन नहीं करते और शरीर शुद्धि पूर्वक भोजन आदि करते हैं ऐसे शूद्र भी श्रावकधर्मका पालन कर सकते हैं। १२५. प्र०-श्रावकके कितने भेद हैं ? उ०-श्रावकके तीन भेद हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ चरणानुयोग-प्रवेशिका १२६. प्र०-पाक्षिक श्रावक किसे कहते हैं ? उ०-जो अभ्यास रूपसे श्रावक धर्मका पालन करता है उसे पाक्षिक श्रावक कहते हैं। १२७. प्र०-पाक्षिक श्रावकके क्या कर्तव्य हैं ? उ०-मद्य, मांस, मधु, पांच उदुम्बर फल, रात्रि भोजनका त्याग, पंच परमेष्ठोको भक्ति, जीवोंपर दया और छानकर पानी पीना ये संक्षेपमें पाक्षिक श्रावकके मुख्य कर्तव्य हैं। १२८. प्र०-नैष्ठिक श्रावक किसे कहते हैं ? उ०-जो निरतिचार श्रावक धर्मका पालन करता है उसे नैष्ठिक श्रावक कहते हैं। १२९. प्र०-साधक श्रावक किसे कहते हैं ? उ०-जो श्रावक धर्मको पूर्ण करके आत्मध्यानमें तत्पर होकर समाधि मरण करता है उसको साधक श्रावक कहते हैं। १३०. प्र०-नैष्ठिक श्रावकके कितने पद हैं ? उ०-नैष्ठिक श्रावकके ग्यारह पद हैं-दर्शनिक, व्रतिक, सामयिक, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिव्रत, अब्रह्मविरत, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत । इन ग्यारह पदोंको 'प्रतिमा' नामसे कहा जाता है। १३१. प्र०-दर्शनिक प्रतिमा किसे कहते हैं ? उ०-जो विशुद्ध सम्यग्दृष्टि संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होकर पंच परमेष्ठीके चरणोंका आराधन करता हआ शरीरके निर्वाहके लिये न्यायपूर्वक आजीविका करता है और मूल गुणोंमें अतिचार नहीं लगाता तथा आगेके व्रतिक आदि पदोंको धारण करनेके लिए उत्सुक रहता है, उसे दर्शनिक श्रावक कहते हैं। १३२. प्र०-दर्शन प्रतिमाका धारी क्या-क्या काम नहीं कर सकता? उ०-दर्शनिक श्रावक मन वचन कायसे मद्य, मांस और मधु वगैरहका व्यापार न स्वयं करे, न दूसरोंसे करावे और न उसकी अनुमोदना करे। मद्य मांसका सेवन करनेवाले स्त्री पुरुषोंके साथ भोजन आदि न करे। सब प्रकारके अचार मुरब्बेका त्याग करे। चमड़ेके बरतनमें रखे हुए पानी घी तेल वगैरहका उपयोग न करे। अज्ञात फलोंको नहीं खावे, रातमें औषधि पानी आदि भी न ले । पानी को गन्दे और छेदवाले वस्त्र से न छाने, एक बार छने हुए पानीको दो मुहूर्तके बाद पुनः छानकर हो काममें लावे। विलछानोको Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ चरणानुयोग-प्रवेशिका उसी जलाशयमें डाले जिससे जल लिया हो। जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, परस्त्रो सेवन करना और चोरो करना इन सात व्यसनोंका मन, वचन, काय और कृत-कारित-अनुमोदना से त्याग कर दे। जिस वस्तुको बुरा जानकर स्वयं छोड़े उसका प्रयोग दूसरोंके प्रति भो न करे। । १३३. प्र.-प्रतिक प्रतिमा किसे कहते हैं ? . ___उ०-पहली प्रतिमाके कर्तव्योंका पूर्णरूपसे पालन करते हुए जो निःशल्य होकर पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका निरतिचार पालन करता है उसे व्रतिक कहते हैं। १३४. प्र०-सामायिक प्रतिमा किसे कहते हैं ? उ.-पहली और दूसरी प्रतिमाके कर्तव्योंका पूर्णरूप से पालन करते हुए जो तीनों कालोंमें सामायिक करते समय किसी भी प्रकारका उपसर्ग और परीषह आने पर भी साम्यभावसे नहीं डिगता वह सामयिक प्रतिमावाला कहलाता है। १३५. प्र०-सामायिक की क्या विधि है ? . उ०-प्रतिदिन सबेरे, दोपहर और संध्याको एकान्त स्थानमें चटाईके ऊपर पहले पूरब या उत्तर दिशाको मुख करके दोनों हाथ लटकाकर खड़ा हो, दृष्टि नाकके अग्रभाग पर रक्खे । इसे कार्योत्सर्ग कहते हैं। फिर मनमें नौ या तीन बार णमोकार मंत्र पढ़के साष्टांग नमस्कार करे। फिर उसी तरह खड़ा होकर मंत्र पढ़के दोनों हाथ जोड़ तीन आवर्त और एक शिरोनति करे। अर्थात् दोनों हाथ जोड़ उन जोड़े हुए हाथोंको बाईं ओरसे दाईं ओर तीन बार घुमावे । इसे आवर्त कहते हैं। फिर खड़े-खड़े अपना मस्तक नवाके मस्तक को जोड़े हुए हाथोंपर रक्खे । इसे शिरोनति कहते हैं। पूर्व या उत्तर दिशामें इस कार्यको करके फिर उसी दिशासे दाहिने हाथकी दिशाकी ओर मुड़े और पहलेको हो तरह नौ या तीन बार णमोकार मंत्र पढ़कर तोन आवर्त और एक शिंरोनति करे। इसी प्रकार चारों दिशाओंमें करके पहले जिस दिशाकी ओर मुख किया था उसी दिशाकी तरफ मुंह करके पद्मासनसे बैठ जाये और फिर णमोकार मंत्रकी कमसे कम एक माला जपे । फिर सामायिक पाठ आदि पढ़े। आत्मचिन्तन करे । अन्तमें खड़े होकर कायोत्सर्ग करे और नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर साष्टांग दण्डवत् करे। - १३६. प्र०-प्रोषधोपवास प्रतिमा किसे कहते हैं ? उ०—पहली तीन प्रतिमाओंका निर्दोष पालन करते हुए प्रत्येक मासके चारों पूर्वोमें अपनी शक्तिको न छिपाकर जो नियमपूर्वक उपवास धारण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका १६ करता है और उपवासके समय ( सोलह पहर तक ) अपने साम्यभावसे च्युत नहीं होता है वह प्रोषध प्रतिमावाला है। १३७. प्र०-प्रोषधोपवासव्रत और प्रोषधोपवासप्रतिमामें क्या अन्तर है? ___उ०-दूसरी प्रतिमामें प्रोषधोपवास शीलरूप अर्थात् अणुव्रतोंके रक्षकके रूपमें सहायकव्रत है, मुख्यव्रत नहीं है। किन्तु चौथी प्रतिमामें वह मुख्यत्रत हो जाता है। यही बात सामायिकव्रत और सामायिकप्रतिमाके सम्बन्धमें जाननी चाहिए। १३८. प्र०–सचित्तत्याग प्रतिमा किसे कहते हैं ? उ०-पहली चारों प्रतिमाओंका निर्दोष पालन करते हुए जो दयालु सचित्त अंकुर, कन्द, मूल, फल, पत्र, बोज, पानो, नमक वगैरह नहीं खाता अर्थात् सचित्त भक्षण नहीं करता वह सचित्तविरत प्रतिमावाला है। १३९. प्र०-सचित्त किसे कहते हैं ? उ०-जोव सहित हरे पत्ते शाक वगैरहको सचित्त कहते हैं। १४०. प्र०-सचित्तद्रव्यसे पूजन करना योग्य है वा नहीं ? उ०-पहली, दूसरी, तीसरो और चौथी प्रतिमाके धारक तो सचित्त द्रव्यसे भी पूजन कर सकते हैं किन्तु पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं प्रतिमाके धारी अचित्तद्रव्यसे ही पूजन करते हैं क्योंकि इन चारोंके सचित्तका त्याग है और नौंवी, दसवीं तथा ग्यारहवीं प्रतिमाके धारी भावपूजा ही करते हैं। १४१. प्र०-छना हुआ जल सचित्त है या अचित्त ? . उ०-छना हुआ जल सचित्त हो है क्योंकि उसमें एकेन्द्रिय जलकायिक जोव विद्यमान हैं। ऐसा जल चतुर्थ प्रतिमा पर्यन्त हो ग्रहण करनेके योग्य है। सचित्त त्यागो गृहस्थ और मुनियोंके योग्य नहीं है। अतः सेवन करने से दो घड़ी पहले उस जलमें हरड़ या लौंगका चूर्ण आदि तीक्ष्ण वस्तू मिला देनी चाहिये या उसे आग पर तपा लेना चाहिये। १४२. प्र०-रात्रिभुक्तिवत प्रतिमाका क्या स्वरूप है ? उ.--जो मन, वचन, काय और कृत-कारित अनुमोदनासे दिनमें मैथुनका त्याग करता है वह छठी प्रतिमाका धारी है। अधिकतर श्रावकाचारोंमें छठी प्रतिमाका यही स्वरूप बतलाया है किन्तु स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डश्रावकाचारमें कहा है कि जो रातमें अन्न, पान (पीने योग्य वस्तु ) खाद्य ( लड्डू वगैरह ) और लेह्य ( रबड़ी वगैरह ) चारों प्रकारके आहारका त्याग करता है वह रात्रिभुक्तिवती श्रावक है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका १४३. प्र०-अब्रह्मविरत प्रतिमाका क्या स्वरूप है? उ० -- पूर्वोक्त छै प्रतिमाओंमें कहे गये समयके अभ्याससे अपने मनको वशमें कर लेनेवाला जो श्रावक मन, वचन, काय और कृत-कारित अनुमोदनासे सम्पूर्ण स्त्रियोंको कभी भी नहीं भोगता वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाका धारी कहा जाता है। १४४. प्र०-आरम्भविरत प्रतिमाका क्या स्वरूप है ? उ०-जो पहलो सात प्रतिमाओंका निर्दोष पालन करते हुए गृह सम्बन्धी आरम्भका सदाके लिये त्याग कर देता है उसे आरम्भत्याग प्रतिमाका धारी कहते हैं। . १४५. प्र०-आरम्भ किसे कहते हैं ? उ०-हिंसाका कारण होनेसे खेती, नौकरी, व्यापार वगैरहको आरम्भ कहते हैं। १४६. प्र०-परिग्रहत्याग प्रतिमाका क्या स्वरूप है ? उ०-पहलेको आठ प्रतिमाओंका पूर्णरूपसे पालन करते हुए ममत्वको दूर करके दस प्रकारके बाह्य परिग्रह करता है उसे परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी कहते हैं और वसुनन्दिश्रावकाचारके अनुसार जो वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर शेष सब परिग्रहको छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रहमें भी मूर्छा नहीं रखता उसे परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी श्रावक कहते हैं। १४७. प्र०-अनुमतित्याग प्रतिमाका क्या स्वरूप है ? उ० -पूर्वोक्त नौ प्रतिमाओंको पालते हुए जो धन-धान्य आदि परिग्रह, कृषि आदि व्यापार और विवाह आदि गृह सम्बन्धी कार्योंको अनुमोदना नहीं करता उसे अनुमतित्याग प्रतिमाका धारी कहते हैं । १४८. प्र०-उद्दिष्टत्याग प्रतिमाका क्या स्वरूप है ? उ०-पहले की दस प्रतिमाओंका पालन करते हुए जो अपने उद्देश्यसे बनाये गये भोजन, शय्या, आसन आदिका भी त्याग कर देता है उसे उद्दिष्टत्याग प्रतिमाका धारी श्रावक कहते हैं। . १४९. प्र०-उद्दिष्टत्याग प्रतिमाके कितने भेद हैं ? उ०-उद्दिष्टत्याग प्रतिमाधारी श्रावक दो प्रकारके होते हैं-प्रथम और द्वितीय । उत्तर कालमें प्रथम क्षुल्लक कहा जाने लगा और दूसरा ऐलक। । १५०. प्र०-प्रथम क्षुल्लकका क्या स्वरूप है ? उ.-क्षुल्लक सफेद लंगोटी और चद्दर रखे और कैंची या छुरेसे अपनी मूंछ दाढ़ी और सिरके बालोंको बनवाये। बैठते समय, सोते समय या पुस्तक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ चरणानुयोग-प्रवेशिका आदि उठाते-धरते समय मृदु वस्त्र आदिसे जोवोंकी विराधनाको बचाने और प्रत्येक मासको दो अष्टमी और दो चतुर्दशीको उपवास अवश्य करे । १५१. प्र०-क्षुल्लककी भिक्षाको क्या विधि है ? उ०-क्षल्लक भी दो प्रकारके होते हैं-एक भिक्षा नियमवाले और अनेक भिक्षा नियमवाले । अनेक भिक्षा नियमवाला क्षुल्लक अपने हाथमें पात्र लेकर भिक्षाके लिए निकले और श्रावकके घर जाकर 'धर्मलाभ' कहकर भिक्षाकी याचना करे अथवा मौनपूर्वक श्रावकके आँगन में खड़ा होकर चला आवे और दूसरे घर जावे। इस तरह भिक्षा माँगते समय यदि बीच में कोई श्रावक अपने घरपर भोजन करनेकी प्रार्थना करे तो पहले भिक्षामें प्राप्त भोजनको शोधकर खाने के बाद यदि आवश्यकता हो तो उससे ले ले। यदि कोई बीच में न टोके तो उदरपूर्ति के लिए आवश्यक भिक्षा प्राप्त होनेतक भिक्षाके लिए श्रावकोंके घर जावे और फिर जहाँ प्रासुक जल मिले वहीं शोधकर भोजन कर ले। भोजन कर चुकनेपर भिक्षापात्रको स्वयं ही माँज धोकर साफ करे । फिर गुरुके पास जाकर दूसरे दिन आहारको निकलनेतकके लिए चारों प्रकारके आहारका त्याग करे तथा आहारके लिए जाने के समयसे लेकर वापिस आनेतक जो कुछ प्रमाद हुआ हो उसकी गुरुके सामने आलोचना करे। जिनके घरके भोजनका नियम है वे मुनिराजके भोजनके पश्चात् श्रावकके घर जाकर भोजन करें और यदि भोजन न मिले तो जरूर ही उपवास करें। १५२. प्र०-दूसरे ऐलकका क्या स्वरूप है ? उ०-ऐलक केवल लंगोटी ही रखता है, खण्डवस्त्र नहीं रखता। केश लोंच करता है और मुनियोंके समान पीछी कमंडल आदि उपकरण रखता है तथा मुनियोंके समान ही अपने हाथरूपी पात्रमें श्रावकोंके द्वारा दिये हुए भोजनको शोधकर खाता है। शेष क्रियाएँ क्षुल्लकके हो समान हैं। १५३. प्र०-उक्त ग्यारह प्रतिमाओंमें जघन्य आदि भेद किस प्रकार हैं? उ०-पहले छै प्रतिमाधारी श्रावक जघन्य श्रावक हैं और गृहस्थ कहलाते हैं, सात, आठ और नौवीं प्रतिमा धारक श्रावक मध्यम श्रावक हैं और वर्णी या ब्रह्मचारी कहलाते हैं तथा दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारक श्रावक उत्कृष्ट श्रावक हैं और भिक्षु कहे जाते हैं। ये सब परस्पर में मिलनेपर एक दूसरेसे 'इच्छाकार' कहकर अभिवादन करते हैं । १५४. प्र०- देशविरती श्रावकोंके लिए कौन-कौन कार्य निषिद्ध हैं ? उ०-दिनमें प्रतिमायोग धारण करना ( नग्न होकर कार्योत्सगं करना), वोरचर्या (मूनिके समान गोचरी करना), त्रिकालयोग (गर्मी में पर्वतके शिखरपर, बरसातमें कक्षमें नीचे और सर्दी में नदी किनारे ध्यान करना), Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग- प्रवेशिका सिद्धान्तशास्त्र अर्थात् द्वादशांगका और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका अध्ययन, ये कार्य देशविरती श्रावकों को करनेका अधिकार नहीं है । १५५. प्र० - संयत किसे कहते हैं ? उ० – जो पांच समिति और तीन गुप्तियोंका पालक है, पांचों इन्द्रियों को वशमें रखता है, कषायोंको जिसने जोत लिया है और जो दर्शन और ज्ञानसे पूर्ण है उस श्रमणको संयत या संयमी कहते हैं । ३२ १५६. प्र० - श्रमण किसे कहते हैं ? उ०- जो शत्रु और मित्रमें सुख और दुःखमें, निन्दा और प्रशंसा में, सुवर्ण और पाषाण में तथा जीवन और मरणमें समभाव रखता है वही श्रमण है । १५७. प्र० - जो श्रमण होना चाहता है उसे क्या करना चाहिये ? उ०- अपने कुटुम्बियोंसे पूछकर मां बाप और स्त्री पुत्र आदिसे मुक्त होकर गुणवान आचार्य के पास जाये और उन्हें नमस्कार करके प्रार्थना करे कि प्रभो ! मुझे शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्तिके लिये दीक्षा दो । यदि आचार्य उसपर अनुग्रह करें तो 'चूँकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो सकता यह वस्तुस्वभाव है, अतः न कोई परद्रव्य मेरा है और न मैं किसी परद्रव्यका हूं' ऐसा निश्चय करके जिनलिंग धारण कर ले | १५८. प्र० - जिनलिंगका क्या स्वरूप है ? उ०- लिंग कहते हैं चिह्नको जिनसे मुनिपदकी पहचान होती है । उसके दो भेद हैं - बाह्यलिंग और अभ्यन्तरलिंग । बाह्यलिंगको द्रव्यलिंग कहते हैं और अभ्यन्तरलिंगको भावलिंग कहते हैं। तुरंत के जन्मे हुए बच्चे की तरह निर्विकार नग्न रूप, शिर और दाढ़ीके बालोंको लोंच, हिंसा आदिसे रहित व्यवहार यह सब द्रव्य लिंग है । अन्तरंग में मोह, राग और द्वेषका अभाव भावलिंग है । ये दोनों लिंग ही मिलकर जिनलिंग कहे जाते हैं । १५९. प्र० - द्रव्यलिंग और भावलिंग मेंसे किसकी मुख्यता है ? - दोनों लिंगोंमेंसे भावलिंग ही मुख्य है, द्रव्यलिंग मुख्य नहीं है । क्योंकि भावोंकी विशुद्धि के लिये ही बाह्य परिग्रहका त्याग किया जाता है । अतः नग्न होकर भी जिसके मन में परिग्रहको चाह है उसका नग्न होना व्यर्थ है । क्योंकि जो आत्मस्वरूपको भावनासे रहित है वह नंगा होकर और दोनों हाथ लटकाकर करोड़ों वर्ष तपस्या करनेपर भी सिद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता । १५६. भाव प्रा०, गा० २-५ । उ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका १६०. प्र०-तब द्रलिंगकी क्या आवश्यकता है ? : उ०-द्रव्यलिंग भावलिंगका सूचक है। जिसके मनमें तिलतुषमात्र भी परिग्रहकी भावना नहीं है ऐसा आत्मदर्शी साधु लंगोटीकी भी परवाह नहीं कर सकता। १६१. प्र०-श्रमण अथवा जनसाधुके मूलगुण कितने हैं ? . ___उ०--जैन साधुके २८ मूल गुण होते हैं-पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियोंका निरोध, छै आवश्यक, केशलोंच, नग्नता, स्नान न करना, भूमि पर शयन, दातोन नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और एक बार भोजन करना। १६२. प्र०-पांच महावत कौनसे हैं ? उ०-अहिंसा महावत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महात्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और परिग्रहत्याग महाव्रत ये पांच महाव्रत हैं। १६३. प्र०-पांच महाव्रतोंका क्या स्वरूप है ? ___ उ०-छै कायके जीवोंकी रक्षा करना और रागद्वेष मोहको मनसे हटाना अहिसा महाव्रत है। कभी थोड़ा-सा भी झूठ न बोलना सत्य महावत है। बिना दिया जल, मिट्टी और तृणतक नहीं लेना अचौर्य महावत है । शोलके अठारह हजार भेदोंका पालन करते हुए स्त्रीमात्रका त्याग करना और सदा अपने आत्मामें हो लीन रहना ब्रह्मचर्य महाव्रत है। चौदह प्रकारके अन्तरंग और बारह प्रकारके बाह्यपरिग्रहसे सर्वथा रहित होना परिग्रह त्याग महाव्रत है। १६४. प्र०-समिति किसे कहते हैं ? उ.-'प्राणियोंको पोड़ा न पहुँचे' इस भावनासे देख-भाल कर प्रवृत्ति करनेको समिति कहते हैं। १६५. प्र०-पांच समितियां कौन-सी हैं ? उ-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति, उत्सर्गसमिति ये पाँच समितियाँ हैं ? १६६. प्र-ईर्यासमिति किसे कहते हैं ? ___उ०—मनुष्य, गाड़ो, घोड़ा वगैरहके चलनेसे मथे हुए और सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित मार्ग पर दयाभावसे प्राणियोंको रक्षा करनेके लिये आगे चार हाथ जमोन देखकर धोरे-धोरे चलना ईर्यासमिति है। १६७. प्र०--भाषासमिति किसे कहते हैं ? उ०-दस प्रकारको दुर्भाषाओंको छोड़कर हितमित और संशयमें न डालनेवाले वचन बोलना भाषासमिति है। १६८.प्र०-दस प्रकारको दुर्भाषाएँ कौन-सी हैं ? । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ___ उ०-१. कर्कशभाषा, जैसे-तू मूर्ख है, तू बैल है, २. मर्मको छेदनेवाली भाषा, ३. कट भाषा-तू अधर्मी है, जातिहीन है, ४. निष्ठर भाषा-तेरा सिर काट डालूंगा आदि, ५. परकोपिनो-तू निर्लज्ज है, ६. छेदङ्करा-झूठा दोष लगाना, ७ अतिमानिनी-अपना वड़प्पन बधारना और दूसरोंकी निन्दा करना, ८. द्वेष उत्पन्न करानेवालो, ६. प्राणियोंको हिंसा करानेवाली और १०. अत्यन्त गहित ये दस दुर्भाषाएँ हैं। १६९. प्र०-एषणासमिति किसे कहते हैं ? उ० -वोरचर्याके द्वारा प्राप्त हुए और श्रावकोंके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये निर्दोष आहारको योग्य समयपर उचित मात्रामें विधिपूर्वक ग्रहण करना एषणा समिति है। १७०. प्र.-आदान-निक्षेपण-समिति किसे कहते हैं ? उ०--अच्छी तरहसे देखकर और पोछीसे पोंछकर पुस्तक वगैरहको उठाना और रखना आदान निक्षेपण समिति है। १७१. प्र०-उत्सर्गसमिति किसे कहते हैं ? उ०--जन्तु रहित एकान्त स्थानको देखभालकर मलमूत्रादि त्यागना उत्सर्ग समिति है। १७२ प्र०-आवश्यक किसे कहते हैं ? उ०-रोग आदिसे ग्रस्त होनेपर भी जो कर्म प्रतिदिन किया जाता है मुनिके उस कर्तव्यकर्मको आवश्यक कहते हैं । १७३. प्र०-आवश्यकके कितने भेद हैं ? उ०—आवश्यकके छ भेद हैं-सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग। १७४. प्र०-सामायिक किसे कहते हैं ? उ०-प्रिय और अप्रिय वस्तुमें राग और द्वेषके न करनेको सामायिक कहते हैं अर्थात् साम्यभावका नाम ही सामायिक है। १७५. प्र०-सामायिकके कितने प्रकार हैं ? उ०-सामायिकके छै प्रकार हैं-नाम सामायिक, स्थापना सामायिक, द्रव्य सामायिक, क्षेत्र सामायिक, काल सामायिक और भाव सामायिक । १७६. प्र०-नाम सामायिक किसे कहते हैं ? उ०-अपने अच्छे या बुरे नामोंको सुनकर राग द्वेष नहीं करना नाम सामायिक है। १७७. प्र०-स्थापना सामायिक किसे कहते हैं ? उ०-शास्त्रमें बतलाये गये माप वगैरहके अनुसार स्थापित मनोहर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका २५ प्रतिमामें अथवा उससे विपरीत प्रतिमामें राग द्वेष नहीं करना स्थापना सामायिक है। १७८. प्र०-द्रव्य सामायिक किसे कहते हैं ? उ०-सुवर्ण और मिट्टी आदि द्रव्योंमें समदर्शी होना द्रव्य सामायिक है। १७६. प्र०-क्षेत्र सामायिक किसे कहते हैं ? उ० --मनोहर उद्यान और भयानक जंगलमें समभाव होना क्षेत्र सामायिक है। १८. प्र०-काल सामायिक किसे कहते हैं ? उ०-प्रिय या अप्रिय प्रतीत होनेवाले वसन्त ग्रीष्म आदि ऋतुओंमें, दिन रातमें और कृष्ण शुक्ल पक्षोंमें राग-द्वेषका न होना काल सामायिक है। १८१. प्र०-भाव सामायिक किसे कहते हैं ? । उ०—समस्त जीवोंमें मैत्री भावका होना अथवा अशुभ परिणामका न होना भाव सोमायिक है। १८२. प्र०-स्तव किसे कहते हैं ? उ.--ऋषभ आदि चौबीस तीर्थङ्करोंका भक्तिपूर्वक स्तवन करना स्तव है। १८३. प्र०--स्तवके कितने प्रकार हैं ? उ-स्तवके भी छै प्रकार हैं-नामस्तव, स्थापनास्तव, द्रव्यस्तव, क्षेत्रस्तव, कालस्तव और भावस्तव। इनमेंसे आदिके पाँच व्यवहारसे स्तव हैं और भावस्तव निश्चयसे स्तव है। १८४. प्र०-नामस्तव किसे कहते हैं ? उ०-चौबीस तीर्थङ्करोंका एक हजार आठ नामोंसे स्तवन करना नामस्तव है। १८५. प्र०--स्थापनास्तव किसे कहते हैं ? उ०-रूप, ऊँचाई, आकार वगैरहके द्वारा चौबीस तीर्थङ्करोंको प्रतिमाओंका स्तवन करना स्थापनास्तव है। १८६. प्र०-द्रव्यस्तव किसे कहते हैं ? उ०-शरीर, चिह्न, गुण, ऊँचाई, रंग वगैरहके द्वारा चौबीस तीर्थङ्करोंका स्तवन करना द्रव्यस्तव है। १८७. प्र०-क्षेत्रस्तव किसे कहते हैं ? उ.--पवित्र हुए स्थानोंका वर्णन करना चौबीस तीर्थङ्करोंका क्षेत्र स्तव है। १८८. प्र०-कालस्तव किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०-गर्भावतरण आदि कल्याणकोंसे पवित्र हुए कालका वर्णन करना तीर्थङ्करोंका कालस्तव है। १८९. प्र०-भावस्तव किसे कहते हैं ? उ.-तीर्थङ्करोंके केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि असाधारण गुणोंका वर्णन करना भावस्तव है। १९०. प्र०-वन्दना किसे कहते हैं ? उ०-शुद्धभावोंसे किसी एककी नमस्कार आदि रूप विनय करनेको वन्दना कहते हैं। १९१. प्र०--वन्दनाके कितने भेद हैं ? उ०-वन्दनाके भी छै भेद हैं-नामवन्दना, स्थापनावन्दना, द्रव्यवन्दना, क्षत्रवन्दना, कालवन्दना और भाववन्दना । १९२. प्र०-नामवन्दना वगैरह का क्या स्वरूप है ? उ०—किसी एक पूज्य व्यक्तिका नामोच्चारण नामवन्दना है, प्रतिमाका स्तवन स्थापनावन्दना है, शरीरका स्तवन द्रव्यवन्दना है, कल्याणक स्थानोंका स्तवन क्षेत्रवन्दना है, कल्याणकोंके कालका स्तवनकाल वन्दना है और गुणोंका स्तवन भाववन्दना है। १९३. प्र०-प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उ०-किये हए दोषोंके शोधन करनेको प्रतिक्रमण कहते हैं। १९४. ३०-प्रतिक्रमण के कितने भेद हैं ? उ०-प्रतिक्रमणके सात भेद हैं-दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ । १९५. प्र०-देवसिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उ०-दिनभरमें कृत-कारित अनुमोदनासे लगे हुए दोषोंका मन, वचन, कायसे शोधन करना दैवसिक प्रतिक्रमण हैं। १९६. प्र०-रात्रिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उ०-रातमें कृत कारित अनुमोदनासे लगे हुए दोषोंका मन, वचन, कायसे शोधन करनेको रात्रिक प्रतिक्रमण कहते हैं। १९७.प्र०-ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उ०—छै कायके जोवोंके विषय में लगे हुए दोषोंके दूर करनेको ऐपिथिक प्रतिक्रमण कहते हैं। १९८. प्र०-पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उ०-पन्द्रह दिनमें कृत-कारित अनुमोदनासे लगे हुए दोषोंका मन, वचन, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका कायसे शोधन करनेको पाक्षिक प्रतिक्रमण कहते हैं। चार मासोंमें लगे हुए दोषोंका शोधन करनेको चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कहते हैं और वर्षभरमें लगे हुए दोषोंका शोधन करनेको सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कहते हैं। १९९. प्र०-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? उ० -जीवनपर्यन्तके लिये चारों प्रकारके आहारका त्याग करनेको उत्तमार्थ प्रतिक्रमण कहते हैं। दीक्षाग्रहणसे लेकर सामान्यग्रहणके कालतक किये गये दोषोंके प्रतिक्रमणका इसी प्रतिक्रमणमें अन्तर्भाव होता है। २००. प्र०-प्रतिक्रमणके प्रयोगकी विधि क्या है ? उ०-अपनो निन्दा-गर्दा और आलोचनामें लगा हुआ साधु स्थिरचित्तसे दोषोंकी विशुद्धिके लिये सभी प्रतिक्रमण दण्डकोंको पढ़े या सुने । २०१. प्र०-निन्दा किसे कहते हैं ? उ० --किये हुए दोषोंके प्रति 'हाँ, मैंने बुरा किया' इस प्रकार स्वयं ही अपने चित्तमें विचारना निन्दा है। २०२. प्र०-गर्दा किसे कहते हैं ? उ०-किये गये दोषोंके प्रति गुरुकी साक्षीपूर्वक निन्दा करनेको गर्दा कहते हैं। २०३. प्र०-आलोचना किसे कहते हैं ? उ०-गुरुसे अपने दोषोंका निवेदन करनेको आलोचना कहते हैं। सभी प्रतिक्रमण आलोचनापूर्वक होते हैं इसलिये आलोचनाके भो प्रतिक्रमणकी तरह देवसिक रात्रिक आदि सात भेद हैं। २०४. प्रा-देसिक आदि प्रतिक्रमणोंका विधान क्यों किया जाता है ? उ०-प्रथम तीर्थङ्कर और अन्तिम तीर्थङ्करके तीर्थमें 'दोष लगे या न लगे' प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। क्योंकि इन तीर्थङ्करोंके शिष्य क्रमसे ऋजु जड़ और वक्र जड़ होते हैं। किन्तु मध्यके शेष बाईस तीर्थङ्करोंके तीर्थमें अपराध होनेपर हो प्रतिक्रमण करनेका विधान था क्योंकि उनके शिष्य अधिक दोष नहीं लगाते थे। २०५. प्र०-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उ०-वर्तमान और भविष्यकालके दोषोंको दूर करनेके लिये जो उपवास तथा सावध आदिका त्याग किया जाता है उसे प्रत्याख्यान कहते हैं । २०६. प्र०-प्रत्याख्यानके कितने भेद हैं ? उ०-प्रत्याख्यानके भी छै भेद हैं-नाम प्रत्याख्यान, स्थापना प्रत्याख्यान, द्रव्य प्रत्याख्यान, क्षेत्र प्रत्याख्यान, काल प्रत्याख्यान और भाव प्रत्याख्यान । २०४. मूलाचा० ७-१२६ गा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका २०७. प्र०-नाम प्रत्याख्यान वगैरहका क्या स्वरूप है ? उ०—जो नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव कल्याणकारी नही हैं उनका सेवन मुमुक्षुको नहीं करना चाहिये । २०८. प्र०-प्रत्याख्यान करनेकी क्या विधि है ? उ०—प्रत्याख्यान विनय, अनुभाषा, अनुपालन और परिणामसे शुद्ध होना चाहिये। २०९. प्र०--विनयशुद्ध प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? । उ०—जो प्रत्याख्यान कृतिकर्म, औपचारिक विनय; ज्ञान विनय, दर्शन विनय और चारित्र विनयसे युक्त होता है वह विनय शुद्ध प्रत्याख्यान है। २१०. प्र०-कृतिकर्म किसे कहते हैं ? उ०-सिद्धभक्ति, योगभक्ति और गुरुभक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग करनेको कृतिकर्म कहते हैं। २११. प्र०-अनुभाषाशुद्ध प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? उ०-गुरुने प्रत्याख्यानके पाठका जैसा उच्चारण किया हो, वैसा ही शुद्ध उच्चारण करना अनुभाषाशुद्ध प्रत्याख्यान है। २१२. प्र०-अनुपालनशुद्ध प्रत्याख्यानका क्या स्वरूप है ? उ०-रोग, उपसर्ग, थकान, भिक्ष, वर्षाकाल, राज्यविप्लव और भयानक अटवी वगैरहमें भी प्रत्याख्यानका अनुपालन करना, उसको भंग नहीं होने देना अनुपालनशुद्ध प्रत्याख्यान है। २१३. प्र०-परिणामविशुद्ध प्रत्याख्यानका क्या स्वरूप है ? उ०-प्रत्याख्यानका राग-परिणाम या द्वेष-परिणामसे दूषित न होना परिणामविशुद्ध प्रत्याख्यान है। २१४. प्र०-कायोत्सर्ग किसे कहते हैं ? उ०—दोनों चरणोंके बोचमें चार अंगुलका अन्तर रखते हुए दोनों हाथों को नोचे लटकाकर निश्चल खड़े होना और शरीरसे ममत्व न करना कायोत्सर्ग है। २१५. प्र०-कायोत्सर्ग किसलिये किया जाता है ? उ.-- मुमुक्षु मनुष्य निद्रापर विजय प्राप्त करके राग, द्वेष, भय, मद आदिके द्वारा व्रतोंमें लगे हुए अतिचारोंको विशुद्धिके लिये, कर्मोको निर्जराके लिये और तपको वृद्धि के लिए कायोत्सर्ग करता है। २१६. प्र०-कायोत्सर्गके कालका प्रमाण कितना है? उ.-कायोत्सर्गका उत्कृष्ट काल एक वर्ष और जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका २१७. प्र०-देवसिक आदि प्रतिक्रमण में कायोत्सर्गका क्या प्रमाण है ? उ०-देवसिक प्रतिक्रमणमें एक सौ आठ उच्छ्वास, रात्रि सम्बन्धी प्रतिक्रमण में चौवन उच्छवास, पाक्षिक प्रतिक्रमणमें तीन सौ उच्छवास, चातुर्मासिक प्रतिक्रमणमें चार सौ उच्छ्वास और वार्षिक प्रतिक्रमणमें पांच सौ उच्छ्वास कायोत्सर्गके कालका प्रमाण है। तथा पांच महाव्रतोंमेंसे किसी एक महाव्रतमें अतिचार लगने पर १०८ उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिये । गोचरी करके आनेपर, एक ग्रामसे दूसरे ग्राममें जाने पर, वन्दनाके लिये तीर्थङ्करोके कल्याणक स्थानोंमें जानेपर, मुनियोंके समाधि स्थानोंको वन्दनाके लिये जानेपर तथा मलमूत्र त्यागके लिये जानेपर पच्चीस उच्छवास कायोत्सर्ग करना चाहिये। २१८. प्र०-उच्छ्वाससे क्या अभिप्राय है ? उ.-प्राणवायूके भीतर जाने और बाहर निकालनेका नाम उच्छवास है। कायोत्सर्गके समय णमोकार मन्त्रका ध्यान किया जाता है। एकबार णमोकार मन्त्र के जपने में तोन उच्छवास लगते हैं-'णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं' इन दो पदोंके उच्चारणमें एक उच्छ्वास णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं' इन दो पदोंके उच्चारणमें एक उच्छवास और 'णमो लोए सव्व साहणं' इस एकके उच्चारणमें एक उच्छ्वास । इसतरह नौ बार जप करनेपर सत्ताईस उच्छ्वास होते हैं। २१९. प्र०-कायोत्सर्गका प्रमाण क्या सबके लिये एक-सा ही है ? उ०-मायाचारको छोड़कर अपनी शक्ति और अवस्थाके अनुरूप ही कायोत्सर्ग करना चाहिये। यदि कोई तीस वर्षका युवा साधु सत्तर वर्षके वृद्ध साधुको समानता करता है तो वह अज्ञानी है। २२०. प्र०-कृतिकर्मकी क्या विधि है ? उ०-साधुको समस्त बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहकी चिन्तासे निवृत्त होकर योग्य कालमें, योग स्थानमें, योग्य आसनपर, योग्य मुद्रासे आवर्त और शिरोनतिपूर्वक नियमसे कृतिकर्म करना चाहिये। २२१. ३०-नित्य कृतिकर्म विधिका काल कितना है ? उ.-तीनों सन्ध्या वन्दनाओंका उत्कृष्ट काल छै छै घड़ी है। अर्थात् प्रतिदिन प्रातःको रातको अन्तिम तीन घड़ी और दिनकी आदि तीन घड़ी और शामको दिनकी अन्तिम तीन घड़ी और रातकी आदि तीन घड़ी तथा दोपहरको छै घड़ी कृतिकर्म करना चाहिये। २२२. प्र०--कृतिकर्मके योग्यस्थान और पीठ कौन-सा है ? उ०-जहाँ संक्लेश, परोषह और उपसर्गके कारण न हों ऐसा एकान्त, शान्त और रमणीक स्थान कृतिकर्मके योग्य है और जिसमें खटमल वगैरह न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका हों, कीलें न उठी हों, छिद्र न हों, बैठनेसे चर्र-मर्र न करता हो, जिसका स्पर्श कष्टदायक न हो, ऐसा तण, काष्ठ या पाषाणका पीठ कृतिकर्मके योग्य है। २२३. प्र०-कृतिकर्मके योग्य आसन कौन-सा है ? उ०-कृतिकर्मके योग्य तीन आसन हैं-पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासन । जिसमें दोनों चरण दोनों जंघाओंपर रखे हों वह पद्मासन है। जिसमें एक जंघाके ऊपर दूसरी जंघा रखी हो वह पर्यंकासन है और जिसमें दोनों चरण घुटनोंसे ऊपर दोनों सांथलोंपर रखे हों वह वीरासन है। कमजोर मनुष्य इस वोरासनको नहीं लगा सकते। २२४. प्र०-कृतिकर्मके योग्य मुद्रा कौन-सी है ? उ०-कृतिकर्मके योग्य चार मुद्राएँ हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्रा। २२५. प्र०-जिनमुद्रा किसे कहते हैं ? उ०-दोनों पैरोंके बीच में चार अंगुलका अन्तर रखते हुए दोनों हाथोंको नीचे लटकाकर खड़ा होना जिनमुद्रा है।। २२६. प्र०-योगमुद्रा किसे कहते हैं ? उ०-पद्मासन, पर्यंकासन या वीरासन लगाकर गोदमें बायीं हथेलोके ऊपर दायीं हथेली रखना योगमुद्रा है । २२७. प्र०-वन्दनामुद्रा किसे कहते हैं ? उ०-दोनों हाथोंको मुकुलित करके दोनों कोहनियोंको पेटपर रखकर खड़ा होना वन्दनामुद्रा है। २२८ प्र०-मक्ताशक्तिमदा किसे कहते हैं ? उ० - दोनों हाथोंको जोड़कर और दोनों कोहनियोंको पेटपर रखकर खड़े होना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है। २२९. प्र०-किस कृतिकर्ममें कौन मुद्रा होनी चाहिये ? उ.- वन्दनामें वन्दनामुद्रा, सामायिक एवं स्तवमें मुक्ताशुक्तिमद्रा और यदि अशक्त होनेसे बैठकर कायोत्सर्ग करे तो योगमुद्रा तथा खड़ा होकर करे तो जिनमुद्रा होनी चाहिये। २३०. प्र०-आवर्तका क्या स्वरूप है ? ____ उ.-शुभयोगके परावर्तनका नाम आवर्त है। सामायिक और स्तवके आदि और अन्तमें बारह आवर्त होते हैं अर्थात् सामायिक आवश्यक करते समय दोनों हाथोंको मुकुलित करके तीन बार घुमावे, फिर ‘णमो अरहंन्ताणं' इत्यादि पढ़े। समाप्त होनेपर पुनः दोनों हाथोंको मुकुलित करके तीन बार घुमावे । ऐसा ही स्तवमें करना चाहिए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका २३१. प्र०- शिरोनतिका क्या स्वरूप है ? उ०-सामायिक और स्तवके आदि और अन्तमें तीन आवर्त करनेके पश्चात् भक्तिपूर्वक सिरको नमाना चाहिये। अतः चार शिरोनति करना चाहिये। २३२. प्र०—केशलोंचसे क्या अभिप्राय है ? उ०-जैन श्रमणके पास एक कौड़ी भी नहीं होती जिसे देकर वह नाईसे क्षौरकर्म करा सके। न वह छुरा वगैरह ही रख सकता है । जटा बढ़ानेपर जुएँ वगैरह पड़नेका भय है। अतः वैराग्यको वृद्धिके लिये साधु अपने हाथसे सिर मंछ और दाढ़ीके बालोंको उखाड़कर फेंक देता है। २३३. प्र. केशलोंच कितने समय बाद करना चाहिये ? उ०-उत्कृष्ट केशलोंचका काल दो माह है, मध्यम केशलोंचका काल तीन माह है और जघन्य केशलोंचका काल चार माह है। लघसिद्ध और योगभक्तिपूर्वक केशलोंच प्रारम्भ करना चाहिये और लघुसिद्धभक्तिपूर्वक समाप्त करना चाहिये तथा उस दिन उपवास और प्रतिक्रमण करना चाहिये। २३४. प्र०-जनश्रमण स्नान क्यों नहीं करते? उ.-ब्रह्मचारियोंको और विशेष करके आत्मदर्शी महापुरुषोंको जलशुद्धिसे प्रयोजन नहीं रहता। हां, दोष होनेपर स्नान करना आवश्यक है। २३५. प्र०-जनश्रमणको कैसे सोना चाहिये ? उ०-नग्न भूमिपर अथवा सूखे तृणोंसे ढकी हई भूमिपर या तण काष्ठ अथवा पत्थरकी शाखापर पैरोंको फैलाकर एक करवटसे सोना चाहिये, चित्त या पट लेटकर नहीं सोना चाहिये । २३६. प्र०-साधुके भोजनको क्या विधि है ? उ०-दिनके आदि और अन्तकी तीन-तीन घड़ी छोड़कर दिनके मध्य में, बिना किसो सहारेके खड़े होकर तथा छियालोस दोष बचाकर विधिपूर्वक दिये हुए नौ कोटिसे शुद्ध आहारको एकबार अपने हाथरूपी पात्रमें ग्रहण करना चाहिये। २३७ प्र०-भोजनके छियालीस दोष कौनसे हैं ? उ०-१६ उद्गम दोष हैं, १६ उत्पादन दोष हैं, १० अशन अथवा एषणा दोष हैं और चार अंगार आदि दोष हैं। इन दोषोंको बचाकर ही साधुको भोजन करना चाहिये। २३८. प्र०-उद्गम दोष कौनसे हैं ? उ.--जो दोष दाताकी ओरसे होते हैं वे उदगम दोष कहे जाते हैं। वे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका सोलह हैं-उद्दिष्ट, साधिक, पूति, मिश्र, प्राभृतक, वलि, न्यस्त, प्रादुष्कार, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, निषिद्ध, अभिहत, उद्भिन्न, अछेद्य और मालारोहण । .. २३९. प्र०-उद्दिष्टदोष किसे कहते हैं ? उ०-देवता, दोन-मनुष्य और कुलिंगियों वगैरहके उद्देशसे बनाया गया भोजन उद्दिष्ट दोषसे दूषित है। २४०. प्र०-साधिकदोष किसे कहते हैं ? उ०-साधुको देखकर अपने लिये पकते हुए भोजनमें साधुके उद्देशसे और अन्न मिला देना साधिक दोष है। २४१. प्र०-पूतिदोष किसे कहते हैं ? उ०-प्रासुकद्रव्यमें अप्रासुकद्रव्य मिला देना पूतिदोष है। २४२. प्र०-मिश्रदोष किसे कहते हैं ? उ०-पाखण्डियों और गहस्थोंके साथ-साथ मुनियोंको देनेकी कल्पनासे तैयार किया गया प्रासुक भोजन भी मिश्रदोषसे दूषित है। २४३. प्र०-प्राभृतकदोष किसे कहते हैं ? उ.-जो भोजन जिस समयके लिए नियत है उसे उस समय न देकर पहले या पश्चात् देना प्राभृतकदोष है। २४४. प्र०-वलिदोष किसे कहते हैं ? उ०-देवता या पितरोंके लिए बनाये गये भोजनमेंसे शेष बचा भोजन साधुको देना वलिदोष है । अथवा साधके लिये सावध पूजाका आरम्भ करना वलिदोष है। २४५. प्र०-न्यस्त अथवा स्थापितदोष किसे कहते हैं ? उ.-जिस बरतनमें भोजन पकाया गया हो उसमें से बरतनमें निकाल कर अपने या दूसरेके घरमें रखा हुआ भोजन न्यस्तदोषसे दूषित है। क्योंकि ऐसे भोजनको रखनेवालेके सिवाय यदि कोई दूसरा दे-दे तो झगड़ा उत्पन्न हो सकता है। २४६. प्र०-प्रादुष्कारदोष किसे कहते हैं ? उ.-भिक्षाके लिए साधुके घर आनेपर भोजनके पात्र वगैरहको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाना संक्रम नामका प्रादुष्कारदोष है और साधुके घर आनेपर बरतनोंको मांजकर चमकाना अथवा दीपक वगैरह जलाना प्रकाशन नामका प्रादुष्कारदोष है। २४७. प्र०-क्रीतदोष किसे कहते हैं ? उ०-भिक्षाके लिए साधुके आनेपर अपने अथवा दूसरोंके गौ बैल आदिको देकर खरीदा गया भोजन क्रोतदोषसे दूषित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका २४८. प्र०-प्रामित्य अथवा ऋणदोषका क्या स्वरूप है ? उ०-ऋण करके लिया हुआ अन्न वगैरह प्रामित्य अथवा ऋणदोषसे दूषित है। २४९. प्र०-परिवर्तित अथवा परावर्तदोष किसे कहते हैं ? उ.-'मेरे धानके चावल लेकर मुझे बढ़िया चावल दे दो, मैं साधुओंको भोजन कराऊँगा' इस प्रकार बदले में लिया गया अन्न परिवर्तित दोषसे दूषित है। २५०. प्र०-निषिद्ध दोष किसे कहते हैं ? उ०-मालिकके द्वारा अथवा अपनेको मालिक माननेवालेके द्वारा अथवा अन्य किसीके द्वारा मना करनेपर दिया हुआ दान यदि साधु ग्रहण करता है तो निषिद्ध नामका दोष है। २५१. प्र०-अभिहत दोष किसे कहते हैं ? उ०-जिस घरमें साधु आहार ग्रहण करे उस घरकी पंक्तिमें क्रमवार स्थित तोन या सात घरोंसे आया हुआ भोजन तो साधुके लिये योग्य है। किन्तु पंक्तिबद्ध तीन या सात घरोंके सिवाय अन्य घरोंसे आया हुआ अन्नादि अभिहृत दोषसे दूषित है। २५२. प्र०-उद्धिन्न दोष किसे कहते हैं ? उ०-जो धी गुड़ वगैरह डब्बेमें बन्द हो या सीलबन्द हो, उसे उघाड़कर देना उद्भिन्न दोष है । क्योंकि ऐसी वस्तुमें चींटी वगैरह घुस सकती है। २५३. प्र०-अच्छेद्य दोष किसे कहते हैं ? उ० -साधुओंके भिक्षा-श्रमको देखकर यदि राजा अथवा चोर गृहस्थोंसे कहे कि यदि तुम साधुओंको भिक्षा नहीं दोगे तो तुम्हारा द्रव्य चुरा लेंगे या तुम्हें गांवसे निकाल देंगे। इसप्रकार गृहस्थोंको डरा धमकाकर दिलवाया हुआ अच्छेद्य दोषसे दूषित है। २५४. प्र.-मालारोहण दोष किसे कहते हैं ? उ.- सीढ़ियोंके द्वारा घरके ऊपरको मंजिलपर चढ़कर वहां रखा हुआ भोज्य लाकर साधुको देना मालारोहण दोष है । ये सोलह उद्गम दोष हैं । २५५. प्र०-उत्पादन दोष कौनसे हैं ? उ०-धात्री, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, क्रोध, मान, माया, लोभ, पूर्वस्तवन, पश्चातस्तवन, चिकित्सा, विद्या, मंत्र, चूर्ण और मूलकर्म ये १६ उत्पादन दोष हैं। २५६. प्र०-धात्रीदोष किसे कहते हैं ? उ०-धायके पांच काम होते हैं-बच्चेको नहलाना, कपड़े पहनाना, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ चरणानुयोग- प्रवेशिका खिलाना, दूध पिलाना और सुलाना । इन पांच कर्मोंका उपदेश देने से प्राप्त आहारको यदि साधु ग्रहण करता है तो वह धात्री दोष है । २५७. प्र० -- दूत नामक दोष किसे कहते हैं ? उ०- किसी साधुको जाता हुआ देखकर किसी गृहस्थने कहा - महाराज ! उस गांव में मेरे सम्बन्धी रहते हैं उनसे मेरा सन्देश कह देना । वह साधु उस गांव में पहुँचकर उस गृहस्थके सम्बन्धी से उसका सन्देश कह देता है । वह सम्बन्धी यदि इससे सन्तुष्ट होकर साधुको दान देता है और साधु उस दानको ले लेता है तो यह दूत नामक दोष है । २५८. प्र० - निमित्त दोष किसे कहते हैं ? उ०- किसीके शारीरिक चिह्नों आदिको देखकर और उनका शुभाशुभ फल बतलाकर प्राप्त हुए आहारको यदि साधु ग्रहण करता है तो यह निमित्त दोष है । २५९. प्र० - वनीपक दोष किसे कहते हैं ? उ०- दाताके अनुकूल बोलनेसे प्राप्त हुए आहारको यदि साधु ग्रहण करता है तो यह वनीपक नामका दोष है । २६० प्र० - आजीव दोष किसे कहते हैं ? उ०- अपने कुल, जाति, ऐश्वयं, तप वगैरहका वर्णन करनेसे प्राप्त हुए आहारको ग्रहण करना आजीव दोष है । - क्रोध, मान, माया और लोभ दोषका क्या स्वरूप है ? उ०- क्रोध करके आहार प्राप्त करना क्रोध दोष है । मान करके आहार प्राप्त करना मान दोष है । माया करके आहार प्राप्त करना माया दोष है और लोभ बतलाकर आहार प्राप्त करना लोभ दोष है । २६१. प्र० -0. २६२. प्र० - पूर्वस्तवन दोष किसे कहते हैं ? उ०- दाताकी प्रशंसा करनेसे अथवा उसे दानका स्मरण दिलाकर 'कि पहले तो तुम खूब दान देते थे अब क्यों भूल गये' इत्यादि कहकर आहार प्राप्त करना पूर्वस्तुति दोष है । २६३. प्र० - पश्चात् स्तवन दोष किसे कहते हैं ? उ०- आहार ग्रहण करनेके बाद दाताकी प्रशंसा करना पश्चात् स्तवन नामका दोष है । २६४. प्र० - चिकित्सा दोष किसे कहते हैं ? उ०- किसीके रोगकी चिकित्सा ( इलाज ) करके आहार प्राप्त करना चिकित्सा दोष है । २६५. प्र० - विद्या दोष किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ३५ उ०- किसीको विद्या प्रदान करनेकी आशा दिलाकर आहार प्राप्त करना अथवा विद्या द्वारा प्राप्त आहार ग्रहण करना विद्या दोष है । २६६. प्र०. -मन्त्र दोष किसे कहते हैं ? उ०- सर्प आदिका विष हरनेवाले मन्त्र के जोरसे प्राप्त आहारको ग्रहण करना मन्त्र दोष है । २६७. प्र०- - चूर्ण दोष किसे कहते हैं ? उ० – शरीरके लिये उबटन और आँखोंके लिये अंजन आदि देकर आहार प्राप्त करना चूर्णदोष है | २६८. प्र० - मूलकर्म दोष किसे कहते हैं ? उ०- जो किसीके वशमें न हो उसे उसके वशमें करके और वियुक्त हुए स्त्री पुरुषोंका परस्परमें मेल कराकर आहार प्राप्त करना मूलकर्म दोष है । ये १६ उत्पादन दोष हैं । २६९. प्र० - दस अशन दोष कौनसे हैं ? उ० - शंकित, पिहित, प्रक्षित, निक्षिप्त, छोटित, अपरिणत, साधारण, दायक, लिप्त और मिश्र ये दस अशन दोष हैं । २७०. प्र० - शंकित दोष किसे कहते हैं ? उ०- यह भोज्य वस्तु खाने-पीने के योग्य है अथवा नहीं है इसप्रकार की शंक होते हुए भी उसे खा लेना शंकित दोष है । २७१. प्र० - पिहित दोष किसे कहते हैं ? उ०- जो भोजन-पान सचित्त द्रव्यसे अथवा भारी अचित्त द्रव्यसे ढका हुआ हो और उसके आवरणको हटाकर मुनिको दिया जाये तो पिहित नामका अशन दोष है । २७२. प्र० - प्रक्षित दोष किसे कहते हैं ? उ० -घी तेल आदिसे लिप्त हाथ, बरतन अथवा कछूके द्वारा दिया हुआ भोजन ग्रहण करने से म्रक्षित नामका अशन दोष होता है । २७३. प्र० - निक्षिप्त दोष किसे कहते हैं ? उ०- सचित्त पृथिवी, सचित्त जल, सचित्त अग्नि, हरित काय, उगने की शक्ति से युक्त गेहूँ वगैरह बीज द्रव्य और दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवोंके ऊपर रखा हुआ आहार निक्षिप्त दोष से दूषित है । २७४. प्र० - छोटित दोष किसे कहते हैं ? उ०- भोज कराते समय बहुत-सा अन्न नीचे गिराना अथवा परोसते समय मठा दूध आदिका नीचे टपकना अथवा मुनिका छिद्र सहित हाथोंसे मठा आदिको नीचे गिराते हुए भोजन करना अथवा हथेलियोंको अलग करके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका भोजन करना और जो न रुचे उसे छोड़कर जो रुचे उसे खाना, ये पाँच प्रकार का छोटित दोष है। २७५. प्र०-अपरिणत दोष किसे कहते हैं ? उ०-हाड़के चूर्ण वगैरहके द्वारा जिस जलका रूप, रस और गन्ध बदल न गया हो उसे अपरिणत दोष कहते हैं। ऐसा जल मुनियोंको नहीं लेना चाहिये । २७६. प्र०-साधारण अथवा संव्यवहरण दोष किसे कहते हैं ? .. उ.-दान देनेके लिये जल्दीमें पात्र आदिको घसीटकर बिना बिचारे जो भोजन दिया गया हो, उसका ग्रहण करना साधारण अथवा संव्यवहरण नामका दोष है। २७७. प्र०-दायक दोष किसे कहते हैं ? उ०-दान देनेवालेके आश्रयसे जो दोष होता है उसे दायक दोष कहते हैं। जो बाल सँवारती हो, शराब पिये हो, भूत-प्रेतसे आविष्ट हो, मल-मूत्र करके आई हो, केवल एक वस्त्र पहने हो, जिसके शरीर में खून लगा हो, जो आर्यिका हो, वमन करके आई हो, तेल मलवाकर आई हो, कुछ खा-पी रही हो, बैठी हुई हो, नीचे अथवा ऊँचे स्थानपर बैठो हो, दीवार वगैरहकी ओटमें हो, अति बाला या अति वृद्धा हो, भिणो हो, रजस्वला हो, रोगी हो, अन्धी हो, मुखसे या पंखे वगैरहसे आग फूंकती हो, चूल्हेमें लकड़ी सरकाती हो, आगको ढांक रही हो, आगको बुझाती हो, आगको इधर-उधर कर रही हो, मकान लीपती हो, स्नान वगैरह करती हो, स्तन पान करते हुए बालकको स्तन छुड़ाकर आई हो, जिसके यहाँ मृतकका सूतक लगा हो, जो नपुंसक हो, ऐसे स्त्री अथवा पुरुषके द्वारा दिया हुआ भोजन साधुको नहीं लेना चाहिये। __२७८. प्र०-लिप्त दोष किसे कहते हैं ? उ०-गेरु, हरताल, पिष्टिका, शाक और अप्रासुक जलसे सने हुए हाथ या बरतनसे भोजन देना लिप्त नामका दोष है। २७९. प्र०-मिश्र दोष किसे कहते हैं ? उ०-सचित्त मिट्टी, सचित्त जल, सचित्त पत्र पुष्प फल वगैरह, जौ गेहूँ वगैरह बीज तथा जीवित त्रस जीवोंसे मिला हुआ भोजन अर्थात् जिस भोजनमें सचित्त वस्तुका सम्मिश्रण हो वह मिश्र नामके महान् दोषसे दूषित है। २८०. प्र०-अंगारक दोष किसे कहते हैं ? उ.-'भोजनमें अमुक वस्तु बड़ी स्वादिष्ट है वह और भी खानेको मिले तो बहुत अच्छा हो' इस प्रकारकी अतिलम्पटतासे भोजन करना अंगारक दोष है। २८१. प्र०-धूम दोष किसे कहते हैं ? . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०- भोजन में अमुक वस्तु स्वादिष्ट नहीं है इस प्रकार निन्दाभावसे भोजन करना धूम दोष है । २८२. प्र० - संयोजना दोष किसे कहते हैं ? उ०—परस्परमें विरुद्ध वस्तुओंको मिलाकर भोजन करना, जैसे गर्ममें ठंढा और ठंढेमें गर्म मिलाना, रूखेमें चिकना और चिकनेमें रूखा मिलाना अथवा वैद्यक शास्त्रके विरुद्ध मिश्रण करके भोजन करना संयोजना नामका दोष है । ३७ २८३. प्र० – अतिमात्र दोष किसे कहते हैं ? उ०- उदर के चार भाग करके दो भाग अन्नसे और एक भाग जलसे भरना चाहिये तथा एक भाग खाली रखना चाहिये । इस प्रमाणका उल्लंघन करके भरपेट भोजन करना अतिमात्र दोष है । २८४. प्र० - साधुके भोजनके अन्तराय कौनसे हैं ? उ०- - आहारके लिये जाते हुए या खड़े हुए मुनिके ऊपर यदि कौवा वगैरह बीट कर दे, अपवित्र वस्तु पैर में लग जाये, अपनेको वमन हो जाये, कोई टोक आहार मत करो, अपने या दूसरेके शरीर से बहते हुए रक्त पीप वगैरहको देख ले, दुःखसे अपने या अपने निकटवर्ती जनोंकी आँखोंमें आँसू आ जाये, सिद्ध भक्ति करनेके पश्चात् यदि हाथसे घुटनेसे नीचेका भाग छुआ जाये, तिरछे पड़े हुए घुटने प्रमाण लकड़ी पत्थर वगैरहको यदि लाँघकर जाना पड़े, अपनी नाभिसे नीचे तक सिर झुकाकर यदि निकलना पड़े, यदि त्यागी हुई वस्तु खाने में आ जाये, यदि अपने आगे कोई किसी पञ्चेन्द्रिय जीवका वध करता हो, भोजन करते हुए साधुके हाथमेंसे यदि कौवा गिद्ध वगैरह भोजन ले जाय, या ग्रास नीचे गिर जाये, या हाथमें कोई जीव आकर मर जाये, भोजन करते समय मांस मद्य आदिका दर्शन हो जाये, या साधुपर कोई उपसर्ग हो जाये, या दोनों पैरोंके बीच में से कोई पञ्चेन्द्रिय जीव निकल जाये, या दाताके हाथमेंसे पात्र वगैरह नीचे गिर जाये, या साधुको मल-मूत्रका त्याग हो जाये, भिक्षा के लिये भ्रमण करते हुए यदि साधु चाण्डाल वगैरहके घरमें चला जाये, यदि मूर्छा वगैरह के कारण साधु गिर जाये, यदि साधु जमीनपर बैठ जाये, यदि साधुको कुत्ता वगैरह काट ले, सिद्ध भक्ति करनेके पश्चात् साधु यदि हाथसे भूमिको छू ले, या नाक थूक आदि करे, यदि साधुके पेट से कृमि निकले, यदि साधु अदत्त भोजनको ग्रहण करले, यदि साधु या उसके निकटवर्तीपर कोई भाले वगैरहसे प्रहार करे, साधु जिस ग्राम में ठहरा हो उस गाँव में यदि आग लग जाये और यदि साधु जमीनपर पड़े हुए रत्न वगैरहको हाथसे या पैरसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફૂંક चरणानुयोग-प्रवेशिका उठा ले तो साधुके भोजनमें अन्तराय हो जाता है अर्थात् उक्त बत्तीस कारणोंमें से किसी एक के होनेपर भी साधुको भोजन नहीं करना चाहिये । २८५. प्र० - जैन साधुका सामान्य धर्म क्या है ? उ०- जैन साधुका सामान्य धर्म दस प्रकारका है - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्यं । २८६. प्र० - क्षमा आदिके साथ उत्तम पद लगानेका क्या हेतु है ? उ०- अपनी ख्याति, प्रतिष्ठा आदिके लोभके बिना क्षमा आदि धर्मोका पालन करना ही उत्तमताका सूचक है । २८७. प्र० - क्षमा किसे कहते हैं ? उ०- निर्दोष आहारको खोजमें दूसरोंके घर जाते हुए भिक्षुको देखकर यदि दुष्टजन चिल्लायें, हँसी उड़ायें, अपमान करें या मारे पोटें तो भिक्षुके मनमें कलुषताका न आना क्षमा है । २८८. प्र०- - मार्दव किसे कहते हैं ? उ०—उत्तम जाति, उत्तम कुल, उत्तम रूप, उत्कृष्ट ज्ञान, उत्कृष्ट तप आदिसे युक्त होते हुए भी अपनी जाति वगैरहका मद न करना और दूसरों के द्वारा तिरस्कार किये जानेपर भी अहंकारका भाव उत्पन्न न होना मार्दव है । २८९. प्र० - - आर्जव किसे कहते हैं ? उ०- मन, वचन और कायकी सरलताको आर्जव कहते हैं । २९० प्र० - शौच किसे कहते हैं ? उ०- लोभके आत्यन्तिक त्यागको शौच कहते हैं । २९१. प्र० – सत्य धर्म किसे कहते हैं ? उ०- सज्जन पुरुषोंके बीच में साधु वचन बोलना सत्य धर्म है । २९२. प्र० - भाषा समिति और सत्य धर्म में क्या अन्तर है ? उ०- संयमी मनुष्य साधुजनोंसे या असाधुजनोंसे बातचीत करते समय हित और मित ही बोले यह भाषा समिति है । किन्तु सत्य धर्म में साधुओं और श्रावकोंको धर्मका उपदेश देनेके उद्देश्य से बहुत बोलना भी बुरा नहीं है । २९३. प्र० - संयम किसे कहते हैं ? उ०- ईर्यासमिति वगैरह में वर्तमान मुनि या उसका परिपालन करने के लिए जो एकेन्द्रिय आदि प्राणियों को पीड़ा नहीं पहुँचाता और इन्द्रियोंके विषयों में राग-द्वेष नहीं करता, उसे संयम कहते हैं । २९४. प्र० - संयम के कितने भेद हैं ? उ०- संयम के दो भेद हैं- एक उपेक्षा संयम और एक अपहृत संयम । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ६ चरणानुयोग-प्रवेशिका २९५. प्र०-उपेक्षा संयम किसे कहते हैं ? उ०-मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिका निग्रह करनेवाले और तीन गुप्तियोंके पालक साधुका राग और द्वेषसे निर्लिप्त होना उपेक्षा संयम है। २९६. प्र०-अपहृत संयम किसे कहते हैं ? उ०-अपहृत संयमके तीन भेद हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । किसी प्राणीके आ जानेपर साधुका स्वयं वहाँसे दूर हटकर उस प्राणीकी रक्षा करना उत्कृष्ट अपहृत संयम है । कोमल पीछी वगैरहसे उस प्राणीको वहाँसे हटाना मध्यम अपहृत संयम है और किसी दूसरे उपकरणसे उस प्राणीको वहाँसे दूर करना जघन्य अपहृत संयम है। २९७. प्र०-आठशुद्धियाँ कौन-सी हैं ? उ०-इस अपहृत संयमके लिए आठ शुद्धियां बतलाई गई हैं। वे इस प्रकार हैं-भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि । २९८. प्र०-भावशुद्धि किसे कहते हैं ? उ.-कर्मोके क्षयोपशमसे होनेवाली और मोक्षमार्गमें रुचि होनेसे उज्ज्वल तथा रागादिसे रहित विशुद्ध परिणामोंके होनेको भावशुद्धि कहते हैं। २९९. प्र०-कायशुद्धि किसे कहते हैं ? उ०- शरीरका वस्त्र-आभूषण, स्नान-विलेपन, अंग विकार आदिसे रहित होना तथा ऐसा प्रशान्त होना मानों मूर्तिमान् प्रशम गुण ही है, इसे कायशुद्धि कहते हैं। ३००. प्र०-विनयशुद्धि किसे कहते हैं ? ___ उ०-अर्हन्त आदि पूज्य गुरुओंकी यथायोग्य पूजामें तत्पर होना, ज्ञानादि की विधिपूर्वक भक्ति करना और समस्त कार्यों में गुरुके अनुकूल बरतना विनयशुद्धि है। ३०१. प्र०-ईर्यापथशुद्धि किसे कहते हैं ? ___ उ०-अन्तरंग ज्ञान और सूर्य तथा इन्द्रियके प्रकाशके द्वारा देखी हुई जमोनमें प्राणियोंको पीड़ा न पहुंचाते हुए सामने देखकर गमन करना ईपिथ शुद्धि है। ___ ३०२. प्र०-भिक्षाशुद्धि किसे कहते हैं ? उ०-आचारशास्त्रमें भिक्षाका जो देश और काल कहा है उसको जानने वाले मुनिका भोजनके लाभ और अलाभमें तथा सरस और विरस भोजनमें समान भाव रखकर भिक्षाके लिए जाना और दीनता न दिखाते हुए विधिपूर्वक प्रासुक आहार ग्रहण करना भिक्षाशुद्धि है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ३०३. प्र०-प्रतिष्ठापनशुद्धि किसे कहते हैं ? उ०-देश कालको जानकर मलमूत्र आदिका ऐसे प्रासुक स्थान पर त्यागना जहाँ किसी जीवको कष्ट न पहुँचे तथा मार्गमें आने-जानेवालोंको बुरा न लगे, प्रतिष्ठापन शुद्धि है। - ३०४. प्र०-शयनासनशुद्धि किसे कहते हैं ? उ०-जहाँ स्त्रियोंका आना-जाना हो, चोर, शराबी, शिकारी, शृंगारी और विलासी पुरुष रहते हों, वेश्या नृत्य होता हो ऐसे स्थानोंको दूर होसे छोड़कर अकृत्रिम गुफा, वृक्षोंके कोटर तथा शून्य मकानोंमें अथवा वनोंमें निर्दोष स्थान पर साधुका सोना तथा आसन लगाना शयनासन शुद्धि है। ३०५. प्र०-वाक्यशुद्धि किसे कहते हैं ? उ०—जो वचन छह कायके जीवोंकी विराधनाको प्रेरणा न देनेवाला हो, कठोर न हो, दूसरों को पीड़ादायक न हो, व्रतशील वगैरहके उपदेशको लिये हुए हो, हितमित और मनोहर हो, संयमीके योग्य हो, ऐसे वचनका बोलना वाक्यशुद्धि है। ३०६.प्र०-तपधर्म किसे कहते हैं ? उ०-कर्मोका क्षय करने के लिये जो तपस्या की जाती है उसे तपधर्म कहते हैं। ३०७. प्र०-त्यागधर्म किसे कहते हैं ? । उ०—परिग्रहकी निवृत्तिको त्यागधर्म कहते हैं। ३०८. प्र०-शौचधर्म और त्यागधर्म में क्या अन्तर है ? उ०-पासमें परिग्रहके नहीं होते हुए भी जो परिग्रहकी तृष्णा होती है उसको निवृत्तिका नाम शौचधर्म है और प्राप्त परिग्रह का त्यागना त्यागधर्म है। ३०९. प्र०-आकिंचन्यधर्म किसे कहते हैं ? ' उ०—शरीर वगैरहमें भी 'यह मेरा है' इस प्रकारका अभिप्राय न होना आकिंचन्यधर्म है। ३१०. प्र०-ब्रह्मचर्य धर्म किसे कहते हैं ? उ०-स्त्री की भावनासे रहित होकर ब्रह्म अर्थात् स्वात्मामें लीन रहना ब्रह्मचर्य है। ३११ प्र०--अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं? उ०—संसार शरीर वगैरहके स्वरूपका बारम्बार विचार करना अनुप्रेक्षा है। ३१२. प्र०-अनुप्रेक्षाके कितने भेद हैं ? उ०--अनुप्रेक्षाके बारह भेद हैं- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ३१३. प्र०-अनित्य अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०--शरीर और इन्द्रियोंके विषय जलके बुलबुलेके समान अनित्य हैं। इस संसारमें कुछ ध्रुव नहीं है ऐसा विचारना अनित्यानुप्रेक्षा है। ३१४. प्र०-अशरण अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०--भूखे शेरके पंजेमें आये हुए हिरनकी तरह जन्म, जरा, मृत्यु आदिके दुःखोंसे पीड़ित प्राणीका कोई भी शरण नहीं है । यदि कोई शरण है तो वह धर्म हो शरण है, ऐसा विचारना अशरण अनुप्रेक्षा है। ३१५. प्र०-संसार अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०--संसारके स्वरूपका विचार करना संसार अनुप्रेक्षा है। ३१६. प्र०-एकत्व अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०-- जन्म, जरा और मरणके महादुःख भोगनेके लिये मैं अकेला हो हूँ, अकेला ही जन्म लेता हूँ, अकेला ही मरता हूं इत्यादि चिन्तन करना एकत्व अनुप्रेक्षा है। ३१७. प्र०-अन्यत्व अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०--मैं शरीरसे भी भिन्न हूँ, फिर बाह्य परिग्रहका तो कहना हो क्या है, इस प्रकारका विचार करना अन्यत्व अनुप्रेक्षा है।। ३१८. प्र०-अशुचि अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०--शरीरकी अपवित्रताका चिन्तन करना कि यह शरीर मलमूत्र वगैरह का घर है आदि अशचि अनुप्रेक्षा है। ३१९. प्र०-आस्रव अनुप्रेक्षा किसे कहते है ? उ.--कर्मों के आने के द्वारको आस्रव कहते हैं। आस्रवका विचार करना आस्रव अनुप्रेक्षा है। ३२०. प्र०-संवर अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०-कर्मोंके आनेके द्वारको रोक देनेका नाम संवर है । संवरके गुणोंका विचार करना संवर अनुप्रेक्षा है । ३२१. प्र०-निर्जरा अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०-आत्मासे कर्मोंके झड़नेका नाम निर्जरा है। निर्जराके स्वरूपका विचार करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है। ३२२. प्र०-लोकानुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०-लोकके आकार वगैरहका चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है । ३२३. प्र०-बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०-संसारमें सब चोज मिलना सुलभ है किन्तु सच्चे ज्ञानको प्राप्ति दुर्लभ है, ऐसा विचारना बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चरणानुयोग-प्रवेशिका ३२४. प्र० - धर्म अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ? उ०—-धर्मके स्वरूपका चिन्तन करना धर्म अनुप्रेक्षा है । ३२५. प्र० - अनुप्रेक्षा से क्या लाभ है ? उ०— ० - अनुप्रेक्षाओंकी भावनासे साधु उत्तम क्षमा आदि धर्मोका पालन करने में समर्थ होता है और परीषहों को जीतने में उत्साहित होता है । ३२६. प्र० - परीषह किसे कहते हैं ? उ० - शारीरिक और मानसिक पीड़ामें कारण भूख-प्यास वगैरहकी वेदनाको परीषह कहते हैं । ३२७. प्र० – परीषह कितनी हैं ? उ० - परीषह बाईस हैं- क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और दर्शन । ३२८. प्र० - क्षुधा परीषहजय किसे कहते हैं ? उ० – अत्यन्त भूखकी पीड़ा होनेपर भी धैर्य के साथ उसे सहना क्षुधा परीषहजय है । ३२९. प्र० - पिपासा परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०- प्यासकी कठोर वेदना होते हुए भी उसके वश में नहीं होना पिपासा परीषहजय है । ३३०. प्र० - शीत परोषहजय किसे कहते हैं ? ४२ उ०- - शीतसे पीड़ित होनेपर भी उसका प्रतीकार करनेकी भावना भी मनमें न होना शीत परीषहजय है । ३३१. प्र० - उष्ण परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०- ग्रीष्म ऋतु आदिके कारण गर्मीका घोर कष्ट होते हुए भी उससे विचलित न होना उष्ण परीषहजय है । ३३२. प्र० - दंशमशक परोषहजय किसे कहते हैं ? उ०- डॉस, मच्छर, मक्खी, पिस्सू वगैरहके काटनेपर भी परिणामोंमें विषादका न होना दंशमशक परीषहजय है । ३३३. प्र० - नाग्न्य परीषहजय किसे कहते हैं ? उ० - माता के गर्भ से उत्पन्न हुए बालकको तरह निर्विकार नग्नरूप धारण करना नाग्न्य परोषहजय है । ३३४. प्र०- - अरति परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०- संयमसे अरति उत्पन्न होने के अनेक कारण होते हुए भी संयममें अत्यन्त प्रेम होना अरति परीषहजय है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ३३५. प्र०-स्त्री परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०-स्त्रियोंके द्वारा बाधा पहुँचानेपर भी उनके रूपको देखनेको अथवा उनका आलिंगन करनेको भावनाका भी न होना स्त्रो परोषहजय है। ३३६. प्र०-चर्या परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०-पवनकी तरह एकाकी विहार करते हुए भयानक वनमें भी सिंहको तरह निर्भय रहना और नंगे पैरोंमें कंकर पत्थर चुभनेपर भी खेद खिन्न न होना चर्या परोषहजय है। ३३७. प्र०-निषद्या परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०-जिस आसनसे बैठे हों उससे विचलित न होना निषद्या परोषह जय है। ३३८ प्र०-शय्या परोषहजय किसे कहते हैं ? उ०-रात्रिमें ऊँची नीची कठोर भूमिपर पूरा बदन सीधा रखकर एक करवटसे सोना शय्यापरीषह जय है। ३३९. प्र० -आक्रोश परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०-अत्यन्त कठोर वचनोंको सुनकर भी शान्त रहना आक्रोश परोषह जय है। ३४०. प्र०-वध परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०-जैसे चन्दनको जलानेपर भी वह सुगन्ध ही देता है वैसे ही अपनेको मारने पोटनेवालोंपर भी क्रोध न करके उनका भला हो विचारना वध परीषह जय है। ३४१. प्र०-याचना परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०—आहार वगैरहके न मिलनेसे भले ही प्राण चले जाँय किन्तु किसोसे याचना करना तो दूर, मुँहपर दोनता भी न लाना याचना परीषहजय है। ३४२. प्र०-अलाभ परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०-आहारादिका लाभ न होनेपर भी वैसा ही सन्तुष्ट रहना जैसा लाभ होनेपर यह अलाभपरीषह जय है। ३४३. प्र०-रोग परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०-शरीरमें अनेक व्याधियाँ होते हुए भी उनकी चिकित्साका भी विचार न करना रोग परीषहजय है। ३४४. प्र०-तृणस्पर्श परीषहजय किसे कहते हैं ? । उ०-तृण कांटे वगैरहकी परीषहको सहना तृणस्पर्श परीषहजय है। ३४५.प्र०-मल परीषहजय किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ चरणानुयोग-प्रवेशिका - अपने शरीर में लगे हुए मलकी ओर लक्ष्य न देकर आत्मभावना में ही लीन रहना मल परीषहजय है । 111 - ३४६. प्र० – सत्कारपुरस्कार परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०--सम्मान और अपमान में समभाव रखना और आदर सत्कार न होने पर भी खेद खिन्न न होना सत्कार - पुरस्कार परीषहजय है । ३४७. प्र० - प्रज्ञा परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०—अपने पांडित्यका गर्व न होना प्रज्ञा परीषहजय है । ३४८. प्र० - अज्ञान परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०- यदि कोई तिरस्कार करे, तू अज्ञानी है, कुछ जानता नहीं है, तो उससे खिन्न न होकर ज्ञानकी प्राप्तिका ही बराबर प्रयत्न करते रहना अज्ञान परीषहजय है । ३४९. प्र०- - अदर्शन परीषहजय किसे कहते हैं ? उ० – श्रद्धानसे डिगने के निमित्त उपस्थित होनेपर भी मुनि मार्ग में बराबर आस्था बनाये रखना अदर्शन परोषहजय है । ३५०. प्र० - किस कर्मके उदयसे कौन-कौन परीषह होती है ? उ०- ज्ञानावरण कर्मके उदय में प्रज्ञा और अज्ञान परोह होती है । दर्शन मोहनीयके उदयमें अदर्शन परीषह होती है । अन्तराय कर्मके उदयमें अलाभ परीषह होती है | चारित्र मोहनीयके उदय में नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार, अरति, स्त्री ये आठ परीषह होती हैं और वेदनीय कर्मके उदय में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परीषह होती हैं । ३५१. प्र० - एक जीव में एक समय में एक साथ कितनी परोषह हो सकती हैं ? उ०- एक जीवमें एक समय में एक साथ एकसे लेकर उन्नीस परीषह तक हो सकती हैं ? क्योंकि शीत और उष्ण परोषहमेंसे एक ही हो सकती है और शय्या, चर्या, निषद्या मेंसे एक हो हो सकती है । ३५२. प्र० - प्रज्ञा और अज्ञान परीषह एक साथ कैसे हो सकती है ? उ०- श्रुतज्ञान की अपेक्षा प्रज्ञा परोषह और अवधिज्ञानके अभाव में अज्ञान परीषह हो सकती है | ३५३. प्र० - किस गुणस्थानमें कितनी परीषह होती हैं ? उ०- पहले के सात गुणस्थानों में सब परीषह होती हैं । आठवें गुणस्थान में अदर्शन परोष के बिना शेष इक्कीस परीषह होती हैं । नौवें गुणस्थानके सवेद भाग में अरति परोष के बिना बीस परीषह होती हैं और अवेद भागमें स्त्री Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ चरणानुयोग-प्रवेशिका परोषहके नष्ट हो जानेसे उन्नीस परीषह होती हैं। दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें उन्नीस परीषहोंमें नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कारको छोड़कर शेष चौदह परीषह होती हैं। घातिकर्मोंका विनाश होनेसे अनन्तचतुष्टयके धारी सयोगकेवली भगवान्के यद्यपि वेदनीय कर्म विद्यमान हैं फिर भी घातिकर्मों के बलकी सहायताके बिना वेदनीयकर्म फल देनेमें समर्थ नहीं होता। अतः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें परोषह नहीं होती। ३५४.३०-चारित्र किसे कहते हैं ? उ०-जिन कामोंके करनेसे कर्मोंका बन्ध होता है उन कामोंको न करनेको चारित्र कहते हैं। ३५५. प्र०-चारित्रके कितने भेद हैं ? उ०-चारित्रके पाँच भेद हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात । ३५६. प्र०-सामायिक चारित्र किसे कहते हैं ? उ० --समस्त सावद्ययोगका अभेदरूपसे त्याग करना सामायिक चारित्र है। ३५७. प्र.-छेदोपस्थापना चारित्र किसे कहते हैं ? उ०-सामायिक चारित्रसे डिगनेपर प्रायश्चित्तके द्वारा सावध कार्योंमें लगे हुए दोषोंको छेदकर पुनः संयम धारण करनेको छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं अथवा समस्त सावद्य योगका भेदरूपसे त्याग करना छेदोपस्थापना चारित्र है। ३५८. प्र०-परिहार विशुद्धि चारित्र किसे कहते हैं ? उ०—जिस चारित्रमें प्राणी-हिंसाको पूर्ण निवृत्ति होनेसे विशिष्ट विशुद्धि पाई जाती है उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। इस चारित्रवालेके शरीरसे जीवोंका घात नहीं होता इसीसे इसका नाम परिहार विशुद्धि चारित्र है। ३५९. प्र०-परिहारविशुद्धि चारित्र किसके होता है ? उ०-जिसने अपने जन्मसे तीस वर्षको अवस्था तक सुखपूर्वक जीवन बिताया हो और फिर जिनदीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थङ्करके निकट प्रत्याख्यान नामके नौवें पूर्वको पढ़ा हो और तीनों सन्ध्याओंको छोड़कर दो कोस विहार करनेका जिसका नियम हो, उस दृर्द्धरचर्याके पालक महामूनिको ही परिहारविशुद्धि चारित्र होता है। . ३६०. प्र०-सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०-अत्यन्त सूक्ष्म कषायके होनेसे सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थानमें जो चारित्र होता है उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं ? । ३६१. प्र०-यथाख्यात चारित्र किसे कहते हैं ? उ०—समस्त मोहनीय कर्मके उपशमसे अथवा क्षयसे जैसा आत्माका निर्विकार स्वभाव है वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है। इसीसे इसे तथाख्यात भी कहते हैं क्योंकि जैसा आत्माका स्वभाव है वैसा ही इस चारित्रका स्वरूप है। इसे अथाख्यात भी कहते हैं। क्योंकि अथ शब्दका अर्थ अनन्तर है और यह समस्त मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशमके अनन्तर ही होता है। ३६२. प्र०–तपके कितने भेद हैं ? उ०—तपके दो भेद हैं - बाह्यतप और अभ्यन्तरतप । ३६३. प्र०-बाह्यतपके कितने भेद हैं ? उ०-बाह्यतपके छै भेद हैं-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश । ३६४. प्र०-अनशनतप किसे कहते हैं ? उ०-ख्याति, पूजा, मन्त्रसिद्धि वगैरह लौकिक फलकी अपेक्षा न करके संयमको सिद्धि, रागका उच्छेद, कर्मोका विनाश, ध्यान तथा स्वाध्यायकी सिद्धिके लिये भोजनका त्याग अनशनतप है। ३६५. प्र०-अनशनतपके कितने भेद हैं ? उ०-अनशनतपके दो भेद हैं-एक अवधूतकाल और एक अनवधृत काल। ३६६. प्र०-अवधूतकाल अनशनतप किसे कहते हैं ? उ०-समयकी मर्यादा करके जो अनशन किया जाता है वह अवधृतकाल अनशनतप है । जैसे-दिनमें एक बार भोजन करना और एक बार भोजन न करना या चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश आदि उपवास करना। ३६७. प्र.-चतुर्थ षष्ठ आदि उपवाससे क्या मतलब है ? उ०-एक दिनमें भोजनकी दो बेला होतो हैं। अतः उपवास धारण करने के दिन एक बेला और उपवासकी पारणाके दिन एक बेला तथा उपवासके दिन दो बेला इस तरह भोजनकी चार बेलाओंमें भोजनका त्याग करना चतुर्थ अर्थात् एक उपवास है। इसी तरह भोजनको छै बेलाओंमें भोजनका त्याग करना षष्ठ अर्थात् दो उपवास है । भोजनको आठ बेलाओंमें भोजनका त्याग करना अष्टम अर्थात् तीन उपवास हैं। भोजनकी दस बेलाओंमें भोजनका त्याग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका करना दशम अर्थात् चार उपवास हैं और भोजनकी बारह बेलाओंमें भोजनका त्याग करना द्वादशम अर्थात् पाँच उपवास हैं। ३६८. प्र०-अनवधतकाल अनशनतप किसे कहते हैं ? उ०-जीवन पर्यन्तके लिये जो भोजनका त्याग किया जाता है उसे अनवधृत काल अनशनतप कहते हैं। ३६९. प्र०–अवमौदर्यतप किसे कहते हैं ? उ०-एक हजार चावल प्रमाण एक ग्रास होता है। पुरुषका स्वाभाविक आहार बत्तीस ग्रास और स्त्रीका स्वाभाविक आहार अट्ठाईस ग्रास प्रमाण होता है। इससे कम आहार करना अवमौदर्यतप है। ३७०. प्र० --वृत्तिपरिसंख्यानतप किसे कहते हैं ? उ०—भिक्षाके समय निकलते समय घरों वगैरहका नियम करना कि मैं आहारके लिए इतने घर जाऊँगा अथवा अमुक रीतिसे आहार मिलेगा तो लूंगा। इस प्रकारके नियमको वृत्तिपरिसंख्यानतप कहते हैं । ३७१. प्र०-रसपरित्यागतप किसे कहते हैं ? उ०-इन्द्रियोंके दमनके लिए, निद्रापर विजय पानेके लिए तथा सुखपूर्वक स्वाध्याय करनेके लिए घो, दूध, दही, तेल, मीठा और नमकका यथायोग्य त्याग करना रसपरित्याग तप है। ३७२. प्र०--विविक्तशय्यासनतप किसे कहते हैं ? उ०-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान आदिको सिद्धिके लिए एकान्त स्थानमें शयन करना तथा आशन लगाना विविक्तशय्यासनतप है। ३७३. प्र०-कायक्लेशतप किसे कहते हैं ? उ०-कष्ट सहनेके अभ्यासके लिए, आरामतलबीकी भावनाको दूर करने के लिए और धर्मको प्रभावनाके लिए ग्रीष्मऋतुमें पर्वतके शिखरपर, वर्षाऋतु में वृक्षके नीचे और शीत ऋतुमें खुले हुए मैदानमें ध्यान लगाना तथा वीरासन, शवासन आदि अनेक प्रकारके आसन लगाना कायक्लेशतप है। ३७४ प्र०-कायक्लेशतपमें और परीषहमें क्या अन्तर है ? उ०-कायक्लेश स्वयं किया जाता है और परीषह अचानक आ जाती है । ३७५. प्र०-अनशन आदि बाह्यतप क्यों हैं ? उ०-इन तपोंका पता लग जाता है कि मुनिराज तप कर रहे हैं इसलिए इन्हें बाह्यतप कहते हैं। ३७६. प्र०-अभ्यन्तरतप कौनसे हैं ? उ०-अभ्यन्तरतप छै हैं-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ चरणानुयोग- प्रवेशिका ३७७. प्र० -- प्रायश्चित्ततप किसे कहते हैं ? उ०- अवश्य करने योग्य आवश्यक आदिके न करनेपर और त्यागने योग्य क्रियाके न त्यागने पर जो दोष लगता है उसको शुद्धि करनेका नाम प्रायश्चित्त है । 'प्रायः' अर्थात् अपराधको 'चित्त' अर्थात् शुद्धिका नाम प्रायश्चित्ततप है । ३७८. प्र०-० - प्रायश्चित्तके कितने भेद हैं ? उ०- प्रायश्चित्तके दस भेद हैं-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान । ३७९ प्र० -- आलोचना प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? - आचार्य के लिए विनयपूर्वक दस दोषोंको बचाकर अपने प्रमादका निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित्त है । उ० ३८०. प्र० -- आलोचना कब और कैसे करना चाहिए ? उ०- प्रातःकाल अथवा मध्याह्नकालमें योग्य स्थानपर साधुको अपना पूरा दोष बालककी तरह सरलभावसे तीनबार आचार्य के सम्मुख कहना चाहिये । ३८१. प्र० - आलोचनाके दस दोष कौनसे हैं ? उ०- आकम्पित, अनुमापित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुल, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवित ये आलोचनाके दस दोष हैं ? ३८२. प्र० - आकम्पित दोष किसे कहते हैं ? उ०- महाप्रायश्चित्तके भयसे आचार्यको उपकरण आदि देकर अपने दोषका निवेदन करना आकम्पित दोष है । ३८३. प्र० – अनुमापित दोष किसे कहते हैं ? - उ०- गुरुके आगे अपनी असामर्थ्यं बतलाकर और फिर अनुमानसे यह जानकर कि गुरु मुझे थोड़ा सा ही प्रायश्चित्त देंगे, अपने दोषका निवेदन करना अनुमापित दोष है । ३८४. प्र० - दृष्ट दोष किसे कहते हैं ? उ०- जो दोष किसीने करते नहीं देखा उसे छिपा जाना और जो दोष करते देख लिया हो उसे गुरुसे निवेदन करना दृष्ट दोष है । ३८५. प्र० - बादर दोष किसे कहते हैं ? उ०- केवल स्थूल दोषका निवेदन करना बादर दोष है । ३८६. प्र० - सूक्ष्म दोष किसे कहते हैं ? उ०- महान् प्रायश्चित्तके भयसे महान् दोषको छिपा लेना और छोटे दोषका निवेदन करना सूक्ष्म दोष है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ चरणानुयोग-प्रवेशिका ३८७. प्र०-छन्न दोष किसे कहते हैं ? उ०—दोष निवेदन करनेसे पहले गुरुसे पूछना कि महाराज ! यदि कोई इस प्रकारका दोष करे तो उसका क्या प्रायश्चित्त होता है, वह छन्न दोष है। ३८८. प्र०-शब्दाकुलित दोष किसे कहते हैं ? उ०-प्रतिक्रमणके दिन जब बहुतसे साधु एकत्र हुए हों और खूब हल्ला हो रहा हो, उस समय अपने दोषका निवेदन करना कि कोई सुन न सके, शब्दाकुलित दोष है। ३८९. प्र०-बहुजन दोष किसे कहते हैं ? उ०-गुरुने जो प्रायश्चित्त दिया है वह उचित है या नहीं, ऐसी आशंकासे अन्य साधओंसे पूछना बहजन दोष है। ३९०. प्र०-अव्यक्त दोष किसे कहते हैं ? उ०-गुरुसे दोष न कहकर अपने सहयोगी अन्य साधुओंसे अपना दोष कहना अव्यक्त दोष है। ३९१. प्र०-तत्सेवित दोष किसे कहते हैं ? 3०-गुरुसे प्रमादका निवेदन न करके जिस साधुने अपने समान अपराध किया हो उससे प्रायश्चित्त ग्रहण करना तत्सेवित दोष है। ३९२. प्र०-प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? उ०—प्रमादसे जो दोष मुझसे हुआ वह मिथ्या हो, इस तरह अपने किये हुए दोषके विरुद्ध अपनी मानसिक प्रतिक्रियाको प्रकट करना प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। ३९३. प्र०-तदुभय प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? उ०- आलोचना और प्रतिक्रमण दोनोंके करनेको तदुभय प्रायश्चित्त कहते हैं। ३९४. प्र०-विवेक प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? । उ०-सदोष आहार तथा उपकरण आदिका संसर्ग होनेपर उसका त्याग कर देना विवेक प्रायश्चित्त है। ३९५. प्र०-व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? उ०-कुछ समयके लिये ध्यानपूर्वक कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त hci ३९६. प्र०-तप प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? ___उ०-अपराधी साधु दोषोंकी विशुद्धिके लिये जो अनशन आदि करता है उसे तप प्रायश्चित्त कहते हैं। ..३९७. प्र०-छेद प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०–अपराधी साधुके दीक्षाके समयमें कमी कर देना, जैसे-वीस वर्षसे दीक्षित साधुको दस वर्षसे दीक्षित मानना छेद प्रायश्चित्त है । ३९८.३०-मूल प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? उ०-पुरानी दीक्षाको छेदकर फिरसे दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है। तत्त्वार्थ सूत्र में इसका नाम उपस्थापना है। ३९९. प्र०-परिहार प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? उ०-कुछ समयके लिये अपराधो साधुको संघसे बाहर कर देना परिहार प्रायश्चित्त है। ४००. प्र०-श्रद्धान प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? उ०-जो साधु मिथ्यादृष्टि हो गया हो, उसे पुनः दोक्षा देकर देव, शास्त्र और गुरुका श्रद्धानी बना लेना श्रद्धान प्रायश्चित्त है ? ४०१. प्र०-विनयतप किसे कहते हैं ? उ०-रत्नत्रय और रत्नत्रयके धारी पुरुषों और स्त्रियोंका यथायोग्य आदर करना विनयतप है। ___४०२. प्र०-विनयतपके कितने भेद हैं ? उ०-तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार विनयतपके चार भेद हैं-दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और औपचारिकविनय तथा आचारशास्त्रके मतसे विनयके पाँच भेद हैं--पूर्वोक्त चार और एक तपविनय । ४०३ प्र०-दर्शन विनय किसे कहते हैं ? उ०-तत्त्वार्थका शंका आदि दोषोंसे रहित और उपगूहन आदि गुणोंसे सहित निर्मल श्रद्धान करना तथा अर्हन्त आदिके गुणोंमें अनुराग होना दर्शन विनय है। ४०४. प्र०-दर्शनविनय और दर्शनाचार में क्या भेद हैं ? । उ०-सम्यग्दर्शन आदिको निर्मल करने का प्रयत्न करना तो दर्शन विनय है और निर्मल हो जानेपर तत्त्वार्थश्रद्धान में प्रयत्न करना दर्शनाचार है। ४०५. प्र०-ज्ञानविनय किसे कहते हैं ? उ०-आठ प्रकारोंके द्वारा कल्याणकारी शास्त्रोंका अध्ययन करना ज्ञानविनय है। ४०६. प्र०-ज्ञानविनयके आठ प्रकार कौन से हैं ? उ०-कालशुद्धि, विनयशुद्धि, उपधानशुद्धि, बहुमानशुद्धि, अनिह्नवशुद्धि, व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि और तदुभयशुद्धि ये ज्ञान विनयके आठ प्रकार हैं। स्वाध्यायके समयपर ही शास्त्राध्ययन करना कालशुद्धि है । हाथ-पैर धोकर पर्यङ्कासन लगाकर अध्ययन करना अथवा श्रुत और श्रुतधरोंकी भक्ति करना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका विनयशुद्धि है । एकाग्रचित्तसे अध्ययन करना अथवा जबतक यह ग्रन्थ अथवा इसका अमुक भाग समाप्त होगा तबतक मैं उपवास करूँगा इत्यादि संकल्पको उपधानशुद्धि कहते हैं। जिस शास्त्रका अध्ययन करे अथवा जिसके मुखसे शास्त्र सुने दोनोंका आदर करना बहमानशद्धि है। जिस शास्त्रको पढ़ता हो और जिससे पढ़ता हो उसका नाम न छिपाना अनिह्नवशुद्धि है। शास्त्र के वाक्योंका शुद्ध उच्चारण करना व्यंजनशुद्धि है। उनका ठोक-ठोक अर्थ करना अर्थशुद्धि है और व्यंजन तथा अर्थ दोनोंको शुद्धिको तदुभयशुद्धि कहते हैं । ४०७. प्र०-ज्ञानाचार और ज्ञानविनयमें क्या अन्तर है ? उ०-कालशुद्धि आदि में प्रलय करना ज्ञानविनय है और कालशुद्धि आदिके होनेपर श्रुतका अभ्यास करना ज्ञानाचार है। ४०८. प्र०-चारित्रविनय किसे कहते हैं ? । ___ उ०-इन्द्रियोंको वशमें करना, कषायोंका निग्रह करना और गुप्ति तथा समितियोंका पालन करना चारित्रविनय है। ४०९. प्र. -चारित्राचार और चारित्रविनयमें क्या भेद है ? उ०–समिति आदिमें यत्न करना चारित्र विनय है और समिति आदिके होनेपर व्रतोंमें यत्न करना चारित्राचार है। ४१०. प्र०-औपचारिकविनय किसे कहते हैं ? उ०-औपचारिक विनयके तीन प्रकार हैं-कायिक, वाचिक और मानसिक । इनमेंसे भी प्रत्येकके दो प्रकार हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । पूज्य पुरुषोंको आता हुआ देखकर आदरपूर्वक अपने आसनसे उठना, उनके अभिमुख जाना, हाथ जोड़ना, नमस्कार करना, उन्हें आसन देना, उनके पैर दबाना इत्यादि उपचार शरीरसे करना कायिकविनय है। आदरणीय शब्दोंसे उनका सत्कार करना वाचिकविनय है और अपने मनमें उनके प्रति अनुराग और श्रद्धाको भाव होना मानसिकविनय है। यह सब प्रत्यक्ष औपचारिकविनय है। गुरु वगैरहके अभावमें भी उनकी आज्ञाका पालन करना, उनके गुणोंका कीर्तन और स्मरण आदि करना परोक्ष औपचारिकविनय है। ४११.प्र०-तपोविनय किसे कहते हैं ? पहले कहे हुए छै आवश्यकोंको नियमपूर्वक करना, परीषहोंको सहना, उत्तरगुणोंमें उत्साहयुक्त होना, अपनेसे जो तपमें अधिक हों उनको विनय करना और जो तपमें लघु हों उनका भी निरादर न करना तपविनय है। ४१२. प्र०~-वैयावृत्यतप किसे कहते हैं ? उ० - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनको कोई रोग हो जाये, इनपर कोई उपसर्ग आ जाये या इनमेंसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ चरणानुयोग-प्रवेशिका किसीका श्रद्धान विचलित होने लगे तो उनके रोगका इलाज करना, उनका संकट दूर करना और उपदेश आदिके द्वारा उनके श्रद्धानको दृढ़ करना वैयावृत्य है। ४१३. प्र.-आचार्य किसे कहते हैं ? उ०—जिनके पास जाकर सब श्रमण व्रताचरण करते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। ४१४. प्र०-उपाध्याय किसे कहते हैं ? उ०—जिनके पास जाकर श्रमणगण शास्त्राभ्यास करते हैं उनको उपाध्याय कहते हैं। ४१५. प्र०-तपस्वी किसे कहते हैं ? उ०-जो श्रमण बहुत व्रत उपवास आदि करते हैं उन्हें तपस्वी कहते हैं। ४१६. प्र०-शैक्ष किसे कहते हैं ? उ०-जो श्रमण शास्त्रका अभ्यास करते हैं उन्हें शैक्ष कहते हैं । ४१७. प्र०-ग्लान किसे कहते हैं ? उ.-रोगी श्रमणोंको ग्लान कहते हैं। ४१८. प्र०-गण किसे कहते हैं ? उ०-वृद्ध श्रमणोंकी परम्पराके साधुओंको गण कहते हैं। ४१९. प्र०-कुल किसे कहते हैं ? उ०-दीक्षा देनेवाले आचार्यको शिष्य परम्पराको कुल कहते हैं। ४२०. प्र०-संघ किसे कहते हैं ? उ०-अनगार, यति, मुनि और ऋषिके भेदसे चार प्रकारके श्रमणोंके समूहको संघ कहते हैं अथवा मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाके समूहको संघ कहते हैं। ४२१. प्र०-साधु किसे कहते हैं ? उ०-बहुत समयके दीक्षित श्रमणको साधु कहते हैं ? ४२२. प्र०-मनोज्ञ किसे कहते हैं ? उ०-लोकपूजित श्रमणको मनोज्ञ कहते हैं। ४२३. प्र०-अनगार किसे कहते हैं ? उ.-सामान्य श्रमणों को अनगार कहते हैं । ४२४. प्र०-यति किसे कहते हैं ? उ०-उपशमश्रेणि या क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ श्रमणोंको यति कहते हैं। ४२५. प्र.--मुनि किसे कहते हैं ? उ०-अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी श्रमणोंको मुनि कहते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ४२६. प्र० - ऋषि किसे कहते हैं ? उ०- ऋद्धिधारी श्रमणों को ऋषि कहते हैं । ४२७. प्र० - ऋषि कितने प्रकारके हैं ? उ०- ऋषि चार प्रकार के होते हैं- राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि । ४२८. प्र० - राजर्षि किसे कहते हैं ? उ० - विक्रियाऋद्धि और अक्षीणऋद्धिके धारी श्रमणों को राजर्षि कहते हैं । ४२९. प्र० - ब्रह्मर्षि किसे कहते हैं ? उ०- बुद्धिऋद्धि और औषधऋद्धिके धारी श्रमणोंको ब्रह्मर्षि कहते हैं । ४३०. प्र० - देवर्ष किसे कहते हैं ? उ०- आकाशगमन ऋद्धिके धारी श्रमणोंको देवर्षि कहते हैं ? ४३१. प्र०— परमर्षि किसे कहते हैं ? - केवलज्ञानियोंको परमर्षि कहते हैं । ४३२. प्र० - ऋद्धि कितने प्रकारकी होती हैं ? -02 ५३ उ०—ऋद्धि आठ प्रकारकी होती हैं - बुद्धिऋद्धि, क्रियाऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, तपऋद्धि, बलऋद्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि और क्षेत्रऋद्धि । ४३३. प्र०- - बुद्धिऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०- बुद्धि कहते हैं ज्ञानको । ज्ञानविषयक ऋद्धिको बुद्धिऋद्धि कहते हैं । ४३४ प्र० - बुद्धिऋद्धिके कितने भेद हैं ? उ०- बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, पदानुसारित्व, संभिन्न श्रोतृत्व, अष्टांगमहानिमित्तता, प्रज्ञा श्रमणत्व, प्रत्येकबुद्धता आदि अट्ठारह भेद हैं ? ४३५. प्र० - बीजबुद्धिऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०- जैसे उत्तम खेत में बोये गये एक बीजसे अनेक बीज उत्पन्न होते हैं वैसे ही ज्ञानावरण कर्मका विशेष क्षयोपशम होनेपर एक बीज पदको लेकर उसके अनेक अर्थोंको जाननेमें कुशल होना बोजबुद्धिऋद्धि है । ४३६. प्र० - कोष्ठबुद्धिऋद्धि किसे कहते हैं ? Jain Educationa International उ०- जैसे कोठे में बहुत सा धान्य बीज परस्पर में रिले मिले बिना सुरक्षित रहता है वैसे ही परोपदेशके द्वारा ग्रहण किये बहुतसे शब्द अर्थ और बीजका बुद्धिमें जैसे तैसा व्यवस्थित रहना कोष्ठबुद्धिऋद्धि है । ४३७. प्र० - पदानुसारित्वऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०- ग्रन्थ के आदि, मध्य अथवा अन्तका एकपद सुनकर समस्त ग्रन्थ व अर्थका अवधारण करना पदानुसारित्व ऋद्धि है । ४३८. प्र० - सम्भिन्नश्रोतृत्वऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०- चक्रवर्तीके बारह योजन लम्बे और नौ योजन चौड़े कटकमें उत्पन्न For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका होनेवाले हाथी, घोड़ा, ऊंट आदिके शब्दोंको तपोविशेषके बलसे अलग-अलग जान लेना संभिन्नश्रोतृत्वऋद्धि है। ४३९. प्र०-अष्टांग-महानिमित्तता ऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०-अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न और स्वप्न ये आठ महानिमित्त हैं जिनसे भूत, भविष्य का शभाशुभ जाना जाता है। इन आठ महानिमित्तोंका ज्ञाता होना अष्टांग-महानिमित्तताऋद्धि है । ४४०. प्र.-अन्तरिक्ष-निमित्त-ज्ञान किसे कहते हैं उ०-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र आदिको देखकर शुभाशुभ फलका जानना अन्तरिक्ष-महानिमित्त-ज्ञान है। ४४१. प्र०-भोम-निमित्तज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-पृथ्वीकी कठोरता, कोमलता, रूक्षता आदि देखकर शुभाशुभ जान लेना और पृथ्वीके अन्दर स्थित सोना-चांदो वगैरहको स्पष्ट जान लेना भौम निमित्त-ज्ञान है। ४४२. प्र०-अंग-निमित्तज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-अंग-उपांग वगैरहको देखकर त्रिकालभावी सुख दुःखको जान लेना अंग निमित्त-ज्ञान है। ४४३. प्र०–स्वरनिमित्तज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-शुभ अथवा अशुभ शब्दको सुनकर इष्ट अनिष्ट फलको जान लेना स्वरनामा निमित्तज्ञान है। ४४४. प्र०-व्यंजन निमित्तज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-सिर, मुख, गर्दन वगैरहमें तिल, लहसुन आदिको देखकर त्रिकाल सम्बन्धी शुभाशुभको जान लेना व्यंजन-निमित्तज्ञान है। ४४५. प्र० - लक्षण-निमित्तज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-शरीरमें श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, कलश, आदि चिह्नोंको देखकर पुरुषके सम्मान, ऐश्वर्य आदिको जान लेना लक्षण-निमित्तज्ञान है। ४४६. प्र०-छिन्न-निमित्तज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-वस्त्र, शस्त्र, छत्र, जूता आदिको किसीके द्वारा काटा फाटा देखकर त्रिकाल सम्बन्धो शुभाशुभको जान लेना छिन्न-निमित्तज्ञान है । ४४७. प्र० -स्वप्न-निमित्तज्ञान किसे कहते हैं ? उ०-वात, पित्त और कफके दोषसे रहित पुरुष रात्रिके पिछले पहरमें चन्द्रमा, सूर्य, पृथ्वी वगैरहको समुद्रके मुखमें प्रवेश करता हुआ देखे तो स्वप्न शुभ सूचक है और अपने शरीरको घो, तेल वगैरहसे लिप्त देखे या अपनेको Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ऊँट, गधे वगैरहपर चढ़ा देखे तो स्वप्न अशुभ सूचक है। ऐसे स्वप्नोंका फल बतलाना स्वप्ननिमित्तज्ञान है। ४४८. प्र०-प्रज्ञाश्रमणत्वऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०-किसोके द्वारा ऐसे सूक्ष्म अर्थका प्रश्न उपस्थित किये जानेपर, जिसे चौदहपूर्वका धारी ही कह सकता है, सन्देह रहित निरूपण करना प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि है। ४४९ प्र०-प्रत्येकबुद्धताऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०-परके उपदेशके बिना अपनी शक्तिविशेषसे ही ज्ञान और संयमके विधानमें निपुण होना प्रत्येकबुद्धताऋद्धि है। ४५०. प्र०-क्रियाऋद्धिके कितने भेद हैं ? उ०-क्रिया विषयक ऋद्धिके दो भेद हैं-आकाशगामित्व और चारण । ४५१. प्र०-आकाशगामित्वऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०—पर्यंकासनसे बैठकर अथवा कायोत्सर्गपूर्वक खड़े होकर, बिना पाद निक्षेप किये, आकाशमें गमन करने में कुशल होना आकाशगामित्वऋद्धि है। ४५२. प्र०-चारणऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०-चारणऋद्धिके अनेक भेद हैं-जलके ऊपर पृथ्वोकी तरह चलना जलचारणऋद्धि है। भूमिसे चार अंगुल ऊपर आकाशमें पैर उठाते रखते हुए सैकड़ों योजन गमन करना जंघाचारणऋद्धि है। इसी तरह तन्तुचारण, पुष्पचारण आदि चारण ऋद्धियाँ होतो हैं । ४५३. प्र०-विक्रियाऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०—विक्रियाऋद्धिके भी अनेक प्रकार हैं- शरीरको छोटा-बड़ा, हल्काभारो, एक-अनेक आदि करना, पृथ्वीपर बैठकर अपनी अंगुलिसे सूर्य, चन्द्रमाको छ लेना, पर्वतमेंसे बिना किसी प्रकारकी रोकके चले जाना, अदश्य हो जाना आदिको सामर्थ्यको विक्रियाऋद्धि कहते हैं । ४५४. प्र०-तपऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०-ऋद्धिके सात भेद हैं। वेला तेला आदि योगको आरम्भ करके मरण पर्यन्त उससे विरत नहीं होना उग्रतपऋद्धि है। महोपवास आदि करने पर भो शक्तिका बढ़ते ही जाना, मुख मेंसे दुर्गन्ध न आना और शरीरकी कान्तिका बढ़ना दोप्ततपऋद्धि है। आहार करते हुए भी नीहार नहीं होना, तप्ततपऋद्धि है। सिंह निकोडित आदि महान् तप करने में तत्पर होना, महातपऋद्धि है। अनेक रोगोंसे पीड़ित होनेपर भी अनशन आदि तपोंको नहीं छोड़ना और भयंकर स्थानोंमें भी निर्भय वास करना घोरतपऋद्धि है। रोगोंसे ग्रस्त होते हुए और अत्यन्त भयंकर स्थानमें रहते हुए भी तपस्याको बढ़ानेमें ही तत्पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका रहना घोर पराक्रमऋद्धि है। ब्रह्मचर्यको धारण करते हुए स्वप्नमें भी दूषण न लगना धोर ब्रह्मचर्यऋद्धि है । ४५५. प्र-बलऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०-मन, वचन और कायके भेदसे बलऋद्धिके तीन प्रकार हैं-अन्तमुहूर्तमें समस्त श्रुतका अर्थ चिन्तन करनेकी शक्तिका होना, मनोबलऋद्धि है। अन्तर्मुहूर्तमें सकल श्रुतका उच्चारण करनेको सामर्थ्य होना वचनबलऋद्धि है। मासिक, चातुर्मासिक, वार्षिक प्रतिमायोग धारण करते हुए भी शरीरका खेदखिन्न न होना कायबलऋद्धि है। ४५६. प्र०-औषधऋद्धि किसे कहते हैं ? उ० -औषधऋद्धिके आठ प्रकार हैं-तपस्वो मुनिके हस्तचरण आदिके स्पर्शसे हो सब रोगोंका दूर हो जाना आमर्षऔषधिऋद्धि है। थूक वगैरहके स्पर्शसे हो रोगोंका मिट जाना क्षेलौषधिऋद्धि है। तपस्वो मुनिके कर्ण आदिके मलका सर्वरोगनाशक हो जाना मलौषधिऋद्धि है। मलमूत्रका औषधरूप हो जाना विडौषधिऋद्धि है। अंग उपांगके स्पर्श हो रोगोंका दूर हो जाना सवौषधिऋद्धि है। तोव विष मिश्रित आहारका भी तपस्वी मुनिके मुखमें जानेपर विष रहित हो जाना अथवा तपस्वो मुनिके वचनोंके प्रभावसे विष उतर जाना आस्याविष ऋद्धि है । तपस्वो मुनिके देखने मात्रसे हो किसो के विषका उतर जाना दृष्टिविषऋद्धि है । ये सब औषध ऋद्धियाँ हैं । ४५७. प्र०-रसऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०-रसऋद्धिके छै भेद हैं--प्रकृष्ट तपस्वी क्रोधमें आकर यदि किसीसे कहे तू मर जा और वह तत्काल विष चढ़कर मर जाये यह आस्यविषरस ऋद्धि है। प्रकृष्ट तपस्वी क्रुद्ध होकर किसीकी ओर देखे और वह विष चढ़कर मर जाये यह दृष्टिविषरसऋद्धि है। प्रकृष्ट तपस्वोके हाथमें रखा हुआ विरस भोजन भो क्षीररसरूप हो जाये अथवा जिनके वचन प्राणियोंको क्षीरकी तरह पुष्टिदायक हों वह क्षीररसऋद्धि है। इसी तरह मध्वास्रवीरसऋद्धि ( मिष्ट रस रूप हो जाये ), घृतास्रवीरसऋद्धि (घृतरसरूप परिणमन करे ) और अमृतास्रवीरसऋद्धि ( अमृतरसरूप परिणमन करे ) जाननो चाहिये। ४५८. प्र०-क्षेत्रऋद्धि किसे कहते हैं ? उ०-क्षेत्रऋद्धिके दो भेद हैं-एक अक्षीण-महानसऋद्धि और एक अक्षीण-महालयऋद्धि । तपस्वी मुनिको जिस बरतनमेंसे भोजन दिया जाये उस बरतनमेंसे यदि चक्रवर्तीको सेनाको भी जिमाया जाये तो उस दिन भोजनको सामग्री नहीं घटे, यह अक्षीण-महानसऋद्धि है। ऋद्धिधारो मुनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका जिस स्थान में बैठे उस स्थानमें बहुत अधिक व्यक्ति भी यदि आकर बैठें तो भी स्थानकी कमी न पड़े यह अक्षीण-महालयऋद्धि है। ४५९ प्र०- स्वाध्याय तप किसे कहते हैं ? उ.-आत्महित करनेवाले शास्त्रोंके अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं। ४६०. प्र०-स्वाध्याय तपके कितने भेद हैं ? उ०-स्वाध्यायके पाँच भेद हैं-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश। ४६१. प्र०-वाचना स्वाध्याय किसे कहते हैं ? उ०-धर्मके इच्छक सुपात्रोंको शास्त्र देना, शास्त्रका अर्थ बतलाना अथवा शास्त्र भी देना और उसका अर्थ भी बतलाना वाचना स्वाध्याय है। ४६२. प्र०-पृच्छना स्वाध्याय किसे कहते हैं ? उ०-संशयको दूर करनेके लिये अथवा ज्ञानविषयका निर्णय करनेके लिये विशिष्ट ज्ञानियोंसे प्रश्न करना पृच्छना है। ४६३. प्र०-अनुप्रेक्षा स्वाध्याय किसे कहते हैं ? उ.-जाने हुए अर्थका बार-बार विचार करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है। ४६४. प्र०-आम्नाय स्वाध्याय किसे कहते है ? उ० - शुद्धतापूर्वक पाठ करना आम्नाय स्वाध्याय है। ४६५. प्र०-धर्मोपदेश स्वाध्याय किसे कहते हैं ? उ०-धर्मकथा करना धर्मोपदेश स्वाध्याय है। ४६६. प्र०-धर्मकथाके कितने भेद हैं ? उ०-धर्मकथाके चार भेद हैं-आक्षेपणो, विक्षेपणो, संवेदनी और निर्वेदनी। ४६७. प्र०-आक्षेपणीकथा किसे कहते हैं ? उ०-स्वमत ( अनेकान्त मत ) का निरूपण करनेवालो कथाको आक्षेपणी कथा कहते हैं। ४६८. प्र०-विक्षेपणोकथा किसे कहते हैं ? उ०-परमतका खण्डन करनेवाली कथाको विक्षेपणोकथा कहते हैं। ४६९. प्र०-संवेदनीकथा किसे कहते हैं ? उ०-पुण्यका फल बतलानेवाली कथाको संवेदनोकथा कहते हैं। ४७०. प्र०-निवेदनीकथा किसे कहते हैं ? उ०-संसारसे वैराग्य उत्पन्न करानेवालो कथाको निर्वेदनोकथा कहते हैं। ४७१ प्र०-व्युत्सर्ग तप किसे कहते हैं ? । उ०-बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहके त्यागको व्युत्सर्ग तप कहते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका इसीसे व्युत्सर्ग के दो भेद हैं-एक बाह्योपधिव्युत्सर्ग और एक अभ्यन्तरोपधि पुत्सर्ग। ४७२. प्र०-व्युत्सर्ग तप कौन करता है ? उ०-जो योगी तीन गुप्तियोंका पालन करता हआ आत्माको शरीरसे भिन्न देखता है और अपने शरीरसे भो निस्पृह है वही व्युत्सर्ग तपको करता है। ४७३. प्र०-अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग किसे कहते हैं ? उ०-वैसे तो क्रोध आदि कषायोंके त्यागको अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग कहते हैं । किन्तु कुछ समयके लिए अथवा जीवन पर्यन्तके लिए कायका त्याग करना भी अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग है। ४७४. प्र०-जीवन पर्यन्त कायत्याग अथवा समाधिमरणके कितने भेद हैं ? उ०-तीन भेद हैं-भक्तप्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण और प्रायोपगमनमरण। ४७५. प्र०-भक्तप्रत्याख्यानमरण किसे कहते हैं ? उ०—जिसमें समाधिकी कामनासे भोजनको त्याग दिया जाता है उसे भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। भक्तप्रत्याख्यानका जघन्यकाल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्टकाल बारह मूहर्त है। ४७६. प्र०-इंगिनीमरण किसे कहते हैं ? उ०-जिस समाधिमरणमें साधु अपनी वैयावृत्य स्वयं तो करता है किन्तु दूसरोंसे नहीं कराता उसे इंगिनोमरण कहते हैं। ४७७. प्र०-प्रायोपगमनमरण किसे कहते हैं ? उ०-जिस समाधिमरणमें मुनि अपनो वैयावृत्य न स्वयं करते हैं और न दूसरोंसे कराते हैं उसे प्रायोपगमन या प्रायोपवेशन कहते हैं। ४७८. प्र०-ध्यान किसे कहते हैं ? ___ उ०-अपने चित्तको वृत्तिको सब ओरसे रोककर एक ही विषयमें लगाना ध्यान है। ४७९. प्र.-ध्यानके कितने भेद हैं ? उ०-ध्यानके दो भेद हैं-अशुभ ध्यान और शुभ ध्यान । अशुभ ध्यानके दो भेद हैं-आर्त और रौद्र तथा शुभ ध्यानके दो भेद हैं-धर्मध्यान और शुक्लध्यान । ४८०. प्र०-आर्तध्यानके कितने भेद हैं ? उ०-आर्तध्यानके चार भेद हैं-अनिष्टसंयोग, इष्ट वियोग, वेदना और निदान। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ४८१. प्र०-अनिष्टसंयोग आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उ०-अप्रिय वस्तुओंका समागम होनेपर उनसे अपना पीछा छुड़ानेके लिए बार-बार चिन्तन करना अनिष्ट संयोग नामका आर्तध्यान है। ४८२. प्र०-इष्टवियोग आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उ.-स्त्री पुत्र आदि प्रिय वस्तुओंका वियोग हो जानेपर उनसे मिलन होनेका बार-बार विचार करना इष्टवियोग आर्तध्यान है । ४८३ प्र०-वेदना आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उ०-वात आदिके विकारसे शरीरमें पीड़ा होनेपर रात-दिन उसोको चिन्ता करना वेदना नामक आर्तध्यान है। ४८४. प्र०-निदान आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उ.-भोगोंकी तृष्णासे पीड़ित होकर रात-दिन आगामो भोगोंको प्राप्त करनेकी ही चिन्ता करते रहना निदान आर्तध्यान है । ४८५. प्र०-आर्तध्यान किसके होता है ? उ०-आर्तध्यान पहले गुणस्थानसे लेकर छठे गुणस्थान तक हो होता है। किन्तु छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके निदान नामका आर्तध्यान नहीं होता । बाकीके तीन आर्तध्यान प्रमादके उदयसे जब कभी हो जाते हैं । ४८६ प्र०-रौद्रध्यान किसे कहते हैं ? उ०-हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और परिग्रहका संचय करने में ही मग्न रहनेसे रौद्रध्यान होता है। ४८७. प्र०-रौद्रध्यान किसके होता है ? उ०-मुनिको रौद्रध्यान नहीं होता। यदि कदाचित् मुनिको भी रौद्रध्यान हो जाये तो उन्हें मुनिपदसे भ्रष्ट समझना चाहिये। ४८८.प्र०-धर्मध्यान किसे कहते हैं ? उ.-धर्मयुक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं। उसके चार भेद हैं-आज्ञा विचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । ४८९. प्र० -आज्ञाविचय धर्म्यध्यान किसे कहते हैं ? उ०-अच्छे उपदेष्टाके न होनेसे, अपनी बुद्धिके मन्द होनेसे और पदार्थके सूक्ष्म होनेसे जब युक्ति और उदाहरणको गति न हो तो ऐसी अवस्थाओंमें सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए आगमको प्रमाण मानकर गहन पदार्थका श्रद्धानकर लेना कि यह ऐसा ही है, आज्ञाविचय है अथवा स्वयं तत्त्वोंका जानकार होते हुए भी दूसरोंको समझाने के लिए युक्ति दृष्टान्त आदिका विचार करते रहना आज्ञाविचय है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ४९०. प्र०-अपायविचय धर्मध्यान किसे कहते हैं ? उ०-जो लोग मोक्षके अभिलाषी होते हुए भी कुमार्गमें पड़े हुए हैं, उनका विचार करना कि वे मिथ्यात्वसे कैसे छूटें अपायविचय है। ४९१. प्र०-विपाकविचय किसे कहते हैं ? उ०-कर्मोके फल का विचार करना विपाकविचय धर्म्यध्यान है। ४९२. प्र०-संस्थानविचय धर्मध्यान किसे कहते हैं ? उ०-लोकके आकार तथा उसकी दशाका विचार करना संस्थानविचय है। ४९३. प्र०-पिण्डस्थध्यान किसे कहते हैं ? उ०-जिसमें पार्थिवी. आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्त्वरूपवतो, इन पाँच धारणाओंका चिन्तन किया जाता है उसे पिण्डस्थध्यान कहते हैं। ४९४. प्र.-पार्थिवी धारणाका क्या स्वरूप है ? उ०—इसमें प्रथम हो योगी एक शान्त क्षीरसमुद्रका ध्यान करता है । फिर उसके मध्यमें एक सहस्रदल कमलका ध्यान करता है। फिर उस कमलके मध्यमें एक कणिकाका चिन्तन करता है। फिर उस कणिकापर एक श्वेत सिंहासनका चिन्तन करता है। फिर उस सिंहासनपर सुखपूर्वक बैठे हुए अपने आत्माका चिन्तन करता है । यह पार्थिवी धारणा है । ४९५. प्र०-आग्नेयो धारणाका क्या स्वरूप है ? उ०-उसके पश्चात् योगी अपने नाभि मण्डलमें सोलह पत्रोंके एक कमलका ध्यान करता है। फिर उस कमलको कणिका पर 'ह' मंत्रका और सोलह पत्रों पर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः इन सोलह अक्षरोंका चिन्तन करता है। फिर 'ह' के रेफसे निकलती हुई धूमका चिन्तन करता है। फिर उसमें से निकलते हुए फुलिंगोंका और फिर ज्वालाको लपटोंका चिन्तन करता है। फिर उस ज्वालासे अपने हृदयमें स्थित कमलको निरन्तर जलता हुआ चिन्तन करता अर्थात् हृदयमें स्थित कमलके आठ पत्र हों और उन आठों पत्रों पर आठकर्म स्थित हों। उस कमलके नाभिमें स्थित कमलकी कर्णिकापर विराजमान 'ह' मंत्रके रेफसे उठी हुई ज्वाला निरन्तर जलातो है ऐसा चिन्तन करता है। उस कमलके भस्म होनेके पश्चात् शरीरके बाहर बड़वानलके समान धधकती हुई त्रिकोण अग्निका चिन्तन करता है । फिर यह अग्निमण्डल उस नाभिमें स्थित कमलको और शरीरको जलाकर धोरे-धीरे शान्त हो जाता है ऐसा चिन्तन करता है । यह आग्नेयो धारणा है । ४९६. प्र०-मारुती धारणा किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ..... उ०-फिर योगो आकाशमें विचरते हुए वेगशाली वायुमण्डलका चिन्तन करता है। फिर ऐसा चिन्तन करता है कि वह वायुमण्डल शरीर वगैरहके भस्मको उड़ाकर शान्त हो गया है यह मारुती धारणा है। .४९७. प्र०-वारुणी धारणाका क्या स्वरूप है ? उ०---फिर वह ध्यानी मेघोंसे भरे हुए आकाशका ध्यान करता है। फिर उनको बरसते हुए विचारता है। फिर जलके प्रवाहसे आकाशको बहाते हुए वरुण मण्डलका चिन्तन करता है। फिर वह विचारता है कि वह वरुणमण्डल शरीरके जलनेसे उत्पन्न हुई समस्त भस्मको धो देता है। यह वारुणो धारणा ४९८. प्र०-तत्त्वरूपवती धारणाका क्या स्वरूप है ? उ०-फिर वह योगो सिंहासनपर विराजमान, देव दानवोंसे पूजित सर्वज्ञके समान अपने आत्माका चिन्तन करता है। फिर आठ कर्मोंसे रहित निर्मल पुरुषाकार अपने आत्मा का चिन्तन करता है। यह तत्त्वरूपवतो धारणा है। ४९९. प्र०-पदस्थध्यान किसे कहते हैं ? उ०—पवित्र मंत्रोंके अक्षररूप पदोंका अवलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है वह पदस्थध्यान है। ५००. प्र०-ध्यानके योग्य मंत्राक्षर कौनसे हैं ? उ.---पंच परमेष्ठीका वाचक पंच नमस्कार मंत्र, 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नमः' यह सोलह अक्षरोंका मंत्र, 'अरहन्त सिद्ध' यह छै अक्षरोंका मंत्र' 'ओं हाँ ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा नमः' पाँच तत्त्वोंसे युक्त यह पञ्चाक्षरो मंत्र, 'अरहन्त' यह चार अक्षरका मंत्र, 'सिद्ध' यह दो अक्षरका मंत्र तथा अन्य भी अनेक मंत्र ध्यानके योग्य हैं। ५०१. प्र०-रूपस्थध्यान किसे कहते हैं ? उ०-जिस ध्यानमें समवसरण आदि महिमासे युक्त अरहन्तके स्वरूपका चिन्तन किया जाता है उसे रूपस्थध्यान कहते हैं। ५०२. प्र० - रूपातीतध्यान किसे कहते हैं ? उ०-जिस ध्यानमें शुद्ध चिदानन्दमय, पुरुषाकार और लोकके अग्रभाग में स्थित आत्माका ध्यान किया जाता है उसे रूपातोतध्यान कहते हैं। ५०३. प्र०-धर्मध्यान किसके होता है ? उ०-चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थानवाले जीवोंके ही धर्मध्यान होता है। ..५०४. प्र० -शुक्लध्यान किसे कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०-कषायरूपी मलका क्षय अथवा उपशम होनेसे वह शुक्लध्यान होता है इसलिए आत्माके शुचि गुणके सम्बन्धसे इसे शुक्लध्यान कहते हैं। ५०५. प्र०-शुक्लध्यानके कितने भेद हैं ? उ०-शुक्लध्यानके चार भेद हैं-पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति । ५०६. प्र०-शुक्लध्यान किसके होते हैं ? उ०-आदिके दो शक्लध्यान तो सकल श्रतके धारक श्रतकेवलीके होते हैं और अन्तके दो शुक्लध्यान सयोगकेवली और अयोगकेवलीके होते हैं। दूसरे रूपसे पहला शुक्लध्यान तीनों योगवाले मुनियोंके होता है; क्योंकि इसमें योग बदलता रहता है। दूसरा शुक्लध्यान किसी एक योगवालेके हो होता है क्योंकि इसमें योग बदलता नहीं है। तीसरा शक्लध्यान काययोग वालेके ही होता है क्योंकि केवल काययोगकी सूक्ष्म क्रिया ही होती है और चौथा शुक्लध्यान अयोगकेवलोके ही होता है क्योंकि इसमें योगोंकी क्रियाका सर्वथा अभाव हो जाता है। ५०७. प्र०-पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान किसे कहते हैं ? उ०-जिस ध्यानमें पृथक्-पृथक् रूपसे वितर्क और वीचार होता है उसको पृथक्त्ववितर्क वोचार शुक्लध्यान कहते हैं। ५०८. प्र०-वितर्क किसे कहते हैं ? । उ.-विशेष रूपसे तर्क अर्थात् विचार करनेको वितर्क कहते हैं । वितर्क नाम श्रुतज्ञानका है। ५०९. प्र०-वीचार किसे कहते हैं ? उ०-ध्यान करते समय ध्यानके विषयका बदलना, वचनका बदलना और योगका बदलना वीचार है। ५१०. प्र०-एकत्ववितर्क शुक्लध्यान किसे कहते हैं ? उ०-जिस ध्यानमें योगो एक द्रव्य, एक अणु अथवा एक पर्यायको एक योगसे चिन्तन करता है अर्थात् जिसमें ध्येय, वचन और योग नहीं बदलता उस पृथक्त्व रहित, वोचार रहित किन्तु वितर्क सहित ध्यानको एकत्ववितर्क शुक्ल. ध्यान कहते हैं। यह शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान पूर्वक ही होता है तथा इसके होनेपर घातियाकर्म क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं। ५११. प्र०-सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यान किसे कहते हैं ? उ.-जब केवली भगवान्को आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है तब वे बादरकाय योगमें स्थिर होकर बादर वचनयोग और बादर मनोयोगको सूक्ष्म करते हैं। फिर वचनयोग और मनोयोगमें स्थित होकर बादर काययोगको सूक्ष्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका करते हैं । फिर सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर वचनयोग और मनयोगका निग्रह करते हैं। तब सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यान करते हैं। ५१२. प्र०-समुच्छिन्न अथवा व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान किसे कहते हैं ? उ०-तीसरे शुक्लध्यानके पश्चात् समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामका चौथा शुक्लध्यान होता है। इसमें श्वासोच्छ्वासका संचार, समस्त मनोयोग, वचन योग, काययोग और समस्त प्रदेशोंका हलन चलन आदि क्रिया रुक जाती है। इसलिये इसे समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति कहते हैं। इसके होनेपर मोक्षके साक्षात् कारण चारित्र, दर्शन और ज्ञान पूर्ण हो जानेसे अयोगकेवलो भगवान् शुद्ध सुवर्णकी तरह निर्मल आत्मरूप होकर निर्वाणको प्राप्त करते हैं । ५१३. प्र०-निर्ग्रन्थ किसे कहते हैं ? उ०-सम्यग्दृष्टि होनेके साथ ही साथ जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहके त्यागो होते हैं उन्हें निर्ग्रन्य कहते हैं। इसोसे दिगम्बर जैन साधु निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। ५१४. प्र०-निर्ग्रन्थके कितने भेद हैं ? उ०-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक इन पाँचोंको निर्ग्रन्थ कहते हैं। ५१५. प्र०-पुलाक मुनि किसे कहते हैं ? उ०-जिन मुनियोंके उत्तर गुणको भावना भी नहीं होती और मूलगुणोंमें भी जो कभी-कभी दोष लगा लेते हैं उन मुनियोंको पुलाक कहते हैं। ५१६. प्र०-पुलाक मुनिको अन्य विशेषताएँ क्या हैं ? उ०-पुलाक मुनिके सामायिक और छेदोपस्थाना चारित्र होता है, कम से कम आचारांगके और अधिकसे अधिक दसपूर्वके ज्ञाता होते हैं। उनके तीन शुभ लेश्याएँ होतो हैं और मरकरके वह अधिकसे अधिक बारहवें स्वर्ग तक जन्म लेते हैं। ५१७ प्र०–बकुश मुनि किसे कहते हैं ? ___ उ०-जिनके मूलगुण तो निर्दोष होते हैं किन्तु जिन्हें अपने शरीर तथा पीछी वगैरह उपकरणोंसे मोह होता है उन्हें बकुश मुनि कहते हैं ? ५१८. प्र०-बकुश मुनिको अन्य विशेषताएं क्या हैं ? उ०-बकुश मुनिके सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र होता है। ये कमसे कम पांच समिति और तीन गुप्तियोंके तथा अधिकसे अधिक दसपूर्वके ज्ञाता होते हैं। उपकरणोंमें आसक्ति होनेसे इनके छहों लेश्याएँ होतो हैं । ये मरकर अधिकसे अधिक सोलहवें स्वर्गतक जन्म लेते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ चरणानुयोग-प्रवेशिका ५१९. प्र०-कुशील मुनि किसे कहते हैं ? उ०-कुशील मुनिके दो भेद हैं-प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील। ५२०. प्र०-प्रतिसेवना कुशील किसे कहते हैं ? उ०-जिनके मूलगुण और उत्तरगुण दोनों पूर्ण होते हैं किन्तु कभी-कभी उत्तर गुणोंमें दोष लग जाता हो उनको प्रतिसेवना कुशील कहते हैं। ५२१. प्र०—प्रतिसेवना कुशील मुनिको अन्य विशेषताएँ क्या हैं ? उ०-प्रतिसेवना कुशील मुनिके सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र होता है। ये कमसे कम पांच समिति और तीन गुप्तियोंके तथा अधिकसे अधिक दसपूर्वके ज्ञाता होते हैं। छहों लेश्याएँ होती हैं और मरकर सोलहवें स्वर्ग तक जन्म लेते हैं। ५२२. प्र०-कषाय कुशील मुनि किसे कहते हैं ? । उ०-जिन्होंने अन्य कषायोंके उदयको तो वश में कर लिया है किन्तु संज्वलनकषायको वशमें नहीं किया है उन मुनियोंको कषाय कुशील कहते हैं । ५२३. प्र०-कषाय कुशीलको अन्य विशेषताएँ क्या हैं ? उ०-कषाय कुशील मुनिके सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपराय चारित्र होते हैं। कमसे कम पांच समिति और तोन गुप्तियोंके और अधिकसे अधिक चौदहपूर्वोके ज्ञाता होते हैं। कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल चार लेश्याएँ होती हैं । मरकर सर्वार्थसिद्धि तक जन्म लेते हैं । ५२४. प्र०-निर्ग्रन्थ मुनि किन्हें कहते हैं ? उ०--जिनके मोहनीय कर्मका तो उदय ही नहीं है और शेष घातिया कर्मोंका भो उदय ऐसा है जैसे जलकी लकोर तथा अन्तर्मुहूर्तके बाद ही जिन्हें केवलज्ञान प्रकट होनेवाला है उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं। ५२५. प्र०—निर्ग्रन्थको अन्य विशेषताएँ क्या हैं ? उ०-निर्ग्रन्थके एक यथाख्यातचारित्र ही होता है। वे कमसे कम पांच समिति और तीन गुप्तियोंके और अधिकसे अधिक चौदहपूर्वोके ज्ञाता होते हैं। उनके एक शुक्ल लेश्या हो होती है। ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ मरकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक जन्म लेते हैं। ५२६. प्र०-स्नातक किसे कहते हैं ? उ०—जिनके घातिया कर्म नष्ट हो गये हैं ऐसे केवलियोंको स्नातक कहते हैं। ५२७. प्र०-स्नातकको अन्य विशेषताएँ क्या है ? उ.-स्नातकके एक यथाख्यातसंयम ही होता है। केवलज्ञानो होनेसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका श्रुताभ्यासका प्रश्न हो नहीं उठता। एक शुक्ललेश्या ही होती है । वह नियमसे मुक्त हो जाते हैं। ५२८. प्र०—पाखण्डी निर्ग्रन्थ कितने प्रकारके होते हैं ? उ०-पाखण्डी निर्ग्रन्थ पांच प्रकारके होते हैं--अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील संसक्त और यथाच्छन्द । ५२९. प्र०—अवसन्न मुनि किसे कहते हैं ? उ०—जिसका चारित्र अशुद्ध है उसे अवसन्न मुनि कहते हैं। अवसन्न मुनि पिछी कमण्डलु आदि उपकरणोंमें आसक्त रहता है, वसति संस्तर आहार वगैरहकी शुद्धि और समितियोंके पालनमें प्रमाद करता है। आवश्यकोंका पालन वचन और कायसे ही करता है, मनसे नहीं करता। ५३०. प्र०—पार्श्वस्थ मुनि किसे कहते हैं ? उ०—जो निरतिचार संयमका पालन नहीं करते उन्हें पार्श्वस्थ मुनि कहते हैं। पार्श्वस्थ मुनि निषिद्ध व्यक्तियोंके यहाँ आहार ग्रहण करते हैं, आहार लेनेसे पहले और पीछे दाताकी प्रशंसा करते हैं, उत्पादन दोष और एषणा दोष सहित आहार लेते हैं, सदा एक ही वसतिकामें रहते हैं और एक ही संथरेपर सोते हैं। गृहस्थोंके घर अपनी बैठक लगाते हैं। गृहस्थोंके उपकरणोंसे शौच आदि क्रिया करते हैं। सूई, कैंची, नख काटनेका अस्त्र, कान का मैल निकालनेका साधन आदिका उपयोग करते हैं। रातमें खूब सोते हैं, संथरा भी बड़ा लगाते हैं, तेल मलवाते हैं, बिना जरूरत हाथ पैर धोते हैं। ५३१. प्र०—कुशील मुनि किसे कहते हैं ? . उ०-कुशील मुनि अनेक प्रकारके होते हैं। जो राजद्वारमें कौतुक दिखाकर लोकप्रिय होनेकी चेष्टा करते हैं, वे कौतुक कुशील हैं। जो अभिमन्त्रित पानी आदिके द्वारा किसीको वशमें करते हैं, वे भूति कुशील हैं। विद्याओंके द्वारा लोंगोंका अनुरंजन करनेवाले प्रसेनिका कुशील कहे जाते हैं । अपनो जाति वगैरह बतलाकर भिक्षा प्राप्त करनेवाले आजीव कुशोल हैं। अनाथशालामें जाकर चिकित्सा करानेवाले भी आजीव कुशील हैं। शाप आदि देनेवाले प्रपातन कुशील हैं। ५३२. प्र०-संसक्त मुनि किसे कहते हैं ? उ.-जो मुनि अवसन्न मुनियोंके संसर्गसे अवसन्न, पार्श्वस्थके संसर्गसे पार्श्वस्थ और कुशीलके संसर्गसे कुशील बन जाते हैं उन मुनियोंको संसक्त मुनि कहते हैं। इनका आचरण नटकी तरह होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ५३३. प्र०-यथाछन्द मुनि किन्हें कहते हैं ? उ०-जो मुनि स्वेच्छानुसार आगम विरुद्ध कथन करते हैं उन्हें यथाच्छन्द मुनि कहते हैं। जैसे उस्तरे और कैंचीसे केश कटाना ठीक है, सचित्त तृणोंपर बैठनेसे भी भूमि शयन मूल गुणका पालन होता है, वसतिकामें ही भोजन करना अच्छा है, क्योंकि भ्रमण करनेसे जीवघात होता है आदि । ५३४. प्र०-आचार्यपद देनेकी क्या पद्धति है ? उ०-गुरुकी आज्ञासे गुरु और साधुओंके सन्मूख, विज्ञान और वैराग्यसे सम्पन्न, विनयी, धर्मशोल साधु, सिद्ध और आचार्यभक्ति करके आचार्य पदवी ग्रहण करता है। ५३५ प्र०-आचार्यके छत्तीस गुण कौनसे हैं ? उ.-आचारवत्त्व आदि आठ, बारह तप, दस स्थितिकल्प और छै आवश्यक ये छत्तीस गुण आचार्यके हैं। ५३६ प्र०-आचारवत्त्व आदि आठ गुण कौनसे हैं ? उ.-आचारी, आधारी, व्यवहारी, प्रकारक, आयापायदर्शी, उत्पीड़क, सुखकारी, अपरिस्रावी ये आठ आचारवत्त्व आदि गुण हैं। ५३७. प्र०–आचारवत्त्व गुण किसे कहते हैं ? । उ०—पाँच प्रकारके आचारका स्वयं निरतिचार आचरण करना, दूसरे साधुओंसे निरतिचार आचरण कराना और सदाचारका उपदेश देना आचारवत्त्व गुण है। ५३८. प्र.-आधारवत्व गुण किसे कहते हैं ? उ०–श्रुतका असाधारण ज्ञान होना आधारवत्त्वगुण है । ५३९. प्र०-व्यवहारवत्त्व गुण किसे कहते हैं ? उ०-प्रायश्चित्तका जानकार होना और प्रायश्चित्त देने में कुशल होना व्यवहारवत्त्व गुण है। ५४०. प्र०-प्रकारवत्त्व गुण किसे कहते हैं ? उ०-समाधिमरण करनेवाले क्षपककी सेवा करनेमें तत्पर होना प्रकारवत्त्व गुण है। ५४१. प्र०-आयापायशित्व गुण किसे कहते हैं ? उ०-अपनी आलोचना करनेवाले क्षपकके गुण और दोषोंको बतलाने में कुशल होना आयापायदर्शित्व गुण है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ चरणानुयोग-प्रवेशिका ५४२. प्र०-उत्पीड़कत्वगुण किसे कहते हैं ? उ०-व्रत वगैरहके छिपे हुए अतिचारोंको बाहर निकालनेको सामर्थ्य होना उत्पीड़कत्व गुण है। ५४३. प्र०-अपरिस्रावित्वगुण किसे कहते हैं ? उ०-अपनी आलोचना करते हुए क्षपकने एकान्तमें यदि अपने कुछ गुप्त दोष कहे हों तो उनको प्रकट न करना अपरिस्रावित्व गुण है। ५४४. प्र०-सुखावहत्त्वगुण किसे कहते हैं ? उ०-कानोंको सुख देनेवाली मनोहरवाणीके द्वारा समाधिमरण करने वालेको पीडाको कम करने में कुशल होना सुखावहत्व गुण है। ५४५. प्र०-स्थितिकल्प कौनसे हैं ? उ०-आचेलक्य, औद्देशिकपिण्ड त्याग, शय्याधरपिण्ड त्याग, राजकीय पिण्ड त्याग, कृतिकर्म, व्रतारोपण योग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मोसैकवासिता और पर्युषण ये दस स्थिति कल्प हैं। ५४६. ३०-आचेलक्य स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-वस्त्र आदि परिग्रहको छोड़कर नग्न रहना आचेलक्य स्थिति कल्प है। ५४७. प्र.-औद्देशिक पिण्डत्याग स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-श्रमणोंके उद्देश्य से बनाये गये भोजन वगैरहको औद्देशिक कहते हैं । औद्देशिकपिण्डका त्याग करना दूसरा स्थितिकल्प है। ५४८. प्र०-शय्याधरपिण्डत्याग स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-जो वसति बनाता है, या दूसरे द्वारा बनवायी हुई वसतिका जीर्णोद्धार कराता है अथवा जो न तो वसति बनाता है और न जीर्णोद्धार कराता है किन्तु केवल बसति देता है उन तीनोंको शय्याधर कहते हैं। उनके आहार, उपकरण वगैरहको ग्रहण न करना तीसरा स्थितिकल्प है। ५४९. प्र०-राजपिण्डत्याग स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-राजा अथवा राजाके समान ऐश्वर्यशाली व्यक्तिके आहार वगैरहको ग्रहण न करना चौथा स्थितिकल्प है। ५५०. प्र०-कृतिकर्म स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०-पूज्य गुरुजनोंकी विनय और सेवा करना पाँचवाँ स्थितिकल्प है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ५५१. प्र० - व्रतारोपण योग्यता स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०- जो व्रत देनेके योग्य हो उसीको व्रत देना चाहिये । यह छठा स्थितिकल्प है अर्थात् जो वस्त्र, राजपिण्ड और उद्दिष्टपिण्डको छोड़ने में तत्पर हो और विनयी हो वही व्रत देने के योग्य होता है । व्रत देनेका क्रम यह है कि गुरुकी उपस्थिति में सामने स्थित आर्यिकाको और श्रावक श्राविकाओंको व्रत देना चाहिये और आचार्यको स्वयं अपने वामदेशमें स्थित साधुको व्रत देना चाहिये । ५५२. प्र० - ज्येष्ठता स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०- चिरकालसे दीक्षित आर्यिकासे भी आजका दीक्षित पुरुष ज्येष्ठ होता है, अतः सब आर्यिकाओंको साधुका विनय करना चाहिए। यह सातवां स्थितिकल्प है । ५५३. प्र० - प्रतिक्रमण स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०- आचेलक्य आदि स्थितिकल्पोंमें स्थित साधुको यदि अतिचार लग जाये तो उसे प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह आठवां स्थितिकल्प है । ५५४. प्र० - मासैकवासिता स्थितिकल्प किसे कहते हैं ? उ०- एक मास ही एक स्थानपर रहना चाहिये, शेष समय में विहार करना चाहिये, यह नवमा स्थितिकल्प है । ५५५. प्र०- -- पर्युषणकल्प किसे कहते हैं ? उ० – वर्षाकालके चार मासों में विहार छोड़कर एक ही स्थानपर रहना पर्युषणकल्प है। ५५६. प्र० - वर्षावासका क्या नियम है ? उ०- उत्सर्ग नियम तो यह है कि वर्षाकालमें एक सौ बीस दिन तक कारणवश इससे कम या साधुको एक ही स्थानपर निवास करना चाहिये । अधिक दिन भी ठहर सकते हैं अर्थात् यदि वृष्टि अधिक हुई हो या अध्ययन करना हो या शरीर अशक्त हो अथवा किसी साधुको वैयावृत्य करना हो तो आषाढ़ शुक्ल दसमीसे आरम्भ करके कार्तिकको पूर्णिमासे आगे भी और तीस दिन तक एक स्थानपर रह सकते हैं और यदि वर्षावासके स्थानपर मारी रोग या दुर्भिक्षका प्रकोप हो जाये जिससे श्रावक लोग वहाँसे भाग जायें या गच्छका नाश होनेके निमित्त उपस्थित हो जायें तो आषाढ़ पूर्णिमा बीतने पर श्रावण बदी चतुर्थी तक दूसरे स्थानपर जा सकते हैं । किन्तु श्रावण कृष्ण चतुर्थी के बाद और कार्तिक शुक्ला पंचमी से पहले प्रयोजन होनेपर भी साधु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका संघको अन्यत्र नहीं जाना चाहिये । यदि अनिवार्य कारणोंसे जाना ही पड़े तो प्रायश्चित्त लेना चाहिये। ५५७. प्र०-एक विहारी मुनि कैसे होने चाहिए ? उ०-जो तपस्वी हों, शास्त्रज्ञ हों, धोरवोर हों, शुभ परिणाम वाले हों, भूख-प्यासकी बाधाको सह सकते हों, ऐसे चिरदीक्षित साधुको ही अकेले विहार करनेकी आज्ञा है। इसके विपरीत जो सोने, बैठने, लेने-देने और भिक्षाचरणमें स्वच्छन्दचारी होते हैं उन्हें एकाकी विहार करनेको आज्ञा नहीं है। ५५८. प्र०–साधुको कैसे गुरुकुलमें नहीं रहना चाहिए? उ०-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच संघके आधार होते हैं । जहाँ ये न हों वहां साधुको नहीं रहना चाहिये । ५५९. प्र.-आचार्य वगैरहका क्या स्वरूप है ? उ०-जो शिष्योंका अनुशासन करनेमें कुशल हो उसे आचार्य कहते हैं। जो धर्मका उपदेश करने में कुशल हो वह उपाध्याय है। चर्या वगैरहके द्वारा संघका जो उपकारक हो वह प्रवर्तक है। जो मर्यादाका रक्षक होता है वह स्थविर है और गणके रक्षकको गणधर कहते हैं । ये पांचों साधु संघके आधार होते हैं। ५६०. प्र०-साधुकी परीक्षाके स्थान कौनसे हैं ? उ०-छै आवश्यक, प्रतिलेखन (पीछेसे किया जानेवाला कार्य), बातचीत, वस्तुका रखना और ग्रहण करना, स्वाध्याय, एकाकी विहार और भिक्षाग्रहण करते समय साधुकी परीक्षा हो जाती है कि साधुका आचार ठीक है या नहीं। ५६१. प्र०-परीक्षासे यदि साधु अयोग्य सिद्ध हो तो क्या करना चाहिए ? उ०-ऐसे साधुको प्रायश्चित्त देकर सुधारना चाहिये। किन्तु यदि वह प्रायश्चित्त लेनेको तैयार न हो तो उसे संघबाह्य कर देना चाहिये । यदि कोई आचार्य ऐसे साधुको भो अपनाता है तो वह भी प्रायश्चित्तका भागी होता है। ५६२. प्र० - साधुको स्त्रियोंके विषयमें कैसी प्रवृत्ति रखनी चाहिए ? उ०-साधारण स्त्रियोंकी तो बात हो क्या, आर्यिकाके साथ भी साधुको ५५६. मूलाचार, सामा०, गा० १४६ । ५६०. मूलाचार, सामा०, गा० १५५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका अकेलेमें बातचीत नहीं करना चाहिये, वह यदि प्रश्न करे तो आर्यिकाओंकी प्रधानको आगे करके उसीके द्वारा प्रश्नोत्तर करना चाहिये। जहाँ आर्यिकाओंका निवास हो वहाँ साधुको स्वाध्याय प्रतिक्रमण वगैरह भी नहीं करना चाहिए, उठने-बैठनेकी तो बात ही दूर है। ५६३. प्र०-आयिकाओंको कैसे रहना चाहिए? उ०-दो तीन आयिकाओंको अपनी गणिनीके साथ मिलजुलकर रहना चाहिये और लज्जा तथा मर्यादाका ध्यान रखकर अपना समय स्वाध्याय तप वगैरहमें बिताना चाहिये। किसीके घर यदि जाना आवश्यक हो तो गणिनीसे पूछकर अन्य आर्यिकाओंके साथ ही जाना चाहिये । भिक्षाके लिये भी एकाकी नहीं जाना चाहिये। घरेलू आरम्भ नहीं करना चाहिये, साधुओंके पैर आदि नहीं धोना चाहिये तथा आचार्यसे पाँच हाथ, उपाध्यायसे छै हाथ और साधसे सात हाथ दूर रह कर हो गवासनसे अर्थात् जैसे गौ बैठती है उसी तरहसे बैठकर हो नमस्कार करना चाहिये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्टके महत्वपूर्ण प्रकाशन 1. जैन तर्कशास्त्रमें अनूमान-विचार ( न्याय ) 2. देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा ( दर्शन ) 3. यूगवीर-निबन्धावली भाग-१ ( संस्कृति) 4. युगवीर-निबन्धावली भाग-२ (संस्कृति ) 5. प्रमाण-नय-निक्षेपप्रकाश ( सिद्धान्त ) 6. लोक-विजय-यन्त्र (ज्योतिष) 7. नयी किरण : नया सवेरा ( धार्मिक लघु उपन्यास ) 8. प्रमाण-परीक्षा (न्यायशास्त्र ) 6. रत्नकरण्डकश्रावकाचार 10. जैनधर्म परिचय (धर्मशास्त्र) 11. आरम्भिक जैनधर्म (धर्मशास्त्र ) 12. करणानुयोग-प्रवेशिका ( सिद्धान्त) 13. द्रव्यानुयोग-प्रवेशिका (सिद्धान्त ) 14. चरणानुयोग-प्रवेशिका ( सिद्धान्त ) 15. महावीर-वाणी (सिद्धान्त-संकलन) 16. मंगलायतनम् (भ० महावीरका संस्कृत-गद्यमें चरित) 17. ऐसे थे हमारे गुरुजी (डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्रीका जीवन-वृत्त) 18. जैनदर्शनका व्यावहारिक पक्ष : अनेकान्तवाद 16. भगवान महावीरका जीवन-वृत्त 20. जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन 21. समाधिमरणोत्साहदीपक (द्वि० सं०) 22. तत्त्वानुशासन (ध्यानशास्त्र ) 23. प्रमेय-कण्ठिका ( न्याय) 24. जैन तत्त्वज्ञान-मीमांसा 25. द्वापरका देवता : अरिष्टनेमि 26. श्रावकाचार 27. आराधनासार सटीक (हिन्दी अनुवाद सहित ) 28. सम्यक्त्व-चिन्तामणि 26. समन्तभद्र-ग्रन्थावली 30. पत्र-परीक्षा 31. पर्याएँ क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी 32. सिद्धान्त-सार 33. ज्ञान-सार 34. भाग्य और पुरुषार्थ : 35. आप्त-मीमांसा-देवाग 36. सज्ज्ञान-चन्द्रिका मिलनेका पता पाररावामान्दरप्टस्ट बी० 32/12 जैन निकेतन, नरिया पो०-बी० एच० यू०, वाराणसी-२२१००५ अप्राप्य 5-00 अप्राप्य 10-00 3-00 12-00 3-50 10-00 अप्राप्य 2-00 1-50 6-00 4-00 8-00 अप्राप्य 10-00 3-00 2-00 1-00 75-00 6-00 अप्राप्य 3-00 50-00 12-00 4-00 10-00 30-00 प्रेसमें 4-50 4-50 4-50 4-00 अप्राप्य 15-00 gyanmandir@kobatirth.org