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चरणानुयोग-प्रवेशिका ५३३. प्र०-यथाछन्द मुनि किन्हें कहते हैं ?
उ०-जो मुनि स्वेच्छानुसार आगम विरुद्ध कथन करते हैं उन्हें यथाच्छन्द मुनि कहते हैं। जैसे उस्तरे और कैंचीसे केश कटाना ठीक है, सचित्त तृणोंपर बैठनेसे भी भूमि शयन मूल गुणका पालन होता है, वसतिकामें ही भोजन करना अच्छा है, क्योंकि भ्रमण करनेसे जीवघात होता है आदि ।
५३४. प्र०-आचार्यपद देनेकी क्या पद्धति है ?
उ०-गुरुकी आज्ञासे गुरु और साधुओंके सन्मूख, विज्ञान और वैराग्यसे सम्पन्न, विनयी, धर्मशोल साधु, सिद्ध और आचार्यभक्ति करके आचार्य पदवी ग्रहण करता है।
५३५ प्र०-आचार्यके छत्तीस गुण कौनसे हैं ?
उ.-आचारवत्त्व आदि आठ, बारह तप, दस स्थितिकल्प और छै आवश्यक ये छत्तीस गुण आचार्यके हैं।
५३६ प्र०-आचारवत्त्व आदि आठ गुण कौनसे हैं ?
उ.-आचारी, आधारी, व्यवहारी, प्रकारक, आयापायदर्शी, उत्पीड़क, सुखकारी, अपरिस्रावी ये आठ आचारवत्त्व आदि गुण हैं।
५३७. प्र०–आचारवत्त्व गुण किसे कहते हैं ? ।
उ०—पाँच प्रकारके आचारका स्वयं निरतिचार आचरण करना, दूसरे साधुओंसे निरतिचार आचरण कराना और सदाचारका उपदेश देना आचारवत्त्व गुण है।
५३८. प्र.-आधारवत्व गुण किसे कहते हैं ? उ०–श्रुतका असाधारण ज्ञान होना आधारवत्त्वगुण है । ५३९. प्र०-व्यवहारवत्त्व गुण किसे कहते हैं ?
उ०-प्रायश्चित्तका जानकार होना और प्रायश्चित्त देने में कुशल होना व्यवहारवत्त्व गुण है।
५४०. प्र०-प्रकारवत्त्व गुण किसे कहते हैं ?
उ०-समाधिमरण करनेवाले क्षपककी सेवा करनेमें तत्पर होना प्रकारवत्त्व गुण है।
५४१. प्र०-आयापायशित्व गुण किसे कहते हैं ?
उ०-अपनी आलोचना करनेवाले क्षपकके गुण और दोषोंको बतलाने में कुशल होना आयापायदर्शित्व गुण है।
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