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चरणानुयोग-प्रवेशिका ३०३. प्र०-प्रतिष्ठापनशुद्धि किसे कहते हैं ?
उ०-देश कालको जानकर मलमूत्र आदिका ऐसे प्रासुक स्थान पर त्यागना जहाँ किसी जीवको कष्ट न पहुँचे तथा मार्गमें आने-जानेवालोंको बुरा न लगे, प्रतिष्ठापन शुद्धि है। - ३०४. प्र०-शयनासनशुद्धि किसे कहते हैं ?
उ०-जहाँ स्त्रियोंका आना-जाना हो, चोर, शराबी, शिकारी, शृंगारी और विलासी पुरुष रहते हों, वेश्या नृत्य होता हो ऐसे स्थानोंको दूर होसे छोड़कर अकृत्रिम गुफा, वृक्षोंके कोटर तथा शून्य मकानोंमें अथवा वनोंमें निर्दोष स्थान पर साधुका सोना तथा आसन लगाना शयनासन शुद्धि है।
३०५. प्र०-वाक्यशुद्धि किसे कहते हैं ?
उ०—जो वचन छह कायके जीवोंकी विराधनाको प्रेरणा न देनेवाला हो, कठोर न हो, दूसरों को पीड़ादायक न हो, व्रतशील वगैरहके उपदेशको लिये हुए हो, हितमित और मनोहर हो, संयमीके योग्य हो, ऐसे वचनका बोलना वाक्यशुद्धि है।
३०६.प्र०-तपधर्म किसे कहते हैं ?
उ०-कर्मोका क्षय करने के लिये जो तपस्या की जाती है उसे तपधर्म कहते हैं।
३०७. प्र०-त्यागधर्म किसे कहते हैं ? । उ०—परिग्रहकी निवृत्तिको त्यागधर्म कहते हैं। ३०८. प्र०-शौचधर्म और त्यागधर्म में क्या अन्तर है ?
उ०-पासमें परिग्रहके नहीं होते हुए भी जो परिग्रहकी तृष्णा होती है उसको निवृत्तिका नाम शौचधर्म है और प्राप्त परिग्रह का त्यागना त्यागधर्म है।
३०९. प्र०-आकिंचन्यधर्म किसे कहते हैं ? ' उ०—शरीर वगैरहमें भी 'यह मेरा है' इस प्रकारका अभिप्राय न होना आकिंचन्यधर्म है।
३१०. प्र०-ब्रह्मचर्य धर्म किसे कहते हैं ?
उ०-स्त्री की भावनासे रहित होकर ब्रह्म अर्थात् स्वात्मामें लीन रहना ब्रह्मचर्य है।
३११ प्र०--अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उ०—संसार शरीर वगैरहके स्वरूपका बारम्बार विचार करना अनुप्रेक्षा है।
३१२. प्र०-अनुप्रेक्षाके कितने भेद हैं ?
उ०--अनुप्रेक्षाके बारह भेद हैं- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ।
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