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________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका न मनमें संकल्प करे, न वचनसे ही संकल्प करे और न हाथ वगैरहके संकेतसे ही संकल्प करे। ४७. प्र०-दो प्रकारको हिंसामेंसे गृहस्थको कौन-सी हिसा छोड़ना आवश्यक है ? उ०-गृहस्थाश्रम बिना आरम्भ किये नहीं चलता। और बिना हिंसाके आरम्भ नहीं होता। अतः गृहस्थको संकल्पी हिंसा तो छोड़ ही देनी चाहिए और आरम्भी हिंसामें भी सावधानी बरतनी चाहिए। ४८. प्र०-अहिंसाणुव्रतका पूरी तरहसे पालन कौन कर सकता है ? उ०--जो गृहस्थ सन्तोषी होता है और अल्प आरम्भ करता है और अल्प परिग्रहो होता है वहो अहिंसाणुव्रतका पूरी तरहसे पालन कर सकता है । ४९. प्र०--सत्याणुव्रत किसे कहते हैं ? उ०-स्थूल असत्यका न स्वयं बोलना और न दूसरेसे बुलवाना तथा यदि सत्य बोलनेसे अपने या दूसरेके प्राणोंपर संकट आता हो तो सत्य भी न बोलना इसे सत्याणुव्रत कहते हैं। ५०. प्र०--स्थूल असत्य किसे कहते हैं ? उ०—जिससे घर बरबाद हो जाए या गाँव उजड़ जाए ऐसे असत्यको स्थूल असत्य कहते हैं । सत्याणुव्रतो ऐसा असत्य नहीं बोलता। ५१. प्र०--आपत्ति में सत्य न बोलनेकी छट क्यों है ? उ०-प्रधान व्रत अहिंसा है। बाकीके चार व्रत तो उसीको रक्षाके लिए बाड़के तुल्य हैं। अतः जिस सत्य वचनसे अहिंसाका रक्षण न होकर धात होता हो वह सत्य वचन भी त्याज्य है। ५२. प्र०-तब तो अहिंसाणुव्रती शासक नहीं हो सकता क्या ? __उ०-अहिंसाणुव्रती ही अच्छा शासक हो सकता है क्योंकि वह शत्रु और मित्र दोनोंको अपराधके अनुसार समान रूपसे दण्ड देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है। निरपराधीको दण्ड देना भी उतना हो बुरा है जितना अपराधीको दण्ड न देना । दण्डका उद्देश्य सुधार है पोड़न नहों। ५३. प्र०-अचोर्याणवत किसे कहते हैं ? उ.-रखी हुई, गिरो हुई या भूलो हुई पराई वस्तुको न स्वयं लेना और न उठाकर दूसरेको देना अचौर्याणुव्रत है। ५४. प्र०-ब्रह्मचर्याणवत किसे कहते हैं ? उ.-पापके भयसे पराई स्त्री और वेश्याका न तो स्वयं सेवन करना और न दूसरोंसे सेवन कराना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसका दूसरा नाम स्वदार सन्तोष भी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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